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जैन पूजाँजलि कर्म विपाकोदय निमित्त पा होते रागद्वेष विभाव ।
अज्ञानी उनमें रत होता मूल वीतरागी निज भाव ।। उत्तम उज्ज्वल धवल अखण्डित तदुल चरणो में लाऊ । अक्षय पद की प्राप्ति हेतु मैं निज स्वभाव में रमजाऊं। तेरह. ॥३॥ ॐ ही श्री मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि स्वाहा । महा सुगन्धित शोभनीय बहु पीत पुष्य लेकर आऊ । काम भाव पर जय पाने को जिन स्वभाव मे रमजाऊ । तेरह ॥४॥ ॐ हीं मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्याो कामबाण विष्वसनाय पुष्प नि स्वाहा ।। विविध भाँति के भाव पूर्ण नैवेद्य रम्य लेकर आऊ । क्षुधा रोग का दोष मिटाने निज स्वभाव मे रमजाऊ ।।तेरह ।।५।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि स्वाहा । मोह तिमिर अज्ञान नाश करने को ज्ञान दीप लाऊँ । मै अनादि मिथ्वात्व नष्टकर निज स्वभाव मे रमजाऊँ तिरह ॥६॥ ॐ ही मध्यलोक तेरह द्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि स्वाहा । प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की धूप बना लाऊ । अष्टकर्म अरिक्षयकरने को निज स्वभाव मे रमजाऊ । ।तेरह ।।७।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअगवन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या अष्टकर्म दहनाय धूप नि स्वाहा । रागर परिणति अभाव कर निजपरिणति के फलपाऊ। भव्य मोक्ष कल्याणक पाने निज स्वभाव मे रमजाक ।।तेरह ॥८॥ ॐ ही मध्यलोक तेरह दीपसम्बन्धी चारसीअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या मोक्षफल प्राप्तये फल नि स्वाहा । द्रव्यकर्म नोकर्म भावकों को जीत अर्घ लाऊ । देह मुक्त निज पद अनर्घ हित निज स्वभाव में रम जाऊ तेरह ।।९।। * ही मध्यलोक तेरहद्वीप सम्बन्धी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो अनर्षपद प्राप्तये अयं नि ।