________________
१०४
-
जैन पूजाँजलि इस मनुष्य भव रुपी नन वन में रत्नत्रय के फूल ।
पर अज्ञानी चुनता रहता है अधर्म के दुखमय शूल । । मै सवर अधिकार समझकर सवरमय ही भाव करूँ। ४ अप्पाण झायतो" दर्शन ज्ञानमयी निज भाव करूँ ॥९॥ मैं अधिकार निर्जरा जानू पूर्ण निर्जरावन्त वर्नु । पूर्व उदय मे सम रहकर मैं चेतन ज्ञायक मात्र वमू ।।१०।। ५ अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो" सारे कर्म झरामा । मै रतिवन्त ज्ञान मे होकर शाश्वत शिव सुख पा ॥११॥ बन्ध अधिकार बन्ध की हो तो सकल प्रक्रिया बतलाता । बिन सपकित जप तप व्रत सयम बध मार्ग है कहलाता ॥१२।। राग द्वेष भावो से विरहित जीव बन्ध से रहता दर ।। ६"णिच्छय णया सिदापुणमुणिणों" अष्टकर्म करता चकचूर ।।१३।। जान मोक्ष अधिकार शीघ्र ही नष्ट करुवि षकुम्भवि भाव । आत्म स्वरूप प्रकाशित करके प्रकटाऊ परिपूर्ण स्वभाव ॥१४॥ शुद्ध आत्मा ग्रहण करूँ मैं सर्व बध का कर छेदन । निशकित हो कर पाऊगा मुक्ति शिला का सिंहासन ॥१५॥ पर्व विशुद्ध ज्ञान का है अधिकार अपूर्व अमूल्य महान ।। पर कर्तृत्व नष्ट हो जाता होता शिव पथ पर अभियान ।।१६।। कर्म फलो को मृ ढ भोगता ज्ञानी उनका ज्ञाता है । इसीलिए अज्ञानी दुख पाता ज्ञानी सुख पाता है ।।१७।। भाव वासना नो अधिकारो से कर निज मे वास करूँ । ७ “मिच्छत्त अविरमण कसाय जोग" की सत्ता नाशक ॥१८॥ कुन्दकुन्द ने समयसार मन्दिर का किया दिव्य निर्वाण । वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि का इसमे ज्ञान ॥१९॥ (४) स सा १८६-आत्मा को ध्याता हुआ (५) स सा २१०-११-१२-१३ अनिच्छुक को अपरिगृही कहा है (६) स मा २७२-निश्चय नयाश्रित मुनि मोक्ष प्राप्त करते है (७) स सा १६४- मिथ्यात्वव अविरति कषाय योग ये आश्रव है ।