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जैन पूजांजलि शानी को अस्थिरता के कारण है विद्यमान कुछ राग ।
किन्तु राग के प्रति एकत्व ममत्व नहीं, है पूर्ण विराम।। कामदेव बलभद्र वकि जो मुक्त हुए उनको बन्दै जल थल नभ से सिद्ध हुए उपसर्ग केवली सब वन्दं ॥२८॥ ज्ञात और अज्ञात समी निर्वाण भूमियों को वन्दै । भूत भविष्यत वर्तमान की सिद्ध भूमियों को वन्, ।।२९।। मन वच काय त्रियोग पूर्वक सर्व सिद्ध भगवन वन्,। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हेतु मैं पांचो परमेष्ठी वन्, ॥३०॥ सिद्ध क्षेत्रों के दर्शन कर निज स्वरूप दर्शन कर लूँ। शुद्ध चेतना सिंधु नीर पी मोक्ष लक्ष्मी को वर लूँ॥३१॥ सब तीर्थों की यात्रा करके आत्मतीर्थ की ओर चलें । अजरअमर अविकल अविनाशी सिद्धस्वपद की ओर ढले ॥३२॥ भाव शुभाशुभ का अभावकर शुद्धआत्म का ध्यान करूँ। रागद्वषे का सर्वनाश कर मगलमय निर्वाण वरूँ ॥३३॥ ॐही भी समस्त सिरक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णाय नि । श्री निर्वाण क्षेत्र का पूजन वंदन जो जन करते हैं । समकित का पावन वैभव पा मुक्ति वधू को वरते हैं ।
इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र -ॐ ही श्री सर्व सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम । माता तो जिनवाणी और कोई नहीं । भव सागर पार करे साँची मों सोई ॥१॥ ज्ञान का प्रकाश करे मिथ्याश्रम खोई । जीव और पुद्गल भित्र भित्र दोई ॥२॥ भेद ज्ञान की महान ज्योति देत जोई। स्याद्वाद् नय प्रमाण बादशाग होई ॥३॥ भव्यों के प्रति पालक मोक्ष सुख संजोई। सकित को बीज देत अन्तर में बोई ।।४।।
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