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जैन पूजांजलि जो निश्चय को भूले भटके भी न कभी अपनाते हैं। मोह, राग, द्वेषादि भाव से निज को जान न पाते हैं ।।
जयमाला ऋषभ देव जिनराज को नित प्रति करूँ प्रणाम । भाव सहित पूजन करु पाऊ निज ध्रुवधाम ॥१॥ भोग भूमि का अन्त हुआ जब कल्पवृक्ष सब हुए विलीन । ज्योति मद होते ही नभ मे दष्टित रवि शशि हए प्रवीण ।।। चौदह कुलकर हुए जिन्हो से कर्म भूमि प्रारम्भ हुई । अन्तिम कुलकर नाभिराय से नई दिशा आरम्भ हुई ॥३॥ तृतीय काल के अन्त समय मे भरत क्षेत्र को धन्य किया । सर्वार्थसिद्धि से चयकर तुमने मरुदेवी उरवास लिया ॥४।। चैत्र कृष्ण नवमी को प्रात नगर अयोध्या जन्म लिया । तब स्वर्गों में बजी बधाई जग ने जय जय गान किया ।।५।। सुरपति ने स्वर्णिम सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया । पग मे वृषभ चिन्ह लखते ही वृषभनाथ यह नाम दिया ।।६।। लक्ष चुरासी वर्षों का होता पूर्वाग एक जानो । लक्ष चुरासी पूर्वांग का होता एक पूर्व जानो ।।७।। लाख चुरासी पूर्व आयु थी धनुष पांच सौ पाया तन । लाख तिरासी पूर्व राज्य कर हुए जगत से उदास मन ॥८॥ नीलाजना मरण लखते ही भव तन भोग उदास हुए । कर चिन्तवन भावना द्वादश निज स्वभाव के पास हुए ॥९॥ मात पिता से आज्ञा लेकर पुत्र भरत को राज्य दिया । बाहुबली ने प्रभु आज्ञा से पोदनपुर का राज्य लिया ॥१०॥ लौकातिक सुर माधुवाद देने प्रभु चरणो मे आये । तपकल्याण मनाने को इन्द्रादिक सुर आ हर्षाये ।।११।। अन्य नृपति भी दीक्षित होने प्रभु के साथ गए वनवास । वन में जाकर प्रभु ने दीक्षाधारी निज मे कियानिवास ॥१२॥