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श्री चतुविशति सोचकर स्तुति पर परिणति दुर्मति से भाग विमा हुमा हूँ। निज परिणति के रथ पर मैं आरुढ मा ।।
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• श्री चतुर्विशति तीर्थकर विधान जैन आगम में पूजा विधान करने की परम्परा प्रचलित है । प्रत्येक श्रावक को छः आवश्यक क्रियाओ में जिनेन्द्र पूजा को प्रथम स्थान प्राप्त है । सच्ची पूजा से तात्पर्य पंचपरमेष्ठी भगवन्तो के गुणानुवाद के साथ ही पूजक की यह भावना रहती है कि वह भी पचपरमेष्ठी के समस्त गुणो को प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करे। सांसारिक प्रयोजनो के लिए की गई पूजा कार्यकारी नहीं है परन्तु जिनेन्द्र पूजन के समय जीव के परिणाम तीव्र कषाय से हटकर मन्द कषाय रुप हो जाते हैं। अतः परिणामों के अनुसार उसे अवश्य ही पुण्य का बन्ध होता है जो परम्परा मोक्ष का कारण बन सकता है। विधान महोत्सव भी पूजन का एक बड़ा रूप है। वर्तमान में सिद्ध चक्र मडल, इन्द्रध्वज मडल विधान, गणधर वलय विधान, पचकल्याणक, सोलहकारण, पच परमेष्ठी, दशलक्षण-विधान आदि प्रचलित हैं । श्रावको द्वारा विभित्र अवसरो पर इस तरह का विधान करने की परम्परा प्रचलित है। इसी श्रृंखला में आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण "नव-देव पूजन, “पचपरमेष्ठी पूजन" "वर्तमान चौबीस तीर्थंकरो की पूजन" के साथ "तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र एव "चौबीस तीर्थंकरो के समस्त गणधरो की" "गणधर वलय" पूजनें भी हैं । इसे प्रत्येक श्रद्धालु श्रावक कभी भी अनवरत रुप से अथवा सुविधानुसार एक से अधिक दिवसो मे सम्पन्न कर सकते हैं। इसकी स्थापना विधि अन्य विधानो की तरह है । इस सग्रह के प्रारम्भ में सामान्य पूजन स्थापना विधि दी गई है वैसे ही विधान की स्थापना करना चाहिए एव विधान समाप्ति के बाद इस सग्रह के अन्त मे महाअर्घ एव शांति पाठ आदि दिया है उसे पढ़कर विधान पूर्ण करे । इसके अतिरिक्त अनेक बन्धओ, माताओ बहनो द्वारा चौबीस तीर्थकरो के पचकल्याणको की तिथियो में तीर्थकर की विशेष पूजन, व्रतउपवास आदि करने की परम्परा है । उनके लिए भी यह विधान अत्यन्त उपयोगी होगा। तीर्थकर पचकल्याणक तिथि दर्पण भी प्रारम्भ मे दिया गया है।
श्री चतुर्विशति तीर्थंकर स्तुति जय ऋषभदेव जिनेन्द्र जय, जय अजित प्रभु अभयंकरम् । जय नाथ सम्भव भव विनाशक, जयतु अभिनन्दन परम् ।।१।।