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ANSL
युग प्रमुख चारित्र शिरोमणि सन्मार्ग दिवाकर पूज्य आचार्य श्री विमलसावरजी महाराज की हीरक जयन्ती के अवसर पर प्रकासित
श्री आचार्य सुधर्मसागर विरचित 'सुधर्म ध्यान प्रदीप'
हिन्दी अनुवादक - धर्मरत्न पडित लालारामजी शास्त्री, आगरा
प्रकाशक
भारत वर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद
सोनागिर दतिया (म.प्र.)
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संकल्प "णाणा पयासं सम्यग्ज्ञान का प्रचार-प्रसार केवलज्ञान का बीज है। आज कलयुग में ज्ञान प्राप्ति की तो होड़ लगी है, पद्वियों और उपाधियाँ जीवन का सर्वस्व बन चुकी है परन्तु सम्यग्ज्ञान की ओर मनुष्यों का लक्ष्य ही नहीं है।
जीवन में मात्र ज्ञान नहीं सम्यग्ज्ञान अपेक्षित है। आज तथाकथित अनेक विद्वान् अपनी मनगढन्त बातों की पुष्टि पूर्वाचार्यों की मोहर लगाकर कर रहे हैं, ऊटपटांग लेखनियां सस्य की श्रेणी में स्थापित की जा रही है, कारण पूर्वाचार्य प्रणीर ग्रन्थ आज सहज सुलभ नहीं है और उनके प्रकाशन ३ पठन-पाठन को जैसी और जितनी रुचि अपेक्षित है, वैसी और उतनी दिखाई नहीं देती।
असत्य को हटाने के लिये पर्चेबाजी करने या विशाल सभा में प्रस्ताव पारित करने मात्र से कार्य सिद्ध होना अशक्य है। सत्साहित्य का प्रचुर प्रकाशन व पठन-पाठन प्रारम्भ होगा, असत् का पलायन होगा। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए आज सत्साहित्य के प्रचुर प्रकाशन की महती आवश्यकता है:
यनते विढलन्ति वादिगिरय स्तुष्यन्ति वागीश्वराः भव्या येन विदन्ति निवृतिपद मुज्चति मोह बुधाः। यद् बन्धुर्यमिना यदक्षयसुखस्याधार भूत मत, तल्लोकजयशुद्धिद जिनवच: पुष्पाद् विवेकश्रियम्।।
सन् १९८४ से मेरे मस्तिष्क में यह योजना बन रही थी परन्तु तथ्य यह है कि "सकल्प के बिना सिद्धि नहीं मिलती।" सन्मार्ग दिवाकर आचार्य १०८ श्री विमलसागर जी महाराज की हीरक जयन्ती के मौगलिक अवसर पर मा जिनवाणी की सेवा का यह संकल्प मैने प. पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री व उपाध्याय श्री के चरण सानिध्य में लिया। आचार्य श्री व उपाध्याय श्री का मुझे भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ। फलतः इस कार्य में काफी हद तक सफलता मिली है।
इस महान कार्य में विशेष सहयोगी प. धर्मचन्दजी व प्रभाजो पाटनी रहे। इन्हे व प्रत्यक्ष परोक्ष में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं के लिए मेरा पूज्य गुरुदेव के पावन चरण-कमलों में मिद्ध-श्रुत-आचार्य भक्ति पूर्वक नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु।
सोनागिर, ११-७-९०
आर्यिका स्याद्वादमती
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ᆞ
अध्याय
१
"3
23
17
ARTIS
2520 UP 9 RV
६
"
विषय
मङ्गलाचरण
शुद्ध जीवका लक्षण
ज्ञानके भेद और लक्षण
आत्माका स्वरूप
सहानुभूति और सम्यग्दर्शन
बहिरात्माका स्वरूप
१
१०
"
२६ ε
प्रकारान्तरसे जीवका लक्षण और भेद ५१ १०
१
११
अन्तरात्माका स्वरूप
परमात्माका स्वरूप वैराग्यभावनाका स्वरूप
द्वादश भावनाका स्वरूप
महाव्रतका स्वरूप अहिंसा महाव्रत
विषय-सूची
सत्य मात्रत
श्राचौर्य महाश्रव
श्लोक
अध्याय
१६.
"
१ १२
४११३
१४
१५
१६
१७
१
३३ १८
१ १६.
२३ । २०
विषय
ब्रह्मचर्य महात्रत
परिप्रहत्याग महाव्रत इन्द्रिय-विजय मनोनिम का स्वरूप
समितियों का स्वरूप
श्लोक
बारह तपका स्वरूप
अनुक्रमसे कषायका विजय
राग-द्वेषका त्याग और समताका स्वरूप
श्रतिध्यान और रौद्र ध्यानका स्वरूप
ध्यानकी क्रियाएं
धर्मध्यानका स्वरूप
आज्ञा-विचयका स्वरूप अपाय- विचयका स्वरूप विपाक-विचयका स्वरूप
संस्थान विजयका स्वरूप
३६
६५
१
१६
A
WEST
भा
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अध्याय
विषय श्लोक अध्धाय विषय
प्रलंक पिण्डस्थ ध्यान और धारणा
मपातीत वा सिद्धोंका ध्यान वा तत्वका स्वरूप
शुक्ल ध्यानका स्वरूप और उसके भेदोंका पदस्थ ध्यान तथा मन्त्रोंके नाम
स्वरूप रूपस्थ ध्यान अाईन्तका स्वरूप उनके ध्यान
अन्निम मङ्गल और प्रशस्ति का उपाय और साधनकी महिमा नोट:-जहां श्लोक संध्या नहीं लिखी गई है, वहां पूरे अध्याचमें उमी विपयका वर्णन है ।
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आभार सम्प्रत्यस्ति ने केवली किल कली त्रैलोक्य चूडामणि
स्तद्वाचः परमास्तेऽत्र भरतक्षेत्रे जगतिका।। सदरत्नत्रयधारिणो यतिवरोंस्तेषा समालम्बन।
तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजतिः पद्मनदी प.॥ वर्तमान में इस कार्यकाल में तीन लोक के पूज्य केवली भगवान इस भरतक्षेत्र में साक्षात् नहीं. है तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली भगवान की वाणो मौजूद है तथा उस वाणी के आधारस्तम्भ श्रेष्ठ रत्नत्रयधारी मुनि भी है इसलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती की पूउन है, तथा सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है।
आर्ष परम्परा की रक्षा करते हुए आयाम पथ पर चलना भव्यात्माओं का कर्तव्य है। तीर्थकर के द्वार प्रत्यक्ष देखी गई, दिव्यध्वनि में प्रस्फुटित तथा गणधर द्वारा गथित वह महान आचार्यों द्वारा प्रसारित जिनवाणी की रक्षा प्रचार-प्रसार, मार्ग प्रभावना नामक एक भावना तथा प्रभावना नाम सम्यग्दर्शन का अंग है।
युग प्रमुख आचार्य श्री के हीरक जयन्ती वर्ष के उपलक्ष्य में हमें जिनवाणी के प्रसार के लिये एक अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ है। वर्तमान युग में आचार्यश्री ने समाज व देश के लिए अपना जो त्याग और दया का अनुदान दिया है वह भारत के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। ग्रन्थ प्रकाशनार्थ हमारे सानिध या नेतृत्व प्रदाता पूज्य उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज व निदेशिका तथा जिन्होंने परिश्रम द्वारा ग्रन्थों की खोजकर विशेष सहयोग दिया ऐसी पूज्या आ. स्याद्वादमतीमाताजी के लिये मैं शत-शत नमोस्तु-बन्दामि अर्पण करती हूँ। साथ ही त्यागीवर्ग, जिन्होंने उचित निर्देशन दियण उनको शत-शत नम करती हूँ। ग्रन्य प्रकाशनार्थ अमूल्य निधि का सहयोग देने वाले द्रव्यदाता की मैं आभारी हूँ। तया यथा समय शुद्ध ग्रन्य प्रकाशित करने वाले इमरान आफसेट प्रिन्टर्स, इन्दौर की मैं आभारी हूँ। अन्त में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में सभी सहयोगियों के लिये कृतजता व्यक्त करते हुए सत्य जिन शासन की जिनागम की भविष्य में इसी प्रकार रक्षा करते रहें ऐसी कामना करती हूं।
कु. प्रभा पाटनी संघस्थ
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इस परमाणु युग में मानव के अस्तित्व की ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा की समस्या है। इस समस्या का निदान 'अहिसा' अमोघ अस्त्र से किया जा सकता है। अहिंसा जैनधर्म/संस्कृति की मूल आस्नाई। यही जिनवाणी का सार भी है।
तीर्थकरों के मुख से निकली वाणी को गणघरों ने ग्रहण किया और आचार्यों ने निबद्ध किया जो आज हमें जिन्दवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे आराध्य पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साघुगण जिनवाणी के स्वास्थ्य और प्रचार-प्रसार में लगे हुए है।
उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक है सन्मार्ग दिवाकर चारित्रचूड़ामणि परमपूज्य आचार्यवर्व विमल सागर जी महाराज, जिनकी अमृतमयी बाणी प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी है। आचार्यवर्थ की हमेशा भावना रहती है कि आज के समय में प्राचीन आचायी द्वारा प्रतीत ग्रन्थों का प्रकाशन और मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जाएँ जिसे प्रत्येक श्रावक पड़कर मोदरूपी अनाकार को नष्ट कर ज्ञानज्योति जला सके:
जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो. आर्ष परम्परा की रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का शासन निरन्तर अबाधगति से चलता रहे। उक्त भावनाओं को ध्यान में रखकर परमपूज्य ज्ञानदिवाकर, वाणीभूषण उपाध्यायरत्न भरतसागर जी महाराज एवं आर्थिक स्याद्वादमती माता जी की प्रेरणा व निर्देशन में परम पूज्य आचार्य विमलसागर जी महाराज की 74वी जन्म जयन्ती के अवसर पर 75वीं जन्म-जयन्ती के रूप में मनाने का संकल्प समाज के सम्मुख भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद ने लिया। इस अवसर पर 75 ग्रन्यों के प्रकाशन की योजना के साथ ही भारत के विभिन्न नगरों में 75 धार्मिक शिक्षण शिविरो का आयोजन किया जा रहा है और 75 पाठशालाओं की स्थापना भी की जा रही है। इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले 75 विद्वानो का सम्मान एव 75 युवा विद्वानों को प्रवचन हेतु तैयार करना तथा 7775 युवा वर्ग से सप्तव्यसन का त्याग करना आदि योजनाएं इस हीरक जयन्ती वर्ष में पूर्ण की जा रही हैं।
सम्रति आचार्यवर्य पू. विमलसागर जी महाराज के प्रति देश एवं समाज अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापन करता हुआ उनके चरणों में शत-शत नमोऽस्तु करके दीर्घायु की कामना करता है। ग्रन्चों के प्रकाशन में जिनका अमूल्य निर्देशन एव मार्गदर्शन मिला है, वे पूज्य उपाध्याय भरतसागर जी महाराज एवं माता स्यावादमती जी है। उनके लिए मेरा क्रमशः नमोऽस्तु एवं वन्दामि अर्पण है।
उन विद्वानों का भी आभारी हूं जिन्होने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक/सम्पादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है। ग्रन्यो के प्रकाश में जिन दाताओं ने अर्ध का सहयोग करके अपनी चंचलता लक्ष्मी का सदुपयोग करके मुण्यार्जन किया, उनको धन्यवाद ज्ञापित करता है। ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हुए पतदर्थ जन प्रेस संचालकों को जिन्होंने बड़ी तत्परता में प्रकाशन का कार्य किया, धन्यवाद देता हूँ।
ब्र.प.धर्मचन्द्र शास्त्री
अध्यक्ष मारतीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्
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श्री १०८ श्रीमुनिराज सुधर्मसागरजी महाराजका परिचय
श्रीमान् धर्मरत्न पं० लालारामजी शास्त्रीसे छोटे भाई विद्यावारिधि पंच मक्खनलालजी शास्त्रीसे बड़े भाई भीमान श्रद्धेय पं० नन्दनलालजी शाली हैं, जिनका कि मुनिपद में परमपूज्य 'सुधर्मसागरजी यह दीक्षित नाम रक्खा गया है। आपका जन्म वि० सं० १९४२ भादों सुदी दशमी को हुआ था। आपने प्रारम्भमें गाँवके सरकारी स्कूल में कुछ वर्ष अध्ययन किया था। पीछे दि० जैनमहाविद्यालय, मधुरा' और 'सेठ हीरचन्द गुमानजी जैनबोडिंग बम्बई में रहकर शास्त्रीतक सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्य, संस्कृत प्रन्योंका अध्ययन किया था। तथा भा० दि० जैन महासभाश्रित परीसालयले और बम्बई परीक्षालयले नियमानुसार 'शास्त्री' पद प्राप्त किया है। इसलिये श्राप संस्कृत शाखोंके एक उपसम प्रौढ षिवान हैं। गोमट्टसारादि सिद्धान्त ग्रंथोंका अध्ययन आपने कुछ वर्ष मोरेना ( ग्वालियर में रहकर स्याद्वा
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देवारिधि न्यायवाचस्पति बदिगजकेसरी स्वर्गीय पं. गोपालदासजी बरयासे किया था। इसलिये आप सिद्धान्त-शाखोंके
भी मर्मज्ञ विद्वान् हैं । अंग्रेजीका अभ्यास भी आपने साधारण रूपसे किया है। गुजराती और महाराष्ट्र भाषाके भी आप मा प्रकले ज्ञाता है। आयुर्वेद (वैद्यक शास्त्रोंके भी आप उत्तम विद्वान हैं. आपका वैद्यक अनुभव बहुत अच्छा माना जाता है। ||
आप प्रसिद्ध व्याख्याता भी हैं, किसी भी विषयका प्रतिपादन दो-दो, तीन-तीन घण्टे तक धारावाही बोलते हुये गहरे विवेचन पूर्वक करते हैं। जैसे आप व्याख्याता है, उसीप्रकार गण्य मान्य मुतेखक भी हैं। अापके लेख गृहस्थावस्थामें 'जैनगजट' आदि || पत्रोंमें सदैव निकलते रहे हैं । इसके सिवाय आपने धार्मिक एवं सामाजिक विषयोंपर अत्युपयोगी कई ट्रेक भी लिखे हैं।
संस्कृत रचनाके सिवाय हिन्दी कविता भी श्राप पिङ्गल छन्दःशास्त्रके अनुसार बहुत मधुर और अतिशीघ्र || बनाते हैं। आपकी हिन्दी कविताका परिचय पाठकोंको आपकी बनाई हुई पूजनों आदिसे होगा ! चौबीस भगवानको
पूजन, तारङ्गापूजन, दीपावली महावीर स्वामीकी पनन आदि कई भावपूर्ण और भक्तिरमसे समन्धित, हिन्दी भाषामें पूजनोंकी पापने रचना की है। इनमें कतिपय पूजन मद्रित भी हो चुकी हैं।
आप बचपनसे ही उदारचेता, अत्यन्त सरल स्वभावी और धर्मोत्साही हैं । विक्रम सं० १६७५ में आपकी सौ. सहधर्मिणीका स्वर्गवास हो गया था । आपके एक सुपुत्र हैं जिनका नाम चिट जयकुमार है। इस समय करीब २४ IFII वर्षके हैं। इनका विवाह हो चुका है। कुछ वर्ष मोरेना विद्यालयमें संस्कृत और सिद्धान्त अन्धोंका अध्ययनकर कलकना
के आयुर्वेद कालजमें ५ वर्ष अध्ययनकर अब ये पायर्वेदाचार्य हो गये हैं। साथमें सर्जरीकी शिक्षा भी आपने पाई है। Sil अंग्रेजी और बंगलाके भी आप विद्वान हैं। सुयोग्य पित्ताके सुयोग्य पुत्ररत्र होनेके कारण आप भी बहुत धार्मिक हैं । इम | समय आपने कलकत्ता में स्वतन्त्र श्रीपधालय खोल रखा है।
कुछ वर्ष श्रीमान् पण्डित नन्दनलालजी शाखी ईडर और बम्बईमें रहे । ईहरमें रहकर अपने दो कार्य मुख्य | रूपसे किये थे। एक तो वहाँके शास्त्र भण्डारकी सम्हाल और अबलोकन, तथा दूसरा कार्य गुजरात प्रान्त के भाइयों में धार्मिक जागृतिका सवार।
इसके सिवाय ईडर में ही अापने परमपूज्य श्री १०८ शान्ति नागरजी महाराज छांणीवालोंको उनको ब्रह्मचारी || अवस्थामें अध्ययन भी कराया था और आत्मोन्नति मार्ग में आगे बढ़ने के लिये उन्हें प्रेरित भी किया था 1 तया परमपूज्य
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प्राचार्य शान्तिसागरजी हांणीवालोंके साथ आपने अनेक भीलोंले मग, मांस एवं हिंसाका त्याग कराया था और | भूखियाके ठाकुर रसिंहजी राजाको जैनी धनवाया था, एवं उनसे एक दि. जैनमन्दिर भी बनवाया था। यह कार्य आपका बहुत प्रभावक और महान हुआ है।
ईडर रहकर और भी आपने बहुत-से छोटे-मोटे कार्य किये थे । जैसे:
वहांके पहाड़ी स्थानों में जगह २ दिगम्बर जैन प्रतिमाओं का अन्वेषण करना आदि। इस समय ईडरमें और अन्यत्र भी अनेक विशालकाय मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान हैं वे आपके हो मुख्य उद्योगने पृथ्वोतलसे चाइर लाई गई थी।
ऐसी ही विशाल एवं अत्यन्त मनोहर दो खड्कासन प्रतिमाएं अपने ही उगागले आपने तारका सिद्धक्षेत्रके दोनों पर्वतों पर विराजमान कराई है।
पम्बईमा रहकर भी अपने धार्मिक कायाने समय-समयपर सहायता पहुंचाई थी। आप भादि जैन * महासभा जैसी धार्मिक संस्थाओंके सदैवले सहायक रहे हैं और उनमें आप एक मुख्य अङ्गके नाते सदैव भाग लेते रहे हैं।
बम्बईमें रहकर आपने सबसे बड़ा और स्वाक्षरों में अङ्कित करने योग्य यह काम किया था कि वहाँके प्रसिद्ध धर्मात्मा सङ्घभक्त शिरोमणि समाजरत्र सेठ पूनमचन्दजी घासीलालजी जाहेरी तथा उनके तीनों सुपुत्र-संभ शिल समाजरत्न सेठ गेंदमलजी, सेठ दाडिमचन्दजी व सेठ मोतीलालजी जब्हेरीको इस महान और असाधारण कार्य के लिये प्रेरित एवं तैयार किया कि वे परमपूज्य १८८ श्राचार्य श्रीशान्तिसागरजी महाराजके सङ्घको दक्षिणसे उत्तर भारतमें लावें। उत्तर प्रान्तके जैन समुदायके असीम कल्याणकी आपकी बड़ी प्रबल भावना और प्रेरणाका प्रभाव उक्त जरहेरी कुटुम्बपर बहुत पड़ा और परिणामस्वरूप उन्होंने इस महत्पुण्य-सम्पादक एवं जैनधर्मप्रभावक कार्यको करनेका विचार दृढ़ बना लिया।
परन्तु जबतक परमपूज्च आचार्य श्री १०८ महाराजकी इच्छा दक्षिण प्रान्तसे उत्तर प्रान्तमें आनेको नहीं | हो, तबदक ५-५ लाख रुपये खर्चकर सङ्घको लाने एवं प्रतिष्ठा आदि महान कार्य कराने के विचार भी कार्यकारी नहीं हो सकते, इसलिये श्रीमान् पूज्य पं० नन्दनलालजी शामो ( वर्तमान मुनिराज १०८ श्रीसुधर्मसागरजी महाराज) स्वयं कई बार दक्षिणमें परम पूज्य आचार्य महाराज एवं सङ्घके दर्शनार्थ गये और वहां बड़ी भक्ति और नम्रतासे उनके चरणों
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में उत्तर प्रान्तके उद्धारकी भावना उन्होंने प्रकट की, तथा उसका सबसे बड़ा अमोघ उपाय परम पूज्य प्राचार्य महाराजका उत्तर भारतमें बिहार होना आवश्यक बताया, परन्तु निम्रन्थ वीतराग सपस्मी आचार्य महाराजने उत्तर प्रान्तके जैनियोंके उद्धारको भावनाको उत्तम समझते हुये भी उससमय उधर विहार करनेके लिये निषेध कर दिया। उन्होंने उन्ही दक्षिणकी एकान्स निर्जन पहाड़ी गुहा, मठ आदि स्थानोंको आत्मसिद्धिका अधिक साधन समझा और "फिर देखा। जायगा", ऐसा कुछ बाशाकी झलक दिलानेवाला उत्तर दे दिया । हमारे पूज्य शास्त्रीजी और उक्त जब्रेरीजो उस समय निराश होकर-किन्तु कुछ अाशाकी झलकका बीज बोकर बम्बई लौट आये, भावनाने दूसरी वर्ष पुनः प्रेरित किया। शास्त्रीजी तथा जयझेरीजी पुनः प्राचार्य-चरणोंमें निवेदन करनेके लिये दक्षिण गये और वहींपर शास्त्रीजीने परमपूज्य आधार्य महाराजसे द्वितीय प्रतिमाके व्रत प्रहरण किये। उसी समय प्राचार्य महाराजने कहा था कि सामें तुम्हारे जैसे व्रती विद्वानकी बहुत जरूरत है। उस समय जैनगजटके सम्पादकके नाते बलगांव-केश चलनेके निमित्तसे परमपूज्य वाचार्य महाराजके दर्शनार्थ श्रीमान् पं० लालारामजी शास्त्री भी वहां पहुंचे थे और श्रीमान पं० मक्खनलालजी शास्त्री भी आपके साथ थे।
इसप्रकार अव्हेरीजी और शास्त्रीजी द्वारा बार-बार प्रार्थना करने के पश्चात् श्रीसम्मेदशिखर मावि सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना और उसर प्रान्तके जैनियों के उद्धारकी भावना रखकर परमपूज्य श्राचार्य महाराजका संघ दक्षिणके उपर प्रान्तमें विहार करने लगा। संघके विहारसे वि० सं० FEE४में श्रीसम्मेदशिखर सिसूक्षेत्रपर जो संचभक्त शिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलालजी जव्हेरीजी द्वारा श्रीपनकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी, उस समय यहाँ सिद्धक्षेत्रकी बन्दना, पश्च
कल्याएकोका दर्शन और परमपूज्य वीतराग ऋषि आचार्य संघकी बन्दनाके लिये करीब सवा लक्ष दि.जैन-समुदाय का इकट्ठा हुआ था । वह उत्सव भी एक अभूतपूर्व उत्सव हुआ ।
सप्तम प्रतिमा दीक्षा उसी परम पावन श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रपर फाल्गुन सुदी १३ वि०सं०१६८४ के शुभ मुहूर्तमें परमपूज्य श्री १० प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराजसे उक्त श्रीयुत पं० नन्दनलालजी शाषीने ग्रहस्थाश्रमसे विरक्त होकर सप्तम प्रतिमाके व्रत
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WRITERSHISHESARMIRECHANN
लिये थे। उस समय परम गुरु प्राचार्य महाराजने साझा दाजितनाम मझधारी शाम वाया। उसी शात्रिपरिषद्
की बैठक में पूज्य "ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्रजी" महाराजने करीब दो घण्टा तक शात्रियोंके कर्तव्य और जैनधर्मके रहस्थपर all मर्मस्पर्शी तात्विक विवेचन किया था । आपके भाषणका प्रभाव उपस्थित सभी शास्त्री विद्वानोंपर बहुत पड़ा था। वहीं
दि० जैन शातिपरिषदने अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए एक उट शास्त्री विद्वानके आदर्श स्वागी होनेपर गौरवाधायक प्रस्ताव पास किया था।
जिस समय श्री प्राचार्य संघ मोरेना (ग्वालियर स्टेट) में पहुंचा था, उस समय वहाँपर होनेवाले भा०दिर शास्त्रि-परिषद् के अधिवेशनके पूज्य सप्तम प्रतिमाधारी "ब्र० शानचन्द्रजी महाराज" सभापति चुने गये थे। सभाध्यक्षके नाते आपका भाषण अत्यन्त महत्वशाली एवं शास्त्रीय गवेषणापूर्ण हश्रा था। उक्त भाषण मुद्रित हो चुका है।
सप्तम प्रतिमा धारण करनेके पश्चात पूज्य "ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्रजी" श्रीसम्मेदशिखरसे लेकर सदैव परमपूज्य प्राचार्य महाराजके चरणोंके निकट संघके साथ ही भ्रमण करते रहे। आपकी वैराग्य भावना और भी बढ़ती गई और एक ही वर्प पीछे कुण्डलपुर क्षेत्र में आपने दशमी प्रतिमा ले ली। फिर दसरे वर्ष में ही अलीगढ़में आपने प्राचार्य महाराजसे तुल्लक दीक्षा ले ली। उस समय महाराजने आपका नाम "ज्ञानसागर" रखा। परमपूज्य श्री १०५ चालक हानसागरजी महाराज तुमक अवस्थामें रहते हुए स्वात्मोन्नति में तो निमन रहे ही, साथमें उन्होंने अनेक महत्त्वशाली कार्य किये। पुरुषार्थानुशासन, रयणसार, प्रतिक्रमण, षट्कर्मोपदेशरत्नमाला, उमास्वामि कृत श्रावकाचार, परमार्थोपदेश गुणभूषण श्रावकाचार आदि संस्कृत ग्रन्थोंकी आपने टीकाएँ की है। गुजराती भाषामें भी कई प्रन्थ लिखे हैं, कई स्वतन्त्र ट्रैक भी लिस्बे हैं। जैसे-जीवविचार, कर्मविचार, दानविचार आदि कई अत्युपयोगी ट्रेक आपने लिखे हैं। आपका || | बनाया हुआ 'यज्ञोपवीत संस्कार' ट्रैक दो भागोंमें छपा है, जो कि बहुत बड़ा है। आपके रचे हुए ट्रैलोका समाजने बहुत ही आदर किया है और उनसे बहुत लाभ उठाया है। भा० दि० जैन महासभाने भी उन्हें छपाकर सर्वत्र वितरण कराया है।
आपके ही आदेशसे अईन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु; इन पाँचों परमेष्टियोंकी पाँच प्रतिमाएँ-परमेष्ठियों का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रकट करनेवाली ३-३ फीट ऊँची शुक्त पाषाणकी अत्यन्त मनोश-चित्ताकर्षक श्रीगजपन्य सिद्धतेत्रपर उनके सब सहोदर भाइयोंने विराजमान कराई है। श्री वीर निःसंवत् २४६० में जब शोलापुरके प्रसिद्ध सेठ पूज्य
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ब्रह्मचारी जीवराजजी गौतमचन्दजी दोशीने वहाँपर नवीन मन्दिरका निर्माण और श्रीपचकल्याणक महोत्सव कराया
था, उसी में ये पाँचों नीम ये पाँचों प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित हुई थीं। तथा उस क्षेत्रके सुयोग्य सभापति उक्त सेठ जोधराज भाई व बहाँकी माननीय सदस्य महानुभावोंकी धार्मिक स्नेहपूर्ण अनुमतिसे गजपन्थ क्षेत्रके पहाड़पर केन्द्रीभूत मध्य गुद्दामें ये पाँचों प्रतिबिम्प विराजमान हैं, जो बहुत ही मनोज्ञ एवं चित्ताकर्षक हैं।
इसी प्रकार देहली के धर्मपुरा के मन्दिरजी में अष्टप्रातिहार्यसहित अतीव रमणीक ३ फीट ऊंची प्रतिमा उन्हीं भाइयोंने विराजमान कराई हैं, ये सब महत्पुण्य-फलप्रद बृहत्कार्य परम पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक "ज्ञानसागरजी” महाराजके जिनेन्द्र-भक्ति-सूचक आदेश से ही हुए हैं।
आपने गृहस्थावस्थायें भी एक चाँदीकी सुन्दर खड्गासन प्रतिमा बनवाई थी, जो कि आपके गृह-विरत होनेपर मोरेना पचायतीमें विराजमान कर दी गई थी। अस्तु ।
संघ रहकर सबसे बड़ा कार्य ।
परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागरजी महाराजने संघमें रहकर सबसे बड़ा काम यह किया है कि संघके समस्त परमपूज्य मुनिराजों एवं क्षुल्लकको संस्कृतका अध्ययन कराया। उसका परिणाम बहुत जल्दी सिद्ध हुआ। कुछ ही वर्षमें 'परमपूज्य श्री १०८ मुनिराज नेभिसागरजी, मुनिराज वीरसागर जी मुनिराज कुन्धुसागरजी, मुनिराज चन्द्रसागरजी तथा लक यशोधरजी, लुल्लक पार्श्व कीर्तिजी आदि सभी संस्कृत, व्याकरण और साहित्यके बहुत उत्तम ज्ञाता बन गये हैं। संघमें उक्त सभी मुनिराज और क्षुल्लक यशोधरजी संस्कृत में खूब भाषण करते हैं। वे सभी संस्कृतके उत्तम विद्वान बन गये हैं। यह वीतराग-तपस्ता-जनित विशुद्ध वृत्ति क्षयोपशमका ही परिणाम है।
परम पूज्य तुल्लक “ज्ञानसागर जी" ने संस्कृतके अध्यापनके कार्यको एक उपाध्याय परमेष्ठीके समान किया है। परम पूज्य श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज कहा भी करते थे कि संघ में एक शास्त्री विद्वान्के आ जाने से उपाध्यायका कार्य होने लगा है। वर्तमानमें परम पूज्य सपोनिधि मुनिराज कुन्धुसागरजीने संस्कृतमें चौबीस भगवानोंका स्तवन और गुरु-स्तवन तथा बोधामृतसारग्रंथ भी बनाया है। आप भाषण देते हुए चट संस्कृत श्लोक बना डालते हैं,
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इसी प्रकार परम पूज्य प्रतिवादिभयङ्ककर तपस्वी मुनि चन्द्रसागरजी, शास्त्राध्ययनरत-मुनिराज धीरसागरजी, श्रासन योगी मुनिराज नेमीसागरजी आदि सभी साधु गण संस्कृतके प्रभावक विद्वान् हो गये हैं। इस परमाश्यक महान् आदर्श कामको उद्भट विद्वान् परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागरजी (वर्तमान परम पूज्य मुनिराज सुधर्मसागरजी महाराज ने कराया है।
मसिना थापा गहाराजकी सेवा करना, समस्त संघस्थ मुनिराजोंकी वैय्यावृत्य करना, एक उत्तम अनुभवी वैध होनेके कारण संघके तपस्वियोंकी समय-समयपर प्रकृतियोंको सम्हालना, गृहस्थोंसे उनकी समयोचित वैयावृत्य कराना, विशिष्ट धर्मकार्योंकी सिद्धिके लिये, संघका बिहार करानेके लिये श्रावकोंको अनुमति देना, इसके सिवा जैन तथा जैनेतर विद्वानोंकी शष्टाओंका समाधान करना एवं भाषणों द्वारा जनताको धर्मलाभ एवं धर्ममे ढ़ता उत्पन्न कराना आदि अनेक महत्त्वपूर्ण काय, महाराज "तुल्लक झानसागरजी ने किये हैं।
मुनिदीक्षा-समारम्म जो पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा संघभक्त शिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलालजी जौहरीने प्रतापगढ़ में कराई थी, उसी प्रतिष्ठामें केवलज्ञान कल्याणकर्क समय फाल्गुन सुदी १३ वीर नि० सं० २४६० में क्षुल्लक "श्रीज्ञानसागरजी"ने परम पूज्य श्री१०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज परम गुरुसे मुक्तिदायिनी मुनिदीक्षा धारण की थी। श्राचार्य महाराजने उस समय आपका मुनि अवस्थाका नाम 'सुधर्मसागर' घोषित कर दिया था। यहींपर परमपूज्य जुल्लक नेमिकीर्तिजी
और ब्र० सालिकरामजीने क्रमसे मुनिदीक्षा और सुन्नकदीक्षा आचार्य महाराजसे ग्रहण की थी। उस समय आचार्य महाराजने उनका नाम क्रमसे "मुनि आदिसागर" और "क्षुल्लक अजितकीर्ति" घोषित किया था। उस समय उपस्थित करीब ४०००० चालीस हजार जनतामें बहुत भारी प्रभावना हुई थी। अस्तु । बढ़ी हुई वैराग्य-वृत्ति तथा प्रताभ्यामोंके कारण श्री १०८ वीतराग तपन्वी परमपूज्य मुनिराज "सुधर्मसागरजी" महाराज अनेक उपवास, नीरस श्राहार, बहुत कालतक ध्यान आदि कठिन तपश्चरण करते है। साधुंपदोचित शास्त्रोक्त अट्ठाईस मूलगुणोंका पालन करते हैं। ध्यानातिरिक्त समयमें शास्त्र-स्वाध्याय एवं शाम्य-निर्माण श्रादि वीतराग कार्योंमें ही समयको लगाते हैं।
गुरुतर कार्य-भार उदयपुर चातुर्मासके समय परम पूज्य आचार्य महाराजने शिक्षा-दीक्षा देने श्रादिका अपना प्राचार्योचित कार्यAll भार भी परम पूज्य मुनिराज मुधर्मसागरजी महाराजको सौंप दिया था । यद्यपि महाराज सुधर्मसागरजीने इस गुरुतर
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KERSHA
कार्यभारको लेने से बहुत निषेध किया था और परमपूज्य आचार्य महाराजके चरणों में नम्र प्रार्थना की थी कि स्वामिन: आप ही इस महान कार्य के सम्हालने में समर्थ है, उस प्रकारकी पूर्ण सामर्थ्य मुझमें नहीं हैं। इसलिये श्राप ही शिक्षादीक्षा देने आदि कार्यको पूर्ववत करते रहे। विशेष कार्य लिये हमें आज्ञापित करें, आपको हम न तो कोई कष्ट होने देंगे और न आपके स्वतन्त्र धर्म-साधनमें कोई बाधा आने देंगे' आदि ।
जय आचार्य महाराजने सुनिराज सुधर्मसागरजीको कार्यभार सम्हालनेके लिये पुनः वाध्य किया और आज्ञा दे दी, तब उन्हें उक्त कार्य सम्हालना ही पड़ा। यद्यपि मुनिराज सुधर्मं सारजीकी यह उत्कट इच्छा थी कि यदि अपना कार्य आचार्य महाराज सौंपते ही हैं तो श्री १०८ सुनिराज नेभिसागरजी, मुनिराज बीरसागरजी, मुनिराज कुन्थुसागरजी, इनमेंसे किन्हींको सौंप देवें । उक्त तीनों ही महाराज प्रभावक तपस्वी, पूर्ण विद्वान् और इस कार्यके सम्हालनेके लिये सब प्रकारसे योग्य हैं; परन्तु उक्त मुनिराजोंके भी निषेध करनेपर और परमपूज्य आचार्य महाराजकी आज्ञा होनेपर परमपूज्य मुनिराज सुधर्मसागरजी महाराज ही दीक्षा प्रदानादि कार्योको सम्हालते रहे, परन्तु परमगुरु आचार्य महाराजकी अनुमति एवं उनकी आज्ञा लेना प्रत्येक कार्य में आवश्यक समझते रहे । संघका पृथक्-पृथक् बिहार होनेसे आचार्य. चरणोंमें निबेदनकर मुनिराज सुधर्मसागरजीने यह कार्य भार छोड़ भी दिया है । अस्तु ।
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इस प्रकार पूज्य श्री १०८ मुनिराज सुधर्मसागरजी महाराजने परमाराध्य एवं स्वात्म चरमोन्नति-साधक मुनिपदको धारणकर अपना तो परम हित किया है, साथ ही आपके द्वारा धर्म एवं समाजका भी बहुत भारी हित हुआ। जिस पद्मावतीपुरबाल पवित्र सज्जाति में महाराजने जन्म लिया है, उसे तो विभूषित किया ही है, साथ ही सप्त परमस्थानोंमें पारित्राज्य ( मुनिदीक्षा) परम स्थानको धारणकर अपने विशुद्ध कुलको भी आदर्श एवं मुनिवंशके पवित्र नामसे प्रख्यात कर दिया है।
परम पूज्य लोक-हितकर दिगम्बर वीतराग तपस्वी मुनिश्रेष्ठ श्री १०८ सुधर्मसागरजी महाराजका जीवन परम पवित्र और वीतरागी त्यागियोंके लिये भी उच्चादर्श है। अपने नियमित पढावश्यक कर्म तथा सामयिक स्वाध्यायसे बचे हुए समय में मुनि महाराजने यह महान ग्रन्थ-- "सुधर्मध्यानप्रदीप" संस्कृत श्लोकोंमें बनाया है। इस मन्धकी रचना वीतरागी महर्षियों, विद्वानों एवं श्रावकों का बहुत बड़ा कल्याण होगा। इस पचम काल में ऐसे सर्वोच उद्धट विद्यन् महि
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परम पूज्य सुधर्मसागरजीने इस विशाल संस्कृत ग्रन्थकी रचना करके पूर्वाचार्योकी महान कृतिको पुनः साक्षात् स्मृतिपथमें ला दिया है। ऐसे सपोधन निग्रंथ दिगम्बर साधु आचार्यकल्प सुधर्मसागरजी महाराजको मैं मन-वचन-कायसे बार-बार नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु करता हूँ और उनके कल्याणकर प्रसादसे मेरा आत्मा भी निर्विकार एवं वियर मन जावे, ऐसी भाषना करता हूँ।
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श्री:
* भीवीतरागाय नमः
मुनिराज श्रीधर्मसागरविरचितः
• सुधर्मध्यान- प्रदीपः •
reciteration |
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बंदों हृषभ जिनेशके, चरण सरोज उदार । धर्म- ध्यान- प्रदोषकी, करूं वचनिका सार ॥
ज्ञानात्मरूपाय निरञ्जनाय मोहादिदोषप्रविघातकाय | शिवाय शान्ताय शिवप्रदाय स्वानन्दकन्दाय नमो जिनाय ||१|| शुद्धाय शुद्धाय गुणान्विताय कर्मव्यतीताय चिदात्मकाय । नित्याय जन्मान्तकभेदकाय सिद्धाय पूज्याय नमो नमोऽस्तु ||२|| वृत्तप्रवीणं समितीद्धमुद्धमाचारवन्तं समयज्ञकं च । स्वात्मानमेवात्मनि भावयन्तं सूरिं प्रबन्दे जिनभावलानम् ||३|| जो भगवान् जिनेन्द्रदेव ज्ञानस्वरूप हैं, रागद्वेषादिकसे रहित हैं मोहनीय आदि समस्त दोषोंको नाश करनेवाले हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं, अत्यन्त शान्त हैं, मोक्षके देनेवाले हैं और आनन्दस्वरूप है; ऐसे भगवान् जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ||१|| जो सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध हैं, बुद्ध हैं, अनन्त गुणोंको धारण करनेवाले हैं, कर्मरहित हैं, शुद्ध चैतन्य-स्वरूप हैं, नित्य हैं, जन्म-मरणको नाश करनेवाले हैं और पूज्य है; ऐसे सिद्ध परमेष्ठीको मैं बार बार नमस्कार करता हूँ ||२|| जो आचार्यचारित्र पालन करनेमें निपुण है, समितियोंका पालन करते हैं, पंचाचारका पालन करते हैं, समय वा शास्त्रोंके जानकार हैं, अपने आत्मामें जो अपने
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सु० प्र०
॥२॥
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सिद्धान्तविद्याप्त कुशाग्रबुद्धि भावतं वात्मनि भावयन्तम् । स्वास्मानमेवानिशमुद्वहन्तं तं पाठकं साधुवरं नमामि ||४|| | आरम्भसङ्गादिकषायदोषं त्यक्त्वा प्रपञ्चं च निजात्यलीनम् । योगीश्वरं सनधारक व वैगम्बरं साधुगणं नमामि ||३४|| एकान्तमिथ्यामतवाद गर्वान् प्रगाढदुर्बुद्धिसमुद्धतांस्तान् । स्थाद्वादमुद्रा पदिना प्रहन्त्री भक्त्या प्रबन्दे च सरस्वतीं ताम् ||६|| | दैगम्बरी नग्नयथार्थ मुद्रां धृत्वा परं ध्यानमलं चकार । तप्त्वा तपो घोरतरं स सूरिः श्रीशान्तिसिंधुर्जयतात्त्रलोके ॥ दयामयः शान्तिकरः प्रशाम्तः उद्धारको जीवगणस्य यो वा भवाविधतः कर्मकर्ता जैनेन्द्रधर्मो हि सदा स जीयात् : स्वाभाविक चेतनदिव्यशक्ति स्वां स्वानुभूत्या च विकाशमानाम् । लब्ध्वा च जातः परमात्मवेदी स्वारमा स जीयाद्भुवनस्य ॥ विमोक्षण कर्मककानां शुद्धो भवेत्केवल बोधभागी। नैर्मल्यरूपो विमलो विशुद्धो निरंजनः स्वात्मनयो विरागी ही आत्मा का ध्यान करते हैं और जो भगवान जिनेन्द्रदेवके भावोमें लीन हैं; ऐसे आचार्य परमेष्ठी को मैं नमस्कार करता हूँ || ३ || सिद्धांत शाखके मुख्य भागमें जिनकी वृद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, जो अपने आत्मा ज्ञानका ftaaन करते रहते हैं और जो सदा अपने शुद्ध आत्माको दी धारण करते रहते हैं ऐसे श्रेष्ठ मुनि उपाध्यायको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४॥ जो आरंभ परिग्रह आदि कषायजन्म दोषों को तथा छल कपटको छोड़कर अपने आत्मामें लीन रहते हैं जो योगियों के स्वामी हैं और श्रेष्ठ व्रतोंको धारण करते हैं ऐसे दिगम्बर समस्त साधुओं को मैं नमस्कार करता हूँ ||५|| जो एकांत मिथ्यात्वके बाद से अभिमानी हो रहे हैं और गाढ मिथ्या बुद्धिके कारण उद्धत हो रहें हैं ऐसे परवादियों को जो स्याद्वादमुद्रा रूपी वजूसे नाश कर देनेवाली है अर्थात् उनके मिथ्यात्वको दूर कर देनेवाली है ऐसी सरस्वती देवीको मैं भक्तिपूर्वक वंदना करता हूँ || ६ || जिन आचार्य शांतिसागरने यथार्थ दिगम्बर नम मुद्रा धारण कर तथा अत्यंत घोर तपश्चरण धारण कर उत्कृष्ट ध्यान धारण किया है ऐसे आचार्य शांतिसागर तीनों लोकोंमें सदा जयशील हों ॥ ७ ॥ जो जिनधर्म दयामय है, शांतिको करनेवाला है, शांतिरूप है, समस्त जीवोंको संसाररूपी समुद्रसे सदा उद्धार करनेवाला है और कर्मरूपी कलङ्कको हरण करनेवाला है ऐसा यह जैनधर्म सदा जयशील हो ॥ जो अपनी आत्मा स्वानुभूतिके द्वारा विकसित होनेवाली स्वाभाविक चैतन्यरूपी दिव्य शक्तिको पाकर परमात्माका जानकार बन गया है और तीनों लोकोंका स्वामी धन गया है ऐसी आत्मा सदा जयशील हो ॥९॥
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मा०
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स०प्र०
KISSUKRISA
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|१०|| अस्तीह चात्मा घुपयोगरूपणे माता सुद्रष्टा स्वशरीरकल्प: । कर्ताच भोकास्वयमेव शुद्धो मूतोऽयमूर्तः प्रकृतिस्वरूपः | ॥१शा अनादिवः कर्मगणैः प्रबद्धो मिध्यात्वयोगैश्च करोति बन्धम् । बन्धस्य पाकेन नवीन जन्म गृहाति संसारवने शरीरी ॥१२|स बीजवृक्षवत्तत्राप्यशुद्धः कर्मयोगतः । अनादिकालतो भ्राम्यन देहे देहे नवे नवे ॥१३॥ जन्ममृत्युजराकीर्णे तुधातृष्णाकर्थिते । प्राधिव्याधिस्वरूपे हि देहे देहे वसत्ययम् ॥१४|| उपयोगी हि जीवस्प लक्षणं कथित जिनैः । द्विधा द्वादशधा प्रोक्तो शानदर्शनभेदतः ॥१शा मतिज्ञानादिकं यात्राशुद्धजीवस्य लक्षण । कुमतिकुश्रुतानं मिथ्याज्ञानं भ्रमात्मकम् ॥१६॥ शुद्धचैतन्यभावाः स्युः शुद्धरज्ञानलक्षणाः । शुद्धनिश्चयतो मेयं शुद्धजीवस्य लक्ष
गम् ॥१७|सर्वकर्ममलातीतं विशुद्धज्ञानदर्शनम् । पात्मभावमयं वात्र विशुद्धजीवलक्षणम् ॥१८॥ प्रात्मोत्यमिन्द्रि | यही आत्मा कमौके समूहके नाश होजानेपर शुद्ध होजाता है, केवल ज्ञानी होजाता है, निर्मल, विमल,विशुद्ध
और निरंजन होजाता है तथा स्वात्ममय और परम उदासीनरूप होजाता है ॥१०॥ यही आत्मा उपयोग
रूप है, ज्ञाता है. द्रष्टा है, संसार अवस्थामें अपने शरीरके प्रमाणके समान है, कती है, भोक्ता है, अमृत होने का पर भी शरीर धारण करनेके कारण मूर्त होजाता है तथापि स्वाभावसे खयमेव शुद्ध बना रहता है ॥११॥
यह शरीरको धारण करनेवाला संसारी आत्मा अनादि कालसे कोसे बंध रहा है और मिथ्यात्वके निमित्तसे नवीन नवीन कर्मों का बंध करता है तथा उन का उदय होनपर यह संसारी आत्मा संसाररूपी वनमें जन्म-मरण करता रहता है ॥१२॥ अनादि कालसे नवीन नवीन शरीरोंको धारण कर परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मके ही निमित्तसे बीज-वृक्षके समान अशुद्ध होरहा है, तथा जन्म-मरण बुढ़ापा आदिसे मरे हुए भूख प्यास आदि दोषोंसे कदर्थित और अनेक रोगोंसे परिपूर्ण ऐसे शरीरोंमें निवास करता चला आरहा है ॥१३-१४! शगवान जिनेन्द्रदेवने इस जीवका लक्षण उपयोगरूप बतलाया है वह उपयोग ज्ञान मेदसे दो प्रकारका है तथा आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनके मेदसे बारह प्रकारका भी है ॥१५॥ उनमें से पतिज्ञानादिक अशुद्ध जीवका लक्षण है तथा कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान भ्रम उत्पन्न करनेवाले मिथ्याशान हैं और व्यवहारसे ये मी अशुद्ध जीवके लक्षण हैं ॥१६॥ शुद्ध दर्शन और शुद्ध शानरूप शुद्ध चैतन्य परिणाम शुद्ध निश्चय नयसे शुद्ध जीवके लक्षण हैं ॥१च्या समस्त कर्मोंसे रहित युद्ध दर्शन और शुद्ध ज्ञानमय
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म०प्र०
॥४||
RIERRIERRORASIYA
यातीतं निरावा निराकुलम् । कमझयेण संभूतं सुखं जीवस्य लक्षणम् ॥१६i निष्प्रकम्पं निरामा निर्विकारं च शाश्व. तम् । चिज्योतिश्चास्ति जीवस्य लक्षणं सहजं शुभम् ॥२०॥ द्रव्यप्राणमयों हि भावप्राश्च जीवितः । जीविष्यति स जीयोस्ति त्रिकालेऽसौ स जीवति ॥२॥ मनोषाकाययोगैश्च आयुः पंचेन्द्रियाणि च । उच्छासाश्च यश प्राधा जीवस्य कथिता जिनैः ॥२॥ ज्ञायोपशमिका भावा भावप्राणा मता जिनैः। सन्त्यसाधारणा भावा जीवस्यैवान पर चार शुद्धशायिकमावास्ते सन्ति शुद्धनयेन वा । शुद्धधैरन्यरूपः स शुद्धजीवस्य लक्षणम् ॥२४॥ शुद्धोपयोगतोऽमिनो नास्ति भिन्नः स्वध्यतः । परमार्थेन जीवस्य लक्षण नास्त्यवाच्यतः ॥२५।। मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्ययमेव च । केवलमपर शानं शानं पञ्चविध स्मृतम् ॥२६॥ मिथ्यादर्शनपूर्वस्वान्मतिश्रुतावधि त्रयम् । मिध्यावानं जिनैः प्रोकै कानमस्तीह || आस्माके शुद्ध भाव शुद्ध जीवका लक्षण समझना चाहिये ॥१८॥ जो सुख केवल आत्मासे प्रगट होता है,
जो इन्द्रियोंसे रहित है बाधारहित है आकुलतारहित है और कर्मोंके क्षय होनेपर प्रकट होता है ऐसा | र अनन्त सुख भी शुद्ध जीवका लक्षण है ॥१९y जो शुद्ध चैतन्यमय ज्योति निष्प्रकम्प है, निरावाध है,
निर्विकार है और सदा रहनेवाली है ऐसी शुद्ध चैतन्यमय ज्योति भी जीवका स्वाभाविक शुद्ध लक्षण है | ॥२०॥ जो द्रव्यप्राणोंसे तथा भावप्राणोंसे अब तक जीवित रहा है आगे जीवित रहेगा और अब जीवित रहता है, इस प्रकार तीनो कालोंमें जो जीवित रहता है उसको जीव कहते हैं ॥२१॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने मन वचन काय आधु पांचौ इन्द्रियों और वासोच्छ्वास ये दश प्राण बतलाये है ॥२२॥ भगवान जिनेन्द्र | देवने क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले भाव मावाण बतलाये हैं तथा जीवके असाधारण माव पांच प्रकार | के बतलाये हैं ॥२३॥ शुद्ध नयसे क्षायिक शुद्ध भात्र शुद्ध जीवका लक्षण है अथवा शुद्ध चेतना शुद्धजीवका लक्षण
है ॥२४॥ यह जीव शुद्धोपयोगसे अभिन्न है और न आत्म द्रव्यसे भिन्न है । परमार्थसे देखा जाय तो जीव| का स्वरूप अवाच्य है इसलिए उसका कुछ लक्षण हो ही नहीं सकता है ॥२५॥ मतिज्ञान ध्रुतज्ञान अवधिज्ञान | मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच प्रकारके ज्ञान कहे जाते हैं ॥२६॥ मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिझान यदि ये तीनों ही ज्ञान मिथ्यानपूर्वक हों तो भगवान जिनेन्द्रदेव उन ज्ञानोंको मिध्यावान कहते हैं। इस प्रकार पांच ज्ञान और तीन मिथ्याज्ञान ये आठ ज्ञान कहलाते हैं ॥२७॥ जो शान सम्यग्दर्शन
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० प्र०
४५॥
चाधा ||१७|| सम्यग्दर्शनपूर्वत्वात्सत्स्वरूपं भवत्यदः । भ्रात्यादिरहितं तब प्रमाणं वस्तुभाषकम् ||२८|| प्रत्यक्षं च परोक्ष द्विविर्थ कानमिष्यते । ज्ञानं प्रमाणमेवाहुः स्वपराभासकं ननु ॥२॥ स्पष्टं हि विशदशानं स्वपर नियामकम् । इन्द्रियविषयातीतं स्यामसंगतम् ॥१०॥ घातिकर्मक्षयोद्भूतं सर्ववस्तुप्रकाशकम् । त्रिकाळ गोचरं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वस्व भावजम् ||३१|| निरावरणमेकं हि शुद्धचैतन्यरूपकम् अनन्त केवलज्ञानं प्रत्यक्षं सकलं मतम् ||३२|| अनन्तानन्दपर्यायं द्रव्यं त्रैकाल्यगोचरम् । स्पष्टं ययुगपचेति यज्ज्ञानं केवलं भवम् ||३३|| पर्यायस्यैकदेशं हि स्पष्टं वेति वि. संशयम् । देशप्रत्यक्ष चाहुः ज्ञानं श्रीमखिनेश्वराः ||३४|| मन:पर्ययकं ज्ञानं द्वे धर्जुविपुखादिभाकू । घा तदवधिज्ञानं भवप्रत्ययमादिमम् ॥३५॥ क्षायोपशमिकं षोढावधिः स्यात्तपसाधवा । श्रयं नारकदेवानां भवेत्तीर्थकरस्य च ||३६|| तद्भव एव चोत्पादकारणं हि मयं जिनैः । अनुगम्यादिभेदेन पोढा स्यादवधिः पुनः ||३७|| मूर्त्तिमल्लद्रयं प्रत्यक्षं पूर्वक होते हैं वे संशय विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित होते हैं वस्तु यथार्थ स्वरूपको कहनेवाले होते हैं। और इसीलिये वे प्रमाण माने जाते हैं ||२८|| इन सब ज्ञानोंके प्रत्यक्ष परोक्षके मेदसे दो मेद होते हैं ऐसा स्व और पर पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान ही प्रमाण माना जाता है। । २९|| जो ज्ञान स्पष्ट होता है विशद होता है, म्व और परका निश्चायक होता है इंद्रियों से रहता है और वे आत्मासे उत्पन्न होता है उसको प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ||३०|| जो ज्ञान घाविया कमोंके क्षय होनेपर उत्पन्न होता है भूत भविष्यत् वर्तमान तीनों कालों समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला होता है और आत्माके स्वभाव भावोंसे उत्पन्न होता है उसको प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ||३१|| ज्ञान आवरणरहित है एक है शुद्ध चैतन्यस्वरूप है और अनंत केवलज्ञान रूप है उसको सकलमत्यक्ष ज्ञान कहते हैं ||३२|| तीनों कालोंके समस्त द्रव्यों को तथा उनकी अनन्तानंत पर्यायोंको बो एक साथ स्पष्ट जानता है उस ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं ||३३|| जो ज्ञान पर्यायके एक देशको स्पष्ट और संशयरहित जानता है उस ज्ञानको भगवान जिनेन्द्रदेव देशप्रत्यक्ष कहते हैं ||३४|| मनःपर्ययज्ञानके दो भेद हैं एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति । इसी प्रकार सम्भ्यम् अवधिज्ञानके मी दो मेद हैं पहला भात्यक्ष और दूसरा तपधरणसे होनेवाला छह प्रकारका क्षायोपशमिक अवधिज्ञान । पहला मवप्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकी और तीर्थकरोंके होता है || ३५-३६|| देव नारकी और तीर्थकरोंके जन्मसे ही
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हि करोति यत् । पारमनैव स्वयंचात्मा मनोक्षविषयातिगम् ॥३९॥ अथवावधिपूर्व हि नियतं देवनारके। जिनोतमवधिझानं देशप्रत्यक्ष तथा ॥३॥ ज्ञानं परोक्षमस्पष्टं सहायसहिदं परम् | मनोहविषयोद्भूतं मतिश्रुतादिकं तथा ॥४॥ सांव्यवहारिक ज्ञानं प्रत्यक्षं तदपि स्फुटम् । तत्वतस्तु परोक्षं हि मनीविषयत्वतः ॥४१॥ नानाभेदं परोक्षं हिमविस्मृत्या. दिकं तथा । मतिस्मृतिस्तथा संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधकम् ॥४२|| मतिज्ञानस्य भेदाः स्युः साधारणा इमे मवाः । भेदा
अवमहावायचारणास्तथैव च ॥ बहुविवाक्षिप्रनिमृतोक्तध्र वादयः । इतरेण युताः सर्वे भेदा द्वादशधा परे | ॥४४॥ इन्द्रियानिन्द्रियाभ्या तु मतिज्ञानं च जायते । पदार्थभेदतो भेदाः स्युर्मविज्ञानगोचराः ॥४५॥ व्यंजनार्थस्य चेहादिअवधिज्ञान होता है इसीलिये उस अवधिज्ञानको भवप्रत्यय कहते हैं । क्षायोपशमिक अवधिज्ञानके "अनुगामी अननुमामी दीपमान बर्द्धमान अवस्थित अनयस्थित" ऐसे छह भेद हैं ॥३७॥ जो आत्मा इंद्रिय और मनकी | सहायताके विना केवल आत्माके द्वारा मृत पुदल द्रव्यको प्रत्यक्ष जानता है उसको अवधिज्ञान कहते हैं। अथवा देव नारकियोंके जो मर्यादापूर्वक नियत ज्ञान है उसको भगवान जिन्द्रदेवने अवधिज्ञान कहा है यह अवधिज्ञान भी देशप्रत्यक्ष है ॥३८-३९॥ मतित्रान श्रुतज्ञान दोनों परोक्ष ज्ञान हैं ये दोनों ज्ञान पदार्पोको प्रत्यक्ष वा स्पष्ट नहीं जानते, इन्द्रिय वा मनसे उत्पन्न होते हैं तथा इंद्रिय मनके सिवाय अन्य सहायताकी | मी अपेक्षा रखते हैं ॥४०॥ ये दोनों ज्ञान सांध्यवहारिककी अपेक्षासे प्रत्यक्ष मी कहलाते हैं परंतु वास्तवमें | देखा जाय तो इंद्रिय और मनके विषयोंसे उत्पन्न होते हैं इसलिये परोक्ष ही कहलाते हैं ॥४१॥ मति स्मृति | संज्ञा चिंता अमिनियोध आदिके भेदसे परोक्ष ज्ञानके अनेक मेद होते हैं ॥४२॥ इनके सिवाय
मतिज्ञानके साधारण मेद और भी हैं यथा अवग्रह ईहा अवाय धारणा ये चार भेद होते हैं । ये चारों ही ज्ञान all बहु बढुविध क्षिप्र अनिःसृत अनुक्त ध्रुव और इनसे विपरीत एक एकविध अक्षिप नि:मृत उक्त अध्रुव इन
चारह प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करते हैं इसलिये अड़तालीस मेद होजाते हैं | मतिज्ञानके ये सर मेद पांचों | इंद्रियोंसे तथा मनसे उत्पन होते हैं इसलिये दो सौ अठासी भेद होजाते हैं ये सब पदार्थोके मेदसे अर्थावग्रहके से
मेद कहलाते हैं ॥४३-४५।। व्यंजनावग्रह अव्यक्तरूप होता है इसलिये उसके न तो ईहादिक मेद ही होते हैं और न वह चक्षु तथा मनसे उत्पन्न होता है । इसलिये वह चारो इंद्रियों से बहु बहुविध आदि बारह
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हानं नाव्यक्तरूपतः । चचरनिन्द्रियाभ्यां चेहादिहानं न जायते ॥४६|एकमवप्रहमानं तस्य वाहादिक तथा । पशि . त्रिशतं भेदा मतिज्ञानस्य गोचराः ॥४७|| अन्येपि वहबो भेदाश्चार्थभेदाद्भवन्ति च । ते तु चागमतो झेया अद्भया तत्ववे. दिमिः ॥४८| कुमति कुभुतज्ञानं जायते हि कुदृष्टिनाम् । सुमति सुश्रुतज्ञानं जायते हि सुदृष्टिनाम् ॥४६॥ विभंगशानमध्यस्ति पुण्यतो हि कुदृष्टिनाम् । सम्यगवधिविज्ञानं तपसा हि सुदृष्टिनाम् ४०|| उपयोगमयोप्येवं जीवः सिद्धः स्वरूपतः। जीवोऽनन्तगुणाधारः सिद्धांते कथितो जिनैः ॥५१॥ अनादिकालतो मूर्तः कर्मनोकर्मभिर्वतः । स यावत्कर्म संयोगस्तावन्मूर्त इतीष्यते ॥२।। कर्मवन्धनसंयोगात्सशरीरी यतो जिनैः । ततो मूर्ती हि संसारे व्यवहारनयादसौ ॥५३॥ चंधो
यतो हि मूर्तस्य नामूर्तस्य भदेस्वचित् । बंधाभाये कथं मतः कर्मनोकर्मवान् कथम् ॥५४॥ स्पर्शा अष्टौ रसाः पंच द्वौ गंधौ li प्रकारके पदार्थोंको ग्रहण करने के कारण अड़तालीस मेदरूप होता है । इसप्रकार मतिज्ञानके सब का मिलाकर तीनसो उसीस मेद हो जाते हैं ॥४६-४७ पदार्थोके मेदसे इस मतिद्वानके और मी अनेक मेद |
हो जाते हैं वे सच तत्वोंके जाननेवालोंको श्रद्धापूर्वक आगमसे जान लेना चाहिये ॥४८॥ कुमतिमान और | कुश्रुतज्ञान मिथ्यादृष्टियों के होते हैं तथा सम्यक् मतिज्ञान और सम्यक् श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टियोंके होते हैं ॥४९॥ | all किसी पुण्यके उदयसे मिथ्याष्टियोंको मिथ्या अवधिज्ञान भी हो जाता है । तथा सम्यम् अवधिज्ञान तपश्चरण
के द्वारा सभ्यरायोको ही होता है ॥५०॥ इस प्रकार यह जीव स्वरूपसे उपयोगरूप सिद्ध है नया भगवान | जिनेन्द्रदेवने सिद्धांत शास्त्रोंमें इस जीवको अनंत गुणोंका आधार बतलाया है ।। ५१॥ यह जीव अनादिकालसे
कर्म नोकर्मोंसे मिला हुआ है इसलिये मूर्त मी कहलाता है परंतु जब तक कोंका संबंध रहता है तमी तक | II व्यवहार दृष्टि से मूर्त कहलाता है ॥५२।। फर्मबन्धके निमित्तसे यही जीव सशरीरी कहलाता है और इसीलिये | | व्यवहारनयसे संसार अवस्थामें यह जीव मृत कहलाता है ॥५३|| इसका मी कारण यह है कि बंध मूर्वका !
