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जैन पूजाजलि पराए द्रष्य को अपना समझ कर दुख उठाता है ।
जगत की मोह ममता में स्वय को भूल जाता है ।। उत्तम क्षमा धर्म उर था जन्म मरण क्षय कर मानूँ । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वरुप को पहचानें । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । राग द्वष मोहादि आश्रव ज्ञानी को होते न कभी । ज्ञाता दूष्टा को ही होते उत्तम सवर भाव सभी ।। शुद्धातम की भक्ति सहित जो पर भावो से नहीं जुडा । उपगूहन का अधिकारी है सम्यक दृष्टि महान बडा ।। उत्तम ॥६॥ ऊही श्री उत्तमक्षमाधर्माग्डाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि । कर्म बन्ध के चारो कारण मिथ्या अविरति योग कषाय । चेतयिता इनका छेदन कर, करता है निर्वाण उपाय ।। जोउन्मार्ग छोडकर निज को निज मे सुस्थापित करता । स्थिति करणयुक्त होता वहसम्यक दृष्टिस्वहित करता ।।उत्तम ।।७।। ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधांगाय अष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि । पुण्यपाप मय सभी शुभाशुभ योगो से रहता दूर । सर्व सग से रहित हुआ वह दर्शन ज्ञानमयी सुख पूर ॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चरितधारी के प्रति गौ वत्सल भाव। वात्सल्य का धारी सम्यक द्रष्टि मिटाता पूर्ण विभाव ||उत्तम ।।८।। ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्ञान विहीन कभी भी पलभर ज्ञान स्वरूप नहीं होता । बिना ज्ञान के ग्रहण किए कर्मों से मुक्त नहीं होता ।। विद्यारुपी रथ पर चढ जो ज्ञान रूप रथ चल वाता । वह जिन शासन की प्रभावना करता शिवपथदर्शाता ।। उत्तम ॥९॥ ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय अनर्ध पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला उत्तम क्षमा स्वधर्म को वन्दन काँ त्रिकाल । नाश दोष पच्चीस कर का, भव जजाल ॥१॥