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श्री जिनेन्द्र पचकल्याणक पूजन निज मे जागरुक रह पंच प्रमादों पर तुम जय पाओ । अप्रमन बन निज वैभव से सहज पूर्णता को लाओ ।।
श्री तप कल्याणकअर्घ श्री जिन तप कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
तप सयम की हो रही पावन जय जयकार ।। कुछ निमित्त पा जब प्रभु के मन मे आता वैराग्य अपार । भव्य भावना द्वादश भाते तजते राजपाट ससार । लोकान्तिक ब्रह्मर्षि एक भव अवतारी होते पुलकित । प्रभु वेराग्य सुदृढ करने को कहते धन्य धन्य हर्षित ।। इन्द्रादिक प्रभु को शिविका पर ले जाते बाहर वन मे । महाव्रती हो केश लोचकर लय होते निज चितन मे ।। इन केशो को इन्द्र प्रवाहित क्षीरोदधि मे करता है । तप कल्याण महोत्सव तप की विमल भावना भरता है ॥३॥ ॐ ही श्री तीर्थकर तपकल्याणकभ्यो अर्घ्य नि स्वाहा ।
श्री ज्ञान कल्याणकअर्घ परम ज्ञान कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
स्वपर प्रकाशक आत्म मे झलक रहा ससार ।। क्षपक श्रेणी चढ शुक्ल ध्यान से गुणस्थान बारहवाँ पा । चार घातिया कर्म नाशकर गुणस्थान तेरहवा पा ।। केवलज्ञान प्रकट होते ही होती परमादारिक देह । अष्टादश दोषो मे विरहित छयालीस गुण मडित नेह ।। समवशरण की रचना होती होते अतिशय देवोपम । शत इन्द्रो के द्वारा वदित प्रभु की छवि अति सुन्दरतम ।। दिव्य ध्वनि खिरती है सब जीवो का होता है कल्याण । ~ परम ज्ञान कल्याण महोत्सव पर जिन प्रभु का ही यश गान ।।४।।
ॐ ही श्री तीर्थकर ज्ञानकल्याणकेभ्यो अयं नि स्वाहा ।