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जैन पूजावलि शुवधाम ध्येय की धुन में पुष ध्यान धैर्यधरम्याऊँ।
सुतात्मधर्म ध्याता बन परमात्म परम पद पाऊँ ।। उन्नत धनुष पांच सौ पचासन है रत्नमयी प्रतिमा । वीतराग अर्हन्त मूर्ति की है पावन अचिन्त्य महिमा ।।११॥ असंख्यात संख्यात जिन भवन तीन लोक में शोभित हैं। इन्द्रादिक सुन ना विद्याधर मुनि वन्दन कर मोहित हैं।१२।। देव रचित या अनुज रचित, हैं भव्य जनों द्वारा वंदित । कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय को पूजन कर मैं हूँ हर्षित ॥१३॥ बाईप मे भूत भविष्यत वर्तमान के तीर्थकर । पंचवर्ण के मुझे शक्ति दें मैं निज पद पाऊँ जिनवर ॥१४॥ जिनगुण संपत्ति मुझे प्राप्त हो परम सपाधिमरण हो नाथ । सकल कर्म क्षय हो प्रभु परे बोधिलाभ हो हे जिननाथ ॥१५॥ ॐ ही प्रीतीनलोकसम्बन्धी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो पूर्णाध्य नि ।
श्री समस्त सिद्धक्षेत्र पूजन मध्य लोक में आईप के सिद्धक्षेत्रों को वन्दन । जम्बूद्वीप सभरत क्षेत्र के तीर्थक्षेत्रों को वन्दन । श्री कैलाश आदि निर्वाण भूमियों को मैं करूं नमन । श्रद्धा भक्ति विनयपूर्वक हर्षित हो करता हूँ पूजन ॥ शुद्ध भावना यही हृदय में मैं भी सिद्ध बनें भगवन । रत्नत्रय पथ पर चलकर मैं नारों चहुँगति का क्रन्दन ।। ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट, हाँ श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ 3:3ः, ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वष्ट । ज्ञान स्वभावी निर्मल जल का सागर उर में लहराता । फिर भी भव सागर भंवरों में जन्म मरण के दुख पाता ।। श्री सिद्धक्षेत्रों का दर्शन पूजन वन्दन सुखकारी । जो स्वभाव का आश्रय लेता उसको हेभव दुखहारी ॥ *ही श्री समस्त सिक्कयो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि ।