________________
जैन पूजांजलि मुनिपद ता निग्रन्थ भावना का प्रतीक है शिव सुखकार । अंतरग में तथा बाहा में नही परिग्रह का कुछ मार ।।
श्रीभरत जी भरत चक्रवर्ती की महिमा तीन लोक मे है न्यारी । छह खण्डो के स्वामी होकर भी प्रभु रहे निर्विकारी ॥१॥ दर्श मोह तो जीत चुके थे पूर्व भवो मे ही कर यत्न । पर चरित्र मोह जय करने का ही किया महान प्रयत्न ॥२॥ अनुज बाहुबलि से हारे पर मन मे आया नही कुभाव । वस्तुस्वरूप विचारा प्रभु ने मेग नो हे ज्ञान स्वभाव ।। नीरक्षीर का था विवेक जल कमल भाति वे रहते थे । नेल तोय मम प्रथक प्रथक वे पर भावो से रहते थे ॥४॥ गगद्वषे को जय करने का सदा यत्न वे करते थे । सम भावो से हर्ष विषादो को वे पल मे हरते थे ।५।। लाख तिरासी पूर्व आयु तक भोगे भोग ध्रौव्यविशाल । किन्तु लक्ष्य में शुद्ध आत्मा थी जो शाश्वत अटूट त्रिकाल ॥६॥ इसीलिए तो भग्न चक्रवर्ती के मन मे था उत्साह । पर मे रहकर पर से भिन्न रहे ऐमा था ज्ञान अथाह ।।७।। पूर्व भवो मे भेद ज्ञान की कला रही थी उनके पास ।। ज्ञाता द्रप्टा बनकर भोगे भोग रहे स्वभाव के पास ।।८।। निज स्वभाव मे आते आते ही वेगग्य महान हुआ ।। ज्ञानपयो निधि रस पीते पीते ही केवल ज्ञान हुआ ।।९।। यह सब कुछ अन्तमुहर्त मे हुआ भरत जी को तत्काल । आत्मज्ञान वैभव का महिमा दिया राग सब त्वरित निकाल ।।१०।। उनकी ऐसी उत्तम परिणति के पीछे था ज्ञान महान । इसीलिए अन्तमुहुर्त मे किए घातिया अरि अवसान ॥११॥ दे उपदेश भव्य जीवो को किया सर्व जग का कल्याण । धन्य धन्य हे भरत महाप्रभु इन्द्रादिक गाते गुणगान ।।१२।। निजानद ग्सलीन हुए फिर शेष कर्म भी कर अवसान ।