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जैन पूजांजलि वैराग्य घटा घिर आई चमकी निजत्व की बिजली ।
अब जिय को नहीं सुहाती पर के ममत्व की कजली ।। रत्नत्रय का परम मोक्षफल पाने को फल भेट करूँ। शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्तकर मैं अनादि भव रोग हरु गौतम.॥४॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ चरणों मे सविनय भेट करूँ। पद अनर्घ सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरूँ।।गौतम ॥९॥ ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्षपद प्राप्ताय आय नि । श्रावण कृष्णा एकम् के दिन समवशरण मे तुम आये । मानस्तम्भ देखते ही तो मान, मोह अघ गल पाये । महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुया चकचूर । रत्नत्रय पाते ही दिव्यध्वनि का लाभ लिया भरपूर ॥१०॥ ॐ ह्री श्री गौतमगणधरस्वामिने दिव्यध्वनि प्राप्ताय अयं नि । कार्तिककृष्ण अमावश्या को कर्म घातिया करके क्षय । सायकाल समय मे पाई केवलज्ञान लक्ष्मी जय । ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अन्त । अन्तराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवन्त ।।११।। ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने केवलज्ञान प्राप्ताय अयं नि । विचरण करके दुखी जगत के जीवों का कल्याण किया । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया । देव वानबे वर्ष अवस्था मे तुमने निर्वाण लिया । क्षेत्र गुणावा करके पावन सिद्ध स्वरुप महान् किया ॥१२॥ ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने महा मोक्षपदप्राप्ताय अर्घ्य नि. ।
जयमाला मगध देश के गौतमपुर वासी वसुभूति ब्राम्हण पुत्र । माँ पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्रभूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र ॥१॥ अग्निभूति अरु वायुभूति लघु भात द्वय उत्तम विद्धन । शिष्य पाच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान ॥२॥