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जैन पूजाँजलि केवल निज परमात्म तत्व की श्रद्धा ही कर्तव्य है ।
आत्म तत्व श्रद्धानी का ही तो उज्ज्वल भवितव्य है ।। ईर्या समिति सु प्रासुक भू पर चार हाथ भू लख चलना । भाषा समिति चार विकथाओ से विहीन भाषण करना ।।६।। श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनु देषिक आहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण मयम के उपकरण देख धरना ।।७।। प्रतिष्ठापना समिति देह के मल भू देख त्याग करना । पच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ।।८।। मनोगुप्ति है सब विभाव भावो का हो मन से परिहार ।। वचनगुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन सवार।।९।। काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भाव पय कायोत्सर्ग । तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते है शिवमय अपवर्ग ।।१०।। षट आवश्यक द्वादश तप पचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पचाचार विनय आराधन द्वादश व्रत आदिक सुखतम ।।११।। अट्ठाईस मूलगुण धारण सप्त भयो से रहना दूर । निजस्वभाव आश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर ।।१२।। निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण।।१३।। श्रेष्ठधर्म हे श्रेष्ठमार्ग है श्रेष्ठ साधु पट शिव सुखकार । मम्यक्चारित्र बिना न कोई हो सकता भव सागर पार।।१४।। ॐ ह्री श्री त्रयोदशविधि सम्यक चारित्राय अनर्यपद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला अष्ट अगयुत निर्मल सम्यक दर्शन मै धारण कर लूँ । आठ अगयुत निर्मल सम्यक ज्ञान आत्म मे वरच्।।१।। तेरह विधि सम्यक चारित्र के मुक्ति भवन में पग धरनू । श्री अरहत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनत सौख्य भरलूँ ।।२।। निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्ष मार्ग पर आ जाऊँ। निजस्वभाव धर भाव शुभाशुभा परिणामो पर जयपाऊँ ।।३।।