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जैन पूजाँजलि अवरग बहिरग परिग्रह तजने का ही कर अभ्यास । इगक बिना नहीं तू हागा साधु कभी भी कर विश्वास ।।
द्वारो पर नवनिधि व धुप घट मंगल द्रव्य सजे होते । साढे बारह कोटि वाद्य देवो द्वारा बजते होते ||८|| द्वार द्वार के दोनो बाजू एक एक नाटक शाला । जहाँ देव कन्याएँ करती नृत्य हृदय हरने वाला ॥९॥ प्रथम कोट की चारो दिशि मे धर्म चक्र होते है चार । धूलि शाल है नाम मनोहर मानस्तभ बने हे चार ।।१०।। प्रथम भूमि चेन्यालय की है मन्दिर चारो ओर बने । फिर वापिका बनी शुभ सुन्दर जो जल से परिपूर्ण घने ॥११॥ द्विनिय कोट फिर पुष्प वाटिकाओ की पक्ति महान विशाल । फिर वन भूमि अशोक आम चपक अम सप्त पर्ण तरू पाल ।।१२।। तृतिय कोटि मे कल्पभूमि वेदी अरु बनी नृत्यशाला । भवन भूमि स्तृप मनोहर ध्वजा पक्तियो की माला ॥१३॥ यही महोदय मडप अनुपम श्रुत केवलि करते व्याख्यान ।। केवलज्ञानलधि के धारी भी देने उपदेश महान ।।१४।। बोथा कोटि शाल अतिमुन्दर कल्पवासि द्वारा रक्षित । आगे चलकर श्री मडप हे महाविभूतियो मे भूषित ॥१५।। भूमि आठवी गधकुटी है तीन पीठ पर सिहासन ।
रु अशोक शिर तीन छत्र है भामडल द्युतिमय दर्पण ।।१६।। चारो टिशि मे जिनप्रभु के मुख दिखने मानो मुख हो चार । अतरीक्ष जिनदेव विगजे खिरे दिव्य ध्वनि मगलकार ॥१७॥ तीन लोक की सकल सपदा चरणो मे करती वदन । इन्द्रादिक मुर नर मुनि पशु भी चरणो मे होते अर्पण ॥१८॥ द्वादश सभा महान बनी हे दिव्य ध्वनि का मोद अपार । नभ से पुष्प वृष्टि मुर करने होना जय ध्वनि का उच्चार ।।१९।। द्वादश कोठे है पहिले मे गणधर ऋषिमुनि रहे विराज । दूजे कल्पवासि देवियों तीजे रही आर्यिका साज ।।२०।।