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जैन पूजांजलि यह जीवन दीपक निस्तेज अवश्य एक दिन होगा ही।
तन यौवन पन परिजन सबसे ही वियोग क्षण होगा ही ।। चारों दिशि में महा मनोरम कुल जिन चैत्यालय बावन । सभी अकृत्रिम अति विशाल हैं उन्नत परम पूज्य पावन ॥१॥ जिन भवनों का एक शतक योजन लम्बाई का आकार । अर्थ शतक चौडाई पचहतर योजन ऊँचा विस्तार ॥१०॥ चौसठ वन की सुषमा से शोभित है अनुपम नन्दीश्वर। है अशोक सप्तछद चम्पक आम नाम के वन सुन्दर ॥११॥ इन सबमें अवतंश आदि रहते हैं चौंसठ देव प्रबल। गाते नन्दीश्वर की पहिमा अरिहंतों का यश उज्ज्वल ।।१२।। देव देवियों नृत्य वाद्य गीतों से करते जिन पूजन। जय ध्वनि से आकाश गुजाते थिरक-थिरक करते नर्तन ॥१३॥ कार्तिक फागुन अरु अषाढ में इन्द्रादिक सुर आते हैं । अन्तिम आठ दिवस पूजन कर मन मे अति हर्षाते हैं ।।१४।। दो दो पहर एक इक दिशि मे आठ पहर करते पूजन। धन्य धन्य नन्दीश्वर रचना धन्य धन्य पूजन अर्चन ।।१५।। ढाई द्वीप तक मनुज क्षेत्र है आगे होता नहीं गमन। ढाई द्वीप से आगे तो जा सकते है केवल सुरगण ॥१६॥ शक्तिहीन हम इसीलिए करते हैं यहीं भाव पूजन। नन्दीश्वर की सब प्रतिमाओ को है भाव सहित बन्दन ॥१७॥ भव-भव के अघ मिटे हमारे आत्म प्रतीत जगे मन में। शुद्धभाव अभिवृद्धि सहज हो समकित पाये जीवन में ॥१८॥ यही विनय है यही प्रार्थना यही भावना है भगवान । नन्दीश्वर की पूजन करके करे आत्मा का ही ध्यान ॥१९॥ आत्म ध्यान की महा शक्ति से वीतराग अरिहन्त बनें । घाति अधाति कर्म सब क्षयकर मुक्तिक्त भगवत बने ॥२०॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरीद्वीपे पूर्वपश्चिमोतरदक्षिणदिशा द्विपंचाशज्जिनालयस्थ पांच हजार छ सौ सोलह जिनप्रतिमाभ्यो जिन पूर्णाध्य नि स्वाहा ।