ही होता है अमृत पदार्थका कभी बंध नहीं हो सकता । तथा बंधके अभाव में वह मूत भी कैसे हो सकता | है और कर्मनोकर्मवान् भी कैसे हो सकता है ॥५४॥ निश्चय नयसे देखा जाय तो इस जीवमें न तो आठ
स्पर्श हैं न पांच रस हैं न पांच वर्ण हैं और न दोनों गंध हैं । इसीलिये भगवान जिनेन्द्रदेवने इस जीवको अमूर्त मानतलाया है ॥५५।। वास्तवमें देखा जाय तो एक पुद्गल तब ही मूर्त है क्योंकि स्पर्श रस वर्ण और गंध
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1 पंचवर्णकाः । न सन्ति निश्चयाजीये ततोऽमूर्छ जिनर्मता | सफ्वतः पुहलो मूर्तः स्पर्शाविसहितो यः। तत्साहचर्य | तो जीवो मूर्तिमान कथितो जिनैः ।।४६|| कर्मनोकर्मणा काव्यवहारमयेन सः । अशुद्धव्यवहारेण घटादीनामपीष्यते || रागावीना तथा कर्ता वाशुद्धनयतो यतः । स शुद्धनिश्चयाजीवः शुद्धानहानकत कः ॥५॥ कर्ता स्रष्टा न जीवोस्ति शुद्ध द्रव्यमयेन सः । रागभावो हि यत्रास्ति कत्वमुपयुज्यते ॥५॥ व्यवहारेण तत्रैव रागाभावान्न करकः । रागादिकमतो मुक्तो वीतरागी निरंजनः ।।६|| अमूर्तः परमात्मा हि सृष्टेः स्रष्टा कथं भवेत् । ईश्वरः कृतकृत्योस्ति मोहमायादिदूरगः ॥६१।। मोहाभावात्कथं कर्ता भवातीसो यतो हि सः । तस्मावनादितो जीवो पद्धकमफलेन सः ॥३२॥ नानायोनौ हि सृष्टेस्तु स्वयं सृजति नश्यति । द्रव्यस्य सर्वथा नाशो नास्तिकचित्कदापि वा ॥६शा किन्तु पर्यायरूपेण व्ययोत्पादो भवेत्सदा । | कर्मोदयात्स संसारे नानायोनी भ्रमन सवा ॥४॥ सृजति व्येति पर्यायान स्वयं कर्ता यतो मतः । यो हि कर्ता स एवात्र | उसीके गुण हैं । उसीके संबंधसे इस जीवको भी भगवान जिनेन्द्रदेषने मूर्व कह दिया है ॥५६॥ व्यवहार नयसे यह | जीव कर्म नोकाँका कर्ता है और अशुद्ध व्यवहारसे घटादिकका मी कर्ता है ॥५७।। यही जीव अशुद्ध नयसे रागद्वेषादि- | भाकका कर्ता है और शुद्ध निषय नयसे शुद्ध दर्शन और शुद्ध ज्ञानका कर्ता है । ५८॥ शुद्ध द्रव्यार्षिक नयसे न तो यह Hi जीव कर्ता है और न स्रष्टा है क्योंकि जहां रागभाव होता है वहींपर व्यवहारनयसे कर्तृत्वका उपयोग हो सकता
| जहाँपर रागका अभाव है वहांपर कर्तृत्वका अभाव भी अवश्य मानना पड़ता है। जो जीव रागादिक कर्मसे सा रहित है यह वीतरागी है. निरंजन है, अपूर्व है, और परमात्मा है। ऐसा जीव इस सृष्टिका स्रष्टा कैसे हो सकता है। | जो ईबर होता है वह कृतकृत्य होता है और मोह-मायासे रहित होता है। तथा जो जीव मोहसे रहित होता है वह का कमी नहीं हो सकता क्योंकि यह संसारसे रहित होता है । इसलिये अनादि कालसे यह जीव बंधे हुए ककि फलसे अनेक योनियों में परिभ्रमम करता हुआ इस सृष्टिका स्रष्टा कहलाता है और स्वयं नाशको प्राप्त होता है । पह भी निश्चित है कि कमी किसी कालमें मी द्रव्यका नाश नहीं होता। केवल पर्यायरूपसे ही उत्पमा
और नाश होता रहता है। कर्मके उदयसे या जीन संसारकी अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ ISL पर्सयोको सवं उत्तम करता रहता है और सकरवा रहायसीलिये यह जीव कार लाता है। या
को सपही अनिच्चि प्रमावो का होता है ॥५९-६५॥ सकिने जाना जाने कि किनेर
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भोक्ता जीवः प्रमाणतः ॥३! सुखदुःखादिकार्याणां कृतकर्मफलात्मनाम् । भोक्ता जीवोस्ति संसारे व्यवहारनयेन सः ॥६६॥ कर्मनोकर्मणां भोका रागादीनां तथैव च । भोक्ता जीवोस्ति धाशुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सः ॥६॥ कर्मण सर्वथाभावे भोका जीवः कदापि न । शुद्धद्रव्यार्थिवेनात्मा कर्ता भोक्ता न संभवः ॥८॥ किन्तु स स्वस्वरूपेण स्वात्मन्येव
मा० प्रतिष्ठितः । कृतकर्मफलैनात्र प्राप्तदेहप्रमाणकः ॥६९॥ समुद्धात विहायासौ व्यवहारनयेन सः । समुद्घाते तु जीवोस्त्रि व्यापको लोकगः खत्तु १७०॥ असंख्यातप्रदेशात्मा जीवोस्तीह स्वभावतः । ससंहारविसर्पाग्या स्वभावाभ्यां प्रदीपवत् 1 ७१|| स्थूलसूक्ष्मो भषेजीवो व्यवहारनयेन सः । कर्मणां सर्वथाभावे स्वस्वरूपे प्रतिष्ठितः ॥७२॥ न स्थूलो नापि सूक्ष्मो हि न 10 विभुर्न भ्रमात्मकः । घरमदेहतः किंचिन्न्यूनः शुद्धनयेन सः ॥७३॥ कृत्स्नकर्मक्षयाजीवो रूपातीतो निरंजनः । अमूर्तः | | शुद्धचैतन्यः स्वस्वरूपमयोथवा ॥४॥ कृत्स्नकर्मक्षयाज्जीवः स्वस्वरूपोपलब्धितः । ऊर्ध्वं ब्रजति लोकान्तं धर्मद्रव्य
काके फल-स्वरूप सुख दुःख आदि कार्योका भोक्ता यही जीव इस संसारमें व्यवहार दृष्टिसे माना जाता है। १॥६६॥ यह जीव कर्म नोकर्मके फलोंका भोक्ता है और अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे रागादिक भावोंका भोक्ता है ॥६७।। जब काँका सर्वथा अभाव हो जाता है तब यह जीव उनका भोक्ता मी नहीं रहता । इसलिये कहना चाहिये कि यह जीव शुद्ध द्रव्यार्षिक नयसे न कती है और न मोक्ता है । किन्तु उस समय अपने स्वरूपसे अपने ही आत्मामें निश्चल रहता है । इसके सिवाय यह जीव जो कर्म करता है उसके फलसे व्यवहार नपसे । समुद्घातको छोड़कर प्राप्त हुए शरीरका प्रमाण रहता है। तथा केवलि समुद्रात अवस्थामें लोकाकाशमें सब जगह से व्यापक हो जाता है ॥६८-७०।। यद्यपि जीव स्वभावसे ही असंख्यात प्रदेशी है तथापि दीपकके प्रकाशके | समान संकोच विस्तार स्वभाव होनेसे व्यवहारनयसे शरीरके प्रमाणके समान स्थूल सूक्ष्म हो जाता है । जब काँका सर्वथा अभाव हो जाता है तब वह अपने स्वरूपमें निश्चल हो जाता है ।।७१-७२॥ कमौके 12 अमावमें शुद्ध निश्चय नयसे यह जीवन स्थल है, न सूक्ष्म है, न व्यापक है और न भ्रमण करनेवाला है, किंतु अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारस्प विराजमान रहता है ॥७३॥ समस्त कमाके क्षय होनेसे यह जीव रूपरहित निरंजन, अमूर्त शुद्ध चैतन्यस्वरूप और स्वस्वभावमय रहता है ॥७४॥ समस्त कमौके नाश हो जानेसे इस जीवको अपने स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है। और इसलिये यह जीव धर्मद्रव्यके निमित्तसे ।
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वशादसौ ॥७५॥ धर्मोस्ति कायकाभावान्न गमनं ततो भवेत् । अनन्तसुखसम्पन्नो नित्यं तत्रैव तिष्ठसि ॥७६॥ सर्वकर्मप्राणाच कारणाभावतस्तथा । पुनर्जन्म न गृहाति कदापि दग्धमोजवत् ॥७७॥ कल्पकालशतेनापि नात्ययस्वस्वस्य च । न विकारो न लेपः स्यात्कर्मणां कापि सर्वदा ॥७८॥ यस्वरूपतः शुद्धो जन्ममृत्युविदूरगः । अक्षः सर्वथा नित्यो विगतिः स्यादतीन्द्रियः ॥७६॥ कूटस्थोपि व्ययोत्पायं स्वतः स्वस्मिन् करोति च । जलकल्लोलवतन स्वस्वरूपे हि संततम् ||८०|| लोकालोकविलोकशः सर्वमलापहः । निराबाधो निरौपम्यः शान्तः शुद्धच निष्कखः ॥८॥ शुद्धदर्शनसम्पन्नः शुद्धज्ञानविराजितः । शुद्धसम्पत्तयसंयुक्तः धन्यावाधसमन्वितः ॥८२॥ अनन्तवीर्यं सूक्ष्मस्वावगाहनगुणान्वितः । एतादृशो हि सिद्धात्मा सिद्धालये व तिष्ठति ॥ ६३॥ शुद्धाशुद्धप्रभेदेन द्विधा जीवा हि वर्णितमः । शुखा मुक्ता भवातीताः कर्मकलंकदूरगाः ॥ ८४॥ कर्मवद्धा अशुद्धास्ते संसारितो जिनैर्मताः । संसारिणो द्विधा या लोके अन्तकरता है ॥७५॥ लोकाका के आगे धर्मद्रव्यकर अभाव है इसलिये लोकाकाशसे आगे यह जीव गमन नहीं कर सकता । तथा अनंत सुखसहित सदा काल वहीं विराजमान रहता है १९७६ ॥ जिस प्रकार जले हुए बीजसे वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार समस्त कर्मों के नाश होनेपर और इसी कारण अभाव होनेसे फिर यह जीव कभी भी दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करता ||७७ || सेकड़ों कल्प काल बीत जानेपर भी फिर उस सुखका कमी नाश नहीं होता, न उस आत्मामें कोई रागादिक विकार होता है और न कमौका कभी संबंध होता है ॥७८॥| उस समय वह जीव स्वाभावसे ही शुद्ध, जन्म-मरणसे रहित, निल, सर्वधा free, चारो गतियोंसे रहित और अतीन्द्रिय हो जाता है ॥ ७९ ॥ यद्यपि उन समय वह कूटस्थ रहना है तथापि जलकी लहरोंके समान अपने ही आत्मामें अपने ही स्वरूप में अपने आप उत्पाद व्यय अवस्थाको धारण करता रहता है ||८०|| उस समय यह जीव लोक आलोकको जानेवाला, समस्त उपद्रव और मलोंसे रहित, बाधा रहित, उपमाओंसे रहित, शांत, शुद्ध, शरीररहित होजाता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शनसे सुशोभित होजाता है— अध्यावाध अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व और आवाहन गुणविशिष्ट होजाता है । इन प्रकारका वह सिद्धात्मा सदा सिद्धालय में ही विराजमान रहता है ।८१-८३ ॥ जीवोंके दो भेद हैं शुद्ध और अशुद्ध, जो जीव मुक्त हैं, संसारले रहित हैं, और कर्ममलसे रहित हैं ऐसे सिद्ध
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सूक्ष्मरथावरभेदतः । स्थावस द्विविधाः प्रोक्ताः सूक्ष्मवादरमेदतः । सेपि पंचविधा याः पृथिवीकायिकादयः । एकेन्द्रिया हि ते सर्व स्थावरकर्मपाकतः । यज्ञादयो हि पंचाहालसाः कर्मविपाकतः ॥२॥ संज्यसंशिप्रभेदेन पंचाचा द्विविधा मताः । अपर्यावाश्व पर्याप्ताः स्थावराश्च त्रसास्तथा ॥॥ पवं संसारिणो जीवः सर्व तेऽनकथा मताः। तेषां भेदाः प्रभेदाश्च ज्ञेया आगमती बुधः ॥ अनादिकालतो बद्धाः पुद्गलकर्मणा मह । फनकोपलवत्सर्वे शुष्यन्ति ध्यानवाहिना ॥६०ा कर्मणैव प्रकुर्वन्ति जन्म मृत्यं पुनः पुनः । नानायोनी प्रगच्छन्ति देहं धृत्वा मर्ष नवम् ॥६॥ यत्र हि कर्मयोगेन नानायोनावनन्तशः । जोया भ्राम्यन्ति संसारो जन्ममृत्युप्रदायकः ॥३२॥ संसार: पंचधा शेयो द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः । मिथ्यात्वमोहभावेन जीवः संतरनि सयम् ॥३॥ न कोपि कस्य दुरनं वा मुखं वाव ददाति सः । | जीत्र शुद्ध कहलाते हैं तथा कर्ममहित संसारी जीव अशुद्ध कहलाते है । इन संसारी जीवोंके चम स्थावरक | मेदसे दो भेद हैं १८४-८५।। उनमें ये स्थूल मूक्ष्मफे 'भेदसे स्थावरोंके भी दो भेद है तथा पृथिवीकायिक, | जलकायिक, अनिकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिकके भेदसे प्रत्येक स्थावरके पांच पांच भेद हैं ॥८६|| ये सब जीव एकेन्द्रिय होते हैं और स्थावरनामा नामकर्मके उदयसे स्थावर कहलाते हैं । तथा प्रसनामा नामकर्म के उदयसे होनेवाले दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइद्रिय और पंचेद्रिय जीव त्रस कहलाते हैं ॥८७॥ इनमें भी सेनी असेनीके भेदसे पंचेन्द्रियके मी दो भेद हैं तथा प्रम और स्थावर सभी जीव पपाल और अपर्याप्तके मेइसे दो प्रकारके कहलाते हैं ॥८८॥ इस प्रकार संमारी जीवोंके अनेक भेद हैं बुद्धिमानोंको उन सबका मेह | प्रमेद आगमसे जान लेना चाहिये ।।८९।। ये सब संसारी जीव दल काँफे साथ अनादिकालसे बंध रहे हैं। | जिस प्रकार सुवर्ण पापाणमें मोना अनादि कालसे मिल रहा है उसी प्रकार जीव काँसे मिल रहे हैं और फिर श्री | चे ध्यानरूपी यहिसे ही शुद्ध होते हैं ।।२०।। ये जीव कर्म ही निमित्तसे चार बार जन्म-मरण धारण करते | हैं और नवीन नवीन शरीर धारण कर अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करने है ॥९॥ जहापर कर्मके निमित्तसे
ये जीव अनेक योनियों में अनंत चार परिभ्रमण करते रहते हैं उसीको संमार कहते हैं । यही संसार समम्त
जीवोंको जन्ममरण उत्पन्न करानेवाला है ।९२।। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और मायके मेदसे यह संसार पनि प्रकार भी है। इसी संसारमें निल्यान्य और मोहरूप परिमाणोंसे यह जीप स्वयं परिभ्रमण किया करता है ॥१३॥
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| स्वकृतकर्मणा किन्तु सुखं दुःखं समश्नुते ॥६४ा अत्यंतदुःखदे भीमे जन्ममृत्युसमाकुले । घोरापदां हि संस्थाने संसारेऽत्र च कः सुखी MMI देना पतनं मा निगदि चक्रवर्तिनाम् । अन्येषां का कथा तत्र विपुण्याना मलीममाम् |६|| संसारे यदि वा किचित्सुखलेशं निराकुलम् । अस्ति चेत्तहि तीर्थेशाः पूज्या मुञ्चन्ति तं कथम || अम्तं नास्तीह दुःखस्य संसारे भयदेऽशुभे । मोहात्सुखं विजानाति दुःस्वदे परवस्तुनि ||६॥ तस्मान्मोहं परित्यज्य दीक्षां धृत्वा निर. म्बराम् । सद्ध्यानं कुरु है धीमन् संसारो येन नश्यति ॥E&II कुरु कुरु कुरु शुद्ध ध्यानमात्मस्वरूपं हन हन हन : शी कर्मजाल प्रगाढम् । भज मज हि सुधर्म श्रीजिनेन्द्रः प्रणीतं नय नय शिवमार्ग मोक्षसौख्यं त्वयात्मन् ॥१०॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारे जीवतत्त्ववर्णनो नाम प्रथमोऽधिकार ॥शा इस संसारमें कोई ऐसा जीव नहीं है जो किसीको सुख वा दुःख दे सके । यह जीव अपने किये हुए काँके । IJ निमित्तसे स्वयं मुख वा दुःखोंको प्राप्त होता रहता है ॥१४॥ यह संसार अत्यन्त दःख देनेवाला है. अत्यंत | का भयानक है, जन्ममरणसे भरा हुआ है और अनेक आपत्तियोंका स्थान है ऐसे इस संसारमें भला कौन सुखी |
हो सकता है ? ॥९५॥ जहाँपर देवोंका भी पतन होता है और चक्रवतियों को भी आपत्तियां आ जाती हैं | वहांपर मला पुण्यरहित मलिन आत्माओंकी क्या कथा फहनी चाहिये ॥९६|| यदि इस संसारमें निराकुल
रूप सुखकी एक मात्रा भी होती तो फिर पूज्य तीर्थङ्कर ही इसका त्याग क्यों करते ? ॥९७॥ अत्यन्त अशुभ | और भय उत्पन्न करनेवाले इस संसारमें दुःखका कहीं अन्त नहीं है । यह जीव मोहनीय कर्मके उदयसे है दुःख देनेवाले परपदाथामें सुख मान लेता है ।।९८॥ इसलिये हे बुद्धिमन् ! तू मोहको छोड़कर और जेने
श्वरी दीक्षा धारणकर श्रेष्ठ ध्यान कर, जिससे कि यह जन्ममरणरूप संसार नष्ट हो जाय ।।९९॥ हे आत्मन् ! तू आत्मास्वरूप शुद्ध ध्यानको सदा कर, सदा कर, सदा कर और अत्यन्त गाद कर्मोके जालको शीघ्र ही नाश कर, गश कर, नाश कर । तथा भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए सुधर्मको वा श्रेष्ठ धर्मको सेवन कर, सेवन कर और मोक्षके मार्गको तथा मोक्षके सुखको प्राम कर, प्राप्त कर ॥१००।।
इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें जीवतत्त्वको
वर्णन करनेवाला यह प्रथम अधिकार समाप्त हुआ।
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द्वितीयोधिकारः।
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ध्यार्यान्त योगिनो यं हि नमन्ति नृसुरासुराः । पूजयन्ति गणाधीशाः श्रीपमं नमाम्यहम् ॥१॥ एवं मूलीपि चात्मा स शुद्धकेवलबोधभाक् । श्रनादिकमद्धत्वादेहे दहेऽवसिष्ठति ॥२) देहस्थो देहरूपोऽसावशुद्धी मूर्तिमान्ननु | अदृश्योस्ति तथाप्येषः अतीन्द्रियः स्वबोधमाक् ॥शा देहत्तः सर्वथा भिन्न भिन्न चित्स्वरूपतः । रमत्रयाच भिन्नं न वा| स्मानं विद्धि तत्त्वतः ॥४॥ काष्ठादी द्दि यथा यहिः पयसि घा यथा घृतम् । ताम्रादौ वा जले विद्युत्तिष्ठति चावरोधतः॥शा
अयमात्मा तथा देहे तिष्ठति कर्मयोगतः । तथापि स्वम्यभावं न जहाति स कदापि वा ।।६। अव्यक्ता हि गुणास्तस्य मोहादि| कर्मयोगतः ! वैमानियन र व्या कमाना गतिः । द्रव्यतः शुद्धचिट्रपः लोकालोकप्रकाशकः । सर्वशक्ति
योगी लोग जिनका ध्यान करते हैं. सर असर और मनुष्य मन जिनको नमस्कार करते है और गणधरदेव जिनकी पजा करते हैं ऐसे भगवान अषमदेवको मैं नमस्कार करता हैं ॥२॥ ऊपर लिखे अनुसार यह | आत्मा यद्यपि युद्ध केवल ज्ञान से सुशोभित है तथापि अनादिकालमे कर्मबद्ध होनेके कारण यह आत्मा अनेक | शरीरोंमें निवास कर रहा है ॥२॥ यद्यपि यह संसारी आत्मा शरीरमें रहता है, शरीररूप है, अशुद्ध है,
मूर्तिमान हैं, तथापि वह अदृश्य है, अतींद्रिय है और आत्मज्ञानको धारण करनेवाला है ॥शवह आत्मा शरीरसे | सर्वथा भिन्न है और चैतन्यस्वरूपसे अभिन्न है तथा रत्नत्रयसे भी वह भिव नहीं हैं ऐसे आत्माको अपनी आत्मा |
समझो ॥४॥ जिस प्रकार लकड़ीमें अग्नि रहती है, दूध पी रहता है और रोकनेपर तावे वा जलमें बिजली रहती है उसी प्रकार वार्म के निमित्तसे यह आत्मा यद्यपि शरीर में रहता है तथापि वह अपने स्वभावको कमी नहीं छोड़ता है ॥५-६|| मोहनीय आदि कर्मके निमित्तसे उसके ज्ञानादिक गुण सब अव्यक्त हो जाते हैं
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घर स्वस्मिन् खस्वभाषमनास्ति सः ॥पा यो ज्ञातं शक्यते नैव पाझन्द्रियादिभिः सदा । स्वानुभूत्या च यो गम्यः पर.
मात्मा स एव च ।।६।। अज्ञानिनो हि त झातुं शक्नुवन्ति कहाणि न । एललिभिः नाम रिदयन्दमो हि सः ॥१०॥ Hel
योगिनां पानगम्यः स सुदर्शा ज्ञानचक्षुषाम् । स्वदेहे एष सलीनोप्यमूर्तो हि स्वव्यतः ॥११॥ यद्यपि योगिगम्योस्ति ध्यानगम्योस्ति वा मनु । स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्तथापि भवति स्वयम् ॥१शा निर्विकल्प निराचा चिन्मूत सुखसागरम्। स्वात्मानं : हि सुमावेन पश्यन्तु स्वानुभूतितः ॥२॥ मातेस्मिनिखिलं ज्ञातं दृष्टे रष्टं जगत्त्रयम् । तं ज्ञानमय शुद्ध पश्यन्तु शुद्धमापनः ॥१॥ आराधनामयं योगी चैकान्टे निर्जने बने । मनोवाकार्य संभ्य मौनी चिंतयति स्फुटम् ॥१५॥ ययान| वनपावेन हत्या कर्मकदंषकान् । स्वात्मीयां सिद्धिमात्मैव लभते नात्र संशयः ||१६|एतादृशं हि चात्मानं स्वसंवेदनगोR और वैभाविक गुण प्रगट हो जाते हैं सो ठीक ही है कौकी गति भी बड़ी ही गहन होती है ॥७॥ द्रव्या
| थिंक नयसे यह आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला है, अनंतशक्तिको धारण व करनेवाला है और अपने स्वभावमें लीन रहनेवाला है ॥८॥ जो बाह्य इन्द्रियोंसे कमी नहीं जाना जा सकता * और जो स्वानुभूतिसे ही जाना जाता है वही आस्मा परमात्मा कहलाता है ॥९॥ अज्ञानी पुरुष उस परमात्मा
को जाननेमें कमी मी समर्थ नहीं हो सकते । वह चिदानन्दमय आत्मा सम्यग्दृष्टियों के द्वारा ही जाना जा
सकता है ।।१०।। यद्यपि यह जीव अपने शरीरमें रहता है तथापि द्रन्यादिक नयसे अमूर्त है और ज्ञानरूपी | नेत्रोंको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि योगियोंके ध्यानके द्वारा जाना जा सकता है ॥११॥ यद्यपि यह आस्मा | योगियों के द्वारा जाना जाता है तथापि यह स्वयं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है अर्थात् अपने आत्मज्ञानके द्वारा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है ।।१२।। यह आत्मा विकल्परहित है, निरायाध है, चैतन्यस्वरूप है और सुखका | समुद्र है ऐसे अपने आत्माको श्रेष्ठ भावोंसे स्वानुभूतिके द्वारा देखना चाहिये ॥१३॥ इस आत्माके जान S लेनेपर समस्त पदार्थका ज्ञान हो जाता है, और इसको देख लेनेपर तीनों लोक दिखाई पड़ जाते हैं। | ऐसे दर्शन और झानमय शुद्ध आत्माको शुद्ध भावोंसे ही देखना चाहिये ॥१४॥ ऐसे आराधनास्वरूप | शुद्ध आत्माको मौन धारण करनेवाले योगी किसी एकांत निर्जन वनमें मन, वचन और कायको रोककर चितवन करते हैं ॥१५॥ यही आत्मा ध्यानरूपी वनके घातसे समस्त कमीका नाशकर अपने मात्माकी सिद्धिको
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घरम् । जानाति सुखसिद्धयर्य परमारमानमरनु णा तस्मादि सर्वसंकल्पं स्पवस्वा भवाचिसो जनाः। खानुभूत्या
प्रपश्यन्तु स्वात्मारकम् । अमूर परमाहादे विशुद्ध परमात्मने । प्रतीतिरामनि सात्र खानुतिर्मता dot०
जिनैः ॥१६॥ प्रात्मीयपरमाल्हादसुखस्य विमलस्य या । प्रतीतिः सात्र विज्ञेया स्वानुभूतिः शुभावहा ॥२०॥ विशुद्धानो हि ॥१५॥ सिद्धानां विशुद्धज्ञानशालिनाम् । अनंतसुखरूपस्य प्रतीसिः स्वेऽनुभूतिका ॥२६॥ अमृत चेतनारूपे विशुद्धत्पत
निर्मले । स्वात्मद्रव्ये प्रतीतिर्या स्वानुभूतिर्मत। बुधैः ।।२२॥ शुद्धोपयोगभावेषु शुद्धमानमयेषु च । प्रशीतिः सात्र विशेया | स्वानुभूतिः सुखप्रदा ॥२३॥ स्वानुभूत्या हि स्वात्मानं वेत्त्यात्मा विमलं शुभम् । सर्ववन्द्रातिर्ग शुद्ध शुद्धचैतन्यशक्षणम् ॥२४|| सम्यक्त्वशालिजीवानां स्वानुभूतिर्भवेदिह । स्वात्मबोधी हि तेषां तु नान्येषां च कुदृष्टिनाम् ॥२॥ सम्यग्रहा नस्य पर्यायः स्वानुभूतिर्जिमागमे । कथिता जिननाथेन सर्वझेन महात्मना ||२६|| सम्यक्त्वपूर्वकं हानं सम्परानप्राप्त हो जाता है इसमें कोई संदेह नहीं है ॥१६॥ संवेदनगोचर ऐसे आत्माको जो मुखप्राप्तिके लिये | जान लेता है वही आत्मा परमात्माको प्राप्त हो जाता है ॥१७। इसलिये श्रद्धालु मनुष्यों को समस्त संकल्पोंको छोड़कर अपनी खानुभूतिके द्वारा शुद्धस्वरूप अपने आत्माको देखना चाहिये ॥१८॥ अमूर्त, परमाल्हादरूप विशुद्ध और परमात्मस्वरूप अपने आत्मामें श्रद्धा रखनेको भगवान् जिनेन्द्रदेव स्वानुभूति कहते
हैं ॥१९।। अपने आत्मासे उत्पन्न हुए परमाल्हादरूप निर्मल सुखके विश्वास करनेको शुभ स्वानुभूति समझना | IAS चाहिये ॥२०॥ अन्यन्त विशुद्ध ज्ञानको धारण करनेवाले विशुद्ध सिद्धोंके अनन्त सुखका अपने आत्मामें || | विश्वास करना स्वानुभूति कहलाती है ॥२१॥ अमूर्त चैतन्यस्वरूप विशुद्ध और अत्यन्त निर्मल ऐसे अपने
आत्मद्रव्यमें श्रद्धा न करनेको बुद्धिमान् लोग स्वानुभूति कहते हैं ।।२२।। अत्यन्त शुद्ध ज्ञानमय शुद्धोपयोग- | रूप अपने आत्माके परिणामों में श्रद्धा न करनेको सुख देनेवाली स्वानुभूति कहते हैं ॥२३॥ यह आत्मा | | इसी स्वानुभूतिसे अत्यन्त निर्मल, शुभ, समस्त उपद्रवोंसे रहित शुद्ध और शुद्ध चैतन्यस्वरूप अपने प्रात्माको जान लेता है ॥२४॥ यह ऐसी स्वानुभूति सम्यग्दृष्टि पुरुषों को ही होती है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुरुषों को ही अपने आत्माका ज्ञान होता है अन्य मिथ्यादृष्टियोंको यह आत्मज्ञान कभी नहीं होता ॥२५॥ सर्वज्ञ और महापुरुष भगवान जिनेन्द्रदेवने अपने सिद्धांतमें स्वानुभूतिको सम्पज्ञानका पर्याय ही बतलाया है ॥२६॥
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भा.
