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श्री क्षमावाणी पूजन
१२९ जिसे सम्यक्त्व होता है उसे होशान होता है।
उसे चारित्र होता है उसे निर्वाण होता है। १"संते पुवणिवद्ध जाणादि वह अबंध का ज्ञाता है । सम्यक दृष्टि सुजीव आश्रव बंध रहित हो जाता है उत्तम क्षमा धर्म उर धारूँजन्म मरण क्षय कर मान । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वभाव को पहचानें ॥१॥ ॐही श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय जन्मजरामृत्यु'विनाशनाय जल नि. सप्त भयों से रहित निशकित निजस्वभाव में सम्यक दृष्टि । मिथ्यात्वादिक भावों में जो रहता वह है मिथ्यादृष्टि ।। तीन मुढता छह अनायतन तीन शल्य का नाम नहीं । आठ दोष समकित के अरु आठोंमद का कुछकाम नहीं ॥ उत्तम ।।२।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय संसारताप विनाशनाय चन्दन नि अशुभ कर्म जाना कुशील शुभ को सुशील मानता अरे । जो ससार बंध का कारण वह कुशील जानता नरे । कर्म फलों के प्रति जिनका आकाक्षा उर में रही नहीं । वह निकांक्षित सम्यक दृष्टि भव की बाछा रही नहीं ॥ उत्तम ।।३।। ॐ ही श्री उत्तमाक्षमा धमागाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । राग शुभाशुभ दोनों ही ससार भ्रमण का कारण है । शुद्ध भाव ही एकमात्र परमार्थ भवोदधि तारण हैं । वस्तु स्वभाव धर्म के प्रति जो लेश जुगुप्सा करे नहीं । निर्विचिकित्सक जीव वही है निश्चय सम्यक दष्टिवही।उत्तम. ॥४॥ ॐ ही श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । शुद्ध आत्मा जो ध्याता वह पूर्ण शुद्धता पाता है । जो अशुद्ध को ध्याता है वह ही अशुद्धता पाता है । पर भावों मे जो न मूढ है दृष्टि यथार्थ सदा जिसकी । वह मूष्टि का धारी सम्यक दृष्टि सदा उसकी उत्तम. ।।५।। (१) स.सा १६६-(सम्यक दृष्टि) सत्ता में रहे हुए पूर्वबद्ध कमोंकोजानता है ।