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श्री इन्द्रध्वज पूजन पुण्य मूल के लिए बाबरे हीरा जनम गंवाना। रल राख के लिए जलाता फिर भवभय पछतासा ।।
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जयमाला तेरह डीप महान के श्री जिन बिम्ब महान । इन्द्रध्वज पूजन काँ पाउँ सुख निर्वाणा॥ मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदिर, विद्यन्माली अभिराम । भद्रशाल, सौमनस, पांडुक, नंदनवन शोभित सुललामा॥२॥ हाई द्वीप में पंचमेरु के बंदू अस्सी चैत्यालय । विजयारथ के एक शतक सतर बन्दू में जिन आलय ।।३।। जम्बू वक्ष पांच मैं बन्दू शाल्मलि तरु के पाँच महान । मानुषोत्तर चार और इष्वाकारों के चार प्रधान ४॥ वक्षारों के अस्सी बन्दू गजदन्तो के बन्, बीस । तीस कुलाचल के मैं बन्दू श्रद्धा भाव सहित जगदीश ।।५।। मनुज लोक के चार शतक मे दो कम चैत्यालय वर्दै । डाई द्वीप से आगे के द्वीपों मे साठ भवन वन्यूँ ॥६॥ इक शत शठ कोटिलाख चौरासी योजन नन्दीश्वर । अष्टम द्वीप दिशा चारों में हैं कुल बावन जिन मन्दिर ।।७।। चारों दिशि मे अजनगिरि, दधिमुख, रतिकर, पर्वत सुन्दर । देव सुरेन्द्र सदा पूजन बंदन करने आते सुखकर ॥८॥ कुण्डलगिरि हैं बीप तेरहवां चार चैत्यालय बन्दूँ। झेप रुचकवर तेरहवें के चार जिनालय मैं बन्दै ॥ मध्यलोक तेरह ीपों मे गर शतक अट्ठावन गृह । एक-एक मे एक शतक अरु आठ आठ प्रतिमा विग्रहा॥१०॥ अष्ट प्रतिहार्यों से शोभित रत्नमयी जिन बिम्ब प्रवर । अष्ट-अष्ट मंगल द्रव्यों से हैं शोभायमान मनहर ॥११॥ उनन्चास सहस्त्र चार सौ चौसठ जिन प्रतिमा पावन । सभी अकृत्रिम हैं अनादि हैं परम पूज्य अति मन भावन १२॥