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जैन पूजाजलि इस भव वन में उलझे रहते तो जिनवर अरहत न होते।
ज्ञाता दृष्टा शुद्ध स्वरुपी मुक्तिक्त भगवंत न होते ।। मैं भी कल्पद्रम पूजन करने चरणों में आया हूँ। शुभ भावो की अष्ट द्रव्य अति हर्षित हे प्रभु लाया हूँ॥ यही याचना है जिन स्वामी मेरे सकट नाश करो । मोह तिमिर का सर्वनाश कर मुझमे ज्ञान प्रकाश भरो ।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वर अत्र अवतर अवतर संवौषट्, अत्र तिष्ठ ठठ, अत्रमा सनिहितो भव भव वषट् । सुस्थिर रूप सरोवर जल में पड़ा रत्न ज्यों दिखलाता । मन के मान सरोवर जल मे निज आतम त्यों दर्शाता ।। जन्म मरण दुख सडन गलनमय जड़पुद्गल का बना शारीर । पच शरीरो से विमुक्त हो योगी हो जाता अशरीर ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु जन्म मृत्यु का करूँ विनाश । शुद्धभाव का अवलम्बन ले निज स्वभाव का करूँ प्रकाश ॥१॥ ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुप जिनेश्वराय जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । रागद्वे च से मलिन सलिल मन जब जब होता डावाडोल । कर्माश्रव की इसमे उठती है तब-तब अगणित कल्लोल ॥ पाप कर्म मल रहित हदय मे निस्तरग निश्चल निर्धान्त । परम अतीन्द्रिय शुद्ध आत्मा अनुभव मे आता अतिशात ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु भव आतप का करूँविनाश ।। शुद्ध ।।२।। ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय ससारतापविनाशनाय चन्दनं नि । वर्ण गध रस स्पर्श शब्द बिन इन्द्रिय विषयो से विरहित । विमल स्वरूपी सहजानन्दी निर्मल दर्शन ज्ञान सहित ॥ पूर्वोपार्जित कर्म उदय मे साम्यभाव जिय जब धरता । सचित कर्म विलय हो जाते, नूतन बन्ध नहीं करता ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु पाऊँपद अखण्ड अविनाश || शुद्ध ।।३।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय अक्षयपद प्राप्तय अक्षत नि ।