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श्री दीपमालिका पूजन पाप पुण्य तज जो निजात्मा को ध्याता है ।
वही जीव परिपूर्ण मोक्ष सुख विलसाता है । इन्द्राद्रिक सुर आये हर्षित मन मे धारे मोद अपार । महामोक्ष कल्याण मनाया अखिल विश्व ने मंगलकार ॥५॥ अष्टादश गणराज्यों के राजाओ ने जयगान किया । नत मस्तक होकर जन जन ने महावीर का गुणगान किया ॥६॥ तन कपूरवत उद्धा शेष नख केश रहे इस भूतल पर । मायामयी शरीर रचादेवों ने क्षण भर के भीतर ॥७॥ अग्निकुमार सुरो ने झुक मुकुटानल से तन भस्म किया । सर्व' उपस्थित जन समूह सुरगण ने पुण्य अपार लिया ॥८॥ कार्तिक कृष्ण अमावस्या का दिवस मनोहर सुखकर था । उषाकाल का उजियारा कुछ तम मिश्रित अति मनहर था ॥९॥ रत्न ज्योतियों का प्रकाश कर देवो ने मगल गाये । रत्नदीप की आवलियों से पर्व दीपमाला लाये ॥१०॥ सबने शीश चढाई भस्मी पा सरोवर बना वहाँ।। वही भूमि है अनुपम सुन्दर जल मन्दिर है बना जहाँ ।।११।। इसी दिवस गौतमस्वामी को सन्ध्या केवलज्ञान हुआ । केवलज्ञान लक्ष्मी पाई पद सर्वज्ञ महान हुआ ।।१२।। प्रभु के ग्यारह गणधर मे थे प्रमुख श्री गौतमस्वामी । क्षपक श्रेणि चढ शुक्ल ध्यान से हुए देव अन्तर्यामी ।।१३।। दवे ने अति हर्षित होकर रत्न ज्योति का किया प्रकाश ।। हुई दीपमाला द्विगुणित आनन्द हुआ छाया उल्लास ।।१४।। प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर हो जाता मन अति पावन । परम पूज्य निर्वाण भूमि शुभ पावापुर है मन भावन ॥१५॥ अखिल जगत में दीपावलि त्यौहार मनाया जाता है । महावीर निर्वाण महोत्सव धूम मचाता आता है ॥१६॥ हे प्रभु महावीर जिन स्वामी गुण अनन्त के हो धामी । भरत क्षेत्र के अन्तिम तीर्थकर जिनराज विश्वनामी ॥१७॥