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जैन पूजांजलि अगर जगत में सुख होता तो तीर्थकर क्यों इसको तजते ।
पुण्यों का आनन्द छोडकर निज स्वभाव चेतन क्यों भजते ।। पशु बलि, जन बलि, यज्ञों में होती थी जब अति भारी । "स्त्री शौद्रनाधीयताम्' का आधिपत्य था भारी || जगती तल पर होता था हिंसा का ताडव नर्तन । उत्पीडित विश्व हुआ लख पापों का भीषण गर्जन ५॥ जब-जग ने त्राहि त्राहि की अरु पृथ्वी काँपी थर थर ।। तब दिव्य ज्योति दिखलाई आशा के नभ मण्डल पर ।।६।। भारत के स्वर्ण सदन में अवतरित हुए करुणामय ।। श्री वीर दिवाकर प्रगटे तब विश्व हुआ ज्योतिर्मय ।।७।। आगमन वीर का लखकर सन्तुष्ट हुआ जग सारा । अन्यायी हुए प्रकम्पित पायो का तजा सहारा ॥८॥ पतितो दलितो दीनो को तब प्रभु ने शीघ्र उठाया । अरु दिव्य अलौकिक अनुपम जग को सन्देश सुनाया ।।९।। पापी को गले लगाना पर घृणा पाप से करना ।। प्रभु ने शुभ धर्म बताया दुख कष्ट विश्व के हरना ।।१०।। ये पुण्य पाप की छाया ही जग मे सदा भ्रमाती । पर द्रव्यो की ममता ही चारो गति मे अटकाती ॥११॥ अब मोह ममत्व विनाशो समकित निज उर मे लाओ । तप सयम धारण करके निर्वाण परम पद पाओ ॥१२॥ हे धर्म अहिंसामय ही रागादिक भाव है हिंसा । रत्नत्रय सफल तभी है उर मे हो पूर्ण अहिंसा ।।१३।। निज के स्वरूप को देखो निज का ही लो अवलम्बन । निज के स्वभाव से निश्चित कट जायेगे भव बन्धन ।।१४।। है जीव समान सभी ही एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय । हैं शुद्ध सिद्ध निश्चय से चैतन्य स्वरुप अनिन्द्रिय ॥१५॥ "केवलि पण्णतं धम्मं शरण पव्वज्जामी' से। जग हा मधुर गुजारित प्रभु की निर्मल वाणी से ॥१६॥