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जैन पूजांजलि नर से अर्हन्त सिद्ध हो त्रलोक्य पूज्य अविनाशी ।
ससार विजेता होगा जिसने निज ज्योति प्रकाशी ।। शुद्ध स्वानुभव के अति उत्तम प्रभु नैवेद्यप्राप्त करतूं । अमलअतीन्द्रियनिज स्वभाव सेदुखमय क्षुधाव्याधिहरा ॥ श्रुत ।।५।। ॐ ह्रीं श्री परमात बट् खण्डागमाय सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । शुद्ध स्वानुभव के प्रकाशमय दीप प्रज्वलित मैं करलें । पोहतिमिर अज्ञान नाश करनिज कैवल्य ज्योति वरलें ॥श्रत. ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री परमश्रुत षट् खण्डगमाय अज्ञानाधकारविनाशनाय दीपंनि ।। शुद्ध स्वानुभव गन्ध सुरभिमय ध्यान धूप उर में भरा । सवर सहित निर्जरा बरा मैं वसु कर्म नष्ट करा श्रुत. ॥७॥ ॐ ही श्री परमश्रुत षट्खण्डागमाय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । शुद्ध स्वानुभव का फल पाऊ मैं लोकाग्र शिखर वर लें । अजर अमर अविकल अविनाशी पदनिर्वाण प्राप्त करनू ।। श्रुत ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री परमश्रुत षट् खण्डागमाय महा मोक्षफल प्राप्तये फल नि । शुद्ध स्वानुभव दिव्य अर्घ ले रत्नत्रय सुपूर्ण करलें । भव समुद्र को पार करुं प्रभु निज अनर्थ पद मैं वरलूँ । । श्रुत ॥९॥ ॐ ह्री श्री परमश्रुत षट् खण्डागमाय अनर्धपदप्राप्तये अयं नि ।
जयमाला श्रत पचमी पर्व अति पावन है भूत के अवतार का । गूजा जय जयकार जगत् मे जिन श्रुत जय जयकार का ॥१॥ ऋषभदेव की दिव्य ध्वनि का लाभ पूर्ण मिलता रहा । महावीर तक जिनवाणी का विमल वृक्ष खिलता रहा ॥२॥ हुए केवली अरु श्रुतकेवलि ज्ञान अमर फलता रहा । फिर आचार्यों के द्वारा यह ज्ञान दीप जलता रहा ॥३॥ भव्यो मे अनुराग जगाता मुक्ति वधू के प्यार का । श्रुत पचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का । गुरु परम्परा से जिनवाणी निर्झर सी झरती रही । मुमुक्षओं को परम मोक्ष का पथ प्रशस्त करती रही ॥५॥