सु०प्र० मितीप्यते । सम्यक्त्वस्य च माहात्म्यात्स्वानुभूतिः प्रजायते ॥२७|| सम्यक्त्वं दुर्लभं लोके यतः अयोभिसाधकम् । तदनः
न क्वचित्सिद्धिः सुखलेशः कदापि ना अक्षातीतं निरावाचं स्वातन्यं दुःखदूरगम् । सुखमात्यंतिकं श्रेष्ठं सम्यक्वेन १६
प्रजायते ॥२६॥ सर्वासामर्थसिद्धीनामिन्द्रचधादिसम्पदाम् । आइन्त्यसम्पदां सिद्धिः सम्यक्त्वेन प्रजायते ॥३०॥ त्रिकाले त्रिजगति श्रेयो विद्यते देवदुर्लभम् । तदापि प्राप्यते शीघ्रं सम्यक्त्वन महात्मभिः ||३१|| कल्याणं मंगलं भद्र सर्व च परमं पदम् । सम्यक्त्वेन हि सिध्यन्ति चानेकमुखसाधकम् ॥३२।। तदेव पुरुषार्थस्तु परमार्थप्रसाधकः । श्रात्मैव पुरुषश्चोक्तः सभ्यनत्वेन सिदधति येन विनात्र संसारे चिरं भ्राम्यन्ति जन्तवः । जन्ममृत्युजराकीर्णेऽनेक. दुःखप्रदायके ||३४|| ज्ञानं येन विनाऽज्ञानं विपरीतं नसंशयम् । मिध्याज्ञानं भवेद्वात्र दिग्मूढस्येव भ्रान्तकम् ॥३५॥ येन | सम्यादर्शनपूर्वक जो ज्ञान होता है उसको सम्यम्ज्ञान कहते हैं तथा इसी सम्यग्दर्शनके माहात्म्पसे स्वानुभूति प्रगट होती है ॥२७॥ इस संसारमें सम्यग्दर्शन ही अत्यन्त दुर्लभ है, क्योंकि मोक्षरूप कल्याणकी सिद्धि | इस सम्यग्दर्शनसे ही होती है । सम्यग्दर्शन के बिना न तो मोक्षकी सिद्धि होती है और न कमी सुखका | ) लेश भी प्राप्त होता है ॥२८॥ जो सुख इन्द्रियोंसे रहित है निरायाध है, स्वतंत्र है, दुःखोंसे रहित है, श्रेष्ठ | है है और अनन्त है वह सुख सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे उत्पन्न होता है ।।२९॥ समस्त पदार्थोकी सिद्धि, इन्द्र | [5] चक्रवर्ती आदिकी महासंपदाओंकी सिद्धि और भगवान अन्तिदेवकी महाविमतियोंकी सिद्धि इस 2) के ही प्रभावसे उत्पन्न होती है ॥३०॥ तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें जो कल्याण देवोंको भी दुर्लभ है । SP/ वह कल्याण भी महात्मा पुरुषोंको इस सम्यग्दर्शनके प्रभावके शीघ्र ही प्रगट हो जाता है ।।३१।। इस संसारमें
जो कल्याण हैं, जो मंगल हैं, जो भद्र हैं, जो उत्तमोत्तम परमपद हैं और जो अनेक सुखोंके साधक हैं, वे सब | | इस सम्यग्दर्शनसे ही सिद्ध हो जाते हैं ३२॥ इस संसार में सम्यग्दर्शन ही पुरुषार्थ है क्योंकि परमार्थकी | सिद्धि इसी सम्यग्दर्शनसे होती है । इस संसारमें आत्मा ही पुरुष कहलाता है और उसकी सिद्धि सम्यग्दर्शन | से ही होती है ॥३३॥ इसी सम्यग्दर्शनके बिना ये जीव जन्म मरण, और बुढापासे भरे हुए तथा अनेक महादुःख देनेवाले इस संसारमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है ॥३४॥ इस सम्यग्दर्शनके विना ही सान अज्ञान कहलाता है, विपरीत कहलाता है और संशयसहित कहलाता है। वह मिथ्याज्ञान जिस प्रकार |
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॥ १७ ॥
विनात्र चारित्रं कुचारित्रं प्रजायते । संसारवर्द्धकं तद्धि नानादुःखनिदानकम् ||३६|| शानचारित्रयोः सम्यक् व्यपदेशकरं हि तत् । सम्यग्ज्ञानं सुचारित्रं तस्मादेव प्रजायते ||३|| तथ धर्मतरोर्मूलं बीजं वा मुख्यसाधकम् । संसाराब्धौ | तरीतुं तत्कर्णधारो यतो मतम् ||३८|| सम्यक्त्वस्य प्रभावेन तिर्यो यान्ति देवताम् । चांडालोऽपि च देवः स्वात्स्वर्गे नमस्कृतः ॥ ३६॥ सम्यक्त्वमहितो गेही सम्यक्त्वरहितान्मुनेः । पूज्यो वन्यो द्दि मार्गस्थो न मुनिर्मार्गहीन कः ||४०|| सम्यक्त्वस्य च माहात्म्यं सम्यग्जानन्ति रायाः जनाः सद्यः तीर्थेशाः हि भवन्ति ते ॥४१॥ परमाह्लादरूपेय आत्मनि प्रत्ययं रुचिम् । श्रद्धां करोति भावेन स सम्यक्त्वं समश्नुते ||४२|| देवशास्त्रगुरूणां च सत्यरूपसुशालिनाम् । श्रद्धानं हि विनिर्दोषं सम्यक्त्वं तदिच्यते ||४३|| जिनागमस्य चाज्ञां ये सदा निःशंकचेतसा । स्वकल्या
प्रकार दिग्भ्रम होनेवाले मनुष्यको परिभ्रमण कराता है उसी प्रकार इस जीवको भी अनेक योनियों में परिभ्रमण कराता है ||३५|| इसी सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र मी कुचारित्र वा मिथ्याचारित्र कहलाता है । यही मिथ्याचारित्र जन्ममरणरूप संसारको बढ़ानेवाला है और अनेक महादुःखका कारण है || ३६ || यह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रको सम्यक करनेवाला है तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इसी सम्यग्दर्शनसे उत्पन्न होते हैं ||३७|| यही सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्षका मूळ है, वा धर्मका बीज है अथवा धर्मका मुख्य साधक है, संसारस्वर्ग में जाकर देव रूपी समुद्रसे पार होनेके लिये यह सम्यग्दर्शन कर्णधार वा खेवटिया गिना जाता है ||३८|| इसी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे तिर्यञ्च मी देव हो जाते हैं और इसी सम्यग्दर्शन के प्रभावसे चांडाल होता है और अन्य सब देव उसको नमस्कार करते हैं ||३९|| इस सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाला गृहस्थ मी सम्यक्त्वरहित मुनिसे पूज्य और वन्दनीय गिना जाता है तथा वह सम्यक्स्वी गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित गिना जाता है । किंतु सम्यक्स्वरहित मुनि मोक्षमार्गसे हीन माना जाता है ॥४०॥ इस सम्यग्दर्शनके माहात्म्यको तीर्थकर ही अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि इसी सम्यग्दर्शनको पाकर ये जीव शीघ्र ही तीर्थकर हो जाते हैं ||४१|| जो पुरुष परमानन्दमय शुद्ध आत्मामें प्रत्यय करता है, उसमें कचि रखता है और श्रद्धान करता है वही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है ||४३|| यथार्थ स्वरूपको धारण करनेवाले देव, शास्त्र और गुरुका दोषरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है ||४३|| जो पुरुष अपना बात्म
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खाय मन्यन्ते जिनवत्ते धरन्ति तत् ||४४|| श्रेयोर्थिनां सदा मान्या जिनाला जिनशास्त्रतः । जिनाशा सैत्र शास्त्रं हि जिनो वेत्ति च मन्यताम् ||४५|| तस्मात्सम्यक्त्वमाराध्यं भव्यजीवेन सर्वदा । तदेव नोददं ज्ञेयं मुख्यं रत्नत्रये सदा ||४३|| यदि च भवविरक्तः मोक्षसौख्ये सुरक्तः । झटिति कुरु च भक्त्या देवशास्त्रे प्रतीतिम् । धर च निजहितार्थ श्रीजिनाशां स्वचित्ते । लभ लभ हि सुधर्म शुद्धसम्यक्त्ववन्तम् ॥४७॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे सम्यक्त्ववर्णेनोनाम द्वितीयधिकारः ॥
कल्याण करनेके लिये निःशंक हृदयसे जिनागमकी आज्ञाको मानते हैं वे ही पुरुष जिनेन्द्रदेव के समान निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करते हैं || ४४|| अपने आत्माका कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको जैन-शास्त्रोंके अनुसार
भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा अवश्य मान लेनी चाहिये । क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा ही शास्त्र समझना चाहिये ॥४५॥ | इसलिये भव्य जीवों को इस
हैं और भगवानकी आज्ञा ही भगवान हैं, ऐसा सम्यग्दर्शनका सदा आराधन करते रहना चाहिये । यही सम्यग्दर्शन मोक्ष देनेवाला है और रत्नत्रयमें सदा मुख्य है ॥ ४६ ॥ हे भव्य जीव १ यदि तू संसारसे विरक्त हुआ है और मोक्ष सुखमें अनुरक्त हुआ है तो शीघ्र ही भक्तिपूर्वक देवशास्त्र और गुरुका श्रद्धान कर, तथा अपने आत्माका कल्याण करने के लिये अपने हृदय में भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको धारण कर और शुद्ध सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाले श्रेष्ठ धर्मको अथवा इस ग्रन्थ बनानेवाले सुनिराज सुधर्मसागरको धारण कर ||४७||
इस प्रकार मुनिराज श्रसुधसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में सम्यग्दर्शनको वर्णन करनेवाला यह दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ।
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तृतीयोधिकारः॥
तत्त्वप्रकाशकं मोक्षदायकं सुखकारकम् । तं श्रीमदजितं वन्दे जिनशासनदीपकम् ॥२॥ तस्वमबुध्यमानस्य ध्यानेन किं प्रयोजनम् । क्रियां कर्वन् स मूढात्मा कर्मबन्धं करोत्यलम् ॥२॥ नात्मरूपं विजानानि वस्तुतो मोहवान् कुधीः । ध्यानेन तस्य का सिद्धिर्जायते तपसाथवा ॥३॥ तस्यातत्त्वं न जानाति यो मोहतिनिरावृतः । किमर्थ कुरुते सोऽत्र ध्यानस्य च विडम्बन्धम् ॥४॥ आत्मबोधविहीनस्य मिथ्यात्वमसितस्य च । तीवेण तपसा किं स्याद् ध्यानेन दुर्द्धरेण वा ॥५|| आत्मतत्त्वं न जानाति स्वस्वरूपं न वेति यः । संसारवर्द्धक ध्यान हा किमर्थं करोति साशा हयोपादेय
जो अजितनाथ भगवान तत्वोंको प्रकाशित करनेवाले हैं मोक्षको देनेवाले हैं सपको सुख देनेवाले हा है और जिनशासनको प्रकाशित करनेके लिये दीपकके समान हैं ऐसे भगवान अजितनाथको मैं वन्दना
करता हूँ ॥१॥ जो पुरुष तच्चोंका स्वरूप नहीं जानता उसके लिये ध्यान करना व्यर्थ है । वह मूर्ख ध्यानकी | क्रिया करता हुआ मी केवल कर्मोका ही बन्ध करता है ॥२॥ वास्तवमें देखा जाय तो मोह करनेवाला | अज्ञानी आत्मा आत्माके स्वरूपको नहीं जान सकता । फिर उसके ध्यान और तपश्चरण कैसे हो सकते हैं ? | और ध्यान वा तपस्यासे ही उसकी सिद्धि कैसे होसकती है ? ॥३॥ जो पुरुष मोहरूपी अन्धकारसे वंचित होकर तत्त्व और अतत्त्वके स्वरूपको नहीं जानता वह इस संसारमें ध्यान करनेकी विडम्बना क्यों करता है ? ॥४॥ जो पुरुष आत्मज्ञानसे रहित है और मिथ्यात्वसे ग्रसित है उसके लिये तीव्र तपश्चरणसे अथवा दुर्घर ध्यानसे | क्या लाभ हो सकता है ? ॥५॥ जो पुरुष आत्मतत्वको नहीं जानता और अपने स्वरूपको नहीं जानता, आश्चर्य है कि वह संसारको बढ़ानेवाला ध्यान क्यों करता है ? ॥६॥ जिस पुरुषके हेय और उपादेयका
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॥२०॥
PRASAMICRORISM
विज्ञानरहितस्य जनस्य च । कर्मक्षयकरं ध्यान स्याकिं वा कर्मक्रंदनम् ॥१॥ भेदाभेद न जानाति कृत्याकत्यं न देति वा । ध्यानवैराग्यसंपत्तिस्तस्पात्र वञ्चिका भवेत् ।।८।। अकृत्य मन्यते कृत्यं कृत्यं त्यजति मोहतः | धर्माधर्म न जानाति ध्यानं सोऽत्र करोति किम् ॥३॥ दयो धत्ते न चितेषु न वेसि जीवलक्षणम् । अन्तस्तत्त्वविहीनो यः स ध्यानी स्यात्कर्ष ननु ॥१०॥ आत्मतत्त्वानभिज्ञानां बाह्मव्यावृप्तचेतसाम् । न स्यात्स्वात्मन्यवस्थानं ध्यानं तेषां जडात्मनाम् ॥११॥ यतीन ते धृथकर समया देहवहिनौ । सन्तोह मोहसरतेन ध्यायन्ति से परं परम् ॥१२॥ आत्मध्यानस्य लामो हि षो स्याच कदापि न । सशरीरास्मनोदविज्ञानेन भवत्यसौ ॥१शा प्रागेव चात्मविज्ञानं कर्तव्यं च मुमुक्षुभिः । ध्येयस्य निश्चयाभावे न स्याद् ध्यान सुनिश्चितम् ।।१४।। ध्येयः प्रात्मैव स त्रेधा अहिरन्तः परम्तथा । घ्यावाम्टोस्ति परो ध्येयो ज्ञान नहीं है उसका ध्यान कर्मोको नाश करनेवाला होता है अथवा कर्मोका संग्रह करनेवाला होता है ? मावार्थ यह है कि उसका ध्यान कर्मोका संग्रह करनेवाला ही होता है ।।७॥ जो पुरुष भेद अमेदको नहीं जानता, ] आत्मा और शरीरमें मेद नहीं समझता और न कृत्य अकृत्यको जानता है उसके लिये ध्यान और वैराग्य
की संपदा ठगनेवाली ही होती है ॥८॥ जो पुरुष अकृत्यको कृत्य मान लेता है और मोहनीय कर्मके उदयसे कृत्यको छोड़ देता है तथा इसीलिये जो धर्मध्यानको जान भी नहीं सकता वह भला ध्यान किस प्रकार कर सकता है ? ॥९॥ जो पुरुष अपने हृदयमें दयाको धारण नहीं करता और न जीवका लक्षण जानता है तथा जो आत्माके स्वरूपसे सर्वथा रहित है वह ध्यान कैसे कर सकता है ? ॥१०॥ जो पुरुष आत्मतनसे अनमिज्ञ हैं और जिनका हृदय वाह्य पदार्थोंमें ही लगा हुआ है ऐसे जद मनुष्योंकी आत्मामें निश्चल होनेवाला ध्यान भला कैसे हो सकता है ? ॥११॥ ऐसे लोग शरीर और आत्माको ही अलग करनेमें समर्थ नहीं हो सकते । अतएव मोहकर्मके उदयसे वे पर पदार्थोंका ही चिन्तवन कर सकते हैं आत्माका चिन्तवन नहीं कर सकते ॥१२॥ ऐसे लोगोंको आत्मध्यान करनेका लाभ कमी नहीं मिल सकता, आत्मध्यानका लाभ शरीर और आत्माके भेद-विज्ञानसे ही होता है ॥१३॥ मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को सबसे पहले आत्माका ज्ञान उत्पन्न करना चाहिये क्योंकि जब तक ध्यान करने योग्य ध्येयका निश्चय नहीं होता तब तक सुनिश्चित ध्यान कैसे हो सकता है ॥१४॥ तथा इस संसारमें ध्येय पदार्थ आत्मा ही है । वह आस्मा तीन प्रकार
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॥२
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बहिस्त्याज्यो मुमुचामिः ॥१चा व्यामोहतः शरीरादौ यस्यात्मप्रत्ययो भवेत् । बहिरात्मा स विज्ञेयः सुरक् शन्योस्तचेतनः ॥१६॥ मन्यते व शरीरं स श्रात्मरूपेण मूढधीः । स्वात्मानं देहरूपेण मन्यते मोइविभ्रमात् ॥१॥ शरीरे स्वास्मबुद्धि यो विदधाति प्रपद्यते । शरीरमेव चात्मास्ति नान्योऽहमिति मन्यते ॥१८॥ गौरोहं कृष्णवर्णोई निर्बलोई बलो तथा। देहरूपमयोप्यात्मा बहिः स प्रतिपद्यते ॥१॥ वृद्धोइं बालकोई वा प्रगुणी निर्गुणी तया । शरीरस्याभियोगेन स्वमिति मन्यते हुनी. नीरस हारेन जातोहनिति मन्यते । शरीरम्य वियोगेन मृतोहं वायवैति सः ॥२१॥ मनोक्षविषयाजात इष्टानिष्टे सुखासुखे । स्वात्मनः सुखदुःखं वा बहिरात्मा स मन्यते ॥२२॥ स सुरं देवपर्यापैः नृपर्याय नेर
तथा । नारकं शुभ्रपर्यायैरिति मुद्दो वितन्वते ॥२शा सर्वथापि पृथग्भूते पुत्रमित्रकलत्रके : आत्मबुद्धिं करोत्यत्र बहि|| का है बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । ध्यान करनेवाला ध्याता अन्तरात्मा होता है, ध्यान करने योग्य ध्येय में * परमात्मा होता है। मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको बहिरात्माका त्यागकर देना चाहिये॥१५॥ मोहनीय कर्मके |
उदयसे जो शरीरमें हीआत्माका श्रद्धानकर लेता है उसीको रहिरास्मा समझना चाहिये। वह बहिरात्मा सम्यग्दर्शनसे | रहित होता है और उसकी चैतन्य शक्ति मी प्रायः नष्ट हो जाती है ॥१६॥ वह अज्ञानी अपने शरीरको ही 15
आत्मरूप समझ लेता है अथवा मोहनीय कर्मके उदयसे आत्माको ही शरीररूप समझ लेता है ॥१७॥ बहिरात्मा पुरुष शरीरमें ही आत्मबुद्धि कर लेता है, तथा शरीर ही आत्मा है अन्य आत्मा नहीं है इस प्रकार || मान लेता है ॥१८॥ बहिगत्मा समझता है कि मैं ही गौरवर्ण हूँ, मैं ही कृष्ण वर्ण हुँ, मैं ही निर्बल हूँ | और मैं ही बलवान् हूँ, इस प्रकार वह अपने आत्माको शरीररूप ही समझ लेता है ॥१९।। मैं बूढ़ा हूँ, मैं | बालक हूँ, मैं ही गुणी हूं और मैं ही निर्गुणी है, इस प्रकार शरीरके चिन्होंसे ही आत्माको समझता है यही | सा उसकी अज्ञानता है ॥२०॥ बहिरात्मा जीव शरीरके जन्म होनेको अपना (आत्माका ) जन्म समनता है और
शरीरके वियोग होनेको अपना मरना समझता है ॥२१॥ मन और इंद्रियोंके विषयसे उत्पन्न हुए इष्ट और | * अनिष्टमें अथवा सुख वा दुःखमें आत्माका ही सुख वा दुःख समझ लेता है ॥२२|| वह बहिरात्मा देवया पर्यायमें अपने आत्माको देव समझ लेता है, मनुष्यपर्याय आत्माको ही मनुश्य समझ लेता है और नरक
पर्यायमें आत्माको ही नारकी समझ लेता है ॥२३॥ यद्यपि पुत्र, मित्र, और स्त्रीआदि अपने आस्मासे सर्वथा मिल
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॥२२॥
रात्मेति मोहतः ॥२४|पुत्रो मे मे कलत्रं मे मित्रं मे बन्धुरत्र मे | इति 'मे में प्रकुर्वाणः बाल्मबदुध्या विमुख्यत रक्षा बहिर्द्रव्येषु सर्वेषु बहिरात्माभिवाक्छति । तस्वरूपोहमेवास्मि मत्तो नान्यानि तानि वै ॥२६|| हा हा मोहविलापेन तत्त्वमवेत्यतत्त्वके । तत्त्वे वाऽतत्त्वकं वेत्त मोही किं किं करोति न ॥२७॥ बहिरास्मैव जानाति विश्वमात्ममयं भ्रमात् ।
आत्मानं नैव जानाति देहस्थं शानगोचरम् ॥२८॥ अग्निहि विद्यते काष्ठे मूढोग्नि वेचि नैव सः । काठमात्रं विजानाति चाज्ञानी किमवैति सः ॥२६॥ बहिरात्मा ततश्चित्ते कर्ता भोक्ता च मन्यते । मनोक्षविषये वा द्रव्ये वा स्वात्मविभ्रमात् ॥३०॥ एवं हि बहिरात्मासौ परद्रव्ये विमुहाति । स्वात्मानं नैव जानाति तत्त्वातस्वं हिता| हितम् ॥३१॥ बहिरात्मा हि हेयोसौ शिवमार्गविदूरगः । इन्द्रियविषये लोनः संसारसुखवाञ्च्छकः ॥३२॥ हैं तथापि बहिरात्मा मोहनीय कर्मके उदयसे उनमें भी आत्मबुद्धि कर लेता है, उनको भी अपना समझ लेता है ॥२४॥ यह पुत्र मेरा है, स्त्री मेरी है, मित्र मेरा है और ये भाई मेरे हैं इस प्रकार 'मेरा मेरा' करता | हुआ यह जीव अपनी आत्मबुद्धिको छोड देता है ॥२५|| बहिरात्मा जीव समस्त बाह्य पदार्थों | इच्छा करता है और "मैं इन वाह्यद्रव्यरूपही ये वाह्य पदार्थ मुझसे मित्र नहीं है। इस प्रकार मिथ्या
बुद्धि धारण करने लगता है ॥२६॥ दुःखका विषय है कि मोहनीय कर्मके उदयसे यह पहिरात्मा अतच्चोंको | तव समझ लेता है और तत्वोंको अतत्व समझ लेता है सो ठीक ही है क्योंकि मोही पुरुष क्या क्या नहीं | | करता है ॥२७॥ बहिरात्मा अपने भ्रमसे समस्त संसारको आत्ममय समझता है। परंतु शरीरमें रहनेवाले |
झानगोचर आत्मा को नहीं जानता ||२८|| यद्यपि लकड़ीमें ही अग्नि है परंतु अज्ञानी जीव उस अग्निको SEI नहीं जानता वह केवल लकड़ी को ही जानता है । सो ठीक कही है क्योंकि अज्ञानी कुछ नहीं जानता है || ॥२९॥ बहिरात्मा पुरुष अपने आत्माकी भूलसे मन और इंद्रियोंके विषयभूत आम पदार्थोंमें अपनेको कर्त्ता |
और भोक्ता मान लेता है ।।३०॥ इसप्रकार बहिरात्मा जीव वाह्य द्रव्योंमें मोहित हो जाता है । इसलिये वह | न तो अपने आत्माको जानता है न तच अतस्त्रको जानता है और न हित अहितको जानता है ॥३१॥ बहिरात्मा जीव मोक्षमार्गसे दूर रहता है, इंद्रियोंके विषयों में लीन रहता है और संसारिक सुखोंकी इच्छा | करता है, इसलिये वह बहिरात्मा हेय वा लाग करने योग्य समझा जाता है ॥३२॥ यदि किसी पुण्यकर्मक
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॥२३॥
Kजैनधर्म विधत्ते चेकदाचित्पुण्ययोगतः । प्रत्येति न जिनाशा वा जिनागमं सुभावतः ॥३३॥ सुगुरु' मन्यते व
बहिरात्मा विमोहतः । पृष्ठे निंदा करोरयेव जैनोऽपि दुष्टभावतः ॥३४॥ देवशास्त्रगुल्न धर्म बहिष्टया हि सेवते । अन्तईच्या न श्रद्धेति न प्रत्येति स भावतः ॥३२॥ विषयभोगसंबंधि शासच बहु मन्यते। जिनागर्म कुतर्केण चान्यथा कुरुते कुधीः ॥३६।। एवं हि बहिरात्मासौ आत्मज्ञानपराङ्मुखः । धृत्वापि जिनमेषं हि विपरीतं करोति सः ॥३७॥ बहिरात्मा ततस्त्याज्यः जिनलिङ्गस्थ धारकः । स मायापरिणाम बुदेली 4 परान् ॥३चा उपादेयं न गृहाति हेयं नैव जहाति च । बहिरात्मा बद्दिभूतः शिवमार्गारसुधर्मतः ||३|| मिथ्यात्वदृषितं मोहतमः पात्मन् निवारय । चिज्ज्योतिषा स्वसंवेदमयेन भानुना यथा ॥३०|| एकोहं किं स्वरूपोहं के गुणाः सन्ति मे खलु । देहस्य लक्षणं किं वा कर्मबंधः कथं मम ॥४१॥ इत्यं विचार्यमाणेन सम्यग्ज्ञानेन तत्त्वतः। आत्मबोधो भवत्सधः स्वपरभेदको
उदयसे वह बहिरात्मा जैनधर्मको भी धारण कर ले तो मी वह अपने भावोंसे न तो जैनधर्मकी आज्ञाको | मानता है और न जिनागमको मानता है ॥३२॥ मोहनीय कर्मके उदयसे वह बहिरात्मा श्रेष्ठ गुरुओंको मी
नहीं मानता । षह जैनी होकर भी अपने दुष्ट परिणामोंसे उन गुरुओंकी निंदा करता है॥३४॥ वह बहिरात्मा | देव, शास्त्र, गुरु और धर्मको वाह्य दृष्टिसे सेवन करता है, अन्तर्दृष्टिसे न उनका श्रद्धान करता है और
न उनपर विश्वास करता है ॥३५।। वह अज्ञानी विषयमोगसंबन्धी शास्त्रोंको ही मानता है और अपने कुतर्कसे जिनागमको विपरीत करनेकी चेष्टा करता है ॥३६|| इसप्रकार वह बहिरात्मा आत्मज्ञानसे पराङ्मुख रहता है । तथा जिनमेषको धारणकर विपरीत कार्य करता है ॥३७॥ इसलिये जिनलिंगको धारण करता हुआ मी | बहिरात्मा त्याग ही करने योग्य है, क्योंकि वह मायाचारी अपने मायाचारसे दूसरे लोगोंको ठग लेता है। ॥३८॥ बहिरास्मा जीव उपादेयको ग्रहण नहीं करता, हेयका त्याग नहीं करता तथा मोक्षके मार्गसे और श्रेष्ठ | | धर्मसे वह अलग ही रहता है ॥३९॥ हे आत्मन् ! स्वसंवेदनरूप और चैतन्यमय ज्योतीरूप सूर्य के द्वारा | मिथावसे दूषित ऐसे मोहरूपी अन्धकारको दूर कर ॥४०॥ तथा में कौन हूँ मेरा क्या स्वरूप है, मुझमें | कौन कौन गुण हैं, शरीरका लक्षण क्या है और कर्मोका बन्ध कैसे होता है, इस प्रकार विचारपूर्वक होनेवाले सम्यग्ज्ञानके द्वारा स्वपर-मेदको सचित करनेवाला वास्तविक आत्मज्ञान शीघही हो
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॥२४॥
| ननु ॥४२॥ तिर्यजनरामराकारं रूपं यदृश्यते बहिः । तदाकागे न तपमहमस्मि स्वभावतः ॥४३नाई जडो न वा शन्यो न शरीरमयं कचित् । नाई वर्णमयो वेति चिन्तयेति मुहुमुहुः ।:४४|| नाई मूर्तिमयो कापि खीरूपोहं न वा कचित् । नाई पुमान् नया भोचा चितयेति मुहमुहुः॥४५॥न में मृत्युर्न में जन्म शरीरं मे कदापि न। न मे पुत्रं न मे मित्रं कलत्रं न धनं गृहम् ।।६।। क्रोधादीनि विकाराशि वाञ्च्छा तृष्णा न मे कधित् । शुद्धस्फटिकसंकाशनिर्मलोई स्वभावतः ४७ वर्णातीतो रसातीत: स्पर्शातीतो विरोधकः । शब्दातीतश्चिदानन्दमयोइं कर्मदूरगः ॥४८॥ विवुध्येत्थं स्वकं रूपं स्वात्मानमपि तत्वतः। तस्माच्छरीरतो भिन्नं स्वात्मानमवधारय रहा जहा इमे शरीरापा अनन्याश्च
सन्ति ते । कर्मयोगेन संप्राप्ताः दुःखदा नश्वरा भवे ॥५०॥ भ्रमात्तानात्मरूपोहं मन्ये रज्जुमहिं यथा। आत्मबोधाद् || भ्रमे नष्टेमृतॊहं कर्महानितः ।।५१॥ अनादिकालते मोहान्मिध्याज्ञानं हि मेऽजनि । तेनायावधि पर्यंत तत्त्वं मातं
जाय ऐसा उपाय कर ॥३१-॥४२॥ तिर्यञ्च मनुष्य वा देवका आकार जो बाहरसे दीखता है नह आकार और नह सा मेहरा स्वाभानिस नहीं है ॥४३॥ न मैं जद हूँ, न शून्य हूं, न शरीररूप हूँ और न
वर्णरूप है, इस प्रकार वार बार चितवन करना चाहिये ।।४४॥ मैं न मूर्त हूँ, न स्त्रीरूप हूँ और न पुरुष हूँ तथा | PAIन में भोक्ता हूँ। हे आत्मन्! तू इस प्रकार बार बार चिंतन कर ॥४५॥ न तो मैं मरता हूँ, न मैं जन्म लेता - ा हूँ, यह शरीर भी मेरा कभी नहीं हो सकता तथा ये पुत्र मित्र धन घर आदि भी मेरे नहीं हो सकते ॥४६॥ ये
क्रोधादिक विकार मेरे कभी नहीं होसकते और न वाञ्छा वा तृष्णा ही मेरी होसकती है। मेरी आत्मा स्वभावसे ही शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है ॥४७॥ मैं वर्णरहित हूँ, रसरहित हूँ, स्पर्शरहित हूँ, गंधरहित हूँ, और शब्दरहित हूँ । तथा कोंसे मिन्न चिदानन्दमय हूँ ||४८॥ हे आत्मन् ! इस प्रकार अपने आत्माका स्वरूप समझ और वास्तवमें अपने आत्माको शरीरसे भिन्न समझकर अपने आत्माके स्वरूपका चितवन कर ॥४९॥ ये शरीरादिक जड़ है, अचेतन हैं, दुःख देनेवाले हैं और नश्वर हैं तथा इस संसारमें | कर्मके निमित्तसे मुझे प्राप्त हुए हैं। परंतु अपने भ्रमसे उनको आत्मरूप मान रहा हूँ। जैसे भ्रमसे रस्सीको | मी सर्प मान लेते हैं । परंतु अब जब कि आत्मज्ञान होनेपर मेरा भ्रम नष्ट हो गया है तब मुझे मालूम हुआ है कि कर्म नष्ट होनेपर मैं अमूर्तस्वभाव ही हूँ ॥५०-५१।। अनादि कालसे लगे हुए मोहनीय कर्मके उदयसे |
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॥२५॥
न वा मया ।।१२।। स्वात्मानं नैव पश्यामि मोहनिद्रावशेन वातामुद्भिद्य सुबोधेन स्वं पश्मामि गतनमम् शा रेयाव.
मोहनिद्रास्ति तावदात्मा प्रपश्यति । देहाकारं स्वकं नानारूपधरं मनोहरम् ॥५४|| गतनिद्रो यदात्मन् स्वं सुरोधेन 4) भविष्यसि । स्वं पश्यसि तदा शीघ्रममूर्तमजरामरम् ।।५५।। पश्यति स्वप्नवत्त वमोहनिद्रां गतो यदि । शरीरमात्मरूपोह
विनिद्र पश्यसि स्वकम् ॥४६॥ स्वप्ने राजा भवेद्रको रको वात्र नृपायते । स्वप्ने नष्टे न वा राजा न रहो दश्यते कचित ॥५७।। जाते मृत शरीरेऽस्मिन् वा स्वप्न सदृशे भवे । अहं जातो मृतोहं वा मन्यते हेति विभ्रमात् ॥८॥ अमुहं निराकारी रूपातीतोस्यहं खलु । यत्सर्व दृश्यते द्वन्द्व वेभ्यो मुक्तोम्यहं ननु IMLIL अक्षद्वारेण पश्यामि स्पर्शादिभ्यः सुखासुखम् । तन्नुधा नाज्ञरूपोहमक्षातीतोस्म्यहं खतु ||६०|| श्रवणं भक्षणं गानमित्याचा भुवियाः क्रियाः। मुझे मिथ्याज्ञान हो रहा है । इसालिये आजतक मुझे तत्वोंका यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ ॥५२॥ मोहरूपी निद्राके वशीभूत होनेके कारण मैं अपने आत्माको नहीं देख रहा हूँ। समग्यज्ञानके द्वारा उस नींदको छोड़ार और भ्रमको दूर कर अब मैं उस आत्माको देख रहा हूँ ॥५३॥ हे आत्मन् ! जबतक तू मोहरूपी नींदमें सोया हुआ है तब तक तू अपने खरूपको शरीरके आकार और अनेक रूपोंको धारण करनेवाला मनोहर देखता है
आर जर मोहरूपी निद्रा हट जाती है और सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है तब तू अपने आन्माको अमूर्त, अजर il ओर अमर देखता है ।।५४-५५॥ जय यह जीव मोहरूपी नीदमें सो जाता है तब स्वपके समान शरीरको 6. ही आत्मा समझने लगता है। तथा जब वह मोदरूपी नींद हट जाती है तब वह आत्माके यथार्थ स्वरूपको। | देखने लगता है ॥५६।। जिस प्रकार स्वप्नमें गजा रंक हो जाता है और रंक राजा हो जाता है परंतु जब
खान नष्ट हो जाता है तब न राजा दिखाई देता है और न रंक दिखाई देता है ॥५७|| उसी प्रकार म्वप्नके. समान इम संसारमें शरीरके जन्म-मरण होनेपर 'मेरा जन्म-मग्ण दुआ' इस प्रकार यह आत्मा अपने अज्ञानसे | मान लेता है ।।५८॥ मैं अमूर्त हूँ , निराकार हूँ आर रूपरहित हूँ । संसारमें यह जो कुछ पुत्र मित्रादिकका i| उपद्रव दिखाई देता है उमसे में सर्वथा भिन्न हूँ ।।५९।। मैं इंद्रियों के द्वारा स्पर्शादिक से सुखदुःखका अनुभव
करता हूं परंतु वह सब व्यर्थ है क्योंकि मैं इन्द्रियरूप नहीं हूँ, मैं इन्द्रियोंसे सर्वथा रहित हूँ ॥६॥ सुनना,
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सु० प्र०
॥ २६ ॥
・寄る
दृश्यन्ते सर्वतस्ताभ्यः मुक्तोस्मि ननु सर्वथा ॥ ६१ ॥ स्वात्मनैवात्मरूपोहं सदा स्वात्मनि मे स्थितिः । चात्मनो मेऽथ भिनास्ते शरीराधा जडा हमे ||१२|| न मे पुत्रा न मे दारा न देहो नैव वस्तु मे । स्वप्नवदनुभूयन्ते भ्रमनाशे सुबोधतः ||६३ || रम्यं किंचिन मे भाति देहादिपरवस्तुनि । सुखं तत्र न पश्यामि स्वं पश्यन स्वात्मना स्वयम् ॥६४|| रूपं परित्यज्य पश्यात्मन एवं स्वकं सदा । स्वसंवेदन बोधेनामूर्तीसीति प्रभास से ||३५|| अन्तट्या निजात्मानं वरिष्ट्या तनुं ननु । पश्यात्मन शुद्धबोधेन भेदं कृत्वा पृथक् पृथक् ||१६|| संदेह देहिनोर्भेदमन्स या प्रपद्य च । चात्मनिगूढतत्त्वं तद्गृहाण सुखलिप्सया ||३७|| अन्तर्दृष्टिं समाज्ञम्ब्य सद्बोधेन सुदुर्लभम् । तं शरीरात्मनोमेदं कुर्वात्मन् त्वं सुखेच्या ||६|| भेदज्ञानं यदाप्नोति शरीरादात्मनोर्यदि । तदा त्वं लभते शीघ्रमात्मन् मोक्षपर्थ सुखम् ||६|| अन्तष्ट्या निजात्मानमाराधय स्वतः स्वयम् । आत्मन् पश्यसि शीघ्रं त्वं शिवसौख्यमकण्टकम् ||७०|| खाना, गाना आदि संसारमें जो जो क्रियाएं दीखती हैं उन सबसे में सर्वथा रहित हूँ || ६१ || मैं अपने आत्माके द्वारा ही आत्मरूप हूँ और आत्मामें ही मेरी सदा स्थिति रहती है । ये शरीगदिक जड पदार्थ सब मेरे आत्मा से भिन्न हैं ||६२ || न पुत्र मेरे हैं, न यह खी मेरी हैं, न यह शरीर मेरा हैं और न यह पर पदार्थ मेरे हैं । जब जाता है और आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है तब ये सब मुझे स्वप्न के समान दिखाई देते
मेरा अज्ञान दूर हैं ॥ ६३ ॥ | जब मैं अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्माको देखता हूँ तब इन शरीरादिक पर पदार्थों में न तो मुझे कुछ मनोहरता दिखाई देती हैं और न उनमें कुछ सुख ही दिखाई देता है || ६४ || हे आत्मन् ! तू वाह्य रूपको छोड़ कर अपने स्वसंवेदन ज्ञानसे अपने आत्माको देख, उस समय तू अमूर्त ही प्रतिभासित होगा ।। ६५|| आत्मन् ! तू अपने शुद्ध ज्ञानसे अलग अलग मेद समझकर अन्तर्दृष्टि आत्माको देख और वा दृष्टिसे शरीरको देख ||६६|| शरीर और आत्मामें अन्तर्दृष्टिसे मेद समझकर सुखकी इच्छासे आत्मामें जो रत्नत्रयरूप गूढ तत्र है उसको ग्रहण कर || ६७ || सम्यग्ज्ञानके द्वारा अन्तर्दृष्टि के आधारसे अत्यन्त दुर्लभ ऐसे शरीर और आत्माके मेदको सुखकी इच्छा करता हुआ तू अच्छी तरह ग्रहण कर ॥ ६८ ॥ हे आत्मन् ! यदि तू. शरीर और आत्मा मे - विज्ञानको प्राप्त हो जायगा तो शुभ मोक्ष मार्गको भी शीघ्र ही प्राप्त हो जायगा || ६९|| हे आत्मन् ! तू अन्तर्दृष्टिसे अपनी आत्माका आराधन कर । यदि तू अपनी आत्माका आराधन करेगा तो शीघ्र ही कंटकसे
おおおおおお
भाव
॥
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सु०प्र०
॥२७॥
अन्तदृष्टया भ्रमं त्यक्त्वा गृहीत्वा बोधमुत्समम् । त्वं सम्यक् पश्य रे आत्मनात्मानं शुद्धरूपकम् || सिद्धरूपं निजात्मान. माराधय निजात्मना । त्यस्वा सर्वप्रपञ्च हिचान्तदृष्टया सुमावतः ॥७२।। वायचिन्तां पृथककृत्य देहजातां पुनः पुनः । त्वमात्मन् भावय शीघ्र स्वात्मानं शुद्धबोधतः ।।७३। अस्त्यात्मन् ते वहिर्दुःखं कर्मसंयोगजं परम् । अन्तरं ते परं सौख्य. मात्मजं निर्मलं शुभम् ॥४॥ त्वं मूच्छितोसि रे आत्मन् मोहनिद्रातिसूर्छया । जागृहि चाधुनोतिष्ठ पश्यानन्दमयं स्वकम् ।।७५|| यावन्मूर्छास्ति से चित्ते तावत्वं परिभ्राम्यसि । जन्ममृत्युजराकोनों संसारे विषये वने ॥७६।। मूईयामन्यसे चित्ते बालो वृद्धोहमाभ्रमाम् । मूझानाशे तु वृद्धो न बालो नापि सुतत्त्वतः ||४ा जीर्णे कुटीरके वासाहेवो जीणों भवेन वा । नवे कुटीरके वासाद्देवो नैव नषो भवेत् ||८ तथा नवीनजीर्णाभ्यो देहाभ्यां जायते नवा । आत्मा जोणों | नवो वापि त्वं सद्बोधाद् भ्रमं त्यज ॥७॥ यो मोहमूर्च्छया सुप्तः स सुप्तो विषयादिषु । मोहमूछा निराकृत्य | रहित मोक्षसुखको प्राप्त हो जायगा ।।७।। हे आत्मन् ! अंतर्दृष्टि से तू भ्रमको छोड़कर और उत्तम ज्ञानको पाकर शुद्ध स्वरूप अपने आत्माको अच्छीतरह देख ॥७॥ हे आत्मन् ! तू अंतष्टिसे और अच्छे परिणामोंसे सब प्रपंचों को छोड़कर अपने आत्माके द्वारा सिद्धरूप अपने आत्माका आराधन कर ॥७२सा हे आत्मन् ! तू शरीरसे | उत्पन्न हुई चिन्ताको चार यार दूर कर और शुद्ध ज्ञानसे अपने आत्माको शीघ्र ही चितवन कर ॥७३॥ हे आत्मन् ! यद्यपि कर्मके निमित्तसे उत्पन्न हुआ दुःख तुझे बाहरसे दिखाई पड़ता है तथापि तेरे मीतर आत्मासे उत्पन्न हुआ निर्मल और शुभ सुख सदा विद्यमान रहता है ।।७४॥ हे आत्मन् ! तू मोहके विलासकी मृच्छासे मूञ्छित हो रहा है इसलिये अब तू उठ और जम, तथा आनन्दमय अपने आत्माको देख ॥७॥ हे आस्मन् ! जबतक तेरे हृदयमें मूी वा मोह है तबतक तू जन्म-मरण और नुडापेसे भरे हुए संसाररूपी विषय-वनमें ही परिभ्रमण करता रहेगा ॥७६॥ इस मू के कारणही तू अपने हृदयमें अपनेको बालक का पद मानता है, | परंतु जब मूर्छा नष्ट हो जाती है तब तू समझने लगता है कि न तू बालक है और न वास्तवमें वृद्ध है
॥७७॥ जिसप्रकार किसी पुराने मठमें रहनसे कोई देव पुराना नहीं हो जाता और नये मठमें रहनेसे कोई देव नया नहीं हो जाता, उसीप्रकार यह आत्माभी पुराने शरीरमें पुराना नहीं होता और नवीन शरीरमें नया । मीं होता। रे आत्मन् ! तू अपने सम्यग्ज्ञानसे अपने प्रमका त्याग कर ||७८-७९॥ जो अपने मोह और
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॥२८॥
सद्बोधः स च जाग्रति IRolt यदा यदा हि साधोः स्यान्मनो मोहपराकमुखम् । द्वन्द्वातीतं भ्रमातीतं स्वं प्राप्नोति तदेव तम् |शा मोहादून्धो हि जीवस्य विमोहालकमनिर्जरा । माही भ्रमति संसारे विमोही लभते शिवम् HAI तस्मात्सर्व प्रकारेण मोहभावं निवारय । कृत्वा जिनागमे श्रद्धां गृहीचा बोधमुत्तमम् ॥३॥ प्रतिहत्य महामोहभ्रम हि तिमिरावृतम् । स्वानुभूत्यात्मबोधेन स्वात्मानं पश्य निर्मलम् ॥८॥ अज्ञानजनितां चेष्ठां जिनोक्तस्वचिंतया । निवारय भ्रम शीघ्रं मिथ्यात्ववासनायुतम् ॥५॥ सत्यात्मक जिनेन्द्रो धर्म चिन्तय भावतः। चिन्तं तस्मिन् स्थिरं कृत्वा भ्रममात्मन निवारय ॥८६॥ जिनाज्ञां शुद्धभावेन धारयात्मन हद हदम् । तया मोहनमो नूनं स्वयं खत्तः पलायते ||॥ चितया. स्मन जिनोक्तं हि तत्त्वं भवेन निर्मलम् । भ्रमा हिनश्यते तस्मात्स्वस्वरूपं प्रपधसे || चिदानन्दमये शुद्ध निवेशय
मू के कारण सो जाता है वह विपयादिकों में ही आकर लोला है जो मोह और पूछो छोड़कर सम्यग्ज्ञानी | हो जाता है उसे ही इस संसारमें जगनेवाला समझना चाहिये ।।८०|| जब जब साधुका मन मोहसे पास हो जाता है और सर्व उपद्रवोंसे रहित तथा भ्रमरहित हो जाता है तभी यह जीव अपने आस्माको प्राप्त | हो जाता है ॥८१।। इस जीवके मोह करनेसे कर्मों का बन्ध होता है और मोहका त्याग कर देनेसे कर्मोकी | निर्जरा होती है। मोह करनेवाला जीव इस संसाग्में परिभ्रमण करता है और मोहरहित जीव मोक्षको प्राप्त होता है ॥८२। इसलिये हे आत्मन् ! तू जैन आगमपर श्रद्धा रखकर और सम्यग्ज्ञानको प्राप्तकर सर तरहसे मोहका त्याग कर १८३॥ हे आत्मन् ! तू अंधकारसे घिरे हुए महामोहरूपी भ्रमको नाशकर स्वानुभूति और आत्मज्ञानसे अपने निर्मल आत्माको देख ॥८॥ हे आत्मन् ! तू भगवान् जिनेन्द्र देवके कहे हुए तत्वोंका | चितवनकर अज्ञान जनित चेष्टाका त्यागकर और मिथ्यात्वकी वासनासे भरे हुए भ्रम को शीघ्रही दूर | कर ८५॥ हे आत्मन् ! तु भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए सत्यस्वरूप धर्मको शुभ परिणामोंसे ग्रहण कर और उसी धर्ममें अपना चिन लगाकर अपने भ्रमको दूर कर ॥८६॥ हे आत्मन् ! तू अपने शुद्ध मावोंसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको दृढ़ताके साथ धारण कर, क्योंकि भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञासे यह मोहलपी भ्रम
अपने आप तुझसे भाग जायगा ।।८७॥ हे आत्मन् ! तू अपने परिणामोंसे भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए II निर्मल तच्चोंका चितवन कर. क्योंकि तोंके चितवन करनेसे भ्रमका नाश हो जाता है और तू अपने आत्म
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॥२६॥
निवेशय । स्वसंवेदेन चात्मानं भ्रमो स्वतः पलायते || जिनागमस्य सुभद्धा ढां कृत्वा मुभावतः। विचारय निजात्मानं भ्रमः नश्यति ते ततः ॥१०॥ जिनागमप्रसादेन कल्याणं ते भविष्यति । पश्यसि त्वं हि चात्मानं निर्लेपं स्वशरीरतः ।।३.१॥ निर्लेपं वेत्ति तत्पन' यारिस्थमपि वा जलात । अन्तरात्मा तथा पेत्ति चात्मानं देइतः पृथक् ॥२॥ अंतर्दृष्टया प्रमध्यंत दभः सर्पिः प्रसज्यते । अन्तरष्टया स्वकं ध्यायेत्परमात्माप्युदध्यति ॥६॥ उपेक्ष्य बहिरात्मानमन्तरास्मा भव त्वकम् । अभ्यन्तरे स्वमात्मानं पश्य पश्य निरन्तरम् ||६४॥ देहाविष्टोपि रे आत्मन्नन्तानबलेन हि । पश्य पश्य निजात्मानं स्वात्मन्येवात्र शुक् ॥५॥ देहाविष्टोपि शुद्धात्मा चिन्तयति पुनः पुनः । विशुद्धरूपमात्मानं द्वन्द्वातीनं मनोहरम् । द्वैतभावं निराकृस्य पश्यात्मन् पश्य तं सदा । विशुद्धरूपसम्पन्नं परात्मानं हि चात्मनि ॥६॥ यः परात्मा स एवाह परं तत्वं तदप्यम् । अहमेव परात्मास्मि सोई सोहमहं हिसः ॥८॥ श्रारमा हि परमात्मास्ति नान्यो भिन्नो नवा पृथक ।
F/ स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ।।८८॥ हे आत्मन् ? तु अपने स्वसंवेदन ज्ञानसे अपने आत्माको चिदानंदमय शुद्ध | व आत्मामें लीन कर, तभी तेरा भ्रम नष्ट होगा ॥८९॥ हे आत्मन् ! तू अपने परिणामोंसे जिनागमका दृढ़ |
अद्धान करता हुआ अपने आत्माका चिंतन कर । इसीसे तेरा सब भ्रम नष्ट हो जायमा ।:९०॥ हे आत्मन् ! जिनागमके प्रसादसे ही तेरा कल्याण होगा और शरीरसे सर्वथा भिन्न अपने आत्माको तू अवश्य | देखेगा ॥९१॥ जिसप्रकार तू जलमें रहनेवाले कमलको जलसे सर्वथा भिन्न मानता है उसीप्रकार यह
अंतरात्मा इस अपने आत्माको शरीरसे सर्वथा भिन्न मानता है ॥९२॥ जिसप्रकार अंतर्दृष्टिले मथनेपर दहीसे * घी निकल आता है उसीप्रकार अंतरेष्टिसे अपने आत्माका ध्यान करनेपर परमात्म अवस्थाकी प्राप्ति हो जाती | है ॥९३। इसलिये पहिरात्म अवस्थाकी उपेक्षाकर तू अंतरात्मा बन और अपने आत्मामें निरंतर अपने [ आत्माको देख ॥९४॥ हे शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले आनन ! अपने शरीरमें रहता हआ मीत
अंतर्ज्ञानके चलसे अपने ही आत्मामें अपने आत्मा को देख ॥९५॥ शरीरमें रहता हुआ मी शुद्ध आत्मा समस्त उपद्रवोंसे रहित और अत्यंत मनोहर ऐसे अपने विशुद्ध आत्माको बार बार चितवन करता है ॥१६॥ हे आत्मन् ! तू द्वैतभावको छोड़कर अपने ही आत्मामें अत्यंत विशुद्धताको धारण करनेवाले अपने श्रेष्ठ आत्मा| को देख और सदा उसे ही देखता रह ॥९७।। जो परमात्मा है सो ही मैं हूं, जो परम तय है वहीं मैं हूँ, मैं
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मा
यः स एवास्मि वाईस एकरूपं पश्यतः ||६ एकमेव परं रूप परमात्मन एव मे । अहं स एव सोहे हि नान्यो । सु०प्र०
भिन्नः कदाचन ॥१००|| गुणाद्वा लक्षणाझेदः परमात्मात्मनोयोः । परं न किंचिदरतीह ततः सोहमहंस कः ॥१०॥ ॥10॥ एकोहं शाश्वतश्चाहं परं ब्रह्मोहम त्मनि । आत्मना यदि पश्यामि स्वात्मानं सन्मयोस्म्यहम् ॥१०२॥ यः प्रात्मास्ति स एवास्ति
परमात्मा सनातनः । परमात्मात्मनोर्मध्ये कोपि भेदो न दृश्यते ॥१०॥ निरौपम्यं निराबा परमानन्दलक्षणम् । अनन्तगुणसम्पन्न स्वात्मानं विद्धि तत्त्वतः ॥१०४|| झामूर्ति चिदानन्दमनन्तसुखसागरम् । परमोत्कृष्टचिज्ज्योतिर्भास्कर सुखदं विभुम् ।।१०।। त्रैलोक्यमहिमावन्तं निराकुलमनामयम् । तस्वानां सारसर्वस्वं स्वात्मानं विद्धि सस्वत: ॥१६॥ सोहं सोहं स एवाहं नान्योम्यहमहं जिनः । चिज्योतिश्च विशुद्धात्मा विमलः कृतकृत्यकः ॥१०७॥ अच्छेयोहमभेषोई ही परमात्मा हूँ, जो वह है सो मैं हूँ और जो मैं हूँ वही वह है ॥९८॥ जो आत्मा है वही परमात्मा है, परमात्मा अपने शुद्ध आत्मासे भिष वा पृथक् नहीं है । तथा जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही |
परमात्मा है । अपने आत्मद्रायसे आत्मा और परमात्मा दोनों एक हैं ।।९९॥ वास्तवमें देखा जाय तो मेरा में और परमात्मा इन दोनोंका एक ही रूप है । जो मैं हूँ सो परमात्मा है और जो परमात्मा है सो मैं हूँ। मैं | और परमात्मा दोनों एक है, मुझसे परमात्मा न अन्य है और न भिम है ॥१००|| आत्मा और परमात्मामें | किसी मी गुणसे वा किसी मी लक्षणसे कुछ मी मेद नहीं है। इसलिये जो परमात्मा है सो में हैं और जो में
हूँ सो परमात्मा है ।।१०१।। मैं एक हूँ नित्य हूँ परब्रह्म हूँ और तन्मय है इसीलिये मैं अपने आत्मामें अपने | आत्माके द्वारा अपने आत्माको देख रहा हूँ ॥१०२|| जो आत्मा है वही सनातन परमात्मा है | आत्मा और परमात्मामें कोई किसी प्रकारका भेद दिखाई नहीं देता ॥१०३॥ हे आत्मन् ! तु अपने
आत्माके स्वरूपको उपमारहित, आधारहित, परम आनन्दस्वरूप और अनंत गुणोंसे सुशोमित समझ | ॥१०४॥ इसीप्रकार हे आत्मन् । तू अपने आत्माको झानकी मूर्ति, चिदानन्दमय, अनंत सुखका समुद्र,
परमोत्कृष्ट चिज्योतिरूप सूर्य, सुख देनेवाला, विस, तीनों लोकोंकी महिमासे सुशोभित, निराकुल, रोगरहित | और समस्त तत्त्वोंका साररूप समझ ॥१०५-१०६ ॥ मैं वही हूँ मैं वही हूँ मैं वही हूँ मैं अन्य नहीं हूँ मैं ही | जिन हूँ मैं ही चैतन्य ज्योतिरूप , विशुद्ध हूँ निर्मल हूँ और कृतकृत्य हूँ ॥१०॥हे आत्मन् ! मैं छिद नहीं सकता,
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निर्मयोई निराकुलः । त्वं चिंतयेति बोधेन स्वानुभूत्यात्मकेन बा ॥१०८ पुन पुनः सदा भव्य इति भावनया स्वयम् । वात्मानं हि दृढीकुर्यात्स्वात्मनि शुद्धचिन्तनः ॥१०॥ यः उपास्यः स एवाहमुपासकोप्यहं स च । नवा तयोः कचिभेदस्वं चिन्तय सदा सुधीः ॥११०॥ शस्त्रेणापि न गम्योसि स्वं न गम्योति बहिना । कालेन
वा न गम्योसि चिन्तयेति मुहुर्मुइः ॥१११।। वायुना नैव भक्ष्योसि मृत्योर्वा नैव गोचरः । भयमात्रं न ते क्वापि त्वम| सोसि सुनिर्भयः ॥११२॥ अस्त्यात्मन् ते घहिदुःखं कर्मसंयोगजं परम् । अन्तस्ते हि परं सौख्यमात्मजं निर्मलं शुभम् ॥११३॥ इत्येवं हि निजं मत्वा रे अरमन तननाशतः । मा गा मयं निजे चित्ते त्वं सप्तमयवर्जितः ॥११४॥ तस्मारवं स्वस्वरूप हि पश्यात्मन शुद्धबोधतः । रागद्वेषौ हिरे आत्मन निवारय निवारय ॥११॥ कृत्वाक्षाणां संवरणं मोहं हत्वा च वासनाम् । स्वकं चिंतय रे श्रात्मन् आत्मनि तिष्ठ ठिष्ठ वा ॥११॥ यात्मानमात्मनात्मन् त्वमात्मन्येव विलोकय । किं त्वं देह
TWARIXXXMARSHAN
36XXXRAPESARIYAR
मिद नहीं सकता, मैं निर्भय हूं , निराकुल हूं। हे आत्मन् ! तू स्वानुभूतिरूप ज्ञानसे अपने आत्माके स्वरूप का चिन्तबन कर ॥१०८।। भव्य पुरुषोंको इसप्रकारकी भावनासे तथा अपनी आत्मामें शुद्ध आत्माका चिन्तवन
करनेसे ऊपर लिखे अनुसार अपने आत्माको हद कर लेना चाहिये ॥१०९॥ जो उपास्य है जिसकी उपासना IS | की जाती है) वही मैं हूँ, तथा जो मैं उपासक हूँ वही वह अर्थात् उपासक है। उपास्य उपासकमें कोई भेद | नहीं है, हे बुद्धिमन् ! तू ऐसा चितवन कर ॥११०॥ हे आत्मन् ! तू न तो शस्त्रसे छिदमिद सकता है, न अग्निमें | जल सकता है और न कालसे नष्ट हो सकता है, ऐसा तू बारबार पितवन कर ॥१११॥ तू न वायुसे उड़ सकता है, | न तुझे मृत्यु ले जा सकती है और न तुझे किसी प्रकारका कहीं मी भय उत्पन्न हो सकता है, इसलिये तू सदा निर्मय है ॥११२॥ हे आत्मन् ! यद्यपि तुझे कर्मके निमित्तसे बाहरसे दुःख दिखाई देता है तथापि अवङ्गमें | आत्मासे उत्पन्न हुमा अत्यन्त निर्मल शुभ और सर्वोत्कृष्ट सुख सदा बना रहता है ।।११३॥ हे आत्मन् !
इसप्रकार समझकर शरीरके नाश होनेपर तू अपने हृदयमें किसी प्रकारका भय मतकर, क्योंकि तू सातोंप्रकार| के भयसे सर्वथा रहित है॥११४।। इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने शुद्ध झानसे अपने आत्माका स्वरूप देख और | राग-द्वेषको सर्वथा दूर कर ॥११५॥ हे आत्मन् ! तू इन्द्रियों को संवरणकर मोहका नाश कर, वासनाको दूर कर ||al वा अपने आत्माका चिन्तवन कर और आत्मामें ही लीन हो ॥११॥ आत्मन 17 अपने वास्याने नाग याने
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FAKIS
मा
॥ ३२ ॥
स्वरूपोसि देहातीतोसि वा उत ॥११७॥ आत्मन् चिंवय सोह वा सोहमिति निरन्तरम् । अभ्यासं कुरु नित्यं त्वं स्वस्पेन मनसा स्वयम् ॥११८॥ एवं विचार्यमाणेन बुद्धिः स्यात्परमात्मनि । म्वात्मनि स्वात्मना स्यैर्य मनो याति न संशयः ॥११॥ चिदा. स्मास्ति च यः शुद्धःमः शिखामेश्वरीसिनः सानिमोमिति चिन्तय सन्ततम् ।।१२०॥ सुचिन्तयन्निदं | चारमा स्वात्मनि कुरुते स्थितिम् । सम्यक्त्वमुत्तमं धृत्वा चिदानन्दमुपैति सः ॥१२१|| भावभुतेन संज्ञाप्य स्वात्मानं देह संस्थितम् । स्थिति स्वात्मनि यः कुर्यात्स स्याच्छुद्धोपयोगभाक् ॥१२२|| पारध्यते हि चात्मानमन्तई प्या स्वके स्वयम् । तदा स लभते शीध्र परमात्मानमव्ययम् ॥१२३।। सुनिजात्मानमाराध्यात्मात्मना स्वात्मनि स्वयम् । भवति परमात्मायमीश्वरः कर्महारकः ॥१२४ा एवं हि चान्तरात्मासौ भ्रमं त्यक्त्वा निजात्मनि । स्थापयति निजात्मानं सम्यक्त्वेन विशुद्धधीः ॥१२॥
| ही आत्मामें अपने आत्माको देख, फिर तुझे मालूम होगा कि तू शरीररूप है अथवा शरीरहित है ॥११॥ | हे आत्मन् ! "मैं वही परमात्मा हूँ वही परमात्मा हूँ" ऐमा निरंतर चिन्तवन कर । तथा स्वस्थ मनसे स्वयं ऐसे | चिन्तवन करनेका अभ्यास कर ॥२१८॥ इसप्रकार विचार करनेसे अपनी बुद्धि परमात्मामें लग जाती है और | यह मन अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें स्थिर होजाता है इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है॥११९॥ | जो शुद्ध चिदात्मा है अथवा सिद्धारमा ईश्वर है वही मैं हूँ मैं उस सिद्धात्मासे भिम नहीं हूँ, हे आत्मन् ! इस| प्रकार तू बार बार चितवन कर ॥१२०॥ इसप्रकार चितवन करनेसे यह आत्मा अपने आत्मामें ही स्थिर हो जाता है और उत्तम सम्बग्दर्शनको धारणकर चिदानन्द अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥१२१।। जो आत्मा अपने भावभुत ज्ञानसे शरीरमें रहनेवाले अपने आत्माको समझ लेता है और फिर अपने आत्मामें ही स्थिर हो जाता है वह आत्मा शुद्धोपयोगको धारण करनेवाला शुद्ध हो जाता है ॥१२२।। जो जीव अपने अतरंगसे | अपने ही आत्मामें स्वयं अपने आत्माका आगधन करता है वह कमी नाश नहीं होनेवाले परमात्माको बहुत शीघ्र प्राप्त हो जाता है।।१२३।। यह आत्मा अपनेही आत्माके द्वारा अपनीही आरमामें स्वयं अपने आत्माका आराधन |कर काँको नाश करनेवाला परमात्मा ईश्वर बन जाता है ॥१२४॥ इसप्रकार विशुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाला यह अन्तरात्मा अपने प्रमको छोड़कर सम्यग्दर्शनके साथ साथ अपने आत्माको अपनेही आत्मा स्थापन
H MIRRISHCHIMNS : RRARY
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॥ ३२ ॥
羊節者:おおおおおおお
||१२|| तावद्वन्धो अमी यावद्धमावे हि शुद्धधीः । तव सम्यद्यते ध्यानं ध्यानात्कर्मक्षयो भवेत् ॥ १२६ ॥ यत्र मोहित तत्रैवाहंकारोती दुर्धरः । तेन दुर्घटसंसारः पापबंधोस्ति संततम् ॥ १२७ ॥ अन एव हि संसारः भ्रमाभाषः शिवो मतः । तस्माद्धमं निराकृत्य चान्त ष्टया निर्ज भज || १२८|| स्वस्वरूपं समासाद्य चेत्थं शुद्धविचारतः स्थानय त्वं दृढं शीघं स्वात्मानं स्वात्मनि स्थिरम् ॥ १२६ ॥ स्वानुभूत्या विचारेण ध्यानेन सोपयोगतः । अन्तरात्मा निजात्मानं स्थापयति परामनि ॥ विरभियात्वरूपात वर वर निज चित्चे शुद्धसम्यक्त्वमित्थम । चर चर जिनमार्ग श्रीजिनाज्ञाप्रमारणम्, कुरु कुरु परमात्मानं सुबह अमन् ॥ १३१ ॥
॥ इति सुध्यानालंकारे बहिरात्मान्तरात्मनोर्धर्यानं नाम तृतीयोधिकार: ॥
कर लेता है || १२५ || इस जीवको जबतक भ्रम रहता है तबतक कर्मका बन्ध होता रहता है और जब भ्रमका नाश हो जाता है तब बुद्धि अत्यन्त शुद्ध हो जाती है तथा शुद्ध बुद्धिसे ध्यान की प्राप्ति हो जाती है और ध्यानसे कर्मों का नाश हो जाता है ।। १२६ । जहाँपर भ्रम होता है वहीं पर अत्यन्त दुर्द्धर अहंकार हो जाता है । तथा अहंकार हो जाने से घोर संसारकी वृद्धि हो जाती है और निरंतर पापका बन्ध होता रहता है ॥ १२७ ॥ इस भ्रमको ही संसार ममझना चाहिये और भ्रम अभावको ही मोक्ष समझना चाहिये। इसलिये
नका त्याग कर १२८ ॥ इसप्रकारके शुद्ध विचारोंसे अपने स्वरूपको प्राप्त आत्मा में दृढ़ता के साथ शीघ्र स्थापन कर ।। १२९ ।। यह
अन्तरंग से अपने आत्माका ध्यान करना चाहिये ॥ होकर हे आत्मन् ! तू अपने आत्माको अपने ही अन्तरात्मा अपनी स्वानुभूतिसे, अपने विचारोंसे, अपने ध्यानसे और अपने उपयोग से अपने आत्माको परमात्मा में स्थापन कर लेता है || १३०|| हे आत्मन् । गाढ मिथ्यात्वरूप मोहसे तू विरक्त हो, विरक्त हो और इस प्रकार अपने हृदय में शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण कर | भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार जिनमार्गमें चल और श्रेष्ठ धर्ममय परमात्माको स्वीकार कर || १३१ ॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्म सागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में बहिरात्मा और अन्तरात्माको निरूपण करनेवाला यह तीसरा अधिकार समाप्त हुआ ।
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सु० प्र०
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॥३४॥
चतुर्थोऽधिकारः॥
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येन ध्यानाचतुष्कर्म दग्र्ध शुद्धान्तरात्मना । प्राप्तं परमकैवल्यं तं वन्दे शम्भत्रं जिनम् ॥१॥ सर्वपापादिभिः | all मुक्तो मुक्तो मोहकदम्बकात् । सर्वद्वन्द्वादिनिर्मुक्तो मुक्तोन्तोषाह्यसंगतः ॥२॥ मुक्तः कामविकारैश्च मुक्तो हि विषयादिभिः । | मुक्तो मनोक्षचेष्टाभिर्मुक्तः क्षुधादिदोषकैः ॥२॥ मुक्तः क्रोधाभिमानायैः रागद्वेषप्रपंचकैः । मुक्तो जन्मजरामृत्युरत्यरत्यादि.
दुर्गुणैः ॥४॥ निद्रातन्द्राभयालस्यैर्मुक्तरतृष्णादिपापकैः । पापपुण्यैर्विनिर्मुक्त: मुक्तः कर्मचतुष्टयान् ॥शा मुक्तोष्टादशभिII दोर्षस्तैः संसारस्वरूपकैः । मुक्तो यः सर्वथा वस्त्रैरलंकारैर्बधूजनैः ॥६।। स्वेदनीहारनिर्मुक्तो मुक्त श्रातदुःखनः ।
__शुद्धअन्तरात्माको धारण करनेवाले जिन जीवोंने अपने ध्यानसे चारों धातिया कोको नाम कर परम केवल ज्ञान प्राप्त किया है ऐसे भगवान्। संभवनाथको मैं यन्दना करता हूँ ॥१॥ आगे परमात्माका स्वरूप कहते हैं-परमात्मा समस्त पापोंसे रहित होता है, मोहके समस्त विकारोंसे रहित होता है, समस्त उपद्रवोंसे तथा अन्तरंग बहिरंग समस्त परिग्रहों से रहित होता है ।।२।। वह परमात्मा कामके विकारोंसे रहित होता है, विपयादिकोंसे रहित होता है, मन ओर इन्द्रियोंझी चेष्टाओंसे रहित होता है और भूख प्यास आदि all समस्त दोपोंसे रहित होता है ॥३॥ वह परमात्मा क्रोध मान माया लोभ और द्वेष आदिप्रपञ्चोंसे रहित होता | है, जन्म जरा मरण रति अति आदि दुर्गुणों से सर्वथा रहित होता है ॥४॥ वह परमात्मा निद्रा तंद्रा भय और |
आलस्य आदिसे रहित होता है, तृष्णादि पापोंसे रहित होता है, पाप पुण्यसे अलग रहता है और घातिया | कर्मोंसे रहित होता है ।।५॥ वह परमात्मा संसारको बढ़ानेवाले अठारह दोषोंसे रहित होता है तथा वन | अलंकार स्वीजन आदि सबसे रहित होता है ॥६॥ पसीना मल मूत्र आदिसे रहित होता है, आतक दुःखसे
।। ३४
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सु० प्र०
॥३५॥
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सर्वदोषविनिर्मुक्तो मुक्तः संसारकूपतः ॥ ७॥ अनन्तसुखसम्पन्न धनन्तवीर्यधारकः । श्रनन्तज्ञानसंयुक्तो योऽनन्तदर्शनोदयः ||६|| शुद्धात्मनि स्थितः सोयं ध्यानप्रपंचदूरगः । विरागो त्रिमलो नित्यः चान्तो दान्तो जितेन्द्रियः ॥ ६॥ अन्तादिमध्यहोनो यः कृतकृत्योतिनिर्मलः । शुद्ध बुद्धो विशुद्धात्मा तीर्थकृच्छासको विभुः ॥ १० ॥ विष्णुर्ब्रह्मा परब्रह्म परमेष्ठी सनातनः । स शंकरश्चिदानन्दो ब्रह्मानन्दो महेश्वरः || ११|| शान्तात्मा परमात्मा च महात्मा विश्ववन्दितः । सत्यात्मा तत्त्वरूपात्मा शुद्धात्मा ? विपावनः || १२|| परमर्षिमहर्षिः ब्रह्मर्पिर्मुनिपुङ्गवः । हरिहरो विधातासौ योगोशो विश्वतारकः ||१३|| महाविभूतिसम्पन्नः समवसृतिधारकः । सिंहासनसमासीनः छत्रत्रयविराजितः || १४ || प्रातिहार्या कोपतश्चामरैः परिवीजितः । यक्षयची सुसंभाव्यो देवनागेन्द्रवन्दितः ||१५|| सुरासुरनरैः पूज्यः सर्वदेवाभिनायका । जिनोईदेवदेवसौ सर्वज्ञो वीतरागकः ||१६|| पंचकल्याणकैः स्तुत्यः पंचाश्चयसुकारकः । त्रिलोकमहिमाप्राप्तः त्रिलोके पूज्य. रहित होता है, समस्त दोषोंसे रहित होता है और संसाररूपी कूपके महादुःखोंसे रहित होता है ||७|| वह परमात्मा अनन्त ज्ञान अनन्त सुख अनन्त वीर्य और अनन्त दर्शनको धारण करनेवाला होता है ||८|| ध्यानके से अलग हुआ वह परमात्मा अपने शुद्ध आत्मामें स्थिर रहता है, तथा रागरहित, मलरहित, नित्य, क्षमाशील, जिवेन्द्रिय और नहासंघभी होता है || ९ || वह परमात्मा आदि मध्य अन्तसे रहित होता है, कृत्यकृत्य, अत्यन्त निर्मल, शुद्ध, बुद्ध, शुद्धआत्ममय तीर्थंकर, शासक और विभु होता है ||१०|| वह परमात्मा विष्णु, ब्रह्मा, परब्रह्म, परमेष्ठी, सनातन, शङ्कर, चिदानन्द, ब्रह्मानन्द, महेश्वर, शांतात्मा परमात्मा, महात्मा, सत्यात्मा तस्वरूपात्मा, शुद्धात्मा अत्यन्त पवित्र और संसार के द्वारा बन्दनीय कहा जाता है ||११-१२ | यह परमात्मा परमऋषि, महाऋषि, ब्रह्मऋषि, मुनियोंमें श्रेष्ठ, हरि, हर, विधाता, योगीश्वर, और संसारको पार कर देनेवाला कहा जाता है || १३|| वह परमात्मा महाविभूतियोंसे सुशोभित होता है, समवसरण में विराजमान रहता है, और तीन क्षत्रोंको धारण करता हुआ सिंहासनपर विराजमान रहता है || १४ || वह परमात्मा आठों प्रातिहायोंसे सुशोभित रहता है, उनपर चमर डुलते रहते हैं, यक्ष यक्षी उनकी सेवा करते रहते हैं और देव नागेन्द्र आदि सब उनकी बंदना करते रहते हैं ||१५|| सुर असुर चक्रवर्ती आदि सब उनकी पूजा करते हैं वे सब देवेंकि स्वामी होते हैं तथा जिन अन् देवाधिदेव सर्वज्ञ और
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सु०प्र० ॥३६॥
पादकः ॥१॥ जीवन्मुक्तः सहस्थो लोकालोकप्रकाशकः । सफलः परमात्मासौ जिनेन्द्रो जिननायक: Ill कृत्स्नकर्म
। देहातीतो निरञ्जनः। निरीकारोपि सिद्धात्मा प्रदेशाकारसंस्थितः 11१९: विलोकनायको नित्योऽविनाशी सर्व दर्शकः । निरन्वयो निराबाधो वावगाहनशक्तिकः ॥२०॥ परमोत्कृष्टवीर्यः स निष्क्रियः शुद्धचेतनः । जन्मातीतो जरामृत्यु. रूपंदोषर्जियः ।।५।। काल कल्रशतेनापि विकारपरिवर्जितः । अत एव हि कूटस्थः व्ययोत्पत्ति वात्मकः ॥२२॥ चिदानन्दमयः शुद्धः व्यापको ज्ञानतो विभुः । सम्यन्वादिगुणोपेतः सूक्ष्मोऽमूतों गुणाकरः ॥२३|| निष्कलः परमात्मासौ शाश्वतः सु स्वसंयुत' । त्रिलोकशिवरामीनो देवदेव-मस्कृतः ॥२४॥ परमसमयसारस शुद्धचैतन्यरूपासकलकलुपाइंता
वीतराग आदि नामोंसे कहे जाते हैं ॥१६।। वह परमात्मा पञ्च कल्याणोंके द्वारा स्तुति करने योग्य होता है, | i/ पञ्च आश्चर्योको उत्पन्न करनेवाला होता है, तीनों लोकों में उसकी महिमा व्याप्त होती है और उनके चरण-13
कमल तीनों लोकोंमें पूजे जाते हैं ।।१७।। यह परमात्मा जीवन्मुक्त होता है, परमौदारिक शरीरमें विराजमान | रहता है और लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला होता है, इसमकारके जिन नायक जिनेन्द्रदेव भगवान् अर्हन्त
देवको सकल परमात्मा कहते हैं ॥१८|आगे निकल परमात्माका स्वरूप कहते हैं--जो समस्त | कर्मोंसे रहित हैं, शरीरसे रहित हैं, निरंजन हैं, निराकार हैं, प्रदेशोंके आकाररूप विराजमान हैं ऐसे सिद्ध
परमात्मा निकल परमात्मा कहे जाते हैं ॥१९॥ वे सिद्ध परमात्मा तीनों लोकोंके जानकार, नित्य, मा अचिनश्वर, सर्वदर्शी, अविनाशी. निरावाध और अवगाहन शक्तिको धारण करनेवाला होता है |२०|| वह *
निकल परमात्मा परमोत्कृष्ट अनन्तवीर्यको धारण करनेवाला, क्रियारहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूप, जन्मरहित | बुढ़ाया--मरण आदि सब दोषोंसे रहिन होना है ।।२१। उन परमात्मामें सैकड़ों कल्प काल बीत जानेपर Pall भी कमी किसी प्रकारका विकार नहीं होता; इसीलिये कूटस्थ और उत्पाद-व्यय-धोव्यस्वरूप कहलाता
है ॥२२॥ वह निकल परमात्मा चिदानन्दमय, शुद्ध ज्ञान दर्शनके द्वारा व्यापक, विभु, सम्यक्त्व आदि | आठ गुणोंसे सुशोभित, भूक्ष्म अमूर्न और अनन्त गुणोंकी खानि होता है ॥२३॥ जिनको देवोंके देव मी नमस्कार करते हैं, जो तीनों लोकों के शिवरपर विराजमान हैं, नित्य और अनन्त सुखी हैं, ऐसे सिद्धपरमेष्ठी | निकल परमात्मा कहलाते हैं ॥२४॥ जो परमात्मा परम समयरूप है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, समस्त पापोंको 81
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सु० प्र०
॥ ३७ ॥
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कर्मजेता विधाता । भवजननविमुक्तः मुक्तिरामानुरक्तः रमयति हि सुधर्मे स्वात्मरूपे विशुद्ध ||२५|| || इदि सुधर्मध्यानप्रदी पालङ्कारे परमात्मस्वरूपप्ररूपणो नाम चतुर्थोधिकारः ||
दूर करनेवाला, समस्त कर्मोंको जीतनेवाला, सबका स्वामी, जन्ममरणसे रहित और मुक्तिरूपी रमणीमें अनुरक्त रहता है; ऐसा परमात्मा स्वात्मरूप विशुद्ध आत्मधर्म में सदा क्रीडा किया करता है ॥२५॥
इसप्रकार सुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यान प्रदीपाधिका में परमात्माके स्त्ररूपको निरूपण करनेवाला यह चौथा अधिकार समाप्त हुआ ||
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॥ ५ ॥
पञ्चमोऽधिकारः ॥
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भवापायो राजितो भवनाशकः । स्वात्मोत्थसुखसंलीनो जीयाच्छ्रीअभिनन्दनः ॥१॥ बहिरन्तः - परात्मानमिति ज्ञात्वा स्वरूपतः । स्वात्मानमुद्धरेद्रव्यः संसारदुःस्वपतः ॥ २॥ अनादिकालतः प्राणी अजानन् तत्वसंस्थितिम् । मोहात् हा हा परं दुःखं भुब्जानः स्त्रियते परम् ||३|| अनादिकालतो नूनं भवक्लेशभृता मया । मोहमहात्म्यतः प्राप्तः संतापो हि भवे भवे ||४ || मयायावधिपर्यन्तं न ज्ञातो दुःखमोचकः । सर्वसुखप्रदाता हि जिनमार्गः शिवप्रः ||५|| अनेन कारणेनैव भ्रमान्यत्र भवार्णवे । पापिष्ठेन ततो घोरं कृतं पापमहो गया || ६ || दुरात्मना मया हा हा रम्यं नैव विचारितम् । हितं नाचरितं तेन यभ्रमोमि भवार्णवे ॥७॥ हा हा न विचारितं तवं जिनाशापूर्वकं मया ।
जो संसारके नाशसे उत्पन्न हुए भावोंसे शोभायमान हैं, जो संसारके नाश करनेवाले हैं और आत्मासे उत्पन्न हुए सुखमें लीन हैं ऐसे श्रीअभिनन्दन स्वामी सदा जयशील हों ॥ १ ॥ भव्य जीवोंको इस प्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका स्वरूप उनके स्वरूप के अनुसार समझकर इस संसारके दुःखरूपी कँसे अपने आत्माका उद्धार करना चाहिये ||२|| दुःख है कि यह प्राणी अनादिकालसे वस्तुस्थितिको वा redोंके स्वरूपको नहीं जानता हुआ मोहसे अनेक दुःख भोग रहा है और खेदखिन्न हो रहा है ||३|| संसारके केशों को धारण करते हुए मैंने इस मोहकी महिमा से भत्र भवमें अनादिकालसे अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त किये हैं ||४|| मैंने सब दुःखों को दूर करनेवाले, मोक्षको देनेवाले और सब प्रकार के सुख देनेवाले जिनमार्गका स्वरूप आजतक नहीं जाना ||५|| इसी कारणसे मैं इस संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण कर रहा हूँ और इसीलिये महापापी मैंने अत्यन्त घोरपाप उपार्जन किये हैं || ६ || दुःख है कि मुझ दुष्टने आत्माका हित करनेवाले मनोहर विचार कभी नहीं किये और इसीलिये में भवसागरमें परिभ्रमण कर रहा हूँ ||७|| दुःख है कि अपने हृदयमें मिध्या
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भान
1॥३५॥
| मिथ्यामतसुचित्तेन विषयसुखलिप्तया il हा हा दुष्टेन भावेन जिनवाक्यं तिरस्कृतम् । तस्मादेव पर प्राप्ता आधि व्याधिकुतर्जना था जिनाज्ञाविपरीतहि कृतं कर्मतिदारुणम् । हाऽज्ञानतो मया मायाचारेण ननु पापिन। ॥१०॥ तेनैव हेतुना चास्मिन्संसारे पतितोम्यहम् । घोरातिघोरदुःखं हि मेहे वाचामगोचरम् ॥११॥ परवाधाकरं पापं परजीचविराधनम् । परपीडाकर निन्धं दुष्टं कार्य हि चिन्तितम् ॥१२॥ मद्यमांसमधूच्छिष्टं सेवितं पापलिप्सया। मिथ्यामतकुवासेन विषयाभोगकांक्षिणा ॥१३॥ मिथ्यामतोपदेशेन हिंसायां धर्मधीः कृता । हिंसिता बहुधा जीकाः सुषटकायनिकायिकाः ।।१४।। मियामत्तोपदेशेन न ज्ञानं हि हिताहितम् । अनाचारं कृतं नानासुदुष्कर्मप्रदायकम् ॥१५॥ अक्षाद्र काप्रमादाद्वा चित्तचंचलवृत्तितः। मोहभ्रात्यैव न झतं तत्त्वं सत्यंजिनोदितम् ॥१६॥ कुशिक्षया कुसंगत्या मिथ्याशास्रोपदेशतः । मतको धारण करनेके कारण और विषयसुखोंकी इच्छा होनेके कारण मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञापूर्वक तत्त्वोंका चितवन नहीं किया ॥८॥ मुझे दुःख है कि मैंने अपने दुष्ट भावोंसे जिन-वचनोंका अनादर
किया और इसीलिये आधि, व्याधि, ताडन, मारण आदि अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त किये ॥९॥ हा! 2] महामायाचारी और पापी मैंने अपने अज्ञानसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आबाके विपरीत बहुत ही घोर कुकर्म | किये ॥१०॥ इन्हीं सब कारणोंसे मैं इस संसारमें आ पड़ा हूँ और वाणीके अगोचर ऐसे घोरसे घोर दुःख सहन कर रहा हूँ ॥११॥ मैंने दमरोंको दुःख देनेवाले पापोंका चितवन किया, दूसरे जीवोंकी विराधना की, 3 और दूसरोंको पीडा उत्पन्न करनेवाले निंद्य दुष्ट कार्योंका चितवन किया ॥१२॥ मिथ्यामतकी पुरी वासनासे अथवा विषयमोगोंकी आकांक्षासे पापोंकी इच्छा करके ही क्या मानों मैंने मद्य-मासका सेवन किया और उच्छिष्ट मधु वा शहदका सेवन किया ॥१३॥ मैंने मिथ्या मतका उपदेश देकर हिंसामें ही लोगोंकी धर्मरूप बुद्धिकी और छहों कायके अनेक जीवोंकी हिंसा की ॥१४॥ मिथ्यामतके उपदेशसे | मैंने अपना हिताहित नहीं समझा और अनेक प्रकारके दुष्कर्म उत्पम करनेवाले बहुतसे अनाचार किये ॥१५|| इन्द्रियोंके उद्रेकसे अथवा प्रमादसे अथवा चित्तकी चञ्चल वृत्तिसे अथवा मोहसे उत्पन्न होनेवाली प्रतिसे मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए यथार्थ तत्वोंका स्वरूप नहीं समझा ॥१६॥ खोटी शिक्षासे अथवा नीच संगतिसे और मिथ्या शास्त्रोंके उपदेशसे मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका लोप किया और पत्र परमे
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झु० प्र० ४ ॥
सा जिनाशा मया लुप्ता निन्दिता: परमेष्ठिनः ||१७|| विषयासक्तचित्तेन विषयभोगसिद्धये । विपरीतं कृतं दाहा जैनागमं कुपापिना || १८ || संसारभ्रमणश्रान्तिं मोहादद्यापि वो न भुजाम्यहं हि तेनैव भयक्लेशशतानि च ॥ १६ ॥ अस्मिन पारसंसारे मोहनिद्रस्य चेतने । स्वपन्ति सर्वजीचा हि न जानन्ति हिताहितम् ||२०|| हा हा मोहादहं सुप्री मूर्च्छितो यास्तचेतनः । तेनाद्यापि न जानामि जिनमार्ग सुखप्रदम् ॥२१॥ अपास्यविषयासक्ति मलिनां पापवासनाम् | जिनागमविरुद्ध वा रे श्रात्मन् त्यज सन्मते ||२२|| जिनमार्गरतो योगो व्यक्तमोहो दयानिधिः । पंचागाज्जगति ध्यानाध्यायनतत्परः ||२३|| जागरामि कदा हा हा मोहं त्यक्त्वा शिवप्रदे। जिनमार्गे सुचरित्रं गृहीत्वा यामि भोक्षकम् ||२४|| मिथ्याज्ञानेन न ज्ञातो जिनधर्मः सुखप्रदः । तेनैव कारणनैव संसारे बम्प्रसीमि च ||२५|| ! कदा केन प्रकारेण जिनधर्म दधाम्यहम् | जिनधर्मप्रभावेन भवान्मुखाम्यहं म्बकम् ||२६|| पंचाक्षविपजा मूर्च्छा जीवान् तुदति दारुणम। जिनमार्ग
टियोंकी निंदा की || १७॥ मुझ पापीने अपने हृदय में विषयोंकी आसक्तता धारणकर केवल विषयभोगोंकी सिद्धि के लिये जैनशास्त्रका अर्थ भी विपरीत ही बतलाया || १८ || मैं अपने मोहनीय कर्मके उदयसे आजतक मी संसारके परिभ्रमणकी आंतिको नहीं समझ सका हूँ, और इसीलिये में संसार के सैकड़ों क्लेशों को भोग रहा हूँ ||१९|| मोहरूपी नींदके कारण जिसमें सबकी चेतना नष्ट हो जाती है; ऐसे इस अपार संसार में सब जीव सो रहे हैं और इसीलिये वे अपने हित अहितको नहीं जान सकते ||२०|| हा हा इस मोहनीय कर्मके उदयसे मैं भी सो गया, मूच्छित हो गया और मेरी चेतना मी नष्ट हो गई । इसीलिये मैं सुख देनेवाले इस जिनमार्गको आज तक नहीं जान सका हूँ ॥२१॥ बुद्धको धारण करनेवाले आत्मन् ! अब विषयोंकी आसक्तिका त्याग कर और जिनागमके विरुद्ध जो मलिन पापवासना है उसका त्याग कर ||२२|| दयाके निधि ध्यान और अध्ययनमें तत्पर तथा मोइरहिन ऐसे जो योगी जिनमार्ग में लीन रहते हैं वे पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे सदा जाग्रत रहते हैं ||२३|| हा हा में मी मोहको छोड़कर कब जगूंगा और मोक्ष देनेवाले जिनमार्ग में सम्यक् चारित्रको धारणकर कब मोक्ष प्राप्त करूँगा ||२४|| मैंने अपने मिथ्या ज्ञानसे सुख देनेवाले जिनधर्मको नहीं जाना और इसीलिये में इस संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ || २५ || अब मैं कब और किस प्रकार जिनधर्मको धारण करूँगा और उम्र जिनधर्मके प्रभावसे में व इस संसार से छूहूँगा ||२६|| पांचों इन्द्रिय रूपी विषसे उत्पन्न होने वाली मूर्च्छा जीवोंको बहुत
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॥ ४०
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॥ ४१ ॥
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गृहीत्वा ततो मुंधाम्यहं स्वकम् ॥२७॥ रेरे अात्मन् हृबोकार्थे दुःखदेऽतिविनश्वरे । रविं कृत्वात्र मूढस्त्वं प्राप्तः दुःख| परंपराम् ||२८| गृहीत्वा जिनधर्मं हि बुध्यात्मनं त्यजाम्यहम् | पंचादविषयं सर्वं ध्यात्वा जैनेन्द्रदीर्थपम् ||२६|| भोगाः पंचेन्द्रियोद्भूता दारुणा दुःखदा हहा | अद्यावधि मया मुक्ता रतिं कृत्वा विमोहवः ||३०|| तेभ्यो सुचामि स्वात्मानमधुना जिनमार्गतः । जिनदोक्षां गृहीत्वा चारित्रं च चराम्यहम् ||३१|| निजात्मानं विमुंचामि दुष्टाष्टकर्मशत्रुतः । तीव्रक्लेशकः शत्रुर्न ज्ञातो मोहभावतः ||३२|| हा हायावधि पर्यन्तमनादिकालतो मया । वृथैव गमितः कालो विपयालुग्धचेतसा ||३३|| सज्जातौ सत्कुले जन्म लकवा जैनागमं तथा । तथापि गमितः कालः वृथैव विषये मया ||२४|| | भवक्लेशोद्भवं दुःखं न ज्ञातं सहता मया । हा हा चात्महितं तत्त्वं नाधीतं स्वर्गमोक्षदम् ||३४|| भवान्मुचाम्यहं सः ही दुःख देती है इसलिये मैं जिनधर्मको धारणकर इस संसारसे कम अपने आत्माको अलग करूंगा ||२७|| हे आत्मन् ! तूने अज्ञानता धारणकर दुःख देनेवाले और नष्ट होनेवाले इन इंद्रियों विषयोंमें राग उत्पन्न किया | इसीलिये तूने अनेक दुःखोंकी परंपरा प्राप्त की ||२८|| अब मैं जिनधर्मको धारणकर आत्माका स्वरूप समझकर और भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यानकर पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका सर्वथा त्याग करूँगा ||२९|| ये पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए भोग बड़े ही दारुण हैं और बहुत ही दुःख देनेवाले हैं। मोहके कारण मैंने आजतक उनमें प्रेम किया और उनका उपभोग किया ||३०|| अब मैं उन भोगोंसे अपने आत्माको अलग करना चाहता हूँ और जिनमार्गको धारणकर तथा जिनदीक्षाको स्वीकारकर सम्यक् चारित्रका पालन करना चाहता हूँ ||३१|| अब मैं इन आठों कर्मरूपी दृष्ट शत्रुओंसे अपने आत्माको छुड़ाना चाहता हूँ। मैंने अपने तीव्र मोहके कारण तीव दुःख देनेवाले इन कर्मरूप शत्रुओंको आजतक नहीं जाना ॥ ३२॥ हा हा, मैंने अपने चित्तको विषय में आसक्त कराकर अनादि कालसे आजतक व्यर्थ ही कालक्षेप किया ||३३|| मैंने श्रेष्ठ जातिमें तथा सत्कुलमें जन्म लिया और जिनागमका रहस्य जाना, तथापि मैंने विषयोंमें व्यर्थ ही काल गमाथा ॥ ३४ ॥ संसारसे उत्पन्न हुए अनेक दुःख मैंने सहे, तथापि मैंने उनको जाना नहीं । हाय, स्वर्ण मोक्ष देनेवाले और आत्माका हित करनेवाले तत्रोंका अध्ययन भी मैंने नहीं किया ||३५|| अब में इस जिनधर्म के प्रभाव से जिन
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॥४३॥
प्रात्मानं दुःस्वपोड़ितम् । गृहीवा जिनलिंग हि जिनधर्मप्रभावतः ॥क्षा संसारदुःखनाशार्थ २ रे आत्मन् पिबाधुना । सम्यग्ज्ञानसुधां सद्यः शियी भवाविनश्यर ॥३०॥ त्यज मोह भजामानं मुञ्च मुच परिप्रहम् । ध्यानं कुरु जिनेन्द्रस्य कर्मपङ्कविनाशकम् ।।३८।। रत्नत्रयं भजात्मन् त्वं सुदृग्बोधत्रतारमकम् । येन दुरन्तसंसारसागरस्तीर्यते महान् ।।३६।। निर्ममोहं भविष्यामि पुत्रादिनोहदूरगः । स्वात्मनं धारयाम्यत्र स्वात्मनि स्वात्मसिद्धये ॥४॥ कथं केन प्रकारेण संसारं च त्यजाम्यहम् । जगत्पूतकरं वृत्तं धारयामि कथं ननु ॥४१॥ हा हाई बंचितो नूनं मोहनी येन कर्मणा। अद्यापि येन न त्यक्तो गृहवासोतिभोमकः ॥४२॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गृहवासं त्यजाम्यहम् । पुत्रं मित्रं कलत्रं च संसारस्य च बन्धनम् ॥४शा न मे पुत्रा न मे दाराः न च वस्तु धनादिकम् । परवस्तु निजं मत्वा वृथैव पतितो भवे ॥४४॥ तस्मानिःशंकभावेन जिनदीक्षां प्रपद्य च । निर्ममत्वेन भावेन स्वात्मानं भावयाम्यहम् ॥४शा स्वशरीरेपि नैराश्य
लिंग धारण करूँगा और अनेक दुःखोंसे दुःखी हुए अपने आत्माको इस संसारसे शीघ्र ही छुड़ाऊँगा ॥३६॥ हे आत्मन् ! अब इन संसाररूपी दुःखोंको नाश करनेके लिये सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतको शीघ्र ही पी और कमी न नाश होनेवाली सिद्ध अवस्थाको धारण कर ॥३७॥ हे आत्मन् ! तू मोहका त्यागकर आत्माका चितवन कर, परिग्रहोंका त्यागकर और कर्मरूप कलंकोंका नाश करनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यान कर ॥३८॥ हे आत्मन् ! तू सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्बर चारित्ररूप रचत्रयका सेवन कर; जिससे कि तू इस दुर्रत संसार रूपी महासागरसे पार हो जाय ॥३९।। अब मैं पुत्र मित्र आदिका मोह दूरकर ममत्वरहित हो जाऊँगा और | अपने आत्माकी सिद्धिके लिये अपने ही आत्मामें अपने आत्माको धारण करूँगा ।।४। परंतु मैं इस संसारका त्याग कैसे करूँगा और जगत्को पवित्र करनेवाले सम्यक् चारित्रको कैसे धारण करूँगा।॥४१॥ हा हा! मुझे तो मोहनीय कर्मने ठग लिया है, क्योंकि मोहनीय कर्मके कारण ही आजतक मैं इस भयानक घरके निवासको नहीं छोड़ सका हूँ॥४२॥ इसलिये में सब तरहके प्रयत्नकर सरसे पहले इस परके निवासका त्याग करूँगा और संसारका बन्धन करनेवाले पुत्र, मित्र और स्त्री आदिका त्याग करूँगा।।४३।। इस संसारमें न तो कोई मेरा पुत्र है, न कोई मेरी स्त्री है और न कोई धन-धान्य आदि अन्य पदार्थ मेरे हैं। मैं पर पदार्योंको अपना समझकर व्यर्थ ही इस संसारमें पड़ रहा हूँ ॥४४॥ इसलिये निःशंक परिणामोंसे मैं जनदीक्षाको धारण
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भजामि ध्यानयोगतः । परद्रव्यस्य काशा ये निराशावादिनी जिनाः ॥४६|| निर्मोही निर्मयो भूत्वा चरामि जिनलिंगके : | कर्मकाष्ठं च संसारं दहामि ध्यानतोऽधुना ॥४७॥ इति वैराग्यनासाय भावयेद्भावनामिमाम् । दृढीकर्तुं हि निर्वेगं ध्यानाध्ययनसिद्धये ॥ द्वादशभावनसहिताः जीवा मोक्षं सदा प्रयान्त्येव । सततं च चिन्तयन्तु स्वात्मसुखां | भावना रम्याम् ॥४॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपालकारे वैराग्यभावनानिरूपणो नाम पंचमोधिकारः ।।
म.प्र.
॥४३॥
करूँगा और निर्ममस्त्र भावोंसे अपने आत्माका चितवन करूँगा ॥४५॥ मैं अपने ध्यानके निमित्तसे अपने शरीर में | भी सब प्रकारकी आशा वा ममत्व छोड़ दूंगा, क्योंकि भगवान् जिनेन्द्रदेव निराशावादी (आशा वा इच्छाका त्याग करनेका उपदेश देनेवाले) होते हैं; वे भला परद्रव्योंकी आशा कैसे कर सकते हैं १ ॥४६।। मैं मोहरहित और गहरहिन होरि मिलिंग आरड करूँगा और अब ध्यानके निमित्तसे कर्मरूपी काठको और इस जन्ममरणरूप संसारको जला दंगा ॥४७॥ इस प्रकार वैराग्यको धारणकर ध्यान और अध्ययनकी सिद्धि के लिये तथा अपने वैराग्यको बढ़ानेके लिये आगे लिखी हुई बारह भावनाओंका चितवन करना चाहिये ।।४८|| जो पुरुष चारह भावनाओंका चिंतबन करता है, वह मोक्षको अवश्य जाता है, इसलिये भज्य जीवोंको आत्मसुख देनेवाली मनोहर बारह भावनाओंका चितवन सदा करते रहना चाहिये ॥४९॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें वैराग्यभावनाको निरूपण
करनेवाला यह पाँचवा अधिकार समाप्त हुआ।
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मु०प्र०
4॥
४॥
षष्ठोऽधिकारः।
अनन्तसुखदातारमनन्तभवनाशकम् । बन्देहं सुमतिं देवं दिव्यज्ञानप्रकाशकम् ॥२॥ परवैराग्यसिद्धयर्थ भवभ्रमणहानये । भाषयाभ्यधुना भावाद्भावना द्वादशात्मनाम IRI
अनित्यभावना॥ घपलेब चला लक्ष्मीर्योवनं घनबिन्दुवत् । रम्भास्तम्भ इवापिंडः सर्वमेतद्धि नश्वरम् ॥३॥ चुचुदा इव ते भोगा विषमा दुःखदाः सदा । निस्साराः पारसंयुक्का दृष्टिमात्र स्थिरा इमे ||४|| परावर्ते च संसारे नदीवगोपमे चले । मास्त्यत्र स्थिरताप्यात्मन् भोगादीनां चलात्मनाम् ॥शा क्षणभंगरसंसारे नानायोनिसमाकुले । चिरं भ्राम्यन लेभेऽत्र ___ जो सुमतिनाथ भगवान् अनन्त सुखको देनेवाले हैं, अनन्त संसारको नाश करनेवाले हैं और दिव्य ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले हैं; ऐसे भगवान् सुमतिनाथकी मैं बन्दना करता हूँ ।।१।। अब मैं परमवैराग्यकी सिद्धिके लिये और संसारके परिभ्रमणको नाश करनेके लिये अपने शुभ परिणामोंसे बारह भावनाओंका चितवन करता हूँ ॥२॥
॥ अशरणानुप्रेचा ॥ - इस संसारमें लक्ष्मी विजलीके समान चञ्चल है, यौवन बादलकी बूंदके समान नश्वर है। | और शरीर केलेके थम्भके समान साररहित है। इसप्रकार सब नाशवान ही हैं ॥३॥ ये विषयमोग
सदा दुःख देनेवाले हैं, पानीके बुदबुदाके समान नश्वर हैं, पाप उत्पन्न करनेवाले हैं, साररहित हैं और देखनेमात्रके ही स्थिर हैं ।।४। यह परिवर्तनरूप संसार नदीके वेगके समान चञ्चल है, हे आत्मन् ! इसमें अत्यन्त चश्चल ऐसे भोगोंकी स्थिरता लेशमात्र भी नहीं है ।।५।। अनेक योनियोंसे भरा हुआ यह संसार क्षण
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स्थिरतां जन्यमृत्युतः ॥६॥ पुनः पुनश्च जन्मानि मरणानि पुनः पुनः । कर्मणो धशतो जीवः करोत्यनादिकालतः ।।७। पुत्रमित्रादयः सर्वे मृत्यु यास्यन्ति यान्ति च । तथाप्यात्मन् न जानासि संसारस्य विनश्यताम् । शरीरं शीर्यते तेत्र गल- | स्यायुः तणं क्षणम् । तथाप्यात्मन् न जानासि संसारस्य नित्यताम् ॥६॥ विवादमंगलं प्रातभृत्युस्तस्यापराहके। क्षणमेकं न संसारे स्थिरता कस्य दृश्यते ॥१०|| स्वप्नवद् श्यते लोके पुत्रादीनां समागमः । इन्द्रजालोपमं झेयं भोगवस्तु धनादिकम् ।।१शा इष्टानिष्टं हि विज्ञेयं भोगदेहकुटुम्बकम् । तेषां नष्टे नचाश्चर्य विद्यते शृणु घेतन ॥१२॥ भवस्यानित्यता झात्वा चात्मानं शाश्वतं शिवम् । सर्वभोई प्रपंचं च त्यक्त्वात्मान' भजाम्यहम् ।।१३||
॥ मशरणभावना ।।। पोताच्च्युतस्य काकस्य शरणं नास्ति सागरे । गृहीतयनपाशस्य जीवस्य शरणं नहि ॥१४|| त्रानारो सन्ति संसारे | • भंगुर है, चिरकालसे परिभ्रमण करते हुए इस जीवने इस संसारमें जन्ममरणसे कभी स्थिरता नहीं पाई ।।६।। 8 | काँके परवश पड़ा हुआ यह जीव अनादिकालसे बार बार जन्म लेता है और चार बार मरण करता है |७|| | ये सब पुत्र-मित्रादिक मृत्युको प्राप्त होते हैं और आगे होंगे । तथापि हे आत्मन् ! तू इस संसारकी विनश्वरताको | | अमीतक नहीं जान सका है ।।८॥ यह तेरा शरीर क्षण क्षणमें नष्ट हो रहा है, आषु क्षण क्षणमें नष्ट हो रही है। | हे आत्मन् ! तो भी तू इस संसारकी अनित्यताको नहीं जानता है ॥९॥ प्रातःकाल जिसका विवाह मंगल
हो रहा है, सायकाल उसीकी मृत्यु हो जाती है । इस संपारमें क्षणमात्रभी किसी की स्थिरता दिखाई नहीं देती | | है ॥१०॥ इस संसारमें पुत्रमित्रादिकका समागम स्वप्न के समान दिखाई देता है, और धनादिक भोगोपमोगों
का संग्रह इन्द्रजालके समान जान पड़ता है ।।११॥ हे चेतन तू सुन, भोग शरीर और कुटम्ब आदि सब पदार्य इष्ट भी हैं और अनिष्ट भी है; इनके नष्ट होने में कोई किसी प्रकारका आश्चर्य नहीं है ।।१२॥ इसलिये में इस संसारकी अनित्यताको समझकर और आत्माको कल्याणमय नित्य समझकर मोहके समस्त प्रपञ्चोंका त्याग करता हूँ और अपने आत्माका चितवन करता हूँ ।।१३॥
रामशरणानुप्रेघा ॥ जिसप्रकार कोई कौआ महासागरमें चलते हुए जहाजसे उड़ जाय तो फिर उसे कहीं मी शरण नहीं |
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पुत्रदारा न बांधवाः। जगद्वाराद् यमाल्लोक प्रकृष्टैः कोटियनकैः ॥१५॥ मण्योपधिसुमंत्राणि समर्थानि न रक्षितुम् । | यमाजीवं परं तानि वा यमस्याऽहता गतिः ॥१६॥ सुरासुरनरेन्दास्ते त्रैलोक्ये क्षयशक्तिकाः । रक्षितु वा समर्था ने यमपाशाच जन्तुकम् ॥१७॥ सर्वतंत्रा स्वतंत्रा ये चेन्द्राद्याः स्वर्गनायकाः। कालेनैकेन ते सर्व मारिता दृष्टमात्रतः ॥१८॥ अन्येषां का कया तत्र शरणं कस्य कोथवा । कर्म प्रबद्धजन्तूनां हाहा रहा कथं भवेत् ॥३था अनादिकालवो कोपि बली जीवं हि रक्षितुम् । यमानात्र शरण्योभून् रक्षेत्ः कर्मोनयेऽत्र कः ॥२०॥ धर्म एव शरण्यो हि जिनोतः सदयोथवा । यम विजित्य यः शीघ्र जीवं धरति सत्सुखे ॥२१॥ धर्म एवं पिता लोके शरण्यो रक्षको मतः। विपत्ती संकटे घोरे दुःखाकान्तशरीरिणाम् ॥२२॥ अशरणं ततःसर्व राज्यपुत्रकलत्रकम् । ज्ञात्वा च तत्त्वभावेन धर्ममाचर रचकम् ॥२३॥ जिनधर्म---
--- ---- ---- व मिल सकती, उसीप्रकार जब यह मृत्यु जीवको पकड़ लेती है तब इसको कोई शरण नहीं होता ॥१४|| इस
संसारमें तीनों लोकोंमें एक शूरवीर यमराजसे व वाने के लिये करोड़ों उत्तमोत्तम प्रयत्न करनेपर मी पुत्र स्त्री बांधव आदि कोई समर्थ नहीं हो सकते ॥१५।। मणि, औषध और मन्त्र आदि कोई भी पदार्थ इस जीवको
यमराजसे रक्षा करनेके लिये समर्थ नहीं हो सकते । यमराजकी गति किसीसे रोकी नहीं जा सकती ॥१६॥ | Lil सुर, असुर, चक्रवर्ती आदि जो महायुरूप तीनों लोकों अक्षय शक्तिको धारण करनेवाले हैं । वे भी यमराजसे | इस जीवकी रक्षा नहीं कर सकते ॥१४॥ स्वगों के स्वामी इन्द्र आदि सर्वोत्कृष्ट देव सब प्रकारसे स्वतन्त्र हैं, परंतु इस कालके द्वारा देखते देखते वे भी सब मृत्युको प्राप्त हो चुके हैं ॥१८॥ फिर भला अन्य जीवोंकी तो बात ही क्या है ? इस संसारमें कौन किसकी रक्षा कर सकता है ? जो जीव कर्मसे बंधे हुए हैं, उनकी रक्षा मला कैसे हो सकती है? ॥१९॥ इस संसारमें कोई भी बलवान पुरुष अनादि कालसे यमराजसे इस जीवकी रक्षा नहीं कर सका है । कर्मों का उदय होनेपर न तो कोई किसीकी रक्षा कर सकता है और न कोई किसीको शरणमें रख सकता है ॥२०॥ इस संसारमें भगवान जिनेन्द्रदेवका कहा ह दयामय धर्म ही शरण है। यह धर्म ही यमराजको शीघ्र जीत लेता है और जीवको उससे बचाकर मोक्षके श्रेष्ठ सुखमें पहुँचा देता है ।।२१॥ इस संसारमें अनेक दुःखोंसे आक्रांत हुए इन जीवोंको घोर विपत्ति और संकटके समयमें धर्म ही पिता है, धर्मही शरण है और धर्म ही सवका रक्षक है ॥२२॥ इसलिये इस जीवको स्त्री, पुत्र, राज्य आदि कोई मी शरण
॥
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स० प्र०
॥४
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प्रभावशयम. शो पलायत । अजरामरमयः स्वात्मा भवति कर्मच्छेदकः ॥२४॥
॥ एकत्वभाषना ॥ अनादिकालतो जीवः एकाको भ्रमितः सदा । नास्य कोपि सहायोऽभूद् विपत्तिप्रचुरे भवे ॥२॥ गच्छत्येको हि मृत्युस जन्मको विधात्यसी। रोगं शोकं भयं जीव एक एव भुनक्ति सः ।।२६॥ देवो हि जायते बैकश्चैकः पतति
नारके। द्वितीयोस्य सहायो न सर्वत्रैवं नवाधिक ॥२७॥ कर्म बध्नाति चैको हि पुत्रमित्रादिमोहतः । तस्माद्दुःखं सह|| त्येको दुःखं कोपि विभक्ति न ||२८॥ एकोहं मे न पुत्राद्याः वहिर्भूता हि ते परे। तेषां मोहो वृथैवात्रात्मानमेकं भजाम्यहम् ॥
२. एक एव हि मे आत्मा सर्वे सन्ति बहिर्भवाः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्वात्मानं साधयाम्यहम् ॥३०॥ नहीं है, यही समझकर और तत्वों का यथार्थ स्वरूप जानकर सब जीवोंकी रक्षा करनेवाले धर्मको धारण करना चाहिये ।।२३।। इस जिनधर्म के प्रमावसे यह यम शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और यह आत्मा समस्त कर्माको नाश कर अजर अमर ऐसी सिद्धि अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥२४॥
॥ एकस्वभावना ॥ ___ यह जीव अनादि कालसे अकेला ही परिभ्रमण करता है, अनेक दुःखमय इस संसारमें इसका कोई
सहायक नहीं है ॥२५|| यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरणको प्राप्त होता है, तथा रोग, || शोक, भय आदि सबको अकेला ही भोगता है ॥२६|| यह जीव अकेला ही देव होता है और अकेला ही | नरकमें पड़ता है। इस संसाररूपी समुद्रमें सब जगह इसको दुसरा कोई सहायक नहीं है ॥२७॥ पुत्र-मित्रा
| दिकके मोहसे यह जीव अकेला ही कोंका बंधन करता है और उनसे उत्पन्न हुए दुःखोंको अकेला ही 18 भोगता है । जीवोंके दुःखोंको कोई नहीं बाँट सकता ॥२८॥ इस संसारमें मैं अकेला हूँ, पुत्र-मित्रादिक मब
वाद्य और पर है; उनका मोह करना व्यर्थ है, इसलिये मै अब केवल अपने आत्माका ही चितवन करूँगा ।।२९॥ इस संसारमें मेरा केवल मेरा आत्मा ही है, बाकी सब पदार्थ पर हैं, इसलिये मैं सवतरहके प्रयकर अपने | आत्माको ही सिद्ध करूँगा ॥३०॥
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॥ संसारभावना ॥ मोहदावानलव्याप्ते संसारे दुर्गमे बने। भ्रमनिरन्तरं जीवो दुःखं सहति दारुणम् ॥३॥ नास्ति तस्कर्म नोकर्म न ग्रहीतमनेकशः । अनन्तजन्मयोगेन भ्राम्यमाणेन देहिना ॥३२॥ तत्क्षेत्रं नास्ति जीवेन पूरितं यन्न जमना । कर्मणा प्रेर्यमाणोत्र जोधोयं भ्रमतेतराम् ।।३३।। चतुर्गत्यात्मके भीमे दुरन्ते भवकूपके। कर्मणा बद्धमानीयं जीवः पतति पापतः ॥३४॥ कृमिभूत्वा नृपो भूत्वा जीवोत्र मोहकर्मणा । धृत्वा नवं नवं रूपं बहुरूपो नटायते ॥३५॥ व्यतीतोनन्तकालोत्र धृत्वा जन्म नवं नबम् । अद्यापि न व्यतीतोसौ संसारो दुर्गमो महान ॥३६॥ धिम् धिग् मां चाथ संसारमनन्तदुःख दुःखितम् । मोहतीचापि पर्यंत मुक्तोसी महि पापतः ॥३७तता मुख्चामि संसार जिनधर्मप्रभावतः । कर्मबन्धं च मुञ्चामि स्वतंत्रश्च भवाम्यहम ॥३८॥
॥ संसारानुप्रेचा ॥ ___ यह संसाररूपी दुर्गम वन मोहरूपी दानानलसे व्याप्त हो रहा है, इसमें परिभ्रमण करता हुआ यह जीव | अनेक प्रकारके दारुण दुःखोंको भोग रहा है ॥३३॥ अनंत जन्मोंको धारणकर परिभ्रमण करते हुए इस जीवने , ऐसा कोई कर्म वा नोकर्म-वर्गणा बाकी नहीं है, जो अनेक बार ग्रहण न की हो ॥३२॥ तीनों लोकोंमें कोई ऐसा क्षेत्र बाकी नहीं है जिसमें इस जीवने जन्म-मरण धारण न किया हो। कर्मके द्वारा प्रेरित | यह जीव सदा परिभ्रमण ही किया करता है |॥३३॥ चारों गतियोंसे भरा हुआ यह संसाररूपी कृत्रा अत्यन्त ही भयानक है, कोसे बंधा हुआ यह जीव पापकर्मके उदयसे इसी संसाररूपी कूआमें पड़ा रहता है ॥३४।। मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव कभी तो कीड़ोंमें जन्म लेता है और कमी राजकुलमें जन्म लेता है, नये गये। अनेक रूप धारणकर यह जीव नटके समान नाचता रहता है||३५||नवीन नवीन शरीरोंको धारण करते हुये इस | जीवको अनंत काल व्यतीत हो गया, तथापि आजतक यह दुर्गम महासंसार पूर्ण नहीं हुआ ।।३६!। इसलिये | इस संसारको भी धिक्कार है और अनंत दुःखोंको सहन करनेवाले मुझको भी धिक्कार है। मोहनीय कर्मके | उदयसे मुझ पापीने आजतक इस संसारको नहीं छोड़ा है ॥३७॥ इसलिये मैं अब इस जिनधर्मके प्रभाव से इस संसारका त्याग करूँगा और कर्मबंधनको छोड़कर स्वतन्त्रता धारण करूँगा ॥३८॥
॥४८॥
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मा.
श्री४६॥
॥ मन्यत्वभाषना ॥ __ अयमात्मा स्वभावेन शुद्धो बुद्धो निरंजनः । शरीरात्सर्वथा भिन्नो बद्धोऽप्यस्ति हि कर्मणा ॥३६|| वार्दुग्धवत्तयोरैक्यं
जीवकर्मणोः । तनास्ति वस्ततोप्येवं कर्मबन्धोत्र कारणम ॥४०॥ अमर्तः सखसम्पन्नः शानदर्शनलक्षणः। आत्मास्ति पुद्गलादन्यो देहेस्मिन पुद्गलारमके ॥४शा लक्षणभेदनो भित्री दृश्येते जीवपुद्गलौ। प्रत्यक्षतोपि भिनौ तौ खरदभावान् पृथक् पृथक् ॥४२॥ मृत्योः पश्चावेजीवी देहाद्भिन्नः पृथक स्वयम् । स्वसंवेदनतो नित्यं पृथग्देहा. द्विलक्ष्यते ॥४३॥ नात्मानं वेत्ति मृदोयं देहादन्यो विमोहतः । जीवोयं मुञ्छितो नोहात् कथं वेत्त्यथवा ननु ॥४४ा मोहाइहस्त मोइनिग उत्था व मुमति। माहात्म्यं खलु मोहस्य अतमिह देहिनाम् ॥५|| सम्यग्बुध्वा हि पात्मानं |
॥ अम्पस्वभावना ॥ ___ यह जीव स्वभावसे ही शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है और शरीरसे सर्वथा मिन्न है। तथापि कर्मोंसे संबंद्ध : & हो रहा है ॥३९॥ यद्यपि दूध पानीके समान जीव और कर्म मिले हुये दिखाई दे रहे हैं. परंतु वास्तवमें ऐसा |
नहीं है, ऐसा दिखाई देनेमें केवल कर्मबन्ध ही कारण है ॥४०॥ यह आत्मा पुदलमय शरीरमें रहता हुआ मी | पुद्गलसे सर्वथा मिम है, अमूर्त है, अनन्त सुखी है और ज्ञानदर्शनरूप लक्षणोंसे सुशोमित है ॥४१॥ यद्यपि ।
जीव पुल दोनों मिले हुए हैं तथापि अलग अलग लक्षणोंके मेदसे दोनों ही मित्र हैं प्रत्यक्षसे मी मिन्न | भिन्न जान पड़ते हैं, तथा स्वभावसे भी अलग अलग जाने जाते हैं ॥४२॥ मृत्यु के पीछे यह जीर इस शरीरसे स्वयं भिन्न हो जाता है । तथा 'मैं सुखी, दुःखी वा ज्ञानी हूँ इस प्रकारके स्वसंवेदनसे यह आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न जान पड़ता ही है ॥४३|| मोहनीय कर्मके उदयसे अज्ञानी हुआ यह आत्मा शरीरसे मित्र आत्माको नहीं जानता है अथवा यों समझना चाहिये कि यह जीव मोहनीय कर्म के उदयसे मूर्छित हो रहा है, इसलिये वह आत्माको शरीरसे भिन्न कैसे जान सकता है ? ॥४४|'मैं शीररूप हूँ' इस प्रकार मानता हुश्रा यह
आत्मा मोहनीय कर्मके उदयसे मोहित हो रहा है, सो ठीक ही है, क्योंकि जीवोंक मोहनीप कर्मका माहात्म्य | अतर्प है, उसमें कोई तर्क वितर्क मी नहीं कर सकता ।।१५|| इसलिये मैं भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए
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भा०
सु०प्र०
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HARMA
देहावन्यं जिनागमात् । मोहं त्यक्त्वा भजाम्यत्र निर्ममत्वं हि चात्मनः ।।१६।। परद्रव्यादहं चान्यः संबन्धोपि न तस्य मे | || मत्तोऽन्यश्च परं द्रव्यमन्योई परद्रव्यतः ।।४७|| भावयामि हि चात्मानं देहादन्यं हि चिन्मयम् । शाश्वतं निर्मलं शुमजरामरलक्षणम ॥४८॥ निजरूपं प्रपद्यामि त्यक्त्वान्यत्परम्पकम् । जिनागमप्रभाषेन स्वात्मानं भावयाम्यहम् ॥all
॥शृश्चित्वभावना ।। निसर्गमलिनो देहोऽसम्मांसपूतिपूरितः । मलमूत्रादिभिातः कथं स्यच्छचिरत्र सः ||५oll रज.शुक्रादिसंभूतं | कृमिविष्ठामलाविलम् । शरीरमगुचे स्थान विद्यात्मन् वस्तुरूपतः ।।५।। मलबोज मलस्थानं मलद्वारं गलन्मलम् । | मलरूपं हि विद्यात्मन् शरीरं वस्तुभावतः ।।५।। गेम रोमे शरीरेस्मिन् रोगानां संचयो महान् । तिदुर्गंधयुक्तं हि शरीर! आगमके अनुसार आत्माको शरीरसे सर्वथा भिन्न समझकर और मोहका त्यागकर आत्माके निर्ममत्व भावको धारण करूँगा ॥४६॥ मैं परपदार्थोंसे सर्वथा भिन्न हूँ, परपदार्थोंका और मेरा कोई संबन्ध ही नहीं है, परद्रव्य मुझसे सर्वथा भिन्न हैं और मैं परद्रव्योंसे सर्वथा भिन्न हूँ॥४७॥ मेरी आत्मा शरीरसे मिल है, चैतन्यमय है, नित्य है, निर्मल है, शुद्ध है और अजर-अमररूप लक्षणसे सुशोभित है, ऐसे अपने आत्माका मैं चितवन करूँगा ॥४८|अब में भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए आममके प्रभावसे अन्य पररूपको छोड़कर अपने आत्माके स्वरूपको प्राप्त होऊँगा और उसी अपने आत्माका चितवन करूँगा ।॥४९॥
॥ अशुचिस्वभावना ॥ यह शरीर स्वभावसे ही मलिन है, हड्डी मांस चर्वी आदिसे भरा हुआ है और मल-मूत्रादिकसे व्याप्त हो रहा है, ऐसा यह शरीर भला पवित्र कैसे हो सकता है : ॥५०॥ यह भारीर रज वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, कीड़े, a विष्टा, मल, मूत्र आदिसे भरा हुआ है और वस्तुस्वरूपसे अपवित्रताका स्थान है, हे आत्मन्! शरीरको तू ऐसा | | समझ ॥५१॥ हे आत्मन ! वह शरीर मलका बीज है, मलका स्थान है, मलका द्वार है और मल झरनेका | स्थान है, तथा मलरूप है, ऐसा तू इस शरीरको समझ ॥५२॥ इस शरीरके रोम रोममें अनेक महारोग भरे हुए हैं, यह शरीर राध-रुधिर आदिकी दुर्गन्धतासे भरा हुआ है और अनेक दुःखोंका कारण है ।।५।।
२
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PRIYAR
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सु०प्र०
11५१ ॥
दुःखकारणम् ॥५३॥ शरीरं दृश्यते रम्यं पार ननणाणम् । शन्ता गनिन क्रमांसशोसितपूरितम् ॥५४॥ यद्यप्यशुचि रूपं हि तच्छरीरं निसर्गतः । रत्नत्रयेण पूतं स्याद्न्य पूज्यं च योगिभिः ||५|| अशुचिदेहसम्मोह त्यजामि स्वात्मबोधतः । स्वात्मानं निर्मलं शुद्ध ध्यायामि शुचिहेतवे ।।५।।
॥श्रावभावना ।। कायवाङ्मनसां कर्म योगः प्रोक्तो जिनागमे । स एवात्रास्रवो शेयो द्वारः कर्मागमस्य वा ॥७॥ नौकायां च यया छिद्रो जलागमनकारणम् । काम्पादियोगकैद्वारस्तथा स्रवति फर्म तत् ।।५८॥ मोहमिथ्यारवसंभूतैः योगैः स्यादशुभानवः। सुदृकलादिभिर्योगैनित्यं स्याच शुभाननः IIEI पंचामृतैर्जिनेन्द्रस्य स्नपनैः स्याच्छुभानत्रः। गंधविलेपनायैश्च जिनपादाम्बुजोपरि ॥६०॥ प्राणिहिंसावधाथै श्च जीवस्यास्त्यशुभास्रवः। दयादानादिकैः कार्यैः स्यात्सयोत्र शुभानवः चमड़ेसे ढका हुआ यह शरीर बाहरसे अच्छा लगता है, परंतु मीतरसे देखा जाय तो वीर्य मांस रुधिरसे | भरा हुआ है और अत्यन्त मलिन है ॥५४॥ यद्यपि यह शरीर स्वभावसे ही अपवित्र है तथापि रखत्रयसे पवित्र है तथा योगियों के द्वारा भी पूज्य और वन्दनीय है ॥५५॥ इसलिये अब मैं अपने आत्मज्ञानसे अपवित्र शरीरके मोहका त्याग करता हूँ और आत्माको पवित्र करनेके लिये निर्मल शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हूँ ॥५६।।
॥ मानवभावना ॥ __ जैन शास्त्रोंमें मन, वचन और कायाकी कियाओंको योग बतलाया है और यह योगही कोंके आनेका | द्वाररूप आस्रव कहलाता है ॥५७॥ जिसप्रकार नावका छिद्र पानीके आनेका कारण है, उसीप्रकार मन, वचन
और कायके योग कर्मोके आनेके कारण हैं ॥५८॥ मोह और मिथ्यात्वसे मिले हुए योगोंसे अशुभ आस्रव होता | है और सम्यग्दर्शन वा सम्यकचारित्ररूप योगोंसे शुमार होता है ॥५९॥ भगवान जिनेन्द्रदेवका पंचामृतामिषेक करनेसे तथा भगवानके चरण कमलोपर मंधका लेप करनेसे सदा शुभास्त्रत्र ही होता है ॥६०॥ जीवोंकी हिंसा करनेसे, उनका वध करनेसे इस जीवको अशुभास्रव होता है; तथा दया धारण करना, दान देना आदि कार्योंसे शुभास्तव होता है ॥६१॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रेष्ठ भावोंसे पूजा करनेसे
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४२ ॥
||३१|| इन्यादिपंचकल्याणैर्जिनेन्द्रस्य सुभावतः । सम्यक्त्वपूर्वकं शीघ्रं भवत्येव शुभास्रवः ॥ ६२॥ पुण्यपापस्य कर्तारौ शुभाशुभौ तदास्रवौ । आस्रवो दुःखदो नित्यं कर्मगन्धस्य कारणम् ||६|| पुण्यपापं द्वयं मुक्त्वा सर्वास्त्रयं विशेषतः । रुन्धामि ध्यानयोगेन जिनागमानुसारतः ||६४|| त्यक्त्वा मिध्यात्वभावं हि कुर्वे योगनिरोधनम् । ध्यानाध्ययन कर्माणि कुर्वे आवहानये ॥६५||
|| संवरभावना ॥
बद्धकपाटके गेहे प्रवेशः स्यात्कदापि न । सुपिहितालबद्वारे न स्यात्कर्मप्रवेशनम् ||१६|| अस्त्रत्रस्य निरोधो यः स हि स्यात्संवरः शुभः । जातु मिध्यादृशां न च ||६|| समितिगुमिधर्माचैट शुद्धः स्याच संवरः । दृकशुद्धनिर्मलैर्भावैर्वा स्यात्कर्मसुरोवकः ||६८ | समतादिशुमैर्भावैश्चारित्रेण प्रतात्मकैः । शुद्धोपयोग कैर्नित्यं संवरः स्याच्छिदः ||६|| धर्मशुक्लादिसद्धयानैः परीषड्जयैस्तथा । सम्यक्त्त्रपूर्णकैः पूजादानाद्यः स्याश्च संवरः ॥७२॥ संवशे वा पंच कल्याणक महोत्सव करने से सदा शुभास्रव ही होता है || ६२ ॥ शुभ और अशुभ आस्रव पुण्य-पापके कारण हैं, शुभावसे पुण्य होता है और अशुभास्रवसे पाप होता है। ये दोनों प्रकारके आस्रव सदा दुःख देनेवाले हैं और कर्मबन्धके कारण हैं ||६३|| अत्र में जिनागमके अनुसार ध्यानके द्वारा पुण्य-पाप दोनों को छोड़कर सब तरहके आस्रवको रोकूंगा ||६४ || अब मैं मिथ्यात्व भावोंका त्यागकर योगका निरोध करूंगा और आस्रवका नाश करनेके लिये ध्यान अध्ययन आदि कार्यों को करूंगा ॥ ६५ ॥
॥ संवरभावना ।।
जिसप्रकार जिस दरवाजेके किवाड़ बन्द हैं. उस दरवाजेसे कोई मीतर नहीं जा सकता, उसीप्रकार आसत्रका द्वार रुक जानेपर फिर कमौका आव नहीं होता ||६६ || तथा जो आवका रुकना है उसीको शुभ संवर कहते हैं । यह संवर सम्यग्दृष्टियोंके ही होता है, मिध्यादृष्टियों के कभी नहीं होता ॥६७॥ यह कर्मों के आ को रोकनेवाला संवर समिति, गुप्ति और धर्मादिकसे होता है; सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासे होता है और सम्यग्दनकी शुद्धतासे होनेवाले निर्मल भावोंसे होता है ||६८ || यह मोक्षप्रदान करनेवाला संवर समता आदि शुभ भावोंसे, चारित्रसे, व्रतोंसे और शुद्धोपयोगसे सदा होता रहता है || ६९ ॥ यह संवर धर्मध्यानसे, श्रेष्ठ
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PRIMARIYASARAKASEASEARCH
निर्जरा हेतुइँतुश्च कर्मभेदने । मुरिस्य हेटुः स ततोऽहं संवरं भजे ॥७१।।
॥निर्जराभावना ॥ ___ फर्म निर्जरग यत्र निर्ल। म्यान्दारलाहना ! गगा बा जीने कर्म निर्जरा द्विविधा मता ॥७२।। अकामनिर्जरा पात्र सर्वसंसारिणां मता। सत्तपोभिमनीनां तु सकामा निर्जरा शुभा ॥७॥ योगत्रयनिरोधेन शुद्धभावेन योगिनाम् । कम विध्वंसिका सा स्यानिर्जरा मोक्षक्ष शुभा ॥७॥ शुद्धोपयोगभूतेन ध्यानेन स्यास्थिराश्मनाम् । योगिनां क्षीणमोहान निर्जरा कर्ममोचिका ।।५।। सुदृढगाढबद्धानां कर्मणां मूलतोत्र वा । निर्जरा हि भिनत्तिस्म पवितुल्यं हि भूधरान् ॥६॥ | अतो हि मोक्षमूला तां कृत्स्नकर्म विभावकाम् । निर्जरा परमां शुद्धां मजेऽहं शुभभावतः ॥७॥
शुक्लध्यानसे, परिषदोंके जीतनेसे और सम्यग्दर्शनपूर्वक पूजा दान आदि करनेसे होता है ॥७०॥ यह संवर | निर्जराका कारण है, कर्मोंके नाशका कारण है, और मोक्षके विशेष साधनोंका कारण है इसलिये मै अब संवर- | को. ही धारण करूँगा ॥७१॥
निर्जराभाषमा ॥ जहांपर कर्मोकी निर्जरा होती है वह सुख देनेवाली निर्जरा कहलाती है। अथवा जिसके द्वारा कर्म नष्ट | से होते हैं उसको मी निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक अकाम निर्जरा और दूसरी सकाम निर्जरा ।
अकाम निर्जरा समस्त संसारी जीवोंके होती है और सकाम निर्जरा मुनियोंके तपश्चरणके द्वारा होती है ॥७२- 4 ७३।। मुनियोंके तीनों योगोका निरोध करनेसे और शुद्ध परिणामोंसे जो कर्मोको नाश करनेवाली निर्जरा होती है, वह मोक्ष देनेवाली उत्तम निर्जरा कहलाती है।।७। जिनका मोहनीय कर्म नष्ट हो गया है और जिनकी आरमा स्थिर है, ऐसे योगियोंके जो शुद्धोपयोगरूप ध्यानसे निर्जरा होती है, वह कर्मोको नाश करनेवाली | निर्जरा कहलाती है ।।७५॥ जिसप्रकार वचसे पर्वत चूर चूर हो जाते हैं, उसीप्रकार निर्जरासे अत्यन्त दृढ़ और | गाढ बंधे हुए कर्म भी जड़से नष्ट हो जाते हैं ।।७६॥ इसलिये मैं मोक्ष की कारणभूत और समस्त कर्मोका नाश करनेवाली परम शुद्ध निर्जराको मैं अपने श्रेष्ठ भावोंसे धारण करता हूँ॥७७॥
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॥ खोकभावना ।। लोक्यन्ते यत्र जीवाचा पदार्थाश्चेतनेतराः । स लोकः कथ्यते देवैः स्वयंभूरविनश्वरः ||८|| अनादिकालतः सोस्थि झनन्तोप्यन्तवर्जितः । न कृतो न धृतः केन स्वयं सिद्धः सनातनः ॥ ७१ ॥ महावातैस्त्रिभिः सांस्ति वेष्ठितो वाऽचलः स्थिरः । निष्क्रियः स्थानदानाई: जीवादीनामशेषतः ||८०|| सर्वत्र कर्मयोगेन जीवास्तत्र निरंतरम् । जन्ममृत्योः पराधीनाः सन्ति दुःखात्मकाः सदा ||२१|| कृत्स्नकर्मक्षयेव सिद्धिं यास्यन्ति ते ध्रुवम् । जन्ममृत्युजरातीताः स्वतंत्रा दुःखदूरगाः ॥६२॥ || बोधिदुर्लभ भावना ।।
महामिध्यात्वप्रस्तेन जीवेनानादिकालतः । अद्यावधि न संप्राप्तं द्वीन्द्रियत्वं सुदुर्लभम् ॥८३॥ देवाद्यदि त्वया ल
|| लोकभावना ||
जहाँपर जीव अजीव आदि वेतन अचेतन पदार्थ दिखाई देवे, उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव लोक कहते हैं। यह लोक स्वयम्भू है, किसीका बनाया हुआ नहीं है ओर न कभी इसका नाश होता है || ७८ ॥ यह लोक अनादिकाल से है और अंतरहित अनंतकाल तक बना रहेगा। यह न तो किसीने बनाया है. न किसीने धारण किया है, यह स्वयंसिद्ध है और सनातन है ||७९ || यह लोक तीन प्रकारकी महावायुसे घिरा हुआ है, अचल है, स्थिर है, क्रियारहित है और जीवादिक समस्त पदार्थोंको स्थान देने योग्य है ॥८०॥ इसी लोकाकाशमें ये सब संसारी जीव कर्मके निमित्तसे जन्म-मृत्युके पराधीन होते हुए और सदा दुःख भोगते हुए निवास कर रहे हैं ॥ ८१ ॥ वे जीव समस्त कर्मोंके क्षय कर लेनेपर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं, तथा जन्म, मरण और बुढापा आदिसे रहित होकर सब तरहसे स्वतंत्र हो जाते हैं || ८२ ॥
|| मोधिदुभभावना ||
महामिथ्यात्व कर्मके वशीभूत होनेके कारण यह जीव अनादिकालसे निगोदमें पड़ा हुआ है, इसने आजतक भी कमी दो इंद्रियपर्याय नहीं पाई। वह भी इसके लिये महादुर्लभ हो रही है || ८३ ॥ | यदि कदाचित् इस आत्माको किसी शुभकर्मके उदयसे दो इंद्रियपर्याय मी प्राप्त हो जाय तो तेइंद्रिय, चौइंद्रिय और पंचेन्द्रिय
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| द्वीन्द्रियत्वमिहात्मना । तथापि त्रिःचतुःपंचाक्षत्वमत्यन्तदुर्लभम् ॥ll काकतालीयन्यायेन यदि लब्धा नृजन्मता । सुसें सत्कुले जन्म सजातित्वं च दुर्लभम् ॥५॥ तत्रापि पूर्णमायुष्यं नीरोगत्वं सुदुर्लभम् । महापुण्याद्धनादीनां प्राप्तिश्चात्यन्तदुर्लभा ॥८६॥ एतत्सर्व सुलब्ध्वापि यदि न स्यात्सुदर्शनम् । व्यर्थ स्यादिह नत्सर्वमन्धस्यादर्शदर्शनम् ॥णा | अनन्तकालतो जीवो बम्भ्रमीत भवार्णवे। सम्यक्त्वेन विनैकेन दुःखं सहति दारुणम् ।। जिनधोस्ति चात्यन्त दुर्लभः पृथिवीतले । सोनन्तकालतोयात्मन् त्वया लब्धः कदापि न II भावेन श्रद्धया वापि जिनधर्मस्य सेवनम् । अत्यन्तदुर्लभ लोके शर्मदं भवनाशनम् ॥1॥ सुहम्झामव्रतादीनां प्राप्तिश्चात्यंतदुर्लभा । बोधि विना समाधिन वां विनाम शिधः कचित् शा सुदर्शनं सुचारित्रं सम्यक्षा सपः श्रियम | श्रधामन प्रत्येमि गोमि पहयाभ्यहम् ॥६॥ पर्यायका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है ॥८४|कदाचित् काकतालीय न्यायसे इस जीवको मनुष्यजन्मकी प्राप्ति हो जाय तो भी आर्यक्षेत्र, श्रेष्ठकुल और सजातिका प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है ।।८५॥ कदाचित् | इन सब साधनोंका भी संयोग मिल जाय तो मी पूर्ण आयुका प्राप्त होना और नीरोग शरीरका मिलना अत्यन्त | दुर्लभ है । तया महापुण्यके उदयसे प्राप्त होनेवाली धनादिककी प्राप्तिको अत्यन्त दुर्लभ समझना चाहिये ॥८६॥ यदि इन सबकी प्राप्ति हो जाय और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो तो जिसप्रकार अन्धे पुरुषको दर्पणका दिखाना व्यर्थ है, उसीप्रकार उस जीवको प्राप्त हुई सब सामग्रियां व्यर्थ हैं ॥८७॥ यह जीव इस संसाररूपी समुद्र में बिना | एक सम्यग्दर्शनके अनंत कालसे परिभ्रमण कर रहा है और अनेक प्रकारके दारुण दुःख सहन कर ।।८८1 इस पृथ्वीतलपर यह जैनधर्म अत्यन्त दुर्लभ है । हे आत्मन् ! तूने यह जैनधर्म अनन्तकालसे मी कमी प्राप्त नहीं किया है ॥८९।। अपने निर्मल परिणामोंसे श्रद्धापूर्वक जिनधर्मका सेवन करना अत्यन्त दुर्लभ | है। यह जिनधर्मका सेवन करना संसारका नाश करनेवाला है और मोक्षरूप सुखको देनेवाला है ॥२०॥ इस जीवको सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयकी प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है। तथा रत्नत्रयकी प्रापिके विना समाधि वा ध्यानकी प्राप्ति होना अत्यंत दुर्लभ है और ध्यानके विना मोक्षकी प्राप्ति | होना अत्यन्त कठिन है ॥९१।। अब में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप इन चारोंका | श्रद्धान करता हूँ, चारोंका विश्वास करता हूँ, चारोंकी स्पृहा करता हूं, चारोंको धारण करता हूँ, और शुद्ध
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स्पृशामि च चरामि तान् भजामि शुद्धभावतः । बोधिं लब्ध्वा शिवं यामि सुधर्म वा भवच्छिदम् ॥६३॥ ॥ धर्मभावना ||
धर्मश्चिन्तामणिलों के धर्मः कल्पतरुर्महान् । धर्मो निधिः सुसिद्धीनां धर्मसंसारतारकः ॥ ६४॥ धर्मो द्विधा जिनैः प्रोक्तो निश्चयव्यवहारतः । परमार्थी भवेदाद्यो वस्तुस्वभाव मात्रकः ||१५|| श्रमूर्ती निष्क्रियो नित्यो विभिन्नस्तत्त्वतोवा | तन्त्रात्मकः स सिद्धेषु स्यादन्येषु कदापि न ||३६|| दयामूली द्वितीयः स्याद्धर्मः सर्वहितंकरः । लौकिको व्यवहारो वा धर्मश्चारित्रमूलकः ॥६७॥ यो व्यवहारधर्मास्ति स एव लौकिको मतः । तयोर्द्वयोर्न भेदोस्ति जैनेन्द्रे परमागमै ||६८० सक्रियो वृत्तरूपात्मा सर्वसौख प्रदायकः । यो हि जीवान् समुद्धृत्य पापपंक्कादनन्तरम् ॥९६॥ धत्ते मोहपदे नूनं स 'धर्मो व्यवहारभाक। महाश्रताणुभेदेन द्विविधोरित जिनागमे ॥ १०० ॥ साध्यसाधकभेदेन द्विधा धर्मो मतो जिनैः । परमार्थो परिणामोंसे चारोंमें ही अपने अपने आत्माको लगाता हूँ। इसी रत्नत्रयको पाकर मैं मोक्ष प्राप्त करूँगा और संसारको नाश करनेवाले आत्ममय श्रेष्ठ धर्मको धारण करूँगा ॥९२ – ९३ ॥
॥ धर्मभावना ॥
इस संसार में यह दयामयधर्म चिन्तामणि रत्नके समान है अथवा महाकल्पवृक्ष के समान है, यही धर्म समस्त सिद्धियों की निधि है और इसी धर्मको संसारसे पार कर देनेवाला है || १४ || इसी धर्म को भगवान जिनेन्द्रदेवने निश्रय और व्यवहारके मेदसे दो प्रकारका बतलाया है—इनमेंसे पहिला निश्चय धर्म परमार्थरूप है, वस्तु स्वाभावरूप है, अमूर्त हैं, क्रियारहित है, निस्य है, आत्ममय तवसे अमिन है और शुद्ध आत्ममय है । यह निश्चयधर्म सिद्धोंमें ही होता है, अन्य किसी जीवमें नहीं होता ।। ९५-९६ || दूसरा व्यवहार धर्मदयामय है, सबका हित करनेवाला है, लौकिक है, व्यवहार है और चारित्रमय है ||१७|| जो व्यवहार धर्म है, वही लौकिक धर्म है। भगवान जिनेन्द्रदेव के शासन में व्यवहार धर्म और लौकिक धर्ममें कोई मेद नहीं है ||१८|| वह व्यवहार धर्म क्रियारूप है, चारित्ररूप है, और स्वर्ग, मोक्षके समस्त सुखोंको देनेवाला है । जो धर्म इन संसारी जीवको पापरूपी कीचड़से उठाकर मोक्षपद में विराजमान कर दे, उसको व्यवहार धर्म कहते हैं । जैनशास्त्रोंमें अणुव्रत और महाव्रतके मेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं- १९९-१०० ॥ अथवा
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॥ ५७ ॥
भवेत्साध्यो लौकिकः साधको मतः ॥ १०१ ॥ सर्वेपि लौकिकाचारा ये प्रणीता जिनागमे। गृहस्थानां यतीनां च धर्मशब्दस्य वाचकाः ॥१०२॥ वर्णाश्रमोऽथवा जातिव्यवस्थायात्मको हि सः । पिण्डशुद्धादिको धर्मो मूलरूपों मवो जिनैः ॥ १०३॥ ८ तस्योत्तरप्रभेदास्ते प्रायश्चित्तादयोऽथवा । सोऽपि दशविधो धर्मो रत्नत्रयात्मकोऽथवा ॥ १०४॥ भवान्धौ तारको नूनं कर्मच्छेदकरो मतः। धर्मं विनात्र जीवन प्राप्ता दुःस्वपरम्परा ॥१०५॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सुधर्मं धारयाम्यहम्। व्यामोहदायकं सर्वं मिथ्याधर्मे त्यजाम्यहम्॥१०६ ॥ | मोक्षप्रदं सुधर्म तं भव्याः कुर्वन्तु निर्मलम् । येन सौख्यं भवेन्नित्यमनाकुलमनामयम् ॥ १०७॥
भगवान् जिनेन्द्रदेवने साध्य-साधकके भेदसे उस धर्म के दो भेद बतलाये हैं- परमार्थ धर्म साध्य हैं और लौकिक वा व्यवहार धर्म साधक हैं || १०१ | | जैनधर्ममें जितने लौकिकाचार निरूपण किये गये हैं अथवा गृहस्य और मुनियोंके जो जो धर्म निरूपण किये गये हैं; वर्णाश्रमव्यवस्था, जातिव्यवस्था, पिंड्युद्धि आदि जो कुछ मूलरूप धर्म भगवान् जिनेन्द्रदेवने बतलाया है, वह सब धर्म का स्वरूप समझना चाहिये ||१०२ - १०३॥ प्रायश्चित्तादिक सब उसी धर्मके उत्तरभेद हैं । उसी धर्मके उत्तम क्षमादिक दश भेद हैं, अथवा रत्नत्रय आदि अनेक भेद हैं || १०४ || यही धर्म संसाररूपी समुद्रसे पारकर देनेवाला है और कपको नाश करनेवाला है । इसी धर्मके विना इस जीवने अनेक महादुःखों की परंपरा प्राप्त की है ।। १०५ || इसलिये मैं समस्त प्रयत्न करके इस श्रेष्ठ धर्मको धारण करूँगा और व्यामोह उत्पन्न करनेवाले समस्त मिथ्या मर्तीका त्याग करूँगा ॥ १०६ ॥ भव्यजीवों को मोक्ष प्रदान करनेवाले इस निर्मल श्रेष्ठ धर्म को सदा पालन करते रहना चाहिये, जिससे कि जो संसार, शरीर, धन और भोगोंसे विरक्त हैं, ऐसे महात्माओंको बारह भावनाओं का चितवन कर दिपयोंकी इच्छा छोड़ देनी चाहिये, आत्माको शुद्ध
आकुलतारहित, रोगरहित नित्य सुखकी प्राप्ति हो जाए ॥ १०७ ॥
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०प्र० १५८ ॥
भवतनुधनभोगायो विरको महात्मा त्यजतु विषयवाञ्च्छा भावनां भावयित्वा । चरतु स शुभवृत्ते भाविता स्वात्मशुद्धि धरतु स हि सुधर्म जैनदीक्षा सुधृत्या ॥१०८।।
इति सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारे द्वादशभावना निरूपणो नाम षष्ठोधिकारः ।।
| करनेवाले और भावनाओंसे भरपूर; ऐसे उस भव्यपुरुषको श्रेष्ठ चरित्रके पालन करने में लग जाना चाहिये और जैनदीक्षाको धारणकर सुधर्म वा श्रेष्ठधर्मको धारण करना चाहिये ॥१८॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें बारह भावनाओं का
निरूपण करनेवाला यह छठा अधिकार समाप्त हुआ।
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सप्तमोऽधिकारः॥
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प्रतीशं प्रतदातारं पापसन्तापनाशकम् । बन्दे पद्मप्रभं देवं चारित्रप्रतिपादकम् ॥१॥ इत्थं च भावनोपेतो मठ्यः सम्यक्त्वधारकः। स संसारनिवृस्यर्थ जिनलिंगं समाचरेत् ॥२॥ धारयति स्वचिनेन चाष्टाविंशतिकान् गुणान् । महाप्रतानि पंचैव तेषु मुख्यानि सन्ति च ॥शा हिंसादिपंचपापानां मनोवचनकायकैः। कृतादिकैस्तु यस्त्यागस्तन्महानतमुच्यते
ll त्रसस्थावरजीवान रक्षणं यत्र सर्धतः । दयाईमनसा नित्यं प्रमादरहितेन च ॥शा तदहिंसात्रतं झेयं सर्वसत्वदया- | करम् । श्रेष्ठं सर्वव्रतानां तन्महापुरुषधारितम् क्षा मृषावादस्य यस्त्यागो नवकोटिविशुद्धितः । प्रमादवर्जन तन्त्र प्रोक्त
जो पद्मप्रभदेव व्रतों के स्वामी हैं, क्तोंके देनेवाले हैं, पापोंके संतापको द्र करनेवाले हैं और सम्यक्चारित्रका निरूपण करनेवाले हैं, ऐसे भगवान् पद्मप्रभदेवकी मैं बन्दना करता हूँ ॥१॥ इसप्रकार सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले | और बारह भावनाओंका चितवन करनेवाले भव्य जीवोंको जन्म-मरणरूप संसारका नाश करनेके लिये जिनलिंग वा
नग्नमुद्रा धारण करना चाहिये।।२॥ ऐसे भव्य जीवों को अपने हृदयसे अहाईस मूल गुण धारण करने चाहिये, उन | अहाईस मल गुणों में मी मनोहर पांच महाप्रत सबसे मुख्य गिने जाते हैं॥३॥ मन, वचन, काय और कृत-कारित | अनुमोदनासे हिंसादिक पांचों पापोंका त्याग करना महावत कहलाता है ॥४॥ जो प्रमादरहित होकर दयासेज भीगे हुये हृदयसे घस और स्थावर जीहोकी सब समयमें रक्षा करना है, उसको अहिंसा महावत कहते हैं। यह अहिंसा महावत समस्त जीर्वोपर दया करनेवाला है, समस्त व्रतोंमें श्रेष्ठ है, महापुरुषोंके द्वारा धारण किया जाता है ॥५-६॥ इसीप्रकार मन, वचन, काय और कृत-कारितानुमोदनाकी शुद्धिपूर्वक अर्थात् नौ प्रकारसे प्रमादरहित
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41३०॥
सत्यमहानवम् ॥1॥ प्रयोजनवशेनापि रागादिमनसाथवा। असत्यं सर्वथा त्याज्यं महाव्रतविशुद्धये ॥१॥ रागोद्रका
प्रमादाद्वा परद्रव्यं न गृह्यते । अदत्तं श्रमणायोग्य तदचौर्य महाव्रतम् ॥६॥ तृणादिकं हि यत्किंचित्परस्य स्वप्रयोजनात् । | अदत्तं सर्वथा त्याज्यं तत्तृतीयं महानतम् ।।१२नवकोटिविशुद्धयः हि यदवझविवर्जनम् । रागो कारप्रमादाद्वा स्त्रीमात्रस्याप्यसेवनम् ॥११॥ परब्रह्मण्यवस्थानं तद्वि ब्रह्ममहानतम् । जगपूतं परं श्रेष्ठं ध्यानसिद्धिदिवाकरम् ॥१२॥ बाह्याभ्यन्तरसंगस्य नवकोटिविशुद्धितः । सर्वथा वर्जन ताद्ध मुरिहितचेतसा ॥१३॥ निस्संगदर्शनं ज्ञेयं पंचमं च महानतम् । गृहं वस्त्रं धन' दारास्त्यज्यन्ते यत्र भावतः ॥१४॥ मिध्यान्वहास्यकोपाद्याः दुर्भावाश्च विशेषतः । पंचमं तब्रतं झयं निःशल्यव्रतमुत्तमम ॥१५॥ प्रारम्भत्यागहेत्वर्थ वैराग्यध्यानसिद्धये . महाव्रतं मुनिर्धत्ते संयमार्थं च शुद्धधीः | होकर असत्यका त्याग कर देना है, उसको सत्य महावत कहते हैं ॥७॥ महायतों शुद्ध रखने के लिये किसी
| प्रयोजनके वासे अथवा रागद्वेषपूर्वक मनसे भी कभी असत्यभाषण नहीं करना चाहिये, असत्यका सर्वथा Bा त्यागकर देना चाहिये ॥८॥ रागद्वेपके उद्रे कसे अथवा प्रमादसे मुनियों के अयोग्य ऐसे बिना दिये हुये किसी
भी पर द्रव्यको ग्रहण नहीं करना अचौर्य महावत कहलाता है ॥९।। अपने किसी भी प्रपोजनसे दूसरेका तृण | आदि पदार्थ भी बिना दिया हुआ नहीं ग्रहण करना चाहिये । विना दिये सब तरहके पदार्थोंका त्याग करना तीसरा अचौर्य महाव्रत है ॥१०॥ मन, वचन, काय और कृत-कारितानुमोदनाके मेदसे नौ प्रकारकी विशुद्धतासे अब्रह्मका त्यागकर देना रागके उद्रेकसे अथवा प्रमादसे स्त्रीमात्रका सेवन नहीं करना तथा अपने आत्माको परमब्रम परमात्मामें लीन कर देना ब्रह्मचर्य महावत कहलाता है । यह ब्रह्मचर्य महाव्रत संसारभरमें पवित्र है, सबसे श्रेष्ठ वत है और ध्यानकी सिद्धि के लिये सूर्यके समान है ॥११-१२॥ अपने हृदयसे सब तरह के ममत्वका त्यागकर मन, वचन, काय और कृतकारित अनुमोदनाकी शुद्धिपूर्वक बाह्य-अभ्यंतरके भेदसे सब | तरहके परिग्रहोंका त्यागकर देना वह निथ अवस्थाको धारण करनेवाला पांचवां परिग्रहत्याग महावत | कहलाता है । इस परिग्रह त्याग महाव्रतमें घर, वस्त्र, धन और स्त्री आदि सवका भावपूर्वक त्याग किया जाता
है तथा मिथ्यात्व, हास्य, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अशुभभावोंका विशेषकर त्याग किया जाता है, इस41 प्रकार समस्त शल्योंको दूर करनेवाला यह पांचवां परिग्रहत्याग महाव्रत कइलाता है ॥१३-१५॥ शुद्ध बुद्धिको
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॥१६॥ हिंसाविपंचपापानि नन्ति पंच प्रजाति च । ततस्त्याव्यानि पापानि महादातये ।।१७।। पंच पापानि लोकेस्मिन् | निंद्यानि दुष्कराणि च । विषमानि दुरन्तानि दुःखदानि विशेषतः ॥१८॥ व्यामोहमिन्द्रियाणां तु तानि कुर्वन्ति सन्ततम् ।। विकुर्वन्ति मनस्तीब' हालाइलसमं तथा ॥१६॥ सर्वेषामिन्द्रियाणा हि पापानि तापदानि च । प्रेरयन्ति हि चात्मानं कुमार्गे दुःखदेऽशुभे ॥२०॥ पापान्येव हि जीवनामन्यायविषयेऽशुभे । अत्यन्त कुरिसते करे प्रेरयन्ति बलादिह ॥२१॥ अन्यायमसदाचारं परस्वहरणादिकम् । अविवेकेन सार्धं हि तानि कुर्वन्ति संततम् ॥२२॥ पापेनैव हि जोवानां दुर्गतिः स्यादुरा- | वहा । पराभवापमानादिसंतापो जायतेऽनिशम् ॥२३॥ पापवृत्या हि जीवानां विवेकादिकसद्गुणाः। नश्यन्ति सहसा शीघ्र वात्यया च घना यथा ॥२४॥ अनादिकालतो जीवः पंचपापैश्च दुर्गतौ। भवेऽयावधिपर्यन्तं दुःखं हि सहते महन ॥२॥ धारण करनेवाले मुनिराज सब तरहके आरंभोंको त्याग कर देनेके लिये वैराग्य और ध्यानकी सिद्धि के लिये तथा | पूर्ण संयम पालन करनेके लिये महावतोंको धारण करते हैं ॥१६।। इस संसारमें हिंसादिक पांचों पाप पांचों | महावतोंका नाश करते हैं, इसलिये महाव्रतोंको दृढ़ करने के लिये हिंसादिक पांचों पापोंका त्याग कर देना चाहिये ॥१७|| इस लोक में हिंसादिक पांचों पाप निंद्य हैं, विपम है, अंतमें दःख देनेवाले हैं, अत्यन्त कठिन हैं | और विशेषकर महादुःख उत्पन्न करनेवाले हैं ॥१८॥ ये पांचों पाप इन्द्रियोंको सदा मोहित करते रहते हैं!
