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वस्तु स्वभाव कभी न पलटता गुण अभाव होता न कमी ।
है विकार पर्याय मात्र में वस्तु विकार सहित न कमी ।। बड़े भाग्य से प्रबल पुण्य से फिर मानव पर्याय मिली । मोह महामद के कारण ही नहीं ज्ञान की कली खिली ।।७।। अशुभ पाप आश्रव के रा नर्क आयु का बन्ध गहा । नारकीय बन नरकों में रह ऊष्ण शीत दुख द्वन्द सहा ॥ शुभ पुण्याश्रव के कारण मैं स्वर्ग लोक तक हो आया । ग्रेवेयक तक गया किन्तु शाश्वत सुख चैन नहीं पाया ।९॥ देख दूसरों के वैभव को आर्त रौद्र परिणाम किया । देव आयु क्षय होने पर एकेन्द्रिय तक में जन्म लिया ॥१०॥ इस प्रकार घर धर अनन्त भव चारों गतियों में भटका । तीव्र मोह मिथ्यात्व पाप के कारण इस जग में अटका ।।११।। महापुण्य के शुभ संयोग से फिर यह तन मन पाया है । देव आपके चरणों को पाकर यह मन हर्षाया है॥१२॥ जनम जनम तक भक्ति तुम्हारी रहे हृदय में है जिनदेव । वीतराग सम्यक पथ पर चल पाऊँ सिद्ध स्वपद स्वयंमेव ॥१३॥ भरत क्षेत्र से कुन्द कुन्द मुनि ने विदेह को किया प्रयाण । प्रभो तुम्हारा समवशरण मे दर्शन कर हो गये महान ॥१४॥ आठ दिवस चरणो मे रहकर ओकार ध्वनि सुनी प्रधान । भरत क्षेत्र मे लौटे मुनिवर सुनकर वीतराग विज्ञान ॥१५॥ करुणा जागी जीवों के प्रति रचा शास्त्र श्री प्रवचनसार । समयसार पचास्तिकाय भूत नियमसार प्राभूत सुखकार ॥१६॥ रचे देव चौरासी पाहुड़ प्रभु वाणी का ले आधार । निश्चयनय भूतार्थ बताया अभूतार्थ सारा व्यवहार ॥१७॥ पाप पुण्य दोनों बंधन हैंग में भ्रमण कराते हैं। रागमात्र को हेय जान ज्ञानी निज ध्यान लगाते हैं ॥१८॥ निज का ध्यान लगाया जिसने उसकाप्रगटा केवलज्ञान । परम समाधि महासुखकारी निश्चय पाता पद निर्वाण १९॥