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श्री दशलक्षणधर्म पूजन बार बार तूहब रहा है बैठ उपल की नावों में । शिव सुख सुषा समुद्र स्वय में, खोज रहा पर भावों में । ।
उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म हितकारी निज स्वभाव शीतल पावन। वचन गुप्ति के धारी मुनिवर ही पाते हैं मुक्ति सदन।। सब धमों में यह प्रधान है भव तम नाशक सूर्य समान। सुगति प्रदायक भव सागर से पार उतरने को जलयान।। सत्य धर्म से अणवत और महावत होते हैं निर्दोष। जय जय उत्तम सत्य धर्म त्रिभुवन मे गूंज रहा जयघोष ।।५।। ॐ ह्री श्री उत्तमसत्यधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम संयम उत्तम सयम तीन लोक मे दुर्लभ, सहज मनुज गति में । दो क्षण को पाने की क्षमता, देवों मे न सुरपति मे ।। पंचेन्द्रिय मन वश मे करना, उस थावर रक्षा करना । अनुकम्पा आस्तिक्य प्रशम सवेगधार मुनिपद धरना ॥ धन्य धन्य सयम की महिमा तीर्थकर तक अपनाते । उत्तम संयम धर्म जयति जय हम पूजन कर हर्षाते॥६॥ ॐ ह्री श्री उत्तमसयमधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम तप उत्तम तप है धर्म परम पावन स्वरूप का मनन जहाँ । यही सुतप है अष्ट कर्म की होती है निर्जरा यहाँ ।। पचेन्द्रिय का दमन सर्व इच्छाओ का निरोध करना । सम्यक तप धर निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ को हरना । ' धन्य धन्य बाह्यन्तर बादश तप विध धन्य धन्य मुनिराज । उत्तम तप जो धारण करते हो जाते हैं श्री जिनराज।।७।। ॐही श्री उसमतपयांगाय अयं नि स्वाहा ।