________________
१४८
-
जैन पूजांजलि मिथ्यात्व मोह श्रम स्यागी रे प्राणी ।
सम्यक्त्व सूर्य आगोरे प्राणी । । दानधर्म की गौरव गाथा का प्रतीक है यह त्यौहार । दान धर्म का शुभ प्रेरक है सदा दान की जय जयकार ३
आदिनाथ ने अर्थ वर्ष तक किये तपस्य मय उपवास । मिली न विधि फिर अन्तराय होते होते बीते छ: मास ४॥ मुनि आहार दान देने की विधि थी नहीं किसी को ज्ञात । मौन साधना मे तन्मय हो प्रभु विहार करते प्रख्यात ॥५॥ नगर हस्तिनापुर के अधिपति सोम और श्रेयास सुभात । ऋषभदवे के दर्शन कर कृत कृत्य हए पुलकित अभिजात ।। श्रेयास को पूर्व जन्म का स्मरण हुआ तत्क्षण विधिकार ।। विधिपूर्वक पड़गाहा प्रभु को दिया इा रस का आहार ॥७॥ पचाश्चर्य हुए प्रागण मे हुआ गगन में जय जयकार । धन्य धन्य श्रेयास दान का तीर्थ चलाया मगलकार ॥८॥ दान पुण्य की यह परम्परा हुई जगत में शुभ प्रारम्भ । हो निष्काम भावना सुन्दर मन से लेश न हो कुछ दम्भ ॥९॥ चार भेद हैं दान धर्म के औषधि शास्त्र अभय आहार । हम सुपात्र को योग्य दान दे बने जगत मे परम उदार ॥१०॥ धन वैभव तो नाशवान है अत करे जी भरके दान । इस जीवन मे दान कार्यकर करें स्वयं अपना कल्याण ॥११॥ अक्षयतृतीया के महत्व को यदि निज मे प्रगटायेगे । निश्चित ऐसा दिन आयेगा हम अक्षयफल पायेंगे ॥१२॥ हे प्रभु आदिनाथ मंगलमय हमको भी ऐसा वर दो । सम्यक्ज्ञान महान सूर्य का अन्तर में प्रकाश कर दो ॥१३॥ ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्थ पद प्राप्ताय पूर्णाभ्यं नि ।
अक्षयतृतीया पर्व की महिमा अपरम्पार । त्याग धर्म जो साधते हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः ।