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जैन पूजांजलि ज्ञानदीप की शिखा प्रज्ज्वलित होते ही प्रम दूर हुआ ।
सम्यक दर्शन की महिमा से गिरि मिथ्यातम चूर हुमा ।। हुए एक सौ तीन सुगणधर पहिले वज्रनाभि गणधर । मुख्य आर्यिका श्री मेरुषेणा, श्रोता थे सुर मुनिवर ।।२।। नाथ कर्म सिद्धान्त आपका है अकाट्य अनुपम आगम । कर्म शुभाशुभ भव निर्माता कर्ता भोक्ता जीव स्वयम् ॥३॥ प्रकृति कर्म की मूल आठ हैं सभी अचेतन जड़ पुद्गल । इनमे सयोगी भावो से होता आया जीव विकल ।।४।। यदि पुरुषार्थ करे यह चेतन निज स्वरूप का लक्ष करे ।। ज्ञाता दृष्टा बनकर इनका सर्वनाश प्रत्यक्ष करे ॥५॥ प्रकृति द्रव्य पुण्यों की अडसठ द्रव्य पाप की एक शतक । प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की बीस उभय सूचक ॥६॥ कर्म घाति की सैंतालिस हैं एक शतक इक अघाति की । ये सब है कार्माण वर्गणा महामोक्ष के घातकी ॥७॥ ज्ञानावरणी की पाँच प्रकृति हैं दर्शनआवरणी की नो । मोहनीय की अट्ठाइस हैं अन्तराय की पाँच गिनों ॥८॥ घाति कर्म की ये सैंतालिस निज स्वभाव का घात करे । इन चारो का नाश करे जो वही ज्ञान कैवल्य वरें ।।९।। वेदनीय दो, आयु चार हैं, गोत्र कर्म की तो हैं दो । नामकर्म की तिरानवे हैं एक शतक अरु एक गिनों ।।१०।। इनमे से सोलह अघाति की घाति कर्म सग जाती है। शेष रही पच्चासी पर वे अति निर्बल हो जाती है ।।११।। इनका होता नाश चतुर्दश गुणस्थान में है सम्पूर्ण । शुद्ध सिद्ध पर्याय प्रकट हो सादि अनन्त सुखों से पूर्ण ॥१२॥ मुझको प्रभु आशीर्वाद दो मैं अब भव का नाश करूँ। सम्यक पूजन का फल पाऊ कर्मनाश शिव वास करूँ ॥१३॥ कर्म प्रकृतियाँ एक शतक अरु अड़तालीस अभाव करें। मैं लोकाग्र शिखर पर जाकर सिद्ध स्वरुप स्वभाव करूँ In४||
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