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श्री कल्पदुम पूजन जिनवाणी में निश्चय नये प्रतार्थ बताया ।
अभूतार्थ व्यवहार कथन उपवार जताया। नहीं मार्गणा नहीं गुणस्थान है जीवस्थान नहीं इसमें । क्रोध मान माया लोभादिक, लेश्यादिक न कहीं इसमें ॥ बध कला संस्थान संहनन शुद्धजीव को कभी नहीं । ये सब कर्म जनित हैं इनसे रंच मात्र सम्बन्ध नहीं ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु काम भाव का कसै विनाश । शुद्ध. ४|| ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्प नि । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्री आत्म स्वरुप परम पावन । इसकी दृढ़ प्रतीति होते ही हो जाता सम्यक्दर्शन ॥ अणुभर भी यदि राग शेष तो परमानन्द नहीं होता । कर्माश्रव का द्वार पूर्णत तब तक बन्द नहीं होता ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु क्षधारोग का कसै विनाश शुद्ध ॥५॥ ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । यह क्षयोपशम लब्धि विशुद्धि देशना अरु प्रायोग्य सुधार । भव्य अभव्यो को समान है पाई सदा अनन्तोवार ।। करणलब्धि भव्यों को होती इसके बिन चारों बेकार । पचम लब्धि मिले तो होता समकित ज्ञान चरित्र अपार ॥ कल्पद्रुम पूजनकरके प्रभु मोह तिमिर का कसै विनाशाशुद्ध ॥६॥ ॐ ही श्री धीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुप जिनेश्वराय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । शुद्ध आत्मा निश्चयनय से उपादेय है सर्व प्रकार । देवशास्त्र गुरु पंच परमपरमेष्ठी की श्रद्धा व्यवहार ।। द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक भाषकर्म रागादिक विभाव । देहादिकनोकर्म रहित है शुद्ध जीव का नित्य स्वभाव ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु अष्ट कर्म का करु विनाश || शुद्ध ॥७॥ ॐ ही श्री वीतराग कल्पद्रुम जिनेश्वराव अष्टकर्म विश्वसनाय धूप नि. ।