और मनकी गतिको हलाहल विषके समान अत्यन्त तीव्र बना देते हैं ॥१९॥ ये पांचों पाए समस्त इन्द्रियोंको | | संतप्त करते हैं और इस आत्माको दुःख देनेवाले अशुभ कुमार्गमें जाने के लिये प्रेरणा करते हैं ॥२०|| ये पांच | पाप ही इस जीवको अत्वन्त कुत्सित, क्रूर और अशुभ अन्यायके विषयमें जानके लिये जरदस्ती प्रेरणा करते | | हैं ।।२१।। ये पाप ही अविवेकपनाके माथ साथ अन्याय और परधनहरण आदि अनेक प्रकारके असदाचारोंको | | सदा कराते रहते हैं ॥२२॥ इन पापोंके ही कारण जीवोंको अशुभसे अशुभ दुर्गतियां प्राप्त होती हैं और |
तिरस्कार, अपमान आदि अनेक प्रकारके संताप सदा प्राप्त होते रहते हैं ॥२३॥ जिसप्रकार महाकायुसे बादल | * शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इस पापाचरणके कारण इन जीवोंके विवेक आदि सद्गुण सब अकस्मात् | शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।२४।। यह जीव अनादि कालसे लेकर आजतक इन पांचों पापोंके कारण ही अनेक | दुर्गतियोंमें महादुःख सहन करता आया है ॥२५॥ इन पांचों पापोंके ही कारण क्रोध, मान, माया और लोभ
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कोलोभकषायास्ते जायन्ति व्रतधाततः । तैविमुह्यति चात्माऽसी न्याये धर्मविघातके ||२६|| पंचपापवशेनात्र आरम्भ विश्वघातकम् । संतनोति हि जीवोयं विवेकविकलः स्वयम् ॥२७॥ पंचपापचयेनात्मा समुद्रमवगाहते । अग्नौ पतति निःशङ्को भीमं युद्ध ं करोति सः ||२८|| पंचपापैर्हि जीवस्य बुद्धिर्धर्मा पलायते । श्रधर्मे दुःख भीमे बुद्धिः स्याच्च स्वतः सदा ॥२॥ पंचपापाहता बुद्धिः प्रेर्यमाणापि चोत्तमे । कार्य कदापि न स्यात्सा कुकार्ये स्यात्स्वतः स्वयम् ||३०|| हिंसादीनीह पापानि पंच सन्ति जिनागमे । तेषां विशेष विस्तारः स्यादनेकविकल्पतः ||३१|| त्याज्यानि तानि पापानि महाधरेण हि । जिनागमप्रमाणेन चतिना सुखलिप्सया ||३२|| श्राय हिंसा महत्पापं ततोऽसत्यप्रभाषणम् । अदत्तग्रहणं चैव तुर्यमब्रह्मसेवनम् ||३३|| अतिलोभान्ममत्वं च परद्रव्येऽभिमूर्च्छनम्। संगस्य संप्रज्ञे बाथ पंच पापानि
आदि कषायें जागृत हो जाती हैं और उन कषायोंके कारण यह जीव धर्मको घात करनेवाले अन्याय मार्ग में जाकर मोहित हो जाता है ||२६|| इन पांचों पार्थोके परवश होकर ही यह जीव विवेकको छोड़कर संसारके समस्त प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले आरंभोंको स्वयं प्रारंभ करता है ||२७|| इन पांचों पापके वश होकर ही यह आत्मा समुद्र में गिर पड़ता है, अग्निमें जल मरता है और निःशंक होकर भयानक युद्ध करता है ||२८|| इन पांच पापके ही कारण इन जीवोंकी बुद्धि धर्मसे हट जाती है और दुःख देनेवाले भयानक अधर्म सदा लिये स्वयं लग जाती है ||२९|| इन पांचों पार्षोंके कारण जो बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह उत्तम कार्योंमें प्रेरणा करनेपर भी कमी नहीं जाती और पापरूप कार्यों में अपने आप चली जाती है ॥ ३० ॥ इन जैनशास्त्रोंमें "हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह" ये पांच पाप माने गये हैं। और इनके अनेक मेद होनेके कारण इनका बहुत विस्तार हो जाता है ||३१|| इसलिये महाव्रत धारण करनेवाले यतियोंको आत्मसुखकी इच्छा करते हुए जैनशास्त्रोंकी आज्ञा के अनुसार इन समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिये ||३२|| सबसे पहला महापाप हिंसा है, दूसरा पाप असत्यभाषण है, तीसरा पाप बिना दिये हुए पदार्थों का ग्रहण कर लेना वा चोरी करना है, चौथा पाप असेवन वा ब्रह्मचर्य का पालन न करना है और पांचवा पाप अत्यन्त लोभसे ममत्वपरिणाम रखना, परद्रव्योंमें ममत्वपरिणाम रखना अथवा अनेक परिग्रहों का संग्रह करना है । इसप्रकार ये पांच पाए हैं ||३३ -- ३४|| अशुभ परिणामोंसे अथवा प्रमादसे जहांपर अपने वा दूसरे प्राणोंकी हिंसा होती है, उसको हिंसा
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सन्ति वा ॥३४॥ दुष्टभावप्रभावाभ्यां खपरप्राणहिंसनम् । हिंस्यन्ते स्वपरमाणा वा हिंसा सा मता जिनैः ॥३५॥ एके. न्द्रियादिजीवानां मिध्यात्वादिकषायसः । प्राणानां द्रव्यभावानां हिंसास्यावयपरोपणम् ॥३६॥ हिंसा पापं महनियमस्ति दुःख. प्रदायकम् | सर्वपापेषु मुख्यं वाऽधर्मस्य मूलकारणम् ॥३७॥ पापमेकं हि हिंसैव नास्त्यन्यत्पापनामभाक् । मन्यानि सर्वपापानि हिंसास्वन्तर्गतानि वा !॥३८॥ हिंसक नरकद्वारं हिंसव दुर्गतः स्थलम् । अज्ञानमस्ति हिंसैव हिंसाऽधर्मस्य कारणम् ॥३॥ अधर्मोस्त्यत्र हिसैव हिंसैव दुर्णयार्णवः। हिंसैव घोरमझानं हिंसैव भवबीजकम् ॥४०॥ सा हिंसैव मूषावादः हिंसैव परपीडनम् । अनीतेरसदाचारस्य हिसैव सुहाटकम् ।।४।। हिंसैव मोक्षमार्गस्य रोधिका चार्गला मवा । हिसैव दशधर्माणा मेदिका दुरिका मता ॥४२॥ लोकेऽस्मिन् व्यसनानां हि पातकानां कुकर्मणाम् । दुर्नीविकुचरित्राणां मूलं हिंसैव भाषिता ।।४।। | सर्वेषामस्त्यनर्थानां बधादिकलाहात्मनाम् । विश्वविध्वंसकानां हि हिंसव मुख्यसाविका ॥४४॥ वीर्घसंसारबन्धस्य हिंसैको II कहते हैं; अथवा जहाँपर अपने वा दूसरेके पापोंकी हिंया की जाती है भगवान जिनेन्द्देन उसको मी हिंसा कहते Kा हैं ॥३५॥ मिथ्यात्व आदि कषायके निमित्तसे एकेन्द्रिय दोइंद्रिय आदि जीवोंके द्रव्यप्राण वा भावप्राणोंका
वियोग करना हिंसा कहलाती है ॥३६॥ यह हिंसारूप पाप महानिंद्य है, अनेक दुःख देनेवाला है, समस्त
पापोंमें मुख्य है और अधर्मका मूल कारण है ॥३७॥ इस संसारमें एक हिंसा ही पाप है, हिंसाके सिवाय और S|| कोई पाप नहीं है, मिथ्याभाषण चोरी आदि अन्य जितने पाप है, ये सब इसी हिंसामें ही अन्तर्गत होते हैं | ASI ||३८॥ यह हिंसारूप पाप ही नरकका द्वार है, हिंसा ही दुर्गतिका स्थान है, हिंसा ही अज्ञान है और हिंसा |
| ही अधर्मका कारण है ॥३९॥ यह हिंसा ही अधर्म है, हिंसा ही कुटिल नीतियोंका समुद्र है, हिंसा ही घोर S! अज्ञान है और हिंसा ही जन्म-मरणरूप संसारका कारण है ॥४०॥ वह हिंसा ही असत्यभाषण है, हिंसा ही Pा अन्य जीवोंको पीड़ा देनेवाली है और यह हिंसा ही अनीति तथा असदाचारकी दुकान है ॥४१॥ यह हिंसा
ा ही मोक्षमार्गको रोकनेवाला अर्मल वा बेड़ा है आर उत्तम क्षमादिक दश धर्मोकी नाश करनेके लिये यह PH हिंसा ही छुरीके समान है ॥४२॥ यह हिंसा ही समस्त व्यसनोंका, समस्त पापोंका, समस्त कुकर्मोंका, - समस्त अनीतियोंका और समस्त कुचारित्रोंका मूल कारण है ॥४३॥ संसारके समस्त जीवोंका घात करनेवाली l हिंसा कलह और समस्त अनर्थोंका मूल साधन इस हिंसाको ही समझना चाहिये ॥४४॥ दीर्घ संसारके
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स्पादिका मता। अतो हिंसैघ संसारो जन्ममृत्युभयाकुलः ॥४५॥ हिंसक माणसंहारो व्याधिभर्मप्रभेदिका । अनेकदुःखदा । चैव मानमर्दनकारिका !॥४६॥ हिंसवाखिलपुण्यानां धनधान्यादिसंपदाम् । नाशिका दुःखशोकानां दायिका भववर्द्धिका ॥४७॥ स धर्मो यत्र नो हिसा तत्पुण्यं यत्र नो वधः। सत्यं तद्यत्र नो हिंसा तीर्थं हिंसाविहीनकम् ।।४।। हिंसा न वर्णिता यत्र वेदः स एव कथ्यते । शास्त्रं तदेव सत्यं स्याद्धिसावर्णनवर्जितम् ||४|| सृष्टो संहारको योन्ति पशुयज्ञविधायकः 1 हिंसोपदेशको नूनं देवः स स्यात्कदापि न ॥५०॥ हिंसाकर्मकरः सर्वारम्भपापविधायकः । हिंसायां मन्यमानो यो धर्मो सोस्ति गर्न ॥११ - गोयामा हिंसा रिसा केशविघातिका । श्रेयोमार्गप्रपित्सूनां त्याज्या हिंसात्र दु:खदा ॥५२॥1 मंगलं परमं तद्धि यत्र हिंसा न वर्तते। सर्वमङ्गलकार्याणां हिसा विध्वंसिका मता ॥५३॥ देव पूजा हिसैवास्ति धर्मयज्ञः सः बन्धको उत्पन्न करनेवाली यह हिंसा ही है, इसलिये कहना चाहिये कि यह हिंसा ही जन्म, मरण और भयसे | भरा हुआ यह संमार है ॥४५॥ यह हिंसा ही प्राणोंका संहार है. हिंमा ही व्याधि है, हिंसा ही मर्मको भेदन करनेवाली है, हिंसा ही अनेक दुःख देनेवाली है और हिंसा ही मानमर्दन करनेवाली है ॥४६॥ यह है हिसा ही समस्त पुण्योंका नाश करनेवाली है, समस्त धन धान्य आदि संपदाओंका नाश करनेवाली है, अनेक दुःख और शोकोंको देनेवाली है और यह हिंसा ही संसारको बढानेवाली है ॥४७॥ धर्म वही है जहां हिंसा न होती हो, पुण्य वही है जहां किसी प्राणीका बध न होता हो. सत्य वही है जहां हिंसाका लेश भी न हो |
और तीर्थ वही है जो हिंसासे सर्वथा रहित हो ॥४८॥ वेद उसीको कहते हैं जिसमें हिंसाका वर्णन न हो और 1 यथार्थ शास्त्र वे ही कहलाते हैं जिनमें हिंसाका वर्णन सर्वथा न हो ॥४९|| जो सृष्टिका संहार करता है, यज्ञमें | पशुओंके होमने का विधान बतलाता है और जो हिंसाका उपदेश देता है वह इस संसारमें देव कभी नहीं कहला सकता | ॥५०॥ जो हिंमारूप कायाँको करता है. मयतरहके आरंभ और पापोंको करता है तथा जो हिंसामें ही धर्म मानता है, उसको गुरू कमी नहीं कह सकते ॥५१॥ इस संसारमें कल्याण वहीं है जहां हिंसा न हो, क्योंकि यह हिंसा | ही कल्याणको नाश करनेवाली है । इसलिये कल्याणमार्गको चाहनेवाले भव्य पुरुषोंको दुःख देनेवाली यह हिंसा सर्वथा छोड़ देनी चाहिये ॥५२॥ इस संसारमें परम मांगलिक कार्य वे ही हैं जिनमें हिंसा न होती हो; क्योंकि यह हिंसा ही मांगलिक समस्त कार्योंको नाश करनेवाली है ॥५३|| इस संसारमें देवपूजा
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HRI एव हि । न मनाग्यत्र हिंसाऽस्ति हिंसोद्देश्यो न वा कचित् ॥५४॥ शुभाचारः स एवास्ति यत्र हिंसानिवर्तनम् । अत्यल्पा
मुलाहिंसापि शुभावात्य पारि ई न वृत्तं स्यायन हिंसा कदापि न । वृत्ताभावे मदा जैन हिंसा लेशमाअतः ।।५६।। यत्र हिंसा विचारोन सद्विचारल एव हि एका हिंसैव लोकेऽस्मिन् विचारस्यास्ति थातिका ५७॥ हिंसा धर्मे प्रतीतिर्न तच्छष्ठं दर्शनं मतम् । शुद्धचैतन्यभावे हि हिंसायाः किं प्रयोजनम् ॥५८।। यत्र स्थात्स्वात्मभावाना हानच. रणात्मनाम् । विघातः शुद्धरूपाणां हिंला सा बोधिधातिका ॥५६॥ ध्यानं तपो यमो दान्तिः समाधिर्निग्रहस्तथा । हिंसामावे हि ते भेष्ठा हिंसारूपास्तु दुःखदाः ।।६०॥ जपानुष्ठानपूजाद्या देवाराधनसाधकाः । उपस्कारा हि ते सर्वे निकृष्टा हिस्थकर्मणा
|| क्रूरा दुर्व्यसना दीना दुःखदारिद्रयपोडिताः । रोगप्रस्ता भवन्त्येते हिंसापापस्य सेवनान् ॥६२।। तस्माद्धिसामयं धर्म व उसीको कहते हैं और धर्मयज्ञ उसीको कहते हैं जिसमें किंचिन्मात्र मी हिंमा न हो, अथवा किंचिन्मात्र ॐ भी हिंसाका उद्देश्य न हो । ५४॥ इस संसारमै शुभाचार वा शुभ आचरण वे ही हैं, जिनमें हिंसाका सर्वथा त्याग
हो; क्योंकि बहुत ही थोड़ी सूक्ष्म हिंसा भी शुभाचार वा शुभ आचरणोंको नाश कर डालती है ॥५५॥ श्रेष्ठ चारित्र उसीको कहते हैं. जिसमें कभी भी हिंसा न करनी पड़े । तथा चारित्रके अभावमें भगवान् जिनेन्द्रदेवने लेशमात्र हिंसा अवश्य बतलाई है ॥५६॥ इस संसारमें भेष्ठ विचार उन्हींको कहते हैं जिनमें हिंसाका विचार
भी न करना पड़े । क्योंकि एक हिंसा ही इस संसारमें समस्त श्रेष्ठ विचारों का नाश करनेवाली है ॥५७।। | स्वसे श्रेष्ठ दर्शन वही है, जिससे हिंसाधर्ममें विश्वास न करना पड़े। क्योंकि आत्माके शुद्ध भावों में हिंमाका !
क्या प्रयोजन है ? ॥५८|| जहांपर सम्पादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्माके शुद्ध भावोंका नाश हो जाता है, वह रत्नत्रयको नाश करनेवाली हिंसा कहलाती है ॥५९॥ ध्यान, तप, यम, इन्द्रियदमन | समाधि और इंद्रियनिग्रह आदि सब हिंसाके अभावमें ही श्रेष्ठ माने जाते हैं। यदि यही ध्यानादिक हिंसारूप / हो सो फिर दुःख देनेवाले हो जाते हैं ।६०॥ जप, अनुष्ठान और पूजा आदि देवाराधनके जितने साधन हैं, वे यदि हिंसापूर्वक हों तो वे सब अत्यन्त निकृष्ट गिने जाते हैं ॥११॥ इस हिंसारूप पापके सेवन करनेसे ये जीव क्रूर, दुर्व्यसनी, दीन, दुःख और दरिद्रतासे पीड़ित तथा अनेक प्रकारके रोगोंसे घिरे हुए होते हैं ॥६२||
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॥ ६६ ॥
सर्वं त्यक्त्वा सुभावतः । कुर्वहिंसामयं धर्ममात्मन त्वं शिवसाधकम् ||१३|| धर्मभावनयोपेता हिंसा धर्मोस्ति यन्मते । पुष्यं भवति हिंसातस्तमिध्यात्वं जिनैर्मतम् ||३४|| तस्माद्धि, स्वात्मरक्षार्थं कुरु यत्नं विशेषवः । स्वात्मनोऽहिंसनं यत्र स्वत्मरक्षा मता हि सा ||६५|| मैत्री त्वं कुरु जीवेषु मा हिंस्याज्जन्तुमात्रकम् । जीवा आत्मसमाः प्रोक्ता यतो श्रीमजिनेश्वरेः ॥ ६६ ॥ यच्छ यच्छाभयं चात्मन् सर्वभूतेषु सर्वतः । यदात्मसदृशं विद्धि लोके भूतकदम्बकम् || ६ || परस्य येन कार्येणानिष्टं ते जायते यदि । श्रात्मन् मा कुरु तत्कार्य परस्मै दुष्टभावतः ||६८ || यथात्मन ते प्रियाः प्राणास्तथैव सर्वप्राणिनाम् । तस्मान्माकुरुदुर्बुद्धधा परमाणविहिंसनम् ||६६॥ अभीष्टास्ते यथा प्राणास्त्वमात्मन तान् सुरक्षसि । अभीष्टाः सर्वभूतानां रक्षन्वि ते तथैव तान् १७० ॥ येन भावेन ते हिंसा स्यादात्मन् पीड्यतेऽयया । त्वं च मा कुरु तद्भावं परस्मै दुष्टचेष्टा ॥ ७१ ॥
इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने श्रेष्ठ परिणामोंसे हिंसामय समस्त धर्मों वा कार्योंका त्याग कर और मोक्ष देनेवाले अहिंसामय धर्मको स्वीकार कर ॥६३॥ जिस मतमें धर्म की भावनासे की हुई हिंसाको धर्म माना जाता है और हिंसा से पुण्यकी प्राप्ति मानी जाती है, उसको भगवान जिनेन्द्रदेव मिध्यात्व कहते हैं ||६४ || इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने आत्माकी रक्षा करनेके लिये विशेष प्रयत्न कर। जहांपर अपने आत्माकी हिंसा नहीं की जाती, उसीको अपने आत्माकी रक्षा कहते हैं ||६५ || हे भव्य ! तू समस्त जीवों में मित्रता धारण कर और किसी भी जीवकी हिंसा मत कर। क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेवने समस्त जीव अपने ही समान बतलाये हैं। ॥६६॥ हे आत्मन् ! तू समस्त जीवोंको अभयदान दे। क्योंकि संसार में जितने जीव हैं, वे सब अपने ही आत्मा के समान हैं ||६७॥ हे आत्मन् ! दूसरेके जिस कार्य से तेरा अनिष्ट होता हो, उस कार्यको तू अपने बुरे परिणामोंसे दूसरेके लिये कमी मत कर ॥ ६८ ॥ हे आत्मन् ! जिसप्रकार तेरे प्राण तुझे प्रिय हैं, उसीप्रकार समस्त प्राणियों को अपने अपने प्राण प्रिय हैं। इसलिये हे आत्मन् ! दुर्बुद्धि धारणकर तू परप्राणोंकी हिंसा कमी मत कर ॥ ६९ ॥ हे आत्मन् ! जिसप्रकार तेरे प्राण तुझे प्रिय हैं और तू उनकी रक्षा करता है. उसीप्रकार समस्त प्राणियोंको अपने अपने प्राण प्रिय हैं और वे सब अपने अपने प्राणोंकी रक्षा करते हैं ॥ ७० ॥ हे आत्मन् ! जिन परिणार्मोसे तेरी हिंसा होती है अथवा तुझे पीड़ा पहुँचती है, उन परिणामोंको तू दुष्ट भावोंसे दूसरोंके लिये कमी मत कर ॥७१॥ जिसप्रकार तेरे प्राणोंका घात होनेपर तुझे दुःख होता है, उसीप्रकार
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यदि ते प्राणघातेन वेदना जायते परा । परेषां प्राणघातेन घेदना जायते तथा ॥७२॥ यद्यात्मन् वे सुखं चेष्टमन्येषामपि तत्कुछ । यदि दुःखमनिष्टं ते परेषामपि मा कुरु ॥ मरणं केऽपि नेसन्ति सबै चेच्छन्ति जीवितम् । येनोपायेने सर्वेषां जीवनं स्याच्च तत्कुरु ॥७४।। रक्ष रक्ष प्रयत्नेन प्रमादरहितेन च । जीवमान दयाबुद्धया ज्ञात्वात्मसदशं परम् ।।७।। सारं हि सर्वशास्त्राणां रहस्यं सर्ववेदिनाम् । अहिंसालक्षणो धर्मः हिंसा पापस्य लक्षणम् ॥७३॥ अहिंसेव शिर्ष सूते हिंसा दुर्गप्तिदायिनी । श्रहिंसैव परो धर्मः हिंसाधर्मलक्षणम् ॥७७अहिंसैव समाधीनां राजमार्गोंतिनिर्मलः । येन संप्राप्यते शीघ्र शिवसौख्यमकण्टकम् ॥७८ दयाद्र' बन्धुभावेन चेतो जीवस्य यस्य हि। जीवन रक्षति यो नित्यमात्मवत्सोऽस्ति धार्मिकः। ||७|| यथा यथा च्या चित्ते बद्ध ते बनधुभावतः । तथा तथा हि सम्यक्त्वं वर्तते सर्वजन्तुषु ।।८०|| स्यादहिसामयं चित्तं रागद्वेषविवर्जितम् । यदा सदा समाप्नोति जीपः साम्यामृतं शुभम् दशा पदारमा शुद्धभावेष्वहिंसाधर्ममयेषु षा । संतिष्ठते
|
दूसरोंके प्राणोंका धात होनेपर मरोंको भी दुःख ही होता है ॥७२॥ हे आत्मन् । यदि तू सुख चाहता है तो | दसरों को भी सुख पहुँचा। यदि दाखका होना तझे अनिष्ट है तो किसी दसरेको मी दुःख मत दे ॥७३॥ इस संसारमें मरना कोई नहीं चाहता, सब जीवित ही रहना चाहते हैं । इसलिये जिस उपायसे सब जीवोंका जीवन मना रहे, ऐसा उपाय तू सदा कर ॥७४॥ हे आत्मन् ! तू समस्त जीवोंको अपने आत्माके ही समान समझकर दयाबुद्धिसे प्रयत्नपूर्वक और प्रमादरहित होकर समस्त जीरोंकी रक्षा कर ।।७५॥ धर्मका लक्षण अहिंसा ही है और हिंसा पापका लक्षण है, यही समस्त शास्त्रोंका सार है और समस्त ज्ञानियोंका यही रहस्य है ॥७६॥ अहिंसासे मोक्षकी प्राप्ति होती है और हिंसासे दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । अहिंसा परमधर्म है और | हिंसा अधर्मका लक्षण है ॥७७॥ यह अहिंसा ही समाधियोंका निर्मल राजमार्ग है और इसी अहिंसासे कण्टकरहित मोक्षका सुख बहुत शीघ्र प्रास हो जाता है ॥७८॥ जिसका हृदय भाईपने प्रेमसे समस्त जीवोंमें दया धारण करता है और जो अपनी आत्माके समान समस्त जीवोंकी सदा रक्षा किया करता है, उसीको | धार्मिक पुरुष समझना चाहिये ॥७९॥ जीवोंके हृदयमें बन्धुताके प्रेमसे जैसे जैसे दया बड़ती जाती है, वैसे
वैसे ही समस्त जीवोंमें समताभाव पड़ते जाते हैं ।।८०॥ जब इस जीवका हृदय राग-द्वेषसे रहित होकर | अहिंसामय हो जाता है, तब यह जीव अत्यन्त शुभ ऐसे समतारूप अमृतको प्राप्त हो जाता है ।।८१॥ जर यह
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निराबाधं ध्याता योगी तदैव सः ॥८२॥ यदाऽहिंसामयो भात्रो जायते स्वात्मतस्तदा । टम्पूतं निर्मलं ध्यानं भवेरकर्मविदारकम् ॥८३॥ त्वमहिंसामयं धर्मं तस्मादात्मन् गृहाण तम् । यत्प्रभावेन शीघ्रं त्वं मोहसौख्यं हि लप्स्यसे || ४ || जिनवरमवचिह्न विश्वलोके प्रसिद्ध सकलभुषनमान्यं सर्वसत्वानुकम्पम् भजतु भजतु शीघ्र विश्वकल्याण बोर्ज सकलसुखनिधानं त्वं साधम् ॥८५॥
इति सुधर्म ध्यान दीपालंकारे अहिंसाधर्मवर्णनो नाम सप्तमोऽधिकारः ॥
आत्मा अहिंसाधर्ममय अपने शुद्ध
भावोंमें बिना किसी बाधा के लीन हो
जाती है, तब यह आत्मा ध्यान करनेवाला योगी कहा जाता है ||८२|| जब इस आत्माके अहिंसामय भाव उत्पन्न हो जाते हैं, तभी इसके सम्यग्दर्शनसे पवित्र, निर्मल और कमोंको नाश करनेवाला ध्यान प्रगट होता है || ८३|| इसलिये हे आत्मन् तू अब उस अहिंसामय धर्मको स्वीकार कर, जिसके प्रभावसे तुझे शीघ्र | ||८४|| यह अहिंसामय धर्म भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए मतका चिह्न हैं, समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तीनों लोकोंके द्वारा मान्य है, समस्त जीवोंपर दया धारण करनेरूप हैं, समस्त कल्याणों का कारण है और समस्त सुखका निधान है। हे आत्मन् ! ऐसे अहिंसामय श्रेष्ठ धर्मको तू धारण कर, धारण कर ॥८५॥
मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाय
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में अहिंसा धर्मको वर्णन करनेवाला यह सातवां अधिकार समाप्त हुआ ।
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अष्टमोऽधिकारः।
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सरयालयं जगत्पूज्यं सत्यधर्मस्य नायकम् । भावभक्त्या प्रवन्देऽहं श्रीसुपाय जिनेश्वरम् ।। सत्ये प्रतिष्ठितो देवः सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः । सस्ये प्रतिष्ठिता विद्या सत्यमेव सुखाकरम् ॥२॥ सस्पातरन्ति संसार सत्यावं प्रणश्यति । सत्याच्च बन्धुतां यान्ति सर्वे जीयाः परस्परम ॥३।। सत्यमेव जगन्मान्य विश्वकल्याणकारकम् । जयध्वनि प्रकुर्वन्ति देवाः सत्येन भूतले | सत्येन धायते धर्मस्तत्वधर्मप्रदर्शकः । सत्येन शिषसौख्यं हि जायते प्रविनश्वरम् ॥शा सत्येन निर्मलो भावः स्वात्मनो जायते शुभः । कृत्स्नकर्मज्ञयस्तेन जायते चिरेण सः ॥३॥ तेषु वा चरित्रेषु सत्योऽस्ति सर्वसाधकः । जलस्थानं हि धर्मेषु सत्यस्य गदितं जिनैः ।।७। त्यक्त्वा सर्वविकल्पं हि त्वं सत्ये रसिको भव ।
जो श्रीसुपार्यनाथ भगवान् मन्यके स्थान हैं, जगत्पूज्य हैं, सत्यधर्मके स्वामी हैं और जिनराज हैं; ऐसे all भगवान् सुपार्श्वनाथको में भक्ति और भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥१॥ इस सत्य महाव्रतमें देव मी प्रति-5
ष्ठित हैं, इसी सन्यमें धर्म प्रतिष्ठिन है, नत्यमें ही विद्या प्रतिष्ठित है और सरय ही सुखकी खानि है ॥२॥ il इस सत्यसे ही यह जीव संसारसे पार हो जाता है, सत्यसे ही नमस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं और सत्यसे ही | | समस्त जीव परस्पर बन्धुताको प्राप्त होते हैं ।।३। यह सत्यधर्म संपारभरमें मान्य है और समस्त संसारका | कल्याण करनेवाला है। इस पृथ्वीतलपर इस सत्य के ही प्रतापसे देवलोग जय जयकार करते रहते हैं ॥४॥ तत्वोंके धर्मको प्रकाशित करनेवाला वस्तु स्वभावरूप धर्म इस सत्यसे ही धारण किया जाता है । और सत्यधर्मके 5 ही प्रभावसे कभी नाश नहीं होनेवाला मोक्षसुख प्राप्त होता है |५|| इस सत्यसे ही आत्माके निर्मल और शुभ भाव उत्पन्न होते हैं और इसी सत्यसे शीघ्र ही समस्त कर्माका नाश हो जाता है ॥६॥ व्रत और चारित्रमें सत्य | ही सबका साधक है और भगवान् जिनेन्द्रदेव समस्त धर्मोंमें सत्य धर्मको ही उच्च स्थान देते हैं ॥७॥ इसलिये
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सु० प्र० ३। ७० ॥
सत्यधर्माधृतो येन शिषोऽपि खकरे धृतः ||८|| विशुद्ध मानसं तस्य यत्र सत्यं विराजते । परं सत्येन विश्वासो जायतेऽसुभृतां सदा ||६|| सत्येन हि दयाधर्मो जायते हि यतः स्वयम् सत्येन द्दि गुणाः सर्वे स्वयं यान्ति जिहीर्षया || १०|| वैरं पलायते शीघ्रं सत्येन प्राणिनां ननु । प्रेम संपथते शीघ्रमन्योन्यं सुमनोहरम् ||११|| नश्यन्ति विपदः सर्वाः संकटोपि पलायते । सत्यमाहात्म्यतो नृनं सत्यं सर्वैः प्रयुज्यते ||१२|| तस्मात्सत्यत्रतं धृत्वा सुधमं भज रे सुधीः । येन संपद्यते सौख्यं कल्याणं मङ्गलं शुभम् ||१३|| सत्येन सम्पदो यान्ति कीविः सत्येन जायते । सस्येन पात्रतां याति सत्येन पूज्यते नरैः ||१४|| सत्येन जायते धर्मः सत्येनैव च स्थीयते । सत्येन वर्द्धते स्वौच्च्यं सत्येनैवावधार्यते || १५ || अविश्वासकरं पापमसत्यं मर्मकम् । धर्मध्वंसकरं नित्यमात्मन् मा वद निन्द्यकम् ||१६|| प्रत्यक्षदुःखदं पापमसत्यं विद्धि तत्त्वतः । क्लेशबन्धबधादीनां स्थानं हे आत्मन् ! तू समस्त विकल्पोंको छोड़कर सत्यधर्म में लीन हो । क्योंकि जिसने सत्यधर्मको धारण कर लिया, उसने मोक्षको भी अपने हाथमें ही ले लिया एसा समझना चाहिये || ८|| जिसके हृदय में सत्यधर्म विराजमान रहता है, उसका हृदय विशुद्ध ही समझना चाहिये । इस सत्यधर्मके कारण समस्त प्राणियोंको सदाके लिये विश्वास हो जाता है || ९ || इस सत्यधर्मके कारण दयाधर्म अपने आप हो जाता है और इसी सत्यधर्मके कारण समस्त गुण एक दूसरेको जीतनेकी ही इच्छासे नहीं, किन्तु मानो अपने आप आ जाते हैं || १०|| इस सत्यधर्म के कारण प्राणियोंकी सब शत्रुता मी नष्ट हो जाती है और शीघ्र ही परस्पर मनोहर प्रेम उत्पन्न हो जाता है ॥ ११॥ इस सत्यधर्म के मादात्म्यसे समस्त विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं और सब संकट भाग जाते हैं, यह सत्यधर्म सबके द्वारा पूजा जाता है || १२ || इसलिये हे बुद्धिमन् ! तू सत्यव्रतको धारण कर और इस श्रेष्ठ धर्मका पालन कर। इस सत्यधर्म से ही कल्याण, मङ्गल, शुभ और सुख उत्पन्न होता है || १३|| इस सत्यधर्मके प्रतापसे संपदायें सब प्राप्त हो जाती हैं, इस सत्य से ही कीर्ति प्रगट होती है, सत्यसे ही यह मनुष्य पात्र बनता है और सत्यसे ही यह मनुष्य अन्य मनुष्यों के द्वारा पूजा जाता है || १४ || इस सत्यसे ही धर्म प्रगट होता है, सत्य से ही स्थिरता होती है, सत्यसे ही अपनी उच्चता बढ़ती है और सत्यसे ही सब कुछ धारण किया जाता है ||१५|| असत्य वचन पापरूप हैं, मर्मच्छेदक हैं, अविश्वास उत्पन्न करानेवाले हैं, धर्मका नाश करनेवाले हैं और निन्दा उत्पन्न करानेवाले हैं, हे आत्मन् ! ऐसे असत्य वचन तू कमी मद कह || १६ | हे
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सु० प्र०
॥ ७१ ॥
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दुर्गतिभाजनम् ||१७|| असत्यं नरकद्वारं सय आपत्तिकारकम् । मानभङ्गो भयः शोको जायतेऽसत्यवाक्यवः || १८ || सत्यं भयदं त्यक्त्वा चर सत्यं महाश्रतम् । सत्ये चैके स्थिताः सर्वे योगिनो व्रतपालकाः ||१६|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेनासत्यं त्यज सुभावतः । सत्यवाक्यं वदात्मन् त्वं सुखदं दुःखहारकम् ||२०|| सत्यं महान्तं भक्त्या जिनेन्द्रैरिह धारितम् । मुनिभिर्योगिनाथैव धारितं शिवसिद्धये ||२१|| तस्माद्धारय हे आत्मन् सत्यमेव महाब्रतम् । महाव्रतप्रभावेन सुधर्मं लभते शिवम ||२२|| स्तेयं पापं महानिन्धं जीवानां दुःखदायकम् । स्थानं बंधयधादोनां विपत्तीनां गृहं मतम् ||२३|| नास्ति स्तेयसमं पापं परपीडाकरं नृणाम्। एकेन स्तेयपापेन जितं पापकदम्बकम् ||२४|| चौरस्य हि दया नास्ति आत्मघाताच नो भयम् । कृत्याकृत्यविवेको न न शल्यरहितं मनः ||२४|| धनमेव हि जीवानां प्राणाः सन्ति सुजीवने । उद्घृते च धृतास्तेन प्राणा:
आत्मन् ! तू इन असत्य वचनोंको वास्तव में प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले पाप समझ ये असत्य वचन क्लेश, TE और बंधन आदि स्थान हैं और दुर्गतिकै पात्र हैं ||१७|| यह असत्यरूप पाप नरकका द्वार है, शीघ्र ही अनेक आपत्तियों को लानेवाला है, तथा इसी असत्यके प्रतापसे मानभंग होता है, भय उत्पन्न होता है, और शोक प्रगट होता है ||१८|| इसलिये हे आत्मन् ! भय देनेवाले इस असत्यका सर्वथा त्याग कर और सत्य महाव्रतको धारण कर । व्रतको पालन करनेवाले समस्त योगी इस एक सत्य व्रतमें ही स्थिर रहते हैं ॥ १९ ॥ इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने श्रेष्ठ परिणामोंसे और सतरहके प्रयत्नोंसे इस असत्यका त्याग कर और सुख देनेवाले तथा दुःखों को दूर करनेवाले सत्यवाक्यों को ही सदा भाषण कर ||२०|| इस सत्य महाव्रतको भगवान् जिनेन्द्रदेवने मी धारण किया है और मोक्ष प्राप्त करनेके लिये अनेक योगियों के स्वामियोंने और मुनिराजने धारण किया है ||२१|| इसलिये हे आत्मन् ! जिस सत्य महाव्रतके प्रभावसे सब तरहका कल्याण करनेवाला श्रेष्ठ धर्म प्राप्त होता है, उस सत्यमहाव्रतको तू अवश्य धारण कर ||२२|| इसीप्रकार चोरीरूप पान मी महानिन्दनीय है, जीवोंको दुःख देनेवाला है, बंध-बंधनका स्थान है और अनेक विपत्तियोंका घर है ||२३|| इस चोरीके समान मनुष्यको पीड़ा उत्पन्न करनेवाला अन्य कोई पाप नहीं है । एक चोरी पापसे ही अन्य समस्त पाप हार गये हैं ||२४|| चोरके हृदयमें कभी दया नहीं होती, आत्मघात करनेसे कभी उसको भय नहीं लगता, कृत्य और अकृत्यका कमी उसको विवेक नहीं होता और उसका मन कमी शल्परहित नहीं होता
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हास्तेयकर्मतः ॥२६ प्रत्यहादुःखदं लोक स्तेयपापंसुनिश्चितम् । परत्र नरकादौ हि दारुणं दुःखदायकम जास्तेयपापं परि. त्यज्य भजास्तेयं महानतम्। सर्वेषामेव सौख्यानां निदानं तदिदंत्रतम्॥२८॥ कुकरकपटादीनां दुर्गुणानां स्वतः स्वयम् । स्तेयस्य त्यजनेनात्र त्यागोधा स्पादयनतः॥२६॥सन्मानस्य विधातारं विश्वामस्य च मन्दिरम् । कल्याणस्य सुनेतारंधरातयं महानतम ॥३०॥ महापापकरं ग्तेयं जिनाझालोपकं हि तत् । श्रात्मनः शुद्धभावस्य वन स्तेयमुच्यते॥३१॥ास्तेयमात्र सदा त्याज्यं जिना गनिदेशतः । महाव्रतं यदस्तेयं धार्य उन्मुनिसत्तमैः ।।३।। प्रतिष्ठायतनं तद्धि सर्वसंकटहारकम् । श्रेष्ठं प्रमाणभूतं षाऽस्तेयं ननु महानतम् ॥३२॥ विपत्तिमात्रतस्तद्धि रक्षिष्यति च रक्षति रक्षिवाश्च पुरा लोके बहवः सज्जना जनाः ॥३४॥ तस्मा. सुखकरं श्रेष्ठमस्तेयं तन्महाव्रतम् । त्वं गृहाण सुभ'वन रे पात्मन् सुन्थलिप्सया ॥३॥ नैथुनेन समं निन्यं पापं नास्तीह ॥२५|| इस संसार में जीवोंको जीवित रखने के लिये धन ही प्राण हैं, चोरी करनेवाला जब चोरी करके उसका धन हरण कर लेता है तो समझना चाहिये कि उसने उसके प्राण ही हरण कर लिये ॥२६।। यह सुनिश्चित है कि इस लोक में चोरी रूप पापसे प्रत्यक्ष दुःख उत्पन्न होता है, सथा परलोकमें नरक निगोदमें दारुण दुःख होता है ॥२७|इसलिये हे आत्मन् ! चोरीके पापको छोड़कर तू अचौर्य महाव्रतको धारण कर । यह अचाप महावत समस्त सुखोंका मूल कारण है ॥२८॥ इस चोरी करनेरूष पापका त्याग करदेनेसे क्रूरता कपट आदि अनेक दुर्गुणों का त्याग बिना किसी प्रयत्नके अपने आप हो जाता है ॥२९॥ यह अचार्य महाप्रत सन्मानको देनेवाला है, विश्वासका घर है और समस्त कल्याणोंको प्राप्त करानेवाला है। है आत्मन् ! ऐसे इस अचाय महाव्रतको तू धारण कर ॥३०॥ यह चोरीरूप पाप महापापोंको उत्पन्न करनेवाला है और जिनेन्द्र देवकी आज्ञाको लोप करनेवाला है । यही चोरीरूप पाप आत्माके शुद्ध भावोंको ठगनेवाला है ॥३२॥ इसलिये भेष्ट सुनियोंको आगमकी आज्ञाके अनुसार सदाके लिये चोरीका त्याग कर देना चाहिये और अचौर्य महाव्रतको धारण कर लेना चाहिये ॥३२॥। यह अचौच महाव्रत प्रतिष्ठाका स्थान है, समस्त संकटोंको दूर करनेवाला है, सर्वश्रेष्ठ है, और प्रमाणभूत है ।।३३।। यह अचौर्य महाव्रत विपत्तिमात्रसे इस जीवकी रक्षा करता है, आगे करेगा।
और पहिले भी इसने अनेक सजन लोगोंकी इस लोकमें रक्षा की है ॥३४॥ इसलिये हे आत्मन् ! तू सुख| की इच्छासे भेष्ठ भावोंके द्वारा सुख देनेवाले सर्वश्रेष्ठ इस अचौर्य महाव्रतको धारण कर ॥ ३५॥ |
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॥ ७३ ॥
भूतले । दुःखशोकपरीतापविपत्तीनां मतं गृहम् ||३६|| एकतो मैथुनं पापं सर्वपापानि चान्यतः। तुलां कोटिं न विवन्ति गरीयस्तद्धि मैथुनम् ||३७|| श्वत्रादि दुर्गतेः स्थानं वा कलंकस्य भाजनम् । अपमानस्य बीजो हि तत्पापं मैथुनं मुबि ||३८|| सेवनाच्छो रोगाः सर्वे भवन्ति च । पराभवोऽय जीवानां तेन स्याद्धि पदे पदे ||३१|| धनधान्यसमृद्धीनां नाशो मैथुनपापतः । जीवस्य जायते शोधमयशः स्वादे परे ॥ स्वराशन्नि मातरम् | दाहा स्वस्त्रीवधं कृत्वाऽऽकांक्षत्येष पराङ्गनाम् ||४१|| ब्रह्मपापतो नूनं स्वात्महत्यां करोति वा । हा पापिनां विवेको न कृत्याकृत्यस्य भूतले ||४२ || ब्रह्मपातः शोध व्यसनानां समागमः । संपत्स्यते हि जीवानां संसारस्य च वर्द्धः ||४३|| तपोध्यानदद्यासत्य संयमादिकसद्गुणाः । ब्रह्मपापतो नूनं पलायन्वे हि लाघवात् ||४|| कामाग्निना हि मूढात्मा इस संसार में मैथुन सेवनके समान अन्य कोई निन्दनीय पाप नहीं है, यह पाप दुःख, शोक वा संताप और अनेक विपत्तियों का घर है ||३६|| यदि एक ओर मैथुन सेवनका पाप रख लिया जाय और दूसरी ओर अन्य समस्त पाप रख लिये जायं तो भी वे सब मैथुन सेवनकी समानता नहीं कर सकते । मैथुन सेवनका पाप उन सबसे भी अधिक होता है ||३७|| इस संसारमें यह मैथुन सेवनरूप पाप नरकादिक दुर्गतियों का स्थान है, कलंकका पात्र है और अपमानका कारण है ||३८|| इस मैथुन सेवन से समस्त रोग शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं और इसी के सेवनसे जीवों को पदपदपर तिरस्कार सहना पड़ता है ||३९|| इस मैथुन सेवनके पापसे इस जीवके धन, धान्य और समस्त संपदाओं का नाश हो जाता है और पद पदपर अपयश होता है ||४०|| इस मैथुन सेवन के पाप से मोहित होकर यह मनुष्य माताको मार डालता है और अपनी स्त्रीको मारकर परस्त्रीकी इच्छा करता है ||४१ || इस मैथुन सेवनके पापसे यह मनुष्य अपनी आत्महत्या भी कर लेता है। सो ठीक ही है, क्योंकि पापी जीव कृत्य अकृत्य आदिका कोई किसी प्रकारका विवेक नहीं करते हैं || ४२ ॥ इस अब सेवन के पाप से जीवों के जन्म-मरणरूप संसारको बढ़ाने वाला समस्त व्यसनों का सनागम बहुत शीघ्र हो जाता है ||४३|| तप, ध्यान, दया, सत्य और संयम आदि समस्त सद्गुण छन् अत्र सेवन के पापसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ||४४|| कामरूप अप्रिसे जला हुआ यह सूर्ख पतंग के समान शोत्र ही भस्म हो जाता है, सो ठीक
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दह्यमानः पतङ्गवत् । भस्मीभवति शीघ्रस सीमुग्धानां कुतो मतिः ॥४५॥ अग्निना हि प्रधानामुपायोऽस्ति यतोऽत्र वै। कामाग्निना प्रदग्धानां नास्त्युपायः क्वचित्कदा ॥४|| भुनगीभिस्तु ये दष्टास्ते नष्टा वा न तद्भवे। ये दष्टार खोभुजतो. भिस्ते नष्टा हि भवेभवे ॥४ा कोदिजन्मान्तरे लभ्यं नरत्वं दुर्लभं ननु । आत्मन्नतजात्पापानर त्वं नश्यसे कथम् ॥४८॥ शम्भुहर्यादिदेवा ये कामेनकेन ते जिताः । कामो हि दुर्धरो लोके महामोहकरो यतः ॥४ा वशंगता हि देवेन्द्रा दानवा दैत्यजाः सुराः । कामस्य पापकस्यास्य के वा लोके न मोहिताः ॥१०।। त्रीत पर समुत्पनो व्यामोहः कामद्धकः । जीवानां मूच्र्छते सोऽय संज्ञाहीनं करोति वा ॥५१॥ कृमिजन्तुलटैः पूर्ण लीजवनं मलाविलम् । पापो करोति वा मोहं तत्र कामकुचेष्टया ॥५२॥ यावदात्मन् स कामाग्निश्चित्ते उचलति ते स्फुटम् । ताबद्धर्मस्य वार्तापि चित्ते स्फुरति हे कथम् ॥५३॥ तस्मात मैथुनं पाप रे आत्मन त्वं त्यज त्यज । विवेकविकलो भूत्र कथं पतसि टुर्गी ॥४|| तस्मात्सर्वप्रयते
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| ही है, क्योंकि स्त्रीमें मोहित होनेवाले जीवोंको श्रेष्ठ बुद्धि कैसे हो सकती है ?॥४५॥जो जी अमिसे जल जाते
इस संसार में उनका उपाय तो हो जाता है, परंतजो जीत कामका अग्नि जल जाते हैं, उनका कमी कोई उपाय नहीं हो सकता ॥४६|| सर्पिणी जिनको काट लेती है, वे जीव बच भी जाते हैं और यदि मरते हैं तो उसी | मवमें मरते हैं, परंतु स्त्रीरूपी सर्पिणीके द्वारा काटे हुए जीव भाभवमें मरते रहते हैं ॥४७॥ यह मनुष्यजन्म
करोड़ों भवों में भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है, उसको पाकर मैथुन सेवन रूप पापसे इस जन्मको कमी नष्ट भ्रष्ट नहीं ६ करना चाहिये ॥४८॥ इस कामने हरि इर आदि देवों को भी हरा दिया है। इस संसारमें यह काम अत्यन्त कठिन
है और महामोह उत्पन्न करनेवाला है॥४९॥ हम संमारमें देवोंके इन्द्र, दानव, दैत्य और देव सब इस महापापी कामके वश हो गये हैं, सो ठीक ही है, क्योंकि इस संसार में कामसे मोहित कौन नहीं हुआ है ? ॥५०॥ कामको बढ़ानेवाला व्यामोह स्त्रीसे ही उत्पन्न होता है और यही व्यामोह जीवों को मूछित कर देता है और ज्ञानहीन कर देता है ॥५१॥ यह स्त्रियोंका जघनस्थान अनेक प्रकारके कीड़े, जन्तु आर लद आदिसे भरा हुआ है, और मलसे भरा हुआ है; उसीमें कामकी कुचेष्टा करता हुआ यह पापी जीव मोहित हो जाता है ।॥५२॥ हे आत्मन् ! जब तक तेरे हृदयमें कामरूपी अग्नि जलती रहती है, तब तक तेरे हृदयमें धर्मकी कोई बात मी स्फुरायमान नहीं हो सकती ॥५३॥ इसलिये हे आत्मन् ! तू इस मैयुनसेवनरूप पापको छोड़ छोड़ ।
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त्यज पापं हि मैथुनम् । स्वर्गापवर्गसौख्यस्य ब्रह्म साधक माघर ||४॥ ये ब्रह्मशानिनो जोवाः परब्रह्मस्वरूपकाः । ब्रमचर्येण ते सर्वे जाता इति च मन्यताम् ॥५६॥ कल्याणं मजलं भद्र' सुखं संतृप्तिकारकम् । ऋद्धिवृद्धिसमृधायाः सर्ने स्यु
नचर्यतः ॥५४ा प्रशचर्यप्रभावेण भावाद्देवा भजन्ति हि । शक्तिहीनं नरं तुच्छ' ब्रह्मतः विन्न जायते ॥१८॥ तीर्थरास्तु ये प्राप्ताः शिव नित्यं सुखात्मता ! नर्येण के इति न हायना स्फु ! मोझसौख्यस्य सोपान ब्रह्मचर्य मतं जिनैः । एकेन ब्राह्मचर्येण मोक्षसिद्धिर्निरत्यया ॥६०|| ब्रह्मचर्य व्रतं येन धुतं भक्त्या त्रिशुद्धिभिः । ऊडा मुक्ति वधूस्तेन भृशं पूतमहात्मना ।।६१॥ ब्रह्मचर्य प्रतं यस्यं निर्मलं हि त्रिशुद्धितः । तस्यैव सफलं वृत्तमन्येषां तु निरर्थकम् ॥६२|| ब्रह्मचर्य महापूतं धारयात्मन् गुणाकरम् । मुनीन्द्रा हि यतस्तेन संसाराब्धि तरन्ति ते १६| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भज
अरे! तू विवेकरहित होकर दुर्गतिमें क्यों पड़ता है ?॥५४॥ इसलिये सब तरह के प्रयत्नों के द्वारा इस मैथुन-सेवन| रूप पापका त्याग कर और स्वर्ग-मोक्षको सिद्ध करनेवाले ब्रह्मचर्यका पालन कर ॥५५।। इस संसारमें जो ब्रह्मज्ञानी हुए हैं और ब्रह्मस्वरूप हुए हैं, वे सब इस प्रवर्य के पालन करनेसे ही हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये
॥५६॥ संसारमें जितने कल्याण है, मंगल हैं, भद्र हैं, अत्यन्त संतुष्ट करनेवाले सुख हैं तथा जितनी ऋद्धि, वृद्धि | वा समृद्धि है; वे सब ब्रह्मचर्यसे ही उत्पन्न होते हैं ॥५७।। इस ब्रह्मचर्य के प्रतापसे देवलोष बड़ी मक्तिले अत्यन्त | तुच्छ और शक्तिहीन मनुष्यकी भी सेवा करते हैं, सो ठीक ही है; क्योंकि इस ब्रह्मवर्षके प्रतापसे क्या क्या नहीं
होता है ? ॥५८॥ तीर्थकरोंने जो नित्य सुखस्वरूप मोक्ष प्राप्त की है, वह एक ब्रह्मचर्य के प्रतापसे ही प्राप्त की हैं | | ऐसा स्पष्ट समझ लेना चाहिये ॥५९|| भगवान जिनेन्द्रदेवने इस ब्रमचयको ही मोक्ष सुखकी सीढ़ी बतलाई | | है । इस एकही ब्रह्मचर्य से कमी न नाश होनेवाली मोक्ष की सिद्धि होती है ॥६०॥ जिस पुरुपने भक्तिपूर्वक
मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है, उस पवित्र महात्माने मोक्षरूपी स्त्री 5] ही प्राप्त कर ली, ऐमा समझना चाहिये ॥६॥ जिसका नमवत्र व्रत मन, वचन और कायकी शुद्धतासे अत्यन्त
निर्मल है, उसीका सम्यक्चारित्र सफल समझना चाहिये । अन्य जीका चारित्र केवल ब्रमचर्य के अमावसे निरर्थक ही समझना चाहिये ॥६२॥ इसलिये हे आत्मन् ! अनेक गुणों से भरपूर और महापवित्र ऐसे इन ब. चर्य प्रतको धारण कर, क्योंकि इस ब्रह्मचर्य व्रतसे ही मुनिलोग संसाररूपी समुद्रसे पार होते हैं ॥६॥
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॥६॥
स्वारमन महावतम् । ब्रह्मचर्य जगत्पूज्यं 'सुधर्म' मुनिसेवितम् ॥६॥ सण्यिन्यानि पापानि नाममात्राणि भूतले । संगमेकं महत्पापं पापमूलं परं मतम् ।।६या मूर्छासमोन वा क्वापि व्याधिः संतापकारकः । तेनैव सुगृहीतात्मा दुःखा ताम्यति मूच्र्छति ।।६६|| अनर्थो दुखदाः सर्वे पापपङ्कप्रदायकाः। श्वभ्रादिभूमिका येऽत्र मूर्छयैव भवन्ति ते ॥६॥ मूसिंगस्य ते चित्तेऽणुमात्रं जायते यदि। आत्मन् तदा हि तृष्णाग्निज्वालयति संततम्॥६॥ संगादेव विमुह्यन्ति जोचा हि परवस्तुनि । पापं कुर्वन्ति तेनात्र धोरं घोरं च श्वभ्रवम् ॥ा सर्वानर्थप्रदाऽऽशा सा तृष्णा च भववर्द्धिका । सज्ज्ञाननाशको मोहः संगादेव हि जायते || व्यामोहाजायते चेच्छा तितस्तु शामिवईते: तृष्णातो जायते पाप | पापा दुखं प्रजायते ।।७१।। संगेच्छामात्रतः शीघ्र कपायाणां समागमः । जगजन्तुविघाताय जायतेऽनन्तपापकृत् ।।७२||
इसलिये हे आत्मन् ! नो ब्रह्मचर्य जगत्पूज्य है, श्रेष्ठ धर्मस्वरूप है और मुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है, | ऐसे इस ब्रह्मचर्यरूप महाव्रतको तू सब तरहके प्रयत्नोंसे धारण कर ||६४।। इस संसारमें अन्य जितने पाप में हैं, वे सम नाममात्रके पाप हैं, सबसे बड़ा महापाप एक परिग्रह ही है ! यह परिग्रह पापका कारण है ।।६।।
ममत्वके समान संताप उत्पन्न करनेवाली अन्य कोई व्याधि नहीं है। इस मोहवा ममत्वसे lik घिरी हुई आत्मा ही अनेक दुःखोंसे दुःखी होती है और मच्छित होती है ।।६६। इस संसारमें दुःख देनेवाले
पापरूपी कीचड़में डुबोनेवाले और नरकादिकके महादुःख देनेवाले जितने अनर्थ हैं, वे सब इस मोह वा | ममत्व परिणामोंसे ही होते हैं ।।६।। हे आत्मन् ! यदि तेरे हृदयमें इस परिग्रहका मोह अणुमात्र मी उत्पत्र | हो जाता है, तो तृष्णारूपी अनि फिर तुझे सदा ही जलाती रहेगी ॥६८॥ ये जी इस परिग्रहसे ही पर पदा
थोंमें मोहित होते हैं और इसी परिग्रहके कारण नरको इबोनेवाले पोर महापार करते हैं ॥६९।। सब तरह के | अनयोंको उत्पन्न करनेवाली आशा और संसारको बढ़ानेवाली तृष्णा इस परिग्रहसे ही उत्पन्न होती है, तथा | इस परिग्रहसे ही सम्याज्ञानको नाशकरनेवाला मोह प्रमट हो जाता है ॥७०॥ मोह उत्पन्न होनेसे इच्छा होती है, इच्छासे तृष्णा पड़ती है, तृष्णासे पाप होता है और पापसे महादुःख उत्पन्न होता है ॥७१। इस परिग्रह की इच्छामात्रसे संसारभरके समस्त जीवों का संहार करनेके लिये अनंत पापोंको उत्पन्न करनेवाले कपाय शीघ्र ही उत्पन हो जाते हैं । ७२।। महारंभोंको उत्पन्न करनेवाला संक्लेश इस परिग्रहसे ही उत्पन्न होता है
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भा.
