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जैन पूजांजलि पूर्णा नन्द स्वरूप स्वयं तु निज स्वरुप का कर विश्वास ।
ज्ञान चेतना में ही बसजा कर्म चेतना का कर नाश ।। मगसिर कृष्णा दशमी को उर में छाया वैराग्य अपार । लौकान्तिक देवों के द्वारा किया धन्य धन्य प्रभु जय जयकार ।। बाल ब्रम्हचारी गुणधारी वीर प्रभु ने किया प्रयाण । बन मे जाकर दीक्षाधारी निज मे लीन हुये भगवान ॥३॥ ॐ ही मगसिर कृष्ण दशम्या तपोमंगल श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि । द्वादश वर्ष तपस्या करके पाया तुमने केवलज्ञान । कर वैशाख शुक्ल दशमी को वेसठ कर्म प्रकृति अवसान ।। सर्व द्रव्य गुण पर्यायो को युगपत एक समय मे जान । वर्धमान सर्वज्ञ हुए प्रभु वीतराग अरिहन्त महान ॥४॥ ॐ ही वैशाख शुक्ल दशम्या केवलज्ञान प्राप्त श्रीवर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को वर्धमान प्रभु मुक्त हुए । सादि अनन्त समाधि प्राप्त कर मुक्ति रमा से युक्त हुए । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वरा कर अघातिया का अवसान । शेष प्रकृति पच्चासी को भी क्षय करके पाया निर्वाण ।।५।। ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्ष मगलप्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि।
जयमाला महावीर ने पावापुर से मोक्ष लक्ष्मी पाई थी । इन्द्रसुरो ने हर्षित होकर दीपावली मनाई थी ॥१॥ केवलज्ञात प्राप्त होने पर तीस वर्ष तक किया विहार ।। कोटि कोटि जीवो का प्रभु ने दे उपदेश किया उपकार ॥२॥ पावापुर उद्यान पधारे योग निरोध किया साकार । गुणस्थान चौदह को तज कर पहुचे भव समुद्र के पार ॥३॥ सिद्धशिला पर हुए विराजित मिली मोक्षलक्ष्मी सुखकार । जल थल नभ मे देवो द्वारा गूज उठी प्रभु की जयकार ।।४।।