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जैन पूजांजलि आत्म ज्ञान वैभव यदि झे तो सदाचार शोभा पाता है ।
पचारावर्तन अभाव कर चेतन मुक्ति गीत गाता है ।। जीवकर्म संबध दूध अरु पानी के समान सहजात । दोनों प्रथक प्रथक पहचानू भेद ज्ञान का पाऊँ प्रात ॥१७॥ सेना स्वय नष्ट हो जाती जब राजा मारा जाता । मोह राज का नाश हुआ तो घातिकर्म भी क्षय पाता ॥१८॥ परगत ध्यान पंचपरमेष्ठी स्वगत ध्यान निज आतम का । यह रूपस्थ ध्यान है उत्तम वीतराग परमातम का ॥१९॥ परगत तत्व पचपरमेष्ठी प्रभु का ध्यान देव सविकल्प । स्वगत तत्व निज शुद्ध आत्मा रुपातीतध्यान अविकल्प ॥२०॥ जब तक योगी पर द्रव्यो मे रहता है संलग्न विकल्प । उग्र तपस्या करके भी पा सकता नहीं मोक्ष अविकल ।।२१।। अगर राग परमाणु मात्र भी विद्यमान है अन्तर मे । जिन आगम का वेत्ता होकर भी बहता भवसागर मे।।२२।। दर्शन ज्ञान चरित्र सदा ही है सेवन करने के योग्य । सर्व शुभाशुभ भाव अचेतन तो सेवन के सदा अयोग्य ॥२३॥ मनवच काया की प्रवृत्ति रुकने पर होता है सवर । आश्रव रुकता कर्म निर्जरित होते चिर सचित जर्जर।२४।। नाथ अचेतन पुदगल ही तो सदा दिखाई देता है। जीव चेतनामयी अदृश है नहीं दिखाई देता है।।२५।। प्रकट स्व सवेदन से होता देह प्रमाण विनाश रहित । लोकालोक देखने वाला दर्श ज्ञान सुख वीर्य सहित ॥२६॥ राग द्वष की कल्लोलो से न हो मनोबल डॉवाडोल । आत्मतत्व को ही मैं देखू बना रहू प्रभु पूर्ण अडोल ।।२७।। बाह्यन्तर द्वादश प्रकार का दुर्धरतपोभार स्वीकार । मोक्ष मार्ग पर बढू निरतर करूँ सिद्ध पद आविष्कार ॥२८॥