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संगद्रपति संक्लेशो महारम्भप्रदायकः । चिन्ताशीकपरीताप वेदनाद्या भवन्ति वा ॥शा संगादेव भवेन्लोभो लोभापा प्रजायते । पापाद्भवति संसारो जन्मान्तकविधायकः || संगार्जने परं दुःखमधिकं रक्षणे तनः । देवेन संगनाशः स्यात्ततो दुःखं महत्तरम् ।।७।। कामक्रोधौ तथा हर्षभयलज्जादिदुर्गुणाः । से सर्वे चैकसंगेन जायन्ते क्लेशदायकाः । ॥७६॥ संगादेव पिता पुत्रं पुत्रों का पितरं निजम् । हन्ति इन्ति दहा लोके संगमोहो हि दुस्तरः ॥७७॥ संगमोहास्पतत्यग्नी संगमोहाच युध्यते । संगमोहात्स चैकाकी प्रविशन्दुर्गमे धने ॥८॥ करोति संगलाभेन कलह भंडन तथा । बधभङ्गादिच्छदं सरं वा शलरोपणम् ||६|| सालोभन सज्जागौरव यत्ति न क्वचित्। अस्पृश्यनीचलोकं हि सेवतेऽसौ सहर्षतः 10
संगलोभात्सदाचारं तुम्पत्येष कुशिक्षया । न भक्षयन्यथा हि प्रत्यक्षग्लानिकारकम् ।।१। मंगलोभेन सद्धर्म त्यजत्य. | और चिंता, शोक, परिताप, वेदना आदि मत्र परिग्रहसे ही उत्पन्न होते हैं ॥७३॥ इस परिग्रहसे लोभ बढ़ता है | लोभसे पाप उत्पन्न होता है आर पापसे जन्म-मरण उत्पन्न करनेवाला महासंसार बढ़ता है ।।७४ | | इस परिग्रहके उत्पन्न करनेमें महादुःख होता है, उसकी रक्षा करनेमें उससे भी अधिक दुःख होता है और |
कदाचित् दैवयोगसे उस परिग्रहका नाश हो जाय तो सबसे अधिक दुःख होता है ॥७५॥ काम, क्रोध, ! हर्ष, भय और निर्लजता आदि जितने क्लेश उत्पन्न करनेवाले दुर्गुण हैं, वे सब इस परिग्रहसे ही उत्पन्न होते हैं ।
७६॥ इस परिग्रहके कारण पिता पुत्रको मार डालता है और पुत्र पिताको मार डालना है। हा हा ! देखो, इस संसार में यह परिग्रह अनंत दुःख देनेवाला है ||७७॥ इस परिग्रहके ही मोहसे यह प्राणी अग्निमें जल मरता है, परिग्रहके ही मोहसे युद्ध में लड़ता है और परिग्रहके ही मोहसे अकेला दुर्गम बनोंमें प्रवेश करता है ॥७८। इस परिग्रहके ही लोभसे यह जीव कलह वा गाली गलौज करता है, ऋग्ताके साथ मारता | है वा शरीरका छेदन भेदन करता है और परिग्रहके ही लोभसे शूलीपर चढ़ता है ॥७९॥ इस परिग्रहके लोमसे ही यह जीव अपनी श्रेष्ठ जातिका गौरव नहीं समझता है और प्रसन्न होकर अम्पृश्य नीच लोगोंकी।
किया करता है ॥८॥ इस परिग्रहके लोभसे ही सदाचारका लोप कर डालता है और कुशिक्षाके द्वारा प्रत्यक्ष म्लानि उत्पन्न करनेवाले अभक्ष्य पदार्थीका भक्षण करता है ।।८१॥ परिग्रहके लोभसे ही यह जीव | Kा मगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए भेष्ठ धर्मको छोड़ देता है और मूर्खता धारणकर जिनागमके अर्थको मी
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ईत्सु भाषितम् । जिनागमस्य चार्थ हि वान्यथा कुरुते कुधीः ॥शा सुर्मिकचन देटि संगलोभाष सज्जनम् । हिताहितं न जानाति पापं चर्रात दारुणम् |३॥ संगलोभात्कुशालहि सम्यक् पठति भावत: । ततो मिथ्यामति कस्वा लुम्पत्येन जिनागमम् ४ा हा हा संगत्य लोभेन निर्मिमीते नवं मतम् । व्यभिचारे दुराचारे सद्धर्म सत्र भाषते ।।८। अनीति मनुते नीतिमन्यायं भ्यायमिच्छति । संगलोभेन तत्सर्व कुरुते स्वार्थलिप्सया ॥८६॥ व्यामोइकारणं संगलोभोऽस्ति प्राणिनां खलु । भूकछी करोति दुर्भाव दुर्गतिहातमोति सः ॥७॥ तस्मात्सर्वप्रबलेन संगमूर्धा त्यजेद्ध धः। लोभः संगस्य कर्तव्यो नात्र प्राणच्युतैरपि ।। संगो हि द्विविधः प्रोक्तो बाह्याभ्यन्तरभेदतः । संगो हिसर्वया त्याज्यो मुक्त्याफानिममहात्मना | (IEE चिन्ताभावो निरारम्भी भवेनिःसंगतो मुवि । आकुलत्वेन नश्येत निसंगाकिन्न जायते ||६|| ममत्वाजायते लोभो लोभाद्रागोऽभिवर्द्धते। रागावेच संसारस्ततो दुःखं निरन्तरम् ||१|| मनोऽक्षविषयाण हिवाशां धने विमोइतः । विपरीत कर डालता है ॥४२॥ इस परिग्रहके ही लोभसे धार्मिक सज्जन पुरुषोंसे द्वेष करता है, तथा इस परिग्रहसे ही अपने हिताहितको नहीं समझता और महापाप उत्पन करता है ॥८॥ इस परिग्रहके ही लोभसे कुशास्त्रोंको भावपूर्वक अच्छी तरह पढ़ता है और उन कुशास्त्रोंके पढ़नेसे मिथ्या मुद्धि धारणकर | | जिनागमका लोप करता है ।।८४॥ हाय हाय ! देखो, इस परिग्रहके ही लोमसे नवीन मतोंका निरूपण करता है और उनमें व्यभिचार वा दुराचारको ही श्रेष्ठ धर्म बतला देता है ॥८५।। देखो, यह जीव परिग्रह के ही लोभ और अपनी स्वार्थ-वासनासे अनीतिको नीति समझ लेता है और अन्यायको न्याय समझ लेता है ॥८६॥ यह परिग्रहका लोभ मोहका कारण है, अशुभ परिणामोंका कारण है, समस्त प्राणियोंको मूलित कर देता है और दुर्गतियोंका कारण है ।।८७॥ इसलिए बुद्धिमानोंको सबतरहके प्रयत्न करके इस परिग्रहके मोहको छोड़ देना चाहिये और इस परिग्रहका लोम प्राणनाश होनेपर मी नहीं करना चाहिये ॥८८|| इस परिग्रहके बाप आभ्यंतरके मेदसे दो भेद हैं, मोक्षकी इच्छा करनेवाले महात्मा पुरुषोंको इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंका सर्वथा त्यागकर देना चाहिये ॥८९॥ इस परिप्रहका त्यागकर देनेसे ही चिंताका अभाव हो जाता है, आरंभोंका अभाव हो जाता है और आकुलताका नाश हो जाता है, सो ठीक ही है। क्योंकि X परिग्रहका त्याग कर देनेसे कौन कौनसे गुण प्रगट नहीं होते हैं । ॥१०॥ ममत्व परिणार्मोसे लोभ पड़ता है,
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स पापो ध्वंसते मार्गान्मोहो दुर्गतिदायकः ॥२॥ कामक्रोधकषायादानन्तरङ्गपरिग्रहान् । योऽत्र न्या.
संसारी सोऽस्ति संगतः |सतृष्णो कर्म बध्नाति धृत्वाशामणमात्रिकाम् । मोक्षमार्गे यते | सैव करोति भववन्धनम् ॥६४|संग च द्विविधं त्वक्त्वा धृत्वा पंचमहानतम् । गृहन्ति चे पुनर्वस्त्रं भ्रष्टास्ते मोक्षमार्गतः 118| गृहीत्वा जिनलिङ्गच धृत्वा पञ्चमहानतम् । पुनर्वाकरति संग स भवाब्धी मजति ध्रुवम् ॥६॥ नास्ति कर्मक्षयस्तेषां वनसंगधरारमनाम् । वस्त्रत्यापि च दुर्मोहः संसारस्यैव वर्द्धकः ।।यात्राणार्थ स्वशरीरस्य वसञ्चापि | धरति ये । व्यामोहमोहितास्ते म्युर्मोक्षमार्ग भजन्ति न III मुनिर्ममत्वचेतस्कः स्वाहिताजस्यते ध्रुवम् । यतो ममत्व. भावेन वस्त्रं धत्ते ततो हि सः निर्ममत्वं हि चित्ते ते विद्यते नैव वा यदि महाबवेन तेनात्र यते कि हि प्रयोजन
६ लोभसे राग उत्पन्न होता है, रागसे संसार बढ़ता है और संसारसे निरंतर दुःख होता रहता है ॥९१।।
इस परिग्रहके मोहके कारण जो पापी मन और इंद्रियोंके विपर्योकी आशाको बढ़ाता है, वह मोक्षमागसे | भ्रष्ट होता है, सो ठीक ही है; क्योंकि मोह ही दुर्गतिका कारण है ॥९२॥ जो मनुष्य इस परिग्रहके
मोहसे काम, क्रोध बादि कषायरूप अंतरंम परिग्रहोंको धारण करता है, वह उन परिग्रहोंके ही कारण दीर्घ LE) संसारी गिना जाता है ॥९३।। जो अणुमात्र मी आशा धारणकर तृष्णा करता है, वह कर्मोंका बंध करता है।
यह आशा मोक्षमार्गमें लगे हुए मुनिको भी संसारका बंधन कर डालती है ॥९४॥ जो अतरंग, बाह्य दोनों
प्रकारके परिग्रहोंका त्याग कर महाव्रत धारण कर लेते हैं और फिर वस्त्र धारण कर लेते है, उन्हें मोक्षमार्गसे र भ्रष्ट समझना चाहिये ।।१५।। जो जैनेश्वरी दीक्षा धारणकर पंचमहाव्रतोंको धारण कर लेता है और फिर
भी परिग्रहोंकी आशा रखता है, वह इस संसाररूपी समुद्रमें अवश्य बता है ॥९६|| जो वस्त्र वा अन्य परिग्रहको धारण करते हैं, उनके कर्मोंका क्षय कमी नहीं हो सकता । क्यों कि वस्त्रोंसे मोह करना मी संसारको |
ही बढ़ानेवाला है ॥९७॥ जो मुनि होकर भी अपने शरीरकी रक्षाके लिये वस्त्रादिक धारण करते हैं, उनको | व व्यामोहसे मोहित समझना चाहिये । ऐसे लोग मोक्षमार्गको कभी धारण नहीं कर सकते ॥९८॥ बोहनि |
होकर मी अपने हृदयमें ममत्व धारण करते हैं, वे अपने आत्माके हितले भ्रष्ट समाने जाते हैं, क्योंकि K/ ममत्व परिणामोंसे थे लोग अपने शरीरपर वस्त्र धारण अवश्य करते हैं ॥९९॥ हे मुने! यदि तेरे |
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||१०० || आकिञ्चन्यं च निस्संगमात्मानं विश्वसन् यतिः । स व्यामोहकरं वस्त्र धत्ते मोक्षाय वा कथम् ॥ १०१ ॥ यागिनां शरीरेऽपि परं निःस्पृहता मता । श्रात्मैवात्र सुप देयोऽन्यत्सर्वं खलु ॥१०२॥ निर्ममत्वं शरीरे न यस्यास्ति स्वात्मभावतः । मोहात्म हि कथं धतेऽप्यमानं परिग्रहम् ||१०३ ॥ ममत्वं यैर्यतीर्वा त्यक्तं हि स्वतनौ ननु । ते संयम समाराध्य लभन्ते हि शिवं लघु ॥१४॥ यतो दिगम्बराणां स्यान्मोक्षो निर्ममतात्मनाम् । पंचामत्तत्रतं तेषां नान्येषां संगधारिणाम् ।। १०५ ।। हुस्ततो हि जैनेन्द्राः साक्षान्मोदस्य कारणम् । नग्नं दिगम्बरं लिङ्ग निसंग जातरूपकम् ॥१०६॥ जगति परमनिय पंचपाएं सैन्यं त्यजतु परमशुद्धया पंचवृतं सुधृत्य । निवसतु मुनिमार्ग वा यथा जातमुद्र इह धरण सुधर्ममात्मनो मोक्षरूपम् ॥११- ७ ।। इति सुधर्मध्यान्नप्रदीपालंकारे महातप्ररूपणो नाम मोऽधिकारः ॥ हृदयसे ममत्र दुर नहीं हुआ है, निर्ममता नहीं है, तो फिर महाव्रत धारण करनेसे ही क्या प्रयोजन निकल सकता है ? || १००|| जो मुनि इस आत्माको परिग्रहरहित अकिंचनस्वरूप श्रद्धान करता है, वह मोक्ष प्राप्त करने के लिये मोहित करनेवाले वस्त्रोंको भला कैसे धारणकर सकता है ? ॥१०१॥ योगी लोग अपने शरीर से भी निस्पृहता धारण करते हैं, क्योंकि योगीलोगोंके लिये आत्मा ही उपादेय है, बाकी सब हेय वा त्याग करने योग्य हैं || १०२ || जो मुनि आत्मीय भावोंके प्रगट होने से शरीर में भी निर्ममता धारण करता है, वह मोहसे उत्पन्न होनेवाले अणुमात्र परिग्रहको भी कैसे धारण कर सकता है १ ॥१०३॥ जिन मुनिराजोंने अपने शरीरसे भी ममत्व भावोंका त्याग कर दिया है, वे मुनि संयमका आराधन कर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं || १०४ || क्योंकि यह नियम है कि निर्मम - त्वको धारण करनेवाले दिगम्बर मुनियोंको ही मोक्षकी प्राप्ति होती है । क्योंकि निर्ममत्व दिगम्बर मुनियोंके ही महाव्रत होते हैं, परिग्रह धारण करनेवाले अन्य किसीके महाव्रत नहीं हो सकते ॥ १०५ ॥ इसीलिये भगचान् जिनेन्द्रदेव बालकके समान परिग्रहरहित न दिगम्बर अवस्थाको मोक्षका साक्षात् कारण कहते हैं ॥ १०६ ॥ ये हिंसादिक पांचों पाप संसारभर में परम निन्द्य हैं और सेवन करनेके अयोग्य हैं। इसलिये मन, वचन और कायकी परम शुद्धिपूर्वक पांचों महावतोंको धारणकर इन पांचों पापका त्याग कर देना चाहिये, तथा बाल्य समयकी नममुद्राको धारण करनेवाले सुनिमार्ग में निवास करना चाहिये और मोक्षरूप आत्मा के श्रेष्ठ धर्मको धारण करना चाहिये ||१०७/१
यह मुनिराज श्री सुधर्म सागरप्रणीत सुधर्म ध्यानप्रवी पालंकार में महाव्रतोंको निरूपण करनेवाला यह आठवां अधिकार समाप्त हुआ।
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१॥
नवमोऽधिकारः॥
86 तं पंचाक्षविजेतारं पंचसमितिपालकम् । वीतरागमहं वन्दे चन्द्रप्रभ जगद्गुरुम् ॥श पंच हिंसादिपापानि महा. दुःखकराणि च। त्यक्त्वा, पंच ब्रतान्याशु धार्यतां शिवसिद्धये ॥ पंचपापं निराकतु पंचसमितिमाचर । मनोहनिप्रद कृत्वा शिवसिद्धिं विलोकय ||३|| पंचपापं निराकतुं' षडावश्यकमाघर । येन साभ्यामृतं लब्ध्वा शिषसिद्धिर्भवेत्तव ४पंचपापं निराकतु समतां धर भावतः। प्राशावैतरणी तीत्वा शिवसिद्धि विलोकय ॥१॥ पंचपापं निराक पंचचारित्रमाचर । जित्या सर्वजगद्वन्द्व शिवसिद्धिं विलोक्य ॥६॥ करोतु दशधा धर्म पंचपापविहानये । कषायनिम
जो पांचों इन्द्रियोंको जीतनेवाले हैं, पांचों समितियों को पालन करनेवाले हैं तथा जो वीतराग और | जगद्गुरु हैं; ऐसे भगवान् चन्द्रप्रमको में नमस्कार करता हूँ ॥१॥ हिंसादिक पांचों महापाप महादुःख उत्पन्न करनेवाले हैं, इसलिये इनको छोड़कर मोक्ष प्राप्त करनेके लिये पांचों महावतोंको धारण करना चाहिये
॥२॥ हे आत्मन् ! पांचों पापोंको दूर करनेके लिये पांचों समितियोंका पालन कर, तथा मन और इन्द्रियोंका | निग्रहकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ॥३॥ पांचों पापोंको दूर करनेके लिये छहों आवश्यकोंका पालन कर, | जिससे कि समतारूप अमृतको पाकर तुझे मोक्षकी सिद्धि प्राप्त हो ॥४॥ पांचों पापोंको दूर करने के लिये मावपूर्वक समताको धारण कर और आशारूपी वैतरणी नदीको पारकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ॥५|पांचों पापों
को दूर करनेकेलिये पांच प्रकार के चारित्रको धारण कर और संसारके समस्त उपद्रवोंको जीतकर मोक्षकी | सिद्धिको प्राप्त हो ॥६॥ पांचों पापोंको दूर करनेके लिये दश प्रकारके धर्मको धारण कर और समस्त कषायोंको
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कृत्वा शिवसिद्धिं विलोकय ॥ ७॥ पंचपापं निराकतु मनीषाका यशुद्धिभिः । निजात्मनः कुरु ध्यानं शिवसिद्धिं विलोकय ||८|| अक्षोद्वेषाद्धि जायन्ते पंच पापानि भूतले । आदावेव प्रवर्तन्ते अक्षाणि पापकर्मणि ॥६॥ कीकायेवमुह्यन्ति वाद विषयवाच्छया । तस्मात्पापं प्रजायेत ततीत्याचारकं महत् ||१०|| अजिताक्षः करोत्यात्मा विषयाक्रांतचेतसा । हिंसादीनि घोराणि पापानि सततं ध्रुवम् ॥११॥ इन्द्रियैविजितो जीदो प्रमाद्यति प्रमूर्च्छति । विषयं कांतमाणो हि संसारे हित स्वयम् ||१२|| इन्द्रियाणां सहायेन विषयेषु गतं मनः को वा वारयितु ं शक्तः काम सैन्यं सुयत्नतः ॥ १३॥ अक्षाणां विषयाatit जीवान हिंसति निर्भयः । असत्यं वक्ति निःशंकं स्तेयं चरति हर्षतः ||१४|| अक्षगोचरसिद्धयर्थं संगमर्जवि मोहतः । मण्डनं कलहं कृत्वा पापानि संचिनोत्यसौ ||१५|| अक्षार्थमुख सिद्धयर्थमनीतिं कुरुते तथा । स्वार्थे परायणो भूत्वः जनः पापं वितन्वते ||१६|| यथा यथा हृषीकाणां मदस्तापश्च वर्द्धते । तथा तथा च वर्द्धते रागद्वेषौ स्वतः स्त्रयम् ॥१७॥ ॥
निग्रहकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ||७|| पांचों पापको दूर करनेके लिये मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक अपने आत्माका ध्यान कर और मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ||८|| इस संसार में इंद्रियोंके उद्रेक से ही पांचों पाप उत्पन्न होते है, सबसे पहले ये इंद्रियां पाप का ही अवृत्त होती हैं ||२|| सबसे पहले विषयोंकी इच्छासे इन्द्रियां मोहित होती हैं। फिर उनसे पाप उत्पन्न होता है और फिर पापसे अनेक महा अत्याचार होते हैं ॥१०॥ जो आत्मा अपनी इन्द्रियोंको जीत नहीं सकता, उसका हृदय विषयोंसे आक्रांत हो जाता है और फिर वह सदा हिंसादिक घोर पाप करता रहता है ||११|| जो जीव इंद्रियोंसे जीता जाता है इंद्रियोंके वश हो जाता है, वह प्रमाद करता है, मूच्छित होता है और विषयोंकी आकांक्षा करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है || १२ || इन्द्रियों की सहायता से विषयोंमें प्राप्त हुए और कामको सहायता पहुँचानेवाले इस मनको प्रयत्न करनेपर भी कौन रोक सकता है ? ||१३|| जो जीव इन्द्रियोंके चिपयोंके आधीन है, वह निर्भय होकर जीवोंकी हिंसा करता है, निःशंक होकर झूठ बोलता है और हर्षपूर्वक चोरी करता है || १४ || इंद्रियों के विषयोंको सिद्ध करनेके लिये वह मोहित होकर परिग्रहों का संग्रह करता है और कलह वा झगड़े कर पापों का संग्रह करता है || १५ || इंद्रियों के विषय-सुखकी सिद्धिके लिये यह जीव अनेक अनीतियोंको करता है, तथा स्वार्थमें तत्पर होकर अनेक पाप करता है ||१६|| इंद्रियों का मद और संताप जैसे जैसे मढ़वा जाता है, वैसे
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योऽक्षशृङ्खलया थद्धो बहिरत्यन्तरम्यया। संसारशृङ्खलायां सः बद्धो दृढतरो ननु ॥१८॥ यः सुतीक्ष्णतरैङ्गिरक्षजन्यः | दुरन्तकैः । विद्धः सोऽत्र प्रविद्धोस्ति प्रशस्ते पुण्यकर्मणि ॥१॥ कामक्रोधभयाश्चिन्ताकलही मत्सरादयः । वंचिनरहस्य | जीवस्य जायन्ते दुर्गुणा अहो ॥२०॥ यावत्सन्ति कुकर्माणि पापबन्धकराणि च । तान्यज्ञैश्च महादुष्टैः संप्राप्यन्ते जनस्य नु ॥२१॥ सर्वपापस्य मूलानि भवबन्धकराणि च । इन्द्रियाणि विज्ञानीहि रे आत्मन् त्वं हि तत्त्वदः ॥२२॥ व्यामोहतोऽक्षजे सौख्यऽध्यात्मन् त्वं यदि धावांस भावयति सतः पाती भवाब्धौ ते सुनिश्चितम् ।।२शा व्यामोइतस्तथापि | त्वमात्मनिन्द्रियजे सुखे। भूयोऽप्यात्मसुखं मन्वा रमसे हाक्षवंचितः ॥२४॥ दुःस्वमेव विजानीहि हे पात्मनक्षजं सुखम् ।
आध्यात्मिकं सुखं विद्धि वाक्षातीतं स्वभावजम् ।।२४ा आकुले नश्वरे पापे व शान्ते दुःखपूरिते। दुःखदे सक्षजे सौख्य ही बैंसे राग और द्वेष स्वयं बढ़ते जाते हैं ॥१७॥ माहरसे अत्यन्त मनोहर दिखनेवाली इन इन्द्रियोंकी | सांकलसे जो बँध गये हैं, वे संसारकी सांकलसे मी मजदुतीके साथ बंध गये हैं; ऐसा समझना चाहिये ॥१८॥ | जिनका अन्त दुःखमय है, ऐसे इंद्रियोंसे उत्पन्न हुए तीक्ष्ण बाणोंसे जो जर्जरित हो चुके हैं; उनको प्रशंसनीय पुण्य कर्मों में भी जर्जरित हुआ ही समझ लेना चाहिये अर्थात् फिर उससे कोई पुण्य कार्य नहीं हो सकता ॥१९॥ जो जीव इन्द्रियों के द्वारा जीता जाता है, उसे काम, क्रोध, भय, चिंता, कलह और मत्सर आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं ॥२०॥ इस संसारमें पापगन्ध करनेवाले जितने कुकर्म हैं, वे सब जीवोंको महादुष्ट इन इन्द्रियोंसे ही उत्पन्न होते हैं ॥२१॥ हे आत्मन् ! तू इन इन्द्रियों को समस्त पापोंका मूल और यथार्थमें संसारबंधका कारण समझ पा२२॥ हे आत्मन् ! यदि तू इन्द्रियों में मोहित होकर इन्द्रियजन्य सुखोंमें दौड़ लगावेगा, तो यह निश्चय है कि तू इस संसाररूपी समुद्र में अवश्य पड़ेगा ।।२३|| हे आत्मन् ! इतना समझने पर मी इंद्रियोंसे ठगा हुआ तू व्यामोहके कारण इंद्रियजन्य सुखोंमें आत्मसुख मानकर लीन होगा ॥२४॥ परंतु हे आत्मन् ! तू इन इंद्रियजन्य सुखोंको दुःखरूप ही समझ । जो सुख इंद्रियोंसे रहित है और आत्माके खभावसे उत्पन्न हुआ है, उसीको तु आध्यात्मिक सुम्ब समझ ॥२५|| ये इन्द्रियजन्य सुख आकृलवारूप हैं सदा नाशमान हैं, शांतिसे दूर हैं, दुःखोंसे भरपूर हैं और दुःख देनेवाले हैं, ऐसे इन इंद्रियजन्य सुखोंमें चेतन अवस्थाको धारण करनेवाला यह जीव मला कैसे मोहित हो सकता है ? ॥२६।। हे आत्मन् ! ये इन्द्रियजन्य
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को मुत्पति सचेतनः ॥ दीर्घसंसारबीजं हि विषवदुःखदायकम् । नानोद्रेककरं सौन्यमक्षजं विद्धि तरखतः ॥२०॥ नानादुःखकर तीन शान्त्यमृतपरामुखम् । भयैराकुलित नित्यं सौख्यं विद्धि तदक्षजम् ॥२८॥ आधिव्याधिकरं नित्यं दुःखसंतापदायकम् । संसारभ्रमणस्यैव कारणं सक्षजं सुखम् ॥२॥ बाप्राप्त मात्ररम्येऽस्मिन्नक्षजे दुःखदे सुखे । भयसंतापसंमिचे को मोहः स्वात्मदिनाम् ॥३०॥ मधुलिप्सासिधारावकिपाकवत्तक्षजम । श्रास्वादसे किमर्थ स्वमात्मन् सौख्यं भयावहम् ॥३१॥ त्वां वंचितं प्रवृत्तानीन्द्रियाणि रम्यभावतः। पातयित्वा भवाब्धौ त्वां दुःखं दास्यन्ति तश्वतः ॥३२॥ अक्षसौख्ये हि राग वा कुरु मा तत्वबोधतः । स्वात्मनः कुरु सयानं लमसे सौख्यमात्मजम् ॥३॥ इन्द्रियोट्रेकमारुध्य स्वमनः स्ववर्श मय । पश्यात्मनात्मनः सौख्यं स्वस्मिन ध्यानेन संततम् ||३४|| विषयेभ्यो निवर्तन्वे यदाज्ञारण
सुख वास्तवमें दीर्घ-संसारके कारण हैं, निगरले समान दुःखदायक है और अनेक प्रकारकी उद्रेकताको उत्पम करनेवाले हैं ऐसा तू समझ ॥२७॥ ये इन्द्रियजन्य सुख अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले हैं, अत्यन्त तीव्र १ शांतिरूपी अमृतको नष्ट करनेवाले हैं और भयसे सदा भरपूर रहते हैं। हे आत्मन् ! तू ऐसा समझ ॥२८॥ ये इंद्रियजन्य सुख अनेक प्रकारकी आधि-व्याधियों को उत्पन्न करनेवाले हैं, सदा दुःख और संतापको देनेवाले | | है और संसारपरिभ्रमणके कारण हैं । ॥२९॥ इन्द्रियजन्य सुख सेवन करते समय मनोहर जान पड़ते हैं, परंतु वास्तवमें दुःख देनेवाले हैं तथा भय और संतापसे भरपूर हैं; भला ऐसे इन इन्द्रियजन्य सुखोंमें आत्माके | स्वरूपको जाननेवाला जीव कैसे मोहित हो सकता है ? ॥३०॥ हे आत्मन् ! ये इन्द्रियजन्य सुख शहत लपेटी | तलवारकी धाराके समान अथवा किंपाकफलके समान अंतमें दुःख देनेवाले हैं तथा अत्यन्त मयानक हैं, ऐसे | इन सुखोंका आखादन तू क्यों करता है ? ॥३१॥ ये इंद्रियां अपनी मनोहरता धारणकर तुझे ठगनेके लिये प्रास हुई हैं, इसलिये तुझे इस संसाररूपी समुद्रमें गिरकर वास्तवमें महादुःख देंगी ॥३२॥ इसलिये हे
आत्मन् ! तु आत्मज्ञानको धारण कर, इन इंद्रियजन्य सुखोंमें राग मत कर तथा आत्माका श्रेष्ठ ध्यान कर,
जिससे कि तुझे आत्मसुखकी प्राप्ति हो ॥३३॥ हे आत्मन् ! तू इंद्रियोंके उडेकको रोककर अपने मनको fe अपने वश कर । तथा ध्यानके द्वारा तू अपनेही आत्मामें अपने आत्माके सुखको देख ॥३४॥ जब ये इन्द्रियां |
आत्मज्ञानके द्वारा अपने विषयोंसे हट जायंगी, तभी तुझे ध्यानके द्वारा आकुलतारहित आत्मसुख दिखाई
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सु० प्र० ॥८॥
स्वबोधतः । शीघ्रं पश्यसि ध्यानेन खत्मसौख्यमनाकुलम् ||३५|| अध्यात्मजं गतद्वन्द्व शाश्वतं च निराकुलम् । निराधा, सुखं चात्मन् लभसे त्वक्षरोधनः ॥३६॥ अपास्य चाक्षजं सौख्यं वात्मनि स्त्रमनाकुलम् । पश्यात्मन् विमलं सौख्यं ध्यानेन स्वात्मनः स्वयम् ॥३७॥ हृषीकविपयोत्पन्न सुखे लुब्धो यदि त्वकम् । तदात्मन् वद ते ध्यान कयमाध्यात्मिकं भवेत् ॥३८॥
भूतयक्षव्यामोहतो चदि । चित्तं तर्हि कथं ध्यानं कथं वा संयमो भवेत् ॥३६|| अस्ते विद्वलीभूतं । यदि चित्तं मनागपि । तदा लं पापकरडेऽस्मिन् पतितस्त्यत्तसंयमः ॥४०॥ विषयाशाभिभूतानामिन्द्रियाधीनचेतसाम् । | तेषां ध्यानं भवेन्नैव यत्नेनापि समुज्वलम् ॥४ा अजिताक्षो नरो लुब्धो ध्यातु' किस समीइते । तुषाः किं या प्ररोहन्ति सिच्यमानाः सुवारिणा ||२|| निसर्गचपलैरीदि व्याप्तं हि मानसम् । तस्य तरिकं भवेद्ध्यान किंवा काषायनिग्रहः ॥४३।। इन्द्रियैरनिशं यस्य व्यकुलं चलमानसम्। महात्रतं कथं तस्य ध्यानं वा पापरोधकम् ।।४४|| अक्षाणां वशगो ध्याता
देखा ॥३५॥ हे आत्मन् । इद्रियोका निरोध करनेसे तुझे समस्त उपद्रवोंसे रहित, निराकुल, शाश्वत और निरावाध आध्यात्मिक सुख प्राप्त होगा ॥३६।। इसलिये हे आत्मन् ! तू इंद्रियजन्य सुखोंको छोड़कर ध्यानके द्वारा अपनेही आत्मामें निराकुल और निर्मल आत्माके मुखको स्वयं देख ॥३७॥ हे आत्मन् । यदि | तू इद्रियों के विषयोंसे उत्पन्न हुए सुखमें लुभा जायगा तो फिर यतला कि तेरे आध्यात्मिक ध्यान कैसे हो | | सकेगा ॥३८॥ हे आत्मन् ! इन्द्रियोंसे मोहित होकर यदि तेरा चित्त विपयों में व्याकुल हो जायमा तो फिर तुझे कैसे ध्यान हो सकेगा और कैसे संयम हो सकेगा ? ॥३९॥ हे आत्मन् । यदि तेरा मन इन्द्रियोंसे थोड़ासा | भी बिहल हो जायमा तो तेरा संयम छूट जायगा और तू पापकुण्डमें अवश्य गिर पड़ेगा ॥४०॥ जो जीव | विषयोंकी आशाके वशीभूत हैं और जिनका हृदय इन्द्रियोंके आधीन है, उनके यह करनेपर भी निर्मल ध्यान | कभी नहीं हो सकता ॥४१॥ जिसने इंदियोको नहीं जीता है, ऐमा लुब्धक मनुष्य भला ध्यान करनेकी इच्छा कैसे कर सकता है ? क्या भूसी बोकर और अच्छे पानीसे सींचने पर भी उत्पन्न हो सकती है ? कभी नहीं |
॥४२॥ ये इन्द्रियो स्वभावसे ही चंचल हैं, यदि इन चंचल इन्द्रियोंसे मन व्याप्त हो रहा है तो क्या उसके | | ध्यान हो सकता है ? अथवा कषायोंका निग्रह हो सकता है ? कभी नहीं ॥४३॥ जिस मनुष्यका चंचल मन इन्द्रियोंसे सदा व्याकुल रहता है, उसको महावत कैसे हो सकता है ? तथा पापोंको रोकनेवाला ध्यान कैसे
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परतन्त्रः सदा मतः । न हि ध्यातुं समर्थः सः स्वात्मानं सोऽपि मूढधीः || ४५ ॥ यथा यथा मुनिध्यता हृषोकविजयो भवेत । तथा तथा मनोवेगः प्रशाम्यति सुनिश्चतम् ||४३|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्त्रावरोधो विभीयताम् । अतरोधेन सद्ध्घानं भवेदिह निराकुलम् ||१७|| अक्षरोधः कुतो येन तेनैव सुखमात्मत्रम् । लब्धं सुसंयमं श्रुत्वा कृत्वा ध्वानं सुनिर्मलम् ||४८|| तीर्थंकरादयः पूर्वं गता ये शिवमन्दिरम्। ते चातविजयेनैव तस्मात्वमपि कुरु ||४६|| मोक्षसिद्धिर्भवेन्नैव विनाज्ञविजयेन हि । तस्मादक्षजयः कार्यः ह्यन्यया नतु संसृतिः ||१०|| तस्मादिन्द्रियरागं च त्यक्त्वा त्वं शुद्ध Patanः । सुधर्म शिवसिद्धयर्थं वर रागादिवर्जितम् ||११|| विरम विरम नित्यं चेन्द्रियाणां व्यवायात् नय नय नय शीघ्रं स्वात्मवश्यं हि चित्तम् । कुरु कुरु कुरु शुद्ध ध्यानमात्मस्वरूपं वर वर दिसु शाश्वतं निर्विकल्पम् ॥५२॥ इति सुधर्मध्यान प्रदीपालंकारे इन्द्रियविजयप्ररूपणो नाम नवमोऽधिकारः ॥
हो सकता है ? ॥४४॥ जो ध्यान करनेवाला इन्द्रियों के वंश होगा, वह मदा परतंत्र ही रहेगा, फिर भला वह मूर्ख अपने आत्माका ध्यान करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है ?||४५|| यह ध्यान करनेवाला मुनि जैसे जैसे इंद्रियों को जाता जाता है, वैसे ही वैसे मनका वेग नियमसे अत्यन्त शांत होता जाता है ॥४६॥ इमलिये सब तरह के प्रयत्न करके इंद्रियों का निरोध करना चाहिये । क्योंकि इंद्रियों का निरोध करनेसे ही निगकुल श्रेष्ट ध्यान प्रगट होता है ||४७॥ जो जीव इंद्रियोंका निरोव कर लेता है, वह संयम और निर्मल ध्यान धारणकर आत्मजन्य सुखको अवश्य प्राप्त होगा |॥४८॥ पहले समय में तीर्थंकर आदि जो शिरमहलमें जाकर विराजमान हुए हैं, वे इन्द्रियोंको जीतकर ही वहां पहुँचे हैं, इसलिये हे आत्मन् ! तू भी इन्द्रियों को जीत || ४९|| इन संसार में इन्द्रियों को जीते विना मोक्षकी सिद्धि कभी नहीं हो सकती। इसलिये भव्य जीवों को इंद्रियों की विजय अवश्य करनी चाहिये । अन्यथा इंद्रियविजय के बिना संसारका परिभ्रमण अवश्यम्भावी है १५०|| इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने शुद्ध आत्मज्ञानसे इंद्रियोंके गगको छोड़ और मोक्ष प्राप्त करने के लिये रागरहित श्रेष्ठ धर्मको धारण कर ||५१|| हे आत्मन् ! तू इंद्रियों के द्वारा होनेवाले अपने आत्मा के नाशसे अलग हो, दूर हो तथा अपने चित्तको शीघ्र ही आत्माके वशमें कर, आत्मस्वरूप शुद्ध ध्यानको भी शीघ्र धारण कर और निर्विकल्पक नित्य रहनेवाले श्रेष्ठ धर्मको शीघ्र ही धारण कर ।। ५२ ।।
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यह मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में इन्द्रियविजयको वर्णन करनेवाला नौवां अधिकार समाप्त हुआ।
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दशमोऽधिकारः।
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मनो वशीकृतं येन ध्यानं धृत्वा सुनिर्मलम् । रागद्वेगविहोनं तं पुष्पदन्तं नमाम्याम् ॥१॥ तन्मनोनिग्रहेणैव ध्यानाध्ययनसिद्धयः । पंचाक्षजपपूर्व ताः सिद्धयन्ति शिवदाः पराः ॥२॥ यदा यदो मुनेश्चितं स्वशं यात्यसंशयम् । तदा तदा मुनेयानं भवेदृढतरं शुभम् ॥शा एकमेव मनो यस्य स्वशं यात्यसंशयम् । तस्यैव निश्चलं ध्यानमनायासेन जायते ॥४॥ मनोरोधादवद्धयानं मनोरोधाच संचमः । मनोरोधारक्षयेत्यापं मनो रुध्यात्पुनः पुनः ||५|| तद्धयानं संव सिद्धिः सा स्थिरता सैक तस्वतः । येनाविद्या परित्यज्य मनस्तत्त्वे स्थिरोभवेत् ॥६॥ मनःस्थैर्य विधातव्यं ध्याने तन्नुख्यसाधकम् । तस्मिन् स्थिरीकृढे साक्षात् ध्यानासाद्धर्भवेस्परा ॥७॥ सुद्धा ध्यानसम्पत्तिः कर्मसंतानरोधिका । मनोरोधेन
जिन्होंने निर्मल ध्यान धारणकर अपने मनको वशमें कर लिया है और जो रागद्वेषसे रहित हैं, ऐसे | भगवान पुष्पदन्तको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ सर्वोत्कृष्ट और मोक्षको देनेगली ध्यान अध्ययन की सिद्धियाँ | इंद्रियोंको जीतने और मनको निग्रह करनेसे सिद्ध होती है ||२|| मुनियोंका हृदय जैसे जैसे अपने | वशमें होता जाता है, वैसे ही वैसे उन मुनियों का ध्यान विना किसी संदेह के अत्यन्त दृढ़ और शुभ होता जाता है |
॥३॥ जिस मुनिका एक मनही अपने वशमें हो जाता है, उसी मुनि के बिना संदेहके और विना किसी प्रश्न के 15 निश्चल ध्यान हो जाता है ।।।। मनको वशमें करनेसे ही ध्यान होता है, मनको वामें करनेसे ही संयम होता है और मनको वशमें करनेसे हीपापोंका क्षय होता है। इसलिये इस मनको बार पार वशमें करना चाहिये ।।५।। वास्तवमें ध्यान वही है, सिद्धि वही है और स्थिरता वही है कि जिनसे यह मन अविद्याका त्यागकर तत्चोंमें स्थिर हो जाय ॥६॥ ध्यान करनेवालेको सबसे पहिले अपना मन स्थिर करना चाहिये । क्योंकि मनमा स्थिर करना ध्यानमें मुख्य साधक है। मनके स्थिर हो जानेपर सर्वोत्कृष्ट ध्यान की सिद्धि प्रत्यक्ष हो जाती है । ७१ कर्म की
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केन विश्वसिद्धिः प्रजायते ||८|| मनःसंरोधनेनैव परा शुद्धिः प्रजायते । शरीरेन्द्रियशुद्धिस्तु तेनैव च स्वयं भवेत् ||६|| एकैव सा मनःशुद्धिरलं ध्यानादिकर्मसु । यया च प्राप्यते सिद्धिरन्तस्तत्त्वस्य देहिनाम् ||१०|| चित्तशुद्धिः स्थिरीभूता यस्य साधोनिरन्तरा । मनोरथांस्तु सर्वान् स ध्यानेन लभते ध्रुवम् ॥ ११३ ॥ श्रादी कृत्वा मनःशुद्धिं पश्चाद्वयानं समाचरेत् । मनः शुद्धि दिना ध्यानं न भूतो न भविष्यति ||१२|| मनःशुद्धिमकृत्वा यः गंगादौ हि पुनः पुनः । करोति देशुद्धि वा संसाराब्धौ स मज्जति ॥ १३ ॥ मनो रुद्धं न येनात्र ध्यानं सोत्र करोति किम् । मनोरोधबजेनैव तद्ध्यानं स्यात्स्वत. स्वयम् ||१४|| चित्तशुद्धिमनासाध्य ध्यानं कर्तुं य इच्छति । बालुकापीडनं कृत्वा तैलमिच्छति मूढचो. १११५॥ कोटिजन्मान्तरे यद्धि पापं क्षिपति वृत्ततः । स्वल्पेन समयेनात्र क्षिपने चित्तरोधतः ॥ १६॥ पापास्रवं हि संहृद्धय चित्तशुद्धमा
परंपराको रोकनेवाली अत्यन्त दृढ़ ध्यानरूपी संपत्ति एक मनको वश करनेसे ही होती है। तथा इसी मनको करने से समस्त सिद्धियां सिद्ध हो जाती हैं ||८|| मनको वश करनेते आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धि हो जाती है और शरीर तथा इंद्रियोंकी शुद्ध भी मनको वश करनेसे स्वयं हो जाती है ||९|| यह एक मनकी शुद्धि ही ध्यानादिक कार्योंके लिये मुख्य साधन है, इसी मनकी शुद्धिसे प्राणियों के अंतरात्मा की सिद्धि होजाती है ||१०|| जिस साधुके मनकी शुद्धि निरंतर स्थिर रहती है, उसके समस्त मनोरथ एक ध्यान से ही सिद्ध हो जाते हैं ॥ १९ ॥ साधुको नबसे पहिले मनकी शुद्धि करनी चाहिये और फिर ध्यान करना चाहिये । क्योंकि मनकी शुद्धि विना ध्यान न कभी हुआ है और न कभी होगा ॥ १२ ॥ जो पुरुष मन की शुद्धि किये बिना गङ्गा आदि नदियोंमें शरीरशुद्धि करते हैं, वे संसाररूपी समुद्र में अवश्य डूबते हैं || १३ || जिसने अपने मनको
में नहीं किया है, वह इस संसारमें ध्यान ही क्यों करता है? क्योंकि मनको वशकर लेनेसे वह ध्यान अपने आप हो जाता है | १४ || जो मनुष्य मनको शुद्ध किये बिना ध्यान करने की इच्छा करता है, वह मूर्ख बालूको पेलकर तेल निकालना चाहता है ||१५|| जो पाप करोड़ों जन्मोंमें चारित्र धारण करनेसे नष्ट होता है, वह पाप मनको वश में कर लेनेसे थोड़े ही समय में नष्ट हो जाता है || १६ || निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाले और मोक्ष की इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको अपना मन शुद्धकर पापके आवको रोकना चाहिये और ध्यान
