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श्री जिनवाणी पूजन जिस दिन तू मिथ्यात्व भाव को कर देगा पुरा विध्वंस ।
प्रकट स्वरूपाचरण करेगा पाकर पूर्ण ज्ञान का अंश ।। यह आधि व्याधि पर की उपाधि भव प्रमण बढ़ाती आई है । अक्षय अखड निज की समाधि अबतक न कभी भी पाई है ।मैं श्री।३।। ॐ होश्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । एकत्व बुद्धि करके पर मे कापन का अभिमान किया । मैं निज का कर्ता भोक्ता हु ऐसा न कभी भी मान किया । मैं श्री ।।४।। ॐ हीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै कामबाण विश्वसनाय पुष्प नि । यह माया अनन्तानुबन्धी प्रति समय जाल उलझाती है । चारों कषाय की यह तृष्णा उलझन न कभी सुलझती है । मैं श्री ।।५।। ॐ ह्री श्री जिनमुखोद् भव सरस्वतीदेव्यै क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । तत्वों के सम्यक निर्णय बिन श्रद्धा को ज्योति न जल पाई । अज्ञान अधेरा हटा नहीं सन्मार्ग न देता दिखलाई । मैं श्री ॥६॥ ॐ ही श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । होकर अनन्त गुण का स्वामी, पर का ही दास रहा अबतक । निजगुण की सुरभि नहीं भाई भवदधि मे कष्टसहा अबतक।मैं श्री ॥७॥ ॐ ह्री श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अष्टकर्म विध्वन्सनाय धूप नि । मैं तीन लोक का नाथ पुण्य धूल के पीछे पागल हूँ । चिन्तामणि रत्न छोड़कर मैं रागों मे आकुल-व्याकुल हूँ मैं श्री ॥४॥ ॐ ही श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै महा मोजकतमासकस नि । अब तक का जितना पुण्य शेष हर्षित हो अर्पण करता। अनुपम अनर्घ पद पा जाऊमै यही भावना भरता हू । ।मैं श्री ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अनर्षपद प्राप्तये अध्यं नि ।
जयमाला जय जय जय ओकार दिव्यध्वनि योगीजननित करते ध्यान । मोहतिमिर मिथ्यात्व विनाशक ज्ञान प्रकाशक सूर्य समान ॥१॥ वस्तु स्वरूप प्रकाशक निज पर भेद ज्ञान की ज्योति महान । सप्तभंग, स्याद नयाश्रित बदशांग श्रुत ज्ञान प्रमाण ॥२॥