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सम्बक दर्शन शान परित रलत्रय अपना लो ।
अष्टम वसुधा पंचम गति में सिद्ध स्वपद पालो ।। इसीलिए इसको इन्द्रध्वज पूजन कहता है आगम । पुण्य उदय जिनका हो वे ही प्रभु पूजन करते अनुपम ।।२५।। इन्द्र महापूजा रचता है मध्यलोक मे हितकारी । अब मिथ्यात्व तिमिर हरने को मेरी है प्रभु तैयारी ॥२६॥ प्रभु दर्शन से निज आतम का जब दर्शन होगा स्वामी ।। इस पूजा का सम्यक फल तबमुझको भी होगा स्वामी ॥२७॥ एक दिवस ऐसा आयेगा शुद्ध भाव ही होगा पास । । पाप पुण्य परभाव नाश कर सिद्ध तोक में होगा बास ।।२८॥ ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाय नि स्वाहा ।
भाव सहित जो इन्द्रध्वज की पूजन कर हर्षाते है । निमिष पात्र मे उनके सकट सारे ही मिट जाते हैं ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हो श्री मध्यलोक तेरह द्वीप सम्बन्धी चार मौ अन्ठावन जिनालयस्थ
शाश्वत जिन बिम्बेम्यो नम
श्री कल्पद्रुम पूजन चक्रवर्ति सम्राट महा कल्पद्रुम पूजन करते हैं। घटखण्डो के अधिपति श्री जिनवर का दर्शन करते ।। रत्नपुज प्रभु चरणाम्बुज मे न्यौछावर करते हैं । दान किमिच्छक देकर जन-जन के कष्टों को हरते हैं ।। वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर के पद अर्चन करते हैं। अनुपम पुण्य सातिशय का भडार हदय में भरते हैं ।। साम्राज्य भर में देते याचक जन को मुँह मांगा दान । जिन शासन की प्रभावना कर होता मन में हर्ष महान ।।