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जैन पूजौंजलि पर से प्रथाभूत होने पर ज्ञान भावना जाती है । निज स्वभाव से मजी माधना देख कलुषता मगती है ।।
श्री पार्श्वनाथ स्वामी वाराणसी नगर अति सुन्दर अश्वसेन नृप के नन्दन । माता वामादेवी के सुत पार्श्वनाथ प्रभु जग वन्दन ।।१।। तुम कुमार वय मे ही दीक्षित होकर निज मे हए मगन । कमठ शत्रु कर मकान कुछ भी यदपि किया उपसर्ग सघन ॥२॥ केवलज्ञान प्राप्त होते ही रचा इन्द्र ने ममवशरण । दे उपदेश भव्य जीवो को मुक्ति वधू का किया वरण ।।३।। श्रावण शुक्ल मप्तमी के दिन अष्ट कर्म का किया हनन । कूट स्वर्णभद्र सम्मेद शिखर से पाया सिद्ध सदन ॥४॥ सर्प चिन्ह चरणो में शंभित पार्श्वनाथ को करूं नमन ।
कालिक ज्ञायक स्वभाव से मै भी पाऊँ मोक्ष भवन ।।५।। ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष पच कल्याणक प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
श्री महावीर स्वामी कुण्डलपुर वेशाली नृप सिद्धार्थ पुत्र श्री वीर जिनेश । प्रिय कारिणी मात त्रिशला के उर से जन्मे महा महेश ।।१।।
अविवाहित रह राजपाट मब ठुकराया मुनिव्रत धारे । द्वादश वर्ष तपस्या करके कर्म शिथिल सब कर डारे ।।२।। केवल लब्धि प्रगट कर स्वामी जगती को उपदेश दिया । तीस वर्ष तक कर विहार प्रभु मोक्ष मार्ग सदेश दिया ॥३॥ कार्तिक कृष्ण अमावस्या को अष्ट कर्म अवसान किया । पावापुर के महोद्यान से सिद्ध स्वपद निर्वाण लिया ।।४।। सिंह चिन्ह चरणों मे शोभित वर्धमान को करूँ नमन । ध्रुव चैतन्य स्वरुप लक्ष्य मे ले मैं भी पाऊँ मुक्ति भवन ॥५॥ ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष पच कल्याणक प्राप्ताय अयं नि ।