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श्री रत्नत्रयधर्म पूजन कष्टरों से भरपूर सर्वथा यह ससार असार है।
निज स्वभाव के द्वारा मिलता शिव सुख अपस्पार है ।। पुण्य भाव की रुचि में रहता इच्छाओ का सदा कुभाव । क्षुधारोग हरनेको केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव दिर्शन ।।५।। ॐ हीं श्री सम्यकरलत्रयधर्माय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि । ज्ञान ज्योति बिन अधकार में किये अनेकों विविध विभाव ।। आत्मज्ञान की दिव्यविभा से मोहतिमिर का कांअभाव।। दर्शन ॥६॥ ॐ हीं श्री सम्यकरत्नत्रयधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि ।। घाति कर्म ज्ञानावरणादि निज स्वरूप घातक दुर्भाव। ध्रव स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो अष्टकर्म से मुझे बचावीदर्शन ।।७।। ॐ ही श्री सम्यकत्लत्रयधर्माय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निज श्रद्धानज्ञान चारित्रमय निजपरिणति से पा निज ठॉव। महामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव।।दर्शन ।।८।। ॐ ह्री श्री सम्यकरत्नत्रयधर्माय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूँगा मै अनादि का घाव।। दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूजन करके राग द्वेष का करूँ अभाव ।। दर्शन ।।९।। ॐ ह्री श्री सम्यकलत्रयधर्माय अनर्थ पद प्राप्ताय अयं नि ।
सम्यक दर्शन आत्मतत्व की प्रतीत निश्चय सप्ततत्व श्रद्धा व्यवहार । सम्यक दर्शन से हो जाते भव्य जीव भव सागर पार ॥१॥ विपरीताभिनिवेश रहित अधिगमज निसर्गज समकित सार। औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार ॥२॥ आर्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, सक्षेप अर्थ विस्तार। समकित है अवगाड़ और परमावगाड़ दश भेद प्रकार ॥३॥ जिन वर्णित तत्त्वों में श का लेश नहीं, निशकित अग। सुरपद या लौकिकसुख बाँछा लेश नहीं, निःकांक्षित अग ।।४।।