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जैन पूजान्जलि अब व्यवहार दृष्टि को तज दे दृष्टि त्याग सयोगाधीन ।
दृष्टि निमित्ताधीन छोड़ दे हो जा निश्चय दृष्टि प्रवीण ।। ईश्वर प्रभु की महिमा गाऊ आत्म द्रव्य का भान भरूँ। श्री नेमि प्रभु के चरणों मे चिदानन्द का ध्यान धरूँ॥१७॥ वीरसेन के पद कमलों मे उर चचलता दूर करूँ। महाभद्र की भव्य सुछवि लख कर्मघातिया चूर करूँ ॥१८॥ श्री देवयश सुयश गान कर शुद्ध भावना हृदय धरूँ। अजितवीर्य का ध्यान लगाकर गुरा अनन्त निज प्रगट करूँ।।१९।। बीस जिनेश्वर समवशरण लख मोहमयी ससार हरूँ निज स्वभाव साधन के द्वारा शीघ्र भवार्णव पार करूँ।।२०।। स्वगुण अनन्त चतुष्टय धारी वीतराग को नमन करूँ। सकल सिद्ध मगल के दाता पूर्ण अर्घ के सुमन धरूँ।।२१।। ॐ ह्री श्री विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो पूर्णायँ नि । जो विदेह के बीस जिनेश्वर की महिमा उर मे धरते । भाव सहित प्रभु पूजन करते मोक्ष लक्ष्मी को वरते ।।
इत्याशीर्वाद जाप्य मन्त्र-ॐ ह्री श्री विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो नम ।
श्री सिद्ध पूजन हे सिद्ध तुम्हारे वन्दन से उर मे निर्मलता आती है । भव भव के पातक कटते है पुण्यावलि शीश झुकाती है ।। तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे । है सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे ॥ इसलिए नाथ पूजन करता, कब तुम समान में बन जाऊँ। जिस पथ पर चल तुम सिद्ध हुए, मै भी चल सिद्ध स्वपदपाऊँ ।। ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म को नष्ट करूँ ऐसा बल दो । निज अष्ट स्वगुण प्रगटे मुझमे, सम्यक पूजन का यह फल हो । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर सवौषट, ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट् ।