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श्री कुन्द कुन्दाचार्य पूजन धर्मध्यान का क्रिया आचरण, अपर प्रससा के हिल है ।
तो अज्ञानी जन को ठगने, में तू हुआ दत्त चित है ।। जो सुनकर आये जिनवाणी फिर उसको लिपि रुप दिया। जगत जीव कल्याण करे निज, ऐसा शास्त्र स्वरूप दिया ॥१९॥ राग मात्र को हेय बताया उपादेय निज शुद्धतम भाव शुभाशुभ का अभाव कर होता चेतन परमातम ॥२०॥ समयसार मे निश्चय नय का पावन मय सदेश भरा । श्री पचास्तिकाय को रचकर द्रव्य तत्व उपदेश भरा ॥२१॥ प्रवचनसार बनाया तुमने भेदज्ञान को बतलाया । मूलाचार लिखा मुनिजन हित साधु मार्ग को दर्शाया ।।२२।। नियमसार की रचना अनुपम रयणसार गूथा चितलाय । लघु सामायिक पाठ बनाया लिखा सिद्धप्रामृत सुखदाय ।।२३।। श्री अष्टपाहुड षट्प्राभृत द्वादशानुप्रेक्षा के बोल । चौरासी पाहुड लिक्खे जो अज्ञात नहीं हमको अनमोल ।।२४।। ताड़ पत्र पर लिखे प्रथ तब सफल हई चिर अभिलाषा । जन जन की वाणी कल्याणी धन्य हुई प्राकृत भाषा २५।। जीवो के प्रति करुणा जागी मोक्ष मार्ग उपदेश दिया । ओर तपस्या भूमि बनाकर गिरि कुन्द्रादि पकि किया ॥२६।। अमृतचन्द्राचार्य देव को टीका आत्मख्याति विख्यात । पाप्रभ मलधारि देव की टीका नियमसार प्रख्यात ॥२७॥ श्री जयसेनाचार्य रचित तात्पर्यवृति टीका पावन । श्री कानजीस्वामी के भी अनुपम समयसर प्रवचन ॥२८॥ फानन्दि गुरु बक्रग्रीव । मुनि एलाचार्य आपके नाम । गृद्धपृच्छ आचार्य यतीश्वर कुन्द कुन्द हे गुण के धाम ।।२९।। हे आचार्य आपके गुण वर्णन करने की शक्ति नही । पथ पर चले आपके ऐसी भी तो अभी विरक्ति नहीं ॥३०॥ भक्ति विनय के सुमन आपके चरणो में अर्पित हैं देव । भव्य भावना यही एक दिन मैं सर्वज्ञ बनूँ स्वयमेव ॥३१॥