________________
११६
जैन पूजांजलि निश्चयनय भूतार्थ आश्रय उपादेय है ।
अभूतार्थ व्यवहार कथन तो अरे हेय है ।। निजस्वभाव से कट जाता है कर्मघातिया का जंजाल । केवलज्ञानादि नवलब्धि प्रकट हो जाती है तत्काल । फिर अघातिया स्वय भागते देख जीव की अतुलित शक्ति। यहाँ पूर्ण हो जाती है प्रभु निश्चय रत्नत्रय की भक्ति ।। कल्पगुम पूजन करके प्रभु पाऊँ मोक्ष सुफल अविनाश । शुद्धभाव का अवलंबन ले निजस्वभाव का करूँ प्रकाश।। शुद्ध ।।८।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञकल्पटु मजिनेश्वराय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्यो डठल से फल झड जाता फिर न कभी जुड़ सकता है । कर्म प्रथक होते ही भव की ओर न जिय मुड सकता है ।। परम शुक्लमय ध्यान अग्नि मे कर्मदग्ध करके अमलान । होता महाविशुद्ध ज्ञान यति परम ध्यानपति सिद्ध महान ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु पाऊँपद अनयू अविनाश ।। शुद्ध ।।९।। ॐ ही श्री वीतरागसर्वज्ञकल्पद्रुम जिनेश्वराय अनर्षपद प्राप्तये अयं नि
जयमाला कल्पद्रुम पूजन करूँविनय भक्ति से आज ।
शुद्ध भाव की शक्ति से बन जाऊँजिनराज ।। वीतराग सर्वज्ञ देव का शरण भाग्य से अब पाया । इस ससार समुद्र तीर के मैं समीपवर्ती आया।।१।। अभ्ररहित नभ से प्रदीप्त ज्यों किरणो वाला रवि ज्योतित । घातिकर्म हर रत्नत्रय के दिव्य तेज से प्रभु शोभित ।।२।। मनुज प्रकृति का किया अतिक्रमण देवों के भी देव हुए । रागद्वष का कर सर्वनाश अरहत देव स्वयमेव हुए।।३।। महा विषम मसार उदधि को तुमने पार किया भगवान । नय पक्षातिक्रान्त हो स्वामी तुमने पाया पद निर्वाणा४॥