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श्री रक्षाबन्धमपर्व पूजन अंतरंग बहिरंग मानव से विरक्ति ही संबम है।
सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो संवर हे सयम है ।। ही मी विष्णुकुमार एवं अकम्पनामादि सप्तसतक मुकिय सन्दर्भ नि । अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूँ अर्पण । हिंसादिक पापों को क्षय कर निजपरणति में करूँ रमण | श्री.॥३॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्या दिसप्तसतक मुनिभ्य अक्षतं नि । कामवाण विध्वस हेतु मैं सहज पुष्य करता अर्पण । क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परणति में करूँ रमण ॥ श्री. Iml ॐ ही की विष्णुकुमार एव अकम्पनाचादिसप्तशतकमुनिभ्य पुष्प नि । क्षुधारोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण । विषयभोग की आकाक्षा हर निज परणति में करूँ रमण श्री. ।।५।।
ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिश्य, नैवेद्य नि । चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीपज्योति करता अर्पण । सम्यक्दर्शन का प्रकाश पा निज परणति मे करूँ रमण ||श्री ॥६॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्य नि दीपं । अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण । सम्यक्ज्ञान हृदय प्रगटाऊनिज परणति मे करूँ रमण । श्री ॥७॥ ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य नि धूप । मुक्ति प्राप्ति हतु उत्तम फल चरणों मे करता हूँ अर्पण । मै सम्यक चारित्र प्राप्तकर निज परणति मे करूँ रमण श्री ॥८॥ ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य फल नि । शाश्वत पद अनर्घ पाने को उत्तम अर्घ करूँ अर्पण । रत्नत्रय की तरणी खेऊनिज परणति मे करूँ रमण । श्री ॥९।। ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य अनर्षपद प्राप्ताय अयं नि
जयमाला वात्सल्य के अग की महिमा अपरम्पार । विष्णुकुमार मुनीन्द्र की गूंजी जय जयकार
॥१॥