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जैन पूजांजलि जो स्वरुप वेत्ता होता है, वही भाव श्रुत जल पीता है ।
सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को, जान अमर जीवन जीता है ।। ध्यान पूर्ण होने पर मुनि ने जब अपनी आखे खोली । देखा देव पास बैठा है बोले तब हित मित बोली ॥६॥ धर्म वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो तुम हो कौन । हर्षित पुलकित गद् गद् होकर तोडा तब व्यंतर ने मौन ॥७॥ नमस्कार कर भक्ति भाव से पूर्व जन्म का दे परिचय ।। पिछले भव मे परम मित्र थे क्षमा करे मेरी अविनय ॥८॥ सीमधर स्वामी के दर्शन को विदेह भू जाता हैं। यही प्रार्थना चले आप भी नम्र विनय मन लाता हूँ ॥९॥ चिर इच्छा साकार हुई मुनिवर ने स्वर्ण समय जाना । बोले श्री जिनवाणी सुनकर मुझे लौट भारत आना ॥१०॥ मुनि को साथ लिया उसने आकाश मार्ग से गमन किया । तीर्थकर सर्वज्ञ देव को जा विदेह मे नमन किया ॥११॥ सीमधर के समवशरण को देखा मन मे हर्षाये । जन्म जन्म के पातक क्षय कर अनुपम ज्ञान रत्न पाये ।।१२।। सीमधर प्रभु के चरणो मे झुककर किया विनय वन्दन । प्रभु की शातमधुर छवि लखकर धन्य हुए भारत नन्दन ॥१३॥ प्रभु से प्रश्न हुआ लघु मुनिवर कौन कहा से आये हैं । खिरी दिव्य ध्वनि कुन्द कुन्द मुनि भरत क्षेत्र से आये हैं ॥१४॥ सीमधर ने दिव्य ध्वनि मे कुन्दकुन्द का नाम लिया । भव भव के अघ नष्ट हो गये मुनि ने विनय प्रणाम किया ॥१५॥ विनयी होकर कुन्द कुन्द ने जिनवाणी का पान किया ।
अष्ट दिवस रह समवशरण मे द्वादशाग का ज्ञान लिया ॥१६॥ अक्षय ज्ञान उदधि मन मे भर और ह्रदय मे प्रभु का नाम । सीमधर तीर्थंकर प्रभु को करके बारम्बार प्रणाम ।।१७।। फिर विदेह से चले और नभ पथ से भारत मे आये । तीर्थंकर वाणी का सागर मन मन्दिर में लहराये ॥१८॥