________________
ওও
-
श्री समवशरण पूजन जो अकषय भाव के द्वारा सर्व कषायें लेगा त् जीत ।
मुक्ति वधू उसका वरने आएगी उर में घर कर प्रीत ।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि। नव क्षायिक लब्धियों प्राप्तजिनवर देवो को नमन करूँ। अनुभव रसकी धूप बनाकर अष्टकर्म को हरण करूँ ।। जिन ।।७।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । वस मगल द्रव्यो से शोभित गध कटी को नमन करूँ। अनुभव रस के फल मैं पाऊमोक्षस्वपद का वरण करूँ || जिन ।।८।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय मोक्षफल प्राप्ताय फर्ल नि । परमोदारिक देह प्राप्त श्री अर्हतो को नमन करूँ। अनभव रम के अर्घ बनाऊ मै अनर्घ पदवरण करूँ जिन ।।९।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अनर्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला समवशरण जिनराज का महापूज्य द्युतिवान । भव्य जीव उपदेश सुन करते निज कल्याण ॥१॥ ऋषभ देव के समवशरण का बारह योजन का विस्तार । अर्द्ध अर्द्ध घटते सन्मति तक रहा एक योजन विस्तार ।।२।। शन इन्द्रो से वदित श्री जिनवर का समवशरण सुन्दर । तीन लोक का सारा वैभव प्रभुचरणो मे न्यौछावर ॥३॥ सौ योजन तक नही कही दुर्भिक्ष दृष्टि मे आता । भूमि स्वच्छ दर्पणवत होती गधोदक बरसाता ॥४॥ गोलाकार समवस्त रचना होती है उन्नत आकाश । चारों दिशि मे बीस सहस्त्र सीढियाँ होती भू आकाश ।।५।। चार कोट अरू पाँच वेदि के बीच भूमि होती है आठ । चारों ओर वीथियाँ होती गधकुटी तक अनुपम ठाठ ।।६।। पार्श्व पीथियो मे दो दो वेदी होती है रत्नमयी । सभी भूमियों के पथ होते सुन्दर तोरण द्वार मयी ॥७॥