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जैन पूजांजलि प्राण मेरे तरसते हैं कब मुझे समकित मिलेगा ।
कब स्वय से प्रीत होगी कम मुझे निज पद मिलेगा ।। द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक देहादिक नोकर्म विहीन । भाव कर्म रागादिक से मैं पृथक आत्मा ज्ञान प्रवीण । । शासन वीर जयन्ती पर मैं धूप चढा निजध्यान कसें । खिरी. ॥७॥ ॐही श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूप नि. । कर्म मल रहित शुद्ध ज्ञानमय, परममोक्ष है मेरा धाम । भेद ज्ञान को महाशक्ति, से पागा अनन्त विश्राम ।। शासन वीरजयन्ती पर फला चढा निजध्यान करूं । । खिरी ॥८॥ ॐ ही श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फल नि ।। मात्र वासनाजन्य कल्पना है पर द्रव्यो में सख बद्धि । इन्द्रियजन्य सुखो के पीछे पाई किंचित नहीं विशुद्धि । शासन वीर जयन्ती पर मैं अर्घ चढा निजध्यान करूँ ॥खिरी ।।९।। ॐ ह्री श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला विपुलाचल के गगन को वन्दू बारम्बार ।
सन्मति प्रभु की दिव्यध्वनि जहाँ हुई साकार ॥१॥ महावीर प्रभु दीक्षा लेकर मौन हुए तप सयम धार । परिषह उपसगों को जय कर देश-देश मे किया विहार ॥२॥ द्वादश वर्ष तपस्या करके ऋजु कूला सरि तट आये । क्षपक श्रेणि चढ शुक्ल ध्यान से कर्मघातिया बिनसाये ॥३।। स्व पर प्रकाशक परम ज्योतिमय प्रभु को केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादिक को समवशरण रच मन मे हर्ष महान हुआ ॥४॥ बारह सभा जुडी अतिसुन्दर, सबके मन का कमल खिला । जन मानस को प्रभु की दिव्य ध्वनि का, किन्तु न लाभ मिला ।।५।। छ्यासठ दिन तक रहे मौन प्रभु, दिव्यध्वनि का मिला न योग ।। अपने आप स्वय मिलता है, निमित्त नैमित्तिक सयोग ।।६।।