________________
-
जैन पूजांजलि अचेतन द्रव्य जड़ संयोग सुख दुख के नहीं दाता ।
सयोगी भाव करके तु स्वय दुखवान होता है ।। मोह ममत्व आदि के कारण सम्यकमार्ग न पाता हूँ। यह मिथ्यात्वतिमिर मिट जाये मैं प्रभुवर दीप चड़ाता हूँ ॥श्री बाहु.॥६॥ *ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि. । है अनादि से कर्मबन्ध दुखमय न पृथक कर पाता हैं। अष्टकर्म विध्वस करूँ अतएव सु धूप चबाता हूँ श्री बाहु. ॥७॥ ॐ ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि । सहज सम्पदा युक्त स्वय होकर भी भव दुख पाता हूँ। परम मोक्षपद शीघ्रमिले उत्तमफल चरणचढ़ाता हूँ। श्री बाहु ॥८॥ ॐ ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने महामोक्षफल प्राप्तये फलं नि ।। पुण्यभाव से स्वर्गादिक पद बार बार पा जाता हूँ । निज अनर्घपद मिला न अबतक इससे अर्घचढाता हूँ ॥श्री बाहु ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री जिनबाहुबलीस्वामिने अनर्ग्यपद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला आदिनाथ सुत बाहुबली प्रभु माता सुनन्दा के नन्दन । चरम शरीरी कामदेव तुम पोदनपुर पति अभिनन्दन ॥१॥ छह खण्डो पर विजय प्राप्तकर भरत चढे वृषभाचल पर । अगणितचक्री हुए नामलिखने को मिला न थल तिलभर ॥२॥ मैं ही चक्री हुआ अहं का मान धूल हो गया तभी । एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी लिखी प्रशस्ति स्वहस्त जभी ॥३॥ चले अयोध्या किन्तु नगर मे चक्र प्रवेश न कर पाया । ज्ञात हुआ लघु भात बाहुबलि सेवा मे न अभी आया ॥४॥ भरत चक्रवर्ती ने चाहा बाहुबली आधीन रहे । ठुकराया आदेश भरत का तुम स्वतन्त्र स्वाधीन रहे ॥५॥ भीषण युद्ध छिड़ा दोनो भाई के मन में संताप हुए । दृष्टि, मल्ल, जल, युद्ध, भरत से करके विजयी आप हुए ॥१६॥