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जैन पूजांजलि सिब समान परम पद अपना, यह निश्चय का लाओगे ।
द्रव्यदृष्टि बन निज स्वरूप को, कब तक अरे सजाओगे ।। सूर्य चन्द्र देते प्रदक्षिणा करते निशदिन सतत प्रणाम । एक पेरु सम्बन्धी सोलह पंचमेरु अस्सी जिन धाम ।।३।। एक शतक अर अर्ध शतक योजन लम्बे चौड़े जिन धाम । पौन शतक योजन ऊचे हैं बने अकृत्रिम भव्य ललाम ॥४॥ एक एक में बिम्ब एक सौ आठ विराजित हैं मनहर । आठ सहस्त्र छ सौ चालीस हैं श्री अरहंत मूर्ति सुन्दर ।।५।। धनुष पाच सौ पद्मासन हैं गूंज रहा है जय जय गान । नृत्य वाद्य गीतों से झंकृत दशों दिशायें महिमावान ।।६।। तीर्थंकर के जन्मोत्सव की सदा गूजती जय जयकार । धन्य धन्य श्री जिन शासन की महिमा जग मे अपरम्पार ॥७॥ नहीं शक्ति हममे जाने की यहीं भाव पूजन करते । पुष्पाजलि व्रत की महिमा से भव-भव के पातक हरते ।।८।। पंचमेरु की पूजा करके निज स्वभाव मे आ जाऊँ। भेद ज्ञान की नवल ज्योति से सम्यक्दर्शन प्रगटाऊँ॥९॥ सम्यक्ज्ञान चरित्र धार मुनि बन स्वरूप मे रम जाऊँ। वसु कर्मों का सर्वनाश कर सिद्ध शिला पर जम जाऊँ।।१०।। पचमेरु जिन धाम की महिमा अगम अपार। पुष्पाजलि व्रत जो करें हो जाये भव पार ।।११।। ॐ ही श्री ढाईद्वीपसम्बन्धी सुदर्शन, विजय, अवल, मन्दिर, विद्युन्याली पचमेरुसम्बन्धी अस्सीजिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाऱ्या ।
श्री षोडशकारण पूजन षोडशकारण पर्व धर्म का करू धर्म आराधना । मुक्ति सुनिश्चित यदि इस व्रत की हो निजात्म में साधना ॥ दुखी जगत के जीव मात्र का हित हो निज कल्याण हो ।' अविनश्वर लक्ष्मी से परिणय मोक्ष प्रकाश महान हो ।