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प्रसन्नधीः। ध्यानाध्ययनकर्माणि सभ्यसेत्सन्मुमुक्षुकः ॥१७॥ मोहमायादिसलीन विषयादिषु रंजितम् । मनः संसध्य तत्वेषु स्वाध्याय वा नियोजयेत् ॥१८॥ स्खध्यायतत्परो नित्यं यमनियमधारकः । विना क्लेशेन साधुः स करोति ववश मनः ॥१॥ स्वाध्यायभावनायैश्च स्वमनः स्ववशं नयेत् । तद्वशीकरण मंत्रं स्वाध्याय एव निश्चितम् २०|| स्वाध्यायादेव चित्तस्य स्थिरता सुतरां भवेत । तस्माच मुनिभिः प्रोक्तं न न्वाध्यायात्परं तपः ॥२२॥ स्वतंत्रचारिणी तीत्र गतिः चित्तस्य चम्चला | स्वाध्यायेनैव भव्यैः सा सल्यते नात्र संशयः ॥२२॥ स्वाध्यायेन ततः साधुर्मनो हि स्ववशं मयेत् । नान्यः कश्चिदुपायोस्ति मनःसंरोधकारकः ॥२३॥ येषां तु चञ्चलं चित्तं वशं नायाति यत्नतः । स्वाभ्या. येनैव तेषां तु तद्वशं यात्यसंशयम् ॥२४॥ श्रीमजिनेन्द्रदेवश्च मनःसंरोधहेतवे । एक एव उपायः स स्वाध्यायः कथितो. ऽथवा १२था अतिचपजसुचित्तं ध्यानविन करोति , ह्यनदरतसुतीनां पापकक्षां तनोति । रचयतु शुभभावाचित
अध्ययन आदि कार्योंका अभ्यास करना चाहिये ॥१७॥ यह मन मोह का माया आदिमें लीन हो रहा है, तथा विषयों में तल्लीन हो रहा है, ऐसे इस मनको रोककर तत्वोंमें लगाना चाहिये अथवा खाध्यायमें लगाना चाहिये ॥१८॥ जो साधु स्वाध्यायमें सदा लीन रहता है और यम नियमोंको धारण करता है, वह विना किसी क्लेशके मनको वशमें कर लेता है ।।१९।। भव्य जीवोंको स्वाध्यायकी भावनासे ही अपने मनको वशमें करना चाहिये, क्योंकि मनको वशमें करनेके लिये यह स्वाध्याय ही सुनिश्चित मंत्र है ॥२०॥ यह मन स्वाध्यायमें | अपने आप स्थिर हो जाता है । इसीलिये "खाध्यायसे बड़कर अन्य कोई तप नहीं है" इस प्रकार अनेक मुनियोंने उपदेश दिया है ॥२१॥ इन मनकी गति स्वतंत्र है, तीव्र है और चश्चल है ! ऐसे इस मनकी | गतिको भव्य जीव स्वाध्यायसे ही रोकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ॥२२॥ इसलिये साधुओंको स्वाध्यायसे ही अपना मन वश करना चाहिये । इसके सिवाय मनको रोकनेवाला अन्य कोई उपाय नहीं है ॥२३॥ जिनका चञ्चल चित्त किसी भी यत्नसे वश नहीं होता है, वह स्वाध्यायसे ही वश हो जाता है, इसमें कोई | संदेह नहीं है ॥२४॥ अथवा यो ममझना चाहिये कि भगवान जिनेन्द्रदेवने मनको रोकनेके लिये एक | स्वाध्याय ही सबसे अच्छा उपाय बतलाया है ॥२५|| अत्यन्त चञ्चल हुआ यह चिच ध्यानमें विघ्न करता है
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SEARIES
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संरोधकं वा । इह भवति सुधर्मा शास्त्रसंलीनचित्तः ||२६||
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे मनोवशीकरण प्ररूपखो नाम दशमोऽधिकारः ॥
और निरंतर तीव्र पाप उत्पन्न करता रहता है, इसलिये भव्य जीवोंको शुभभावोंसे वित्तको वश में कर लेना चाहिये, जिससे कि शास्त्रों में चित्तको लगानेवाला श्रेष्ठधर्म प्राप्त हो ||२६||
इसप्रकार मुनिराज श्री सुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में मनको वश करनेका उपदेश देने वाला यह दशयां अधिकार समाप्त हुआ ।
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एकादशोऽधिकारः।
8.प्र०
मा
॥
१॥
सदाचारप्रणेतारं तपासमितिपालकम् । भावभक्त्या हई बन्दे शीतलं तंजिनेश्वरम् ॥१॥ समित्यादिधरो धीरस्तपश्चरणतत्परः । करोति मुनिनाथोऽसौ कर्माद्रिचूर्णनं ननु || पंचमहानताना हि न स्यात्सम्यक प्रपालनम् । समित्यादेविना स्वापि न भूतो न भवष्यति ॥३॥ तस्मात्तेषां स्वरूपोऽत्र संक्षेपारयते मया । आगमेभ्यो विशेषं तत् ज्ञातव्य मुनिसत्तमैः र्याभाषणादाननिक्षेपोत्सर्गसक्रियाः । पंच समितयः प्रोक्ता जिनागमे जिनेश्वरैः ॥३॥ जीवरक्षासुभावेन दया चित्तेन संयनी । दिवा सूर्योदये सम्यमार्जिते पथि सत्तमे ॥६॥ गमनं तीर्थयात्रार्थ वंदनार्थ शुरूनपि । करोति सृष्टिशुद्धया हि सेर्यासमितिरुच्यते ॥ सर्वजीवहित वाथ सर्वकल्याणकारकम् । हितं मित ___ जो सदाचारको निरूपण करनेवाले हैं और तप तथा समितियोंको पालन करनेवाले हैं, ऐसे मपवान |
शीतलनाथको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥१॥ बो मुनिराज समितियोंका पालन करते हैं, धीरवीर हैं | और तपश्चरण करनेमें तत्पर हैं, वे ही मुनि कर्मरूपी पर्वतको चूर चूर कर डालते हैं ॥२॥ इन समितियोंको |
पालन किये तिना पांचों महावतोंका अच्छी तरह पालन न तो आज तक हुआ है और न कभी हो सकता | है ।।३।। इसलिये मैं अब उन समितियों का स्वरूप अत्यन्त संक्षेपसे कहता हूँ । मुनिराजोंको इनका विशेष | का स्वरूप आगमसे जान लेना चाहिये ॥४॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने जिनागममें "ईर्यासमिति, भाषासमिति |
एषणासमिति, आदाननिक्षेपणममिति और उत्सर्गसमिति" ये पांच समितियां बतलाई हैं ॥५|जो संयमी | जीवोंकी रक्षा करनेके भावसे अथवा दया धारणकर दिनमें सूर्योदय के बाद दले मले उत्तम मार्गमें नेत्रोंसे चार हाथ भूमिको शुद्ध करता हुआ तीर्थयात्राके लिये अथवा गुरुओंकी बन्दना करनेके लिये गमन करता है, | उसको ईर्यासमिति कहते हैं ॥६-७॥ जीवोंकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहनेवाला जो साधु सब जीवोंका
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मु.प्र०
॥१२॥
कर
वचो वक्ति जीवरक्षणतत्परः ॥८॥ कटुको कर्कशां भाषा व्रते नैव स संयमी । भाषा समितिरस्य स्यान्मनोजजय- | साधिका ll कुलजातिविशुद्ध हि सुश्रावकनिकेतने । केवल प्रसिद्धयर्थ मनोनिग्रहपूर्वकम् toll त्रिदोष निर्मुक्तं वा स्वोदेश्यविवर्जितम् । आहारग्रहणं शुद्धमेषणा समितिश्च सा ॥११॥ शास्त्र कएडलुश्चैव साधनं हि सुसंस्त| रम | दृष्टिपिच्छिकया पूतमाददेच न्यसेन्मुनिः ॥१२|| सर्वत्र जीवरक्षार्थं दयाभावेन संयमी। नि पादाननामा सा जिनैः समितिरुच्यते ॥१३॥ एकान्ते निर्जने स्थाने जीवजन्तुविवर्जिते । दृष्टि पिच्छिकया पूते मलमूत्र विसर्जयेत् ॥१४॥ जीवानां रक्षणार्थ हिक्ष्यार्थ वाथ संयमी । मनोक्षजयसिद्धयर्थ चोत्सर्गसमितिर्मता ॥१॥ भावशुद्धिकराः सम्पग्मनोक्षजयसाधिकाः । प्रतरक्षणसूर्याभाः पंच समितयो मताः ॥१६॥ दृश्यते मुनिमार्गोऽत्र दयायास्सुप्रदर्शकः । महाश्रेष्ठः समित्यादिभिश्च लोकोत्तरो ननु ॥१७|| षडावश्यककर्माणि कुर्वन् योगी समावृतः । मनोक्षविजयं कृत्वा सयानं हित करनेवाले और सबका कल्याण करनेवाले हितरूप और परिमित वचन को कहता है, तथा जो संयमी।
कर्कश भाषाको कभी नहीं बोलता, वह मन और इंद्रियों को जीतनेवाली भाषासमिति कहलाती है | ॥८-९।। जो मुनि विशुद्ध कुल और जातिको धारण करनेवाले श्रावकके घर जाकर केवल व्रतोंको पालन करनेकी इच्छासे मनको वशकर तथा बत्तीस दोष और उद्दिष्ट आहारको छोड़कर शुद्ध आहार ग्रहण करता है, उसको |
एषणासमिति कहते हैं ।।१०-११॥ जो मुनि सब जगह जीवोंकी रक्षा करनेके लिये वा दया धारणकर शास्त्र, | कमंडलु आदि उपकरणोंको वा संसारको नेत्रोंसे देखकर और पीछेसे शुद्धकर रखता है, वा उठाता है; उसको
आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं ॥१२-१३॥ जो संयमी मुनि जीवोंकी रक्षा करनेके लिये वा दयापालन करनेके लिये अथवा मन और इन्द्रियकी विजय प्राप्त करनेके लिये जीव जन्तुओंसे रहित एकांत निर्जन | स्थानमें नेत्रोंसे देखकर और पीछेसे शुद्धकर शुद्ध भूमिमें मलमूत्रका त्याग करता है; उसको उत्सर्गसमिति कहते हैं ॥१४-१५ ये पांचों समितियां भावोंको अच्छी तरह शुद्ध करनेवाली हैं, मन और इंद्रियोंको जीतने वाली हैं और व्रतोंकी रक्षा करनेके लिये सूर्यके समान हैं ॥१६॥ संसारमें यह मुनिमार्ग दयारूप धर्मको अच्छी तरह दिखलानेवाला है, महाश्रेष्ठ है और समिति आदिके द्वारा समस्त संसारमें भेष्ठ है ॥१७॥ जो योगी छहों आवश्यक कर्माको करता है, समता धारण करता है, तथा मन और इंद्रियोंको जीतता है। वह
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3.
प्र.
माटो
१३॥
लभते परम् ॥१८॥ तप इच्छानिरोधः स्यादिच्छात्र तु मनोभवा । तपश्चित्तस्य वश्यार्थं तपः स्याच निरीक्षकम् ॥१६॥ द्विषड्भेदं तपः ख्यातं बाह्याभ्यन्तरभेत्तः । तत्प्रत्येकस्य षड्भेदं वीतरागेण भाषितम् ॥२०॥ अनशनावमौदर्य वृत्तसंख्यारसोभनम् । विविकासनकायक्लेशौ वा याह्यतपांसि च २शा कृत्वा कालावधि चादी भावशुद्धिं विधाय च । वशीकृत्येन्द्रियं सम्यक कषायविषयं तथा ॥२२॥ त्रिधाथवा चतुर्धा हि यत्र मुक्तिविसर्जनम् । उपवासतपो ज्ञेयं नानाभेदैस्तु संयुतम् ॥२३।। एकस्मिन् दिवसे भुक्ती द्वे प्रोक्ते हि जिनागमे । एकमुक्तेः परित्याग: उपवासो मतो जिनैः ॥२४॥ एकमुक्तिं समारभ्य द्विचतुर्भुक्तिवर्जनम् । सपसोऽन्तर्गतं सर्व तस्य भेदा अनेकधा ॥२५॥ नीरसं भोजनं चाम्लं भोजनन्त्वेकवारकम् । एकभुक्त्यादयः सर्व तपोभेदा हि संति वे ॥२वा अष्टाविंशतिनारीणां द्वात्रिंशत्पुरुषस्य च । प्रासाः साधारणाः सन्ति नुत्तप्तिकारकाः सन्तु ॥२॥ सहस्रनीहिमानस्य चैको प्रासो विधीयते ।
अवश्य ही उत्तम ध्यान धारण करता है ॥१८॥ इच्छाका निरोध करना तप है तथा इच्छा मनसे उत्पन
होती है । जो इच्छाका अभाव है, वही तप है तथा तप मनको वश करनेके लिये किया जाता है ।।१९।। & उस तपके बाह्य और आभ्यंतरके भेदसे दो भेद हैं, उनमें भी प्रत्येकके छह छह मेद हैं, ऐसा भगवान
वीतराग देवने कहा है ॥२०॥ "अनशन, अवमौदर्य, वृप्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विरिक्त शय्यासन और कायक्लेश" यह छह प्रकारका बाह्य तप कहलाता है ॥२१|भावोंको शुद्धकर इंद्रियोंको वशकर और कषायविषयोंको अच्छी तरह जीतकर किसी कालकी मर्यादा तक तीन अथवा चार प्रकारके आहारका त्यागकर देना उपवास कहलाता है । इस उपवासके अनेक भेद हैं ॥२२-२३।। जिनागममें एक दिनमें दो बार भोजन बतलाया है, उसमें से एक बारके भोजनका त्याग कर देना भगवान जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपवास कहलाता है ॥२४॥ एक बारके मोजनको लेकर दो बार वा चार बारके भोजनका त्याग आदि करना | सब तपश्चरणमें ही अन्तर्गत है, इस प्रकार इस तपश्चरणके बहुतसे भेद हो जाते हैं ॥२५॥ नीरस मोजन करना, आचाम्ल भोजन करना, एक बार भोजन करना वा एक भुक्ति करना आदि सब इस अनशन तपश्चरणके ही भेद हैं ॥२६॥ साधारण रीतिसे भूखको मिटानेवाले पुरुषके पसीस प्रास कहे जाते हैं और स्त्रीके अहाईस पास कहे जाते हैं ॥२७॥ एक हजार चावलोंका एक प्रास कहलाता है । अपनी भूखमेसे
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मु०प्र०
मार
१४॥
तदेकमासपश्चोनमवमौदर्यमत्र वा ॥२८॥ दिवसे चैकवारं यवमौदयं तपो मतम् । तत्र चेच्छा निरोधन्यातपो लक्षणतो मतम् ॥२६॥रध्यादिगृहभेदेन फलपुष्पादिनाथवा । भिक्षाया नियमं कृत्वा वृत्तः संख्याभिधीयते ॥३०॥ तवृत्तिपरिसंख्यानं तपः स्यात्सुखकरकम् । अनेन सपता शांप्रमक्षा वश्या भवन्ति च ॥३१॥ रताः पंचविधास्तेषु चैकादि
नम् । रसत्यागतपो ज्ञयमिन्द्रियनिग्रहक्षमम् ॥३२॥ निर्जने शुभदे स्थान प्रामादौ नगरे तथा । जिनचैत्यालये वासः शयनं क्रियते मुदा ॥३॥ शय्यासनं विविक्तं तत् सम्प्रोक्तं सुतपो मतम् । सर्वत्रेच्छानिरोधस्वात्तपा लहराता मतम् | ॥३४॥ अातापनसुयोगेन वाधाकाशादिना तथा । तजिनाज्ञाप्रमाणेन क्लेशो हि सह्यते मुदा ॥३५॥ शरीर कष्टदानेन सकष्टसहनेन वा । कायक्लेशतपस्तद्धि जिनदेवैः प्रमाणितम् ॥३६|| इच्छानिरोधतश्चात्र कायकलेशतपा मतम् । अन्तरंगतपो न स्यात्सुदाह्यतपसा विना ॥३७॥ तस्मादायतो मुख्यमादौ कार्य तदेव हि । मनावश्यं भवत्येव बाधे न तपसा एक ग्रास वा दो चार ग्रास कम आहार लेना अवमौदर्य तप कहलाता है ॥२८॥ दिनमें एक बार भोजन करना अत्रमौदर्य तप है । क्योंकि उसमें भी इच्छाका निरोध होता है और इच्छाका निरोध करना | ही नप है ॥२९॥ किसी गली वा घरोंका नियम लेकर वा पुष्प फल आदिके देखनेका नियम लेकर भिक्षाके | लिये निकलना वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप कहलाता है ॥३०॥ यह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप बहुत ही सुख देने | वाला है। इस वृत्तिसंख्यान नामके तपसे इंद्रियां शीघ्र ही वश हो जाती हैं ।।३१॥ पांच प्रकारके रसोंमेंसे किसी एक दो | | चार वा पांचों रसोंका त्याग करना इंद्रियों का निग्रह करनेवाला रसुपरित्याग नामका तप कहलाता है ॥३२॥ किसी | | निर्जन, शुद्ध गांव, नगर, चैत्यालय आदि स्थानों में प्रसन्न होकर निवास करना वा शयन करना विविक्त
शय्यासन नामका तप कहलाता है। इस दपमें भी इच्छाका निरोध होता है, इसलिये ही इसको तप कहते हैं । | ॥३३-३४॥ भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञानुसार आतापन योग धारणकर वा अभ्राकाश योग धारणकर क्लेश-सहन करना शरीरको कष्ट देना वा स्वयं कष्ट सहन करना कायक्लेश नामका तप कहलाता है, ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥३५.३६॥ कायक्लेश तपमें भी इच्छाका निरोध होता है, इसलिये इसको | तप कहते हैं । विना बाद्य तपके अन्तरंग तप कभी नहीं हो सकता ॥३७।। इसलिये इस मुख्य बाह्य तपको सबसे पहले धारण करना चाहिये । इस बाम तपसे यह मन अवश्य वश में हो जाता है ॥३८॥ मन वशमें होनेसे
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ननु ॥३८॥ मनावश्येऽतविजयः सुतरां जायते ननु । तस्मान्मनक्षवश्याथै तपो हि मुख्यकारणम् ॥३॥ इण्यानिरोधतः सम्यक मोक्षवश्यता भवेत् । अद्धाभक्तिभरेणापि तो बाह्य समुच्यताम् ॥४॥ प्रायश्चिताचादिभेदेन तपश्चाभ्यन्तरं मतम् । कर्मविच्छेदकं तत्तु स्वात्मधर्मप्रकाशकम् नशा प्राप्तदोषसुशुद्धयर्थं सुनते स्थापनाय वा । प्रायश्चिचं विदभ्याच दोषोपशमनाय वै ॥४|| मुनीनां च मनःशुद्धिः प्रायश्चित्तेन जायते । प्रायश्चित्ततपस्तस्मादन्तरंगतपो मतम् ॥४३॥ मावशुद्धिश्च चारित्रशुद्धिरास्मगुणस्य च । प्रायश्चित्तं ततो मुख्यं तपःशुद्धिविधायकम् ॥४४॥ देवशास्त्रगुरूणां च रत्नत्रयसुधारणम् । धर्मवत्सजनानां वा धर्मरत्नत्रयस्य च ॥४श्रीजिनचैत्यकोल्यालयानां श्रीशासनस्य च । विनयो भावभक्त्या हि क्रियते मुनिमत्तमैः ॥४६॥ तेषां हि गुणसिद्धयर्थं प्रभावनाप्तये तथा । विनयाख्यौं तपः प्रोक्त तद्धि श्रीमज्जिनेश्वरी ॥४ा पूज्यानां विनयेनात्र | गुणास्तेषां भवन्ति च । विनयात्स्वमुमोको गुणप्राप्तिश्च जायते ॥४८॥ घालवृद्धमुनीनां च रोगादिपीडितात्मनाम् ।
ASHARANASRHANGYAN
| इन्द्रियोंका विजय अपने आप हो जाता है । इसलिये कहना चाहिये कि मन और इंद्रियों को वश करनेके लिये * | तप ही मुख्य कारण है ॥३९॥ इच्छाका निरोध करनेसे मन और इंद्रियां अच्छी तरह वश हो जाती है, है। इसलिये बाह्य तपश्चरण श्रद्धा और भक्तिपूर्वक धारण करना चाहिये ॥४०॥ आभ्यन्तर तपश्चरणके प्रायश्चिन | 5 है आदि अनेक भेद हैं, यह आभ्यंतर तपश्चरण कर्मों को नाश करनेवाला है और आत्माके धर्मको प्रकाशित करने ||
| वाला है ॥४१॥ लगे हुये दोषोंको शुद्ध करने के लिये अथवा व्रतोंमें दृढ़ता धारण करनेके लिये और दोषीको F| शांत करनेके लिये प्रायश्चित्त तपश्चरण धारण करना चाहिये ।।४२॥ इस प्रापश्चित्तसे मुनियों के मनकी शुद्धि | होती है. इसीलिये यह प्रायश्चित्त अन्तरंग तप कहलाता है ॥४३॥ यह प्रायश्चित्त भावोंकी शुद्धि करता है,
चारित्रको शुद्ध करता है और आत्माके गुणों को शुद्ध करता है; इसीलिये यह प्रायश्चित्त मुख्य नप माना | जाता है ॥४४|| श्रेष्ठ मुनियों को भाव और भक्तिपूर्वक देव शाम्ब गुरुओंका, रत्नत्रय धारण करनेवालोंका, धार्मिक सजनोंका, धर्मका, रत्नत्रयका, चैत्य चैत्यालयोंका और जिनशासनका विनय सदा करते रहना चाहिये ।।४५-४६॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने देवादिकोंके गुणों की सिद्धि के लिये और प्रभावना करने के लिये विनय नामका तपश्चरण बतलाया है ।।४७॥ पूज्य पुरुषों का विनय करनेसे उनके गुण बढ़ते हैं, विनयसे |
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॥। ६६ ॥
おおおおおおお学学
तीर्थयात्रा विहारेण चात्यन्तखेदितात्मनाम् ॥४६॥ तेषामाहारसुक्षुषोपधित्रासादितः खलु । वैयावृत्यं सुभक्त्यैव विधातव्यं मुनीश्वरैः ॥५०॥ धर्मवत्सज्जनानां तु धर्मप्रीत्या सुभावतः । परस्परं विधातव्यं वैयावृत्त्यं मनोहरम् ||५१|| सन्मानाहारदानाय पत्रहादिविधानकैः । रथोत्सव प्रतिष्ठायां वैयावृत्यं विशेषतः ||५२ ॥ धर्मप्रभावनार्थं हि धवृद्ध गुरणाप्तये । वैयावृत्यं सदा कार्य सुनीयां तु विशेषतः ॥१५३॥ | वैयावृत्त्यस्य माहात्म्यं सम्यग्जानन्ति सार्थपाः । वैयावृत्येन चैकैन सानन्तश्रीः जायते ॥५५|| स्वाध्याय पंचधा ज्ञेयः वाचनादिप्रभेदतः । मनोतरोधतः हेताः स्वाध्यायां हि परं तपः ||२५|| स्वाध्यायाद्धि मनः साक्षात्सम्यग्ज्ञाने प्रवर्तते । स्वाध्यायाश्च भवेत्तस्मान्मनोज्ञनिप्रहे । महान् ||५६ || स्वाध्यायान्न परं श्रेष्ठमात्मबोधकरं परम् । मोहान्धचक्षुषं नृणां स्वाध्यायों दिव्यमौषधम् ||२७|| आत्मगुणोंका उत्कर्ष होता है और गुणोंकी प्राप्ति होती है ||४८|| जो मुनि बालक हैं, वा वृद्ध हैं, रोगसे पीड़ित हैं, तीर्थयात्रा विहारसे अत्यन्त खेदखिन्न हैं, ऐसे मुनियोंको आहार, औषधि, वसति आदिका दान देकर तथा उनकी सेवा-सुपाकर भक्तिपूर्वक मुनियों को वैयावृत्य करना चाहिये ||४९-५० ॥ मुनियों को धर्म धारणकर श्रेष्ठ भावसे धार्मिक सज्जनोंका वैयावृत्य करना चाहिये, तथा परस्पर भी वैयावृत्य करना चाहिये ॥ ५१ ॥ रथोत्सव के समय अथवा प्रतिष्ठा आदि कर्मोंके समय आदर सत्कारकर, आहारदान देकर, तथा और भी उपकारकर विशेष वैयावृत्य करना चाहिये ॥ ५२ ॥ धर्मकी प्रभावना करनेके लिये धर्मकी वृद्धि के लिये और गुणोंको प्राप्त करनेके लिये मुनियोंका विशेष रीति से सदा वैयावृत्य करते रहना चाहिये ||३|| इस वेावृत्य के माहात्म्यको तीर्थंकर ही अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि इस एक ही वैयावृत्य से अनंत चतुष्ट्यरूप लक्ष्मी उत्पन्न होती है ॥५४॥ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेदसे स्वाध्याय के पांच भेद हैं, इस स्वाध्यायमें भी मन और इंद्रियोंका निरोध होता है, इसलिये यह भी श्रेष्ठ तप कहलाता है ||२५|| स्वाध्याय से यह मन साक्षात् सम्पम्ज्ञानमें प्रवृत्त होता है। इसीलिये स्वाध्यायसे इंद्रिय और मनका निरोध माना जाता है ||५६|| स्वाध्यायसे बढ़कर आत्मज्ञान उत्पन्न करनेवाला अन्य कोई श्रेष्ठ नहीं है। जिनके ज्ञाननेत्र मोहरूपी अन्धकारसे मलिन हो रहे हैं, उनके लिये यह स्वाध्याय दिव्य औषध है
॥५७॥ यह स्वाध्याय मोहरूपी अन्धकारको नाश करनेके लिये श्रेष्ठ सूर्य है। इस स्वाध्यायसे ही लोक
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सु० प्र०
|| E ||
स्वध्यायो हि परं भानुमहान्तविनाशकः । जायते स्वात्मविज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् ॥५८॥ स्वाध्यायतपसा नूनं कर्मप्रथिः प्रभिद्यते । आत्मा शीघ्रं शिवं याति कर्मकाष्ठविभेदनात् ॥५६॥ अन्यचिन्तां निराकृत्यैकामयोगेन चिन्तनम् । ध्येयस्य स ध्यानं चतुर्धा वर्णित जिनैः ॥ ६०॥ सर्वसंगपरित्यागान्नित्सङ्गत्वं प्रपगते । ममत्वमोहभावस्य यत्र त्यागां विधीयते ||६१|| तद्व्युत्सर्गतपो ज्ञेयमाकिंचन्यप्रदर्शकम् । शरीरे नित्यं वा परवस्तुसुदूरम् ॥६॥ नी द्वादशभेदं तत्संक्षेपेणैव वखितम्। तपो वर्णयितुं नेत्र राकोहमल्पबोधतः ॥ ६३॥ तपः शक्तिप्रमाणेन कर्तव्यं मोक्षकां क्षिभिः । तपःरुमं त्रिलोकेऽस्मिशान्यत्कर्मक्षयंकरम् ॥ ६४ ॥ तपसा भिद्यते कर्म यथा षत्र पर्वताः । तीर्थंकरैधृतं कर्माद्रि चूय स्वयं हि तत् ॥ ६५|| त्रिकाले च त्रिलोकेऽस्मिन न स्यान्मोक्षस्तयां विना | संसाराब्धेस्तुत नौका पारं संकुरुते
लोकको प्रकाशित करनेवाला आत्मज्ञान प्रगट होता है ।। ५८ ।। इस स्वाध्यायरूपी तपश्वरणसे कर्मोंकी गांठ शीघ्र ही खुल जाती है, तथा कर्मोंकी गांठ खुल जानेसे अर्थात् कर्मरूपी कलङ्कके नाश हो जानेसे यह आत्मा शीघ्र ही मोक्षमें जा पहुँचता है ||५९ || अन्य समस्त चितवनको हटाकर किसी ध्येय पदार्थको एकाग्र चित्तसे चितवन करना ध्यान कहलाता है । यह ध्यान भगवान जिनेन्द्रदेवने चार प्रकारका बतलाया है ॥ ६० ॥ जब यह जीव समस्त परिग्रहोंको त्यागकर परिग्रहरहित अवस्थाको प्राप्त होता है तथा मोह और ममत्व भावोंका सर्वथा त्याग कर देता है, उसको व्युत्सर्ग नामका तप कहते हैं, यह व्युत्सर्ग तप आकिंचन्यको प्रकाशित करनेवाला है, शरीर से निस्पृहता दिखलानेवाला है और परवस्तुओंसे सर्वथा अलग है ।।६१-६२ ।। इस प्रकार इस बारह Area artist संक्षेपसे वर्णन किया है। में अल्पज्ञानी हूँ, इसलिये मैं तपश्वरक्षका वर्णन भी नहीं कर सकता ||६३|| मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको अपनी शक्तिके अनुसार तपश्चरण करना चाहिये । क्योंकि इस तपश्चरण के समान तीनों लोकोंमें कर्मोका नाश करनेवाला अन्य कोई नहीं है ||६४ || जिस प्रकार वज्रसे पर्वत चूर चूर हो जाते हैं, उसी प्रकार इस वपथरणसे कर्म भी चूर चूर हो जाते हैं । इन कर्मरूपी पर्वतों को चूर चूर करने के लिये तीर्थंकर भी स्वयं इस तपश्चरणको धारण करते हैं ॥ ६५ ॥ तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें इस तपके बिना कभी मोक्ष नहीं हो सकता । यह तप इस संसाररूपी समुद्रसे नाव के समान अवश्य
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॥ ६८ ॥
ध्रुवम् ||६६|| तपसा स्वर्गसम्पत्तिस्तपसा चक्रिणः पदम् । सर्वद्धयः प्रजायन्ते तपसा च शिवो भवेत् ॥ ६७॥ दशधर्मेण सार्द्धं यस्तपश्चरति भावतः । कर्माद्रिभेदनं कृत्वा प्रयाति शिवमन्दिरम् ||६|| जिनवरशुभमार्गदीपिकाः शांतिरूपाः परमसमितयो मान्याः सदा तीर्थनार्थः । सकलभुवनमान्यं सतपो द्वादशात्म अवतु श्रवतुशीघ्र मां भषाद्वा सुधर्मः ॥६६॥ इति सुधर्म ध्यान दीपालंकार समितितपावननामैकादशोऽधिकारः ।
पार कर देने वाला है ॥६६॥ इस तपश्चरणसे स्वर्गकी संपदा प्राप्त होती है, तपसे ही चक्रवर्तीका पद प्राप्त होता है, तपसे ही समस्त ऋद्धियां प्राप्त होती हैं और तपसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ६७ ॥ जो पुरुष भावपूर्वक दश धर्मो के साथ साथ इस तपश्चरणको पालन करता है, वह कर्मरूपी पर्वतको नाशकर मोक्षमहल में अवश्य ही जा पहुँचता है ||६८॥ ये पांचों समतियां भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शुभ मार्गको दिखाने के लिये दीपक के समान हैं, अत्यन्त शांत रूप हैं और तीर्थकरोंके द्वारा सदा मान्य हैं। इसी प्रकार बारह प्रकारका तपश्चरण तीनों लोकोंमें मान्य है । इस प्रकार समिति और तपश्चरणरूप श्रेष्ठ धर्म इस
मासे शीघ्र ही मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो ||६९॥
इस प्रकार श्रीमुनिराज सुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में समिति और तपश्चरणको वर्णन करनेवाला यह ग्यारहवां अधिकार समाप्त हुआ ।
たびたび出す
मा०
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सु०प्र०
द्वादशोऽधिकारः।
जितमोह जितकाम कषायचक्रभेदकम् । वीतरागं च सर्वशं भीश्रेयांसं नमाम्यहम् ॥शा अनादितो हि जीवोयं कषायवशतो ननु । संसाराब्धौ त्रुडत्रास्ते नामाक्लेशं सहापि ॥२॥ कषायैरजिनोप्यात्मा कर्नास्रवति वारुणम् । तेन पंचपरावर्ते संसारे भ्रमति ध्रुवम् ॥३॥ कषायेन च यो दग्धः स दग्धः कर्मभिः सदा । स दग्धो नारकैर्दवै दारुणैरति| दुस्सहै: n४) कषायेनैव जम्भेते रागद्वेषौ भयानको। सुदृग्यातकरौ दीर्घसंसारस्य निबंधनौ ॥।॥ कषायेन करोत्यात्मा
घोरं घोरम नवम् । ताहुन मारणं चैव संयमस्वात्र का कथा ॥शा कषायो कमापनो हत्यात्मा चात्मना स्वयम् । | तेनैव बध्यते नित्यं कर्मणा धर्मवैरिणा || मनागपि कपायारणामुदयः स्यात्मघातकः । हालाहलं विषं किंचिद्धनि।
| जिन्होंने मोहको जीत लिया है, काम को जीत लिया है और कपार्योंके समूहको जीत लिया है। ऐसे 18 ] वीतराग सर्वज्ञ भगवान् भेयांसनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ यह जीव कषायोंके वश होकर अनादि
कालसे संसाररूपी समुद्र में या हुआ अनेक प्रकारके कलेश सहन कर रहा है ।।२॥ जो आत्मा कषायोंसे | रंजित रहता है, वह अशुभ कर्मोंका आस्रव करता रहता है और उन अशुभ कर्मोंके उदयसे पंचपरावर्वनरूप संमारमें परिभ्रमण किया करता है ॥३॥ जो जीव कषायोंसे दग्ध रहता है, वह सदा कोंसे भी दग्ध रहता है
और अत्यन्त असह्य नरकों के दारुण दुःखोंसे भी सदा दग्य रहता है ॥४॥ इन कपार्योसे ही दीर्घ संसारको | बढ़ानेवाले और सम्यग्दर्शनका घात करनेवाले भयानक राग-द्वेप बढ़ते हैं ॥५॥ इन कषायोंके निमित्तसे यह HE आत्मा नये नये घोर पापोंको करता है, तथा ताडन मारण करता है । ऐसी हालत मला संयम धारण कैसे हो
| सकता है ? ॥६॥ इन कषायोंके उद्रेकको प्राप्त हुआ आत्मा अपने द्वारा अपने ही आत्माका घात करता है और
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म०प्र०
किन मुखे गतम् ।।३। कषायाक्रान्तजीवानां दुष्टक्रोधादिकात्मनाम् । न कापि संयमस्तेषां न ध्यानाध्ययनं तपः ॥६॥ कषायवशगो जीवः संयम इति पापतः । संयमस्य विनाशेन स्यादनर्थपरंपरा ॥१०॥ अनादिकालसंभूनः कपायैस्तय चेतना । दग्धात्मन् किं तदा स्यादा ध्यानं शुद्ध च संयमम् ॥१।। कषाववशतो नूनं पातोऽधोऽधो भवे भवे । जन्ममृत्युभयक्लेशसंतापाश्च निरन्तरम् ॥१२|| वरं हालाहलपानमेकजन्मत्रिधातकम् । नैवोकः कषायाणामनेक जन्मघातकः ।।१३।। कषायस्योदयेनैव मनस्तापः प्रजायते । इन्द्रिया विकारोऽत्र शरीरस्य च कंपनम् ॥१४॥ इति योगत्रयस्यापि चांचल्यं स्याच तीव्रकम् । तेन शीघ्र दयाधर्मो नश्यत्येव न संशयः ॥११॥ कपायेन पिता पुर्व पुत्रश्च पितरं नथा। हन्ति तस्मात्कषायाणामुदये की विचारकः ॥१॥ सर्वसंगं परित्यज्य कृत्वा च परमं तपः । स्यात्कषायोदयस्तत्र सर्वमेत.
| फिर उसी पापसे धर्मको घात करनेवाले कोंक द्वारा बंध करता रहता है ॥७॥ कपायोंका थोडासा भी उदय |
आत्मघात करनेवाला है, सो ठीक ही है क्योंकि मुखमें प्राप्त हुआ हलाहल विष क्या आत्मघात नहीं कर सकता है | | अवश्य करता है ॥८॥ दुष्ट क्रोधादिक कषायोंके वशीभून हुए जीवोंके थ्यान, अध्ययन, तप और संवम आदि | कभी नहीं हो सकते ॥९॥ कषायोंके वशीभूत हुआ यह आत्मा पापके कारण अपने संवमका नाश कर देता है | और संयमका नाश होनेसे अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं ॥१०॥ हे आत्मन् ! अनादि कालसे उत्पन्न हुए | अपने कषायोंसे तूने अपनी शुद्ध वेतनाका नाश कर दिया है। फिर भला तुझे शुद्ध ध्यान और शुद्ध संयम |
कैसे हो सकता है ? ॥११॥ इन कषायोंके निमितसे इस जीवका भव भत्रमें नीचे नीचे पतन होता जाता है तथा ail जन्म-मरण, भय-क्लेश और संताप आदि निरंतर होते रहते हैं ॥१२॥ एक जन्मका घात करनेवाला इलाहल
विषका पी लेना अच्छा है, परंतु अनेक जन्मों तक घात करनेवाले कपार्योंका उद्रेक होना अच्छा नहीं है ।।१३॥ कषायोंके उदयसे ही मनको संताप होता है, इन्द्रियोंमें विकार होता है और शरीर कंपने लगता है ।।१४। इम | प्रकार कषायके निमित्तसे मन वचन काय तीनोंमें तीव्र चञ्चलता हो जाती है तथा योगोंके चञ्चल होनेसे दया धर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।।१५।। कषायके उदयने पिता पुत्रको मार डालता है |
और पुत्र पिताको मार डालता है। कषायोंके उदय होनेपर कोई भी श्रेष्ठ विचार नहीं कर सकता ॥१६॥ Fel समस्त परिग्रहोंका त्यागकर श्रेष्ठ तपश्चरण करते हुए यदि कषायोंका उदय हो जाय तो फिर समस्त तपश्चरण
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निरर्थकम् ॥१७॥ देवयोगात्कथंचिस्यात्सलभ व्रतधारणम् । कषायादिनृशंसेभ्यो रक्षणं दुलभं मतम् ॥१८॥ कपायसु०प्र०
बैरिसंपाते सर्वकषेतिदुःखदे । यध्यानं जपस्तपांवृत्तं सर्वचस्यानिरर्थकम् ॥१धाअत एव हि योगीन्द्राः सुखाध्यायामृतेन वा।
कषायस्योदयं हत्वा ध्यायन्ति स्वं च सुस्थिरम् ॥२०॥ अक्षीद्रको मनस्वापः कपायस्योदयस्तथा । स्वाध्यायेनैव चैकन ॥१०१॥
शाम्यन्त्येते यतः स्वयम् ॥शा कषायशमनार्थ हि स्वाध्यायः परमौषधम् । स्वाध्यायस्य प्रभावेण सर्व शाम्यति निश्चितम् ॥२२॥ कषायविपशान्त्यर्थं स्वाध्यायो दिव्यमन्त्रकम् । तत्क्षणं येन शीघ्र हि शान्तिः स्यात्सर्वहर्षदा ॥२३|| कषायाग्निप्रभावेण दह्यमानं व्रता दकम् । स्वाध्यायमैत्रधाराभिस्तत्क्षणेऽङ्करितं भवेत् ॥२४॥ यदा यदा कायाग्नि दहति स्त्रात्ममन्दिरे । तपोध्यानं तदारमन त्वं स्वाध्यायात शामय परम् ॥२४॥ रत्नत्रयतपोभ्यानसंचमादीनि रत्क्षणान् । निर्दयों दहति क्रोधः स्वपरं च ततस्ततः ।।२६।। क्रोधस्य न विवेकोस्ति विचारापि न वा क्वचिन् । यस्मात्त्वस्वामिनं
निरर्थक ही समझना चाहिये ।।१७॥ श्यपोकसेवामा पार करना सरल है, परंतु मनुष्योंकी हत्या करनेवाले । | रूपायोंसे आत्माकी रक्षा करना अत्यन्त कठिन है।॥१८॥ इन कषाघरबप शत्रुओंका उदय सबको दुःख देनेवाला | है और सबको पीडा पहुँचानेवाला है, इन कपायोंके होनेसे ध्यान जप तप चारित्र आदि सब निरर्थक हो जाते | हैं ॥१९॥ इसलिये मुनिराज अपने स्वाध्यायरूपी अमृतले कपायोंका नाश कर देते हैं और अपने आत्माका | ध्यान करते हैं ॥२०॥ इंद्रियोंका उद्रेक, मनका संताप और कषायोंका उदप एक स्वाध्यायसे ही अपने आप शांत हो जाते हैं ॥२१।। कषायों को शांत करनेके लिये स्वाध्याय परम औषधि है, इस स्वाध्यायके प्रभाव से सब शांत हो जाते हैं ॥२२।। कषायरूपी विपको शांत करने के लिये स्वाध्याय परम दिव्य मन्त्र है। इस स्वाध्यायसे उसी क्षणमें लवको प्रसन्न करनेवाली शांति शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ॥२३॥ कषायरूपी अनिके प्रभावसे जले हुए व्रतादिक स्वाध्यायरूपी मेघ की धारासे उसी क्षणमें पुनः अङ्कुरित हो जाते हैं ।।२४॥ हे आत्मन् ! तेरे आत्मरूप महलमें जब २ कपाथरूपी अग्नि जल उठे, तभी तू तप और ध्यानको स्वाध्यायसे शांत कर
२५॥ यह क्रोध-कषाय रत्नत्रय, तप, ध्यान और संयम आदिको निर्दय होकर जला देता है तथा अपने
आत्माको भी जला देता है ॥२६॥ क्रोधमें न विवेक रहता है, न विनार रहता है । यह क्रोध पहले अपने hell स्वामी आत्माको जलाता है, फिर पीछे मरेको मारता है ॥२७॥ यह क्रोधरूपी प्रचण्ड अग्नि क्षमासे
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मा०
सु०प्र० 1१०२॥
ह्यादौ पश्चादन्यं च इंति वा ॥२॥ प्रचण्डकोषवह्निहि ज्ञमया शाम्यति खयम् । बोधधाराप्रपातेन सणाच्छान्ति प्रयाति च ॥२८॥ लोकद्वयहितध्वंसी क्रोधः शीघ्र प्रशाम्यते । योगिभिः शान्तचेतोभिः क्षमाभावनया स्वयम् ।।२।। प्रशान्ते न्यायमार्गेस्मिन शुद्ध रत्नत्रयात्मनि । प्राप्तोई पुण्ययोगेन भवारण्ये भ्रम भ्रमन् ॥३०॥ यावत्क्रोधो दुराचारी रत्नत्रयमनर्यकम् । इत्वात्मानं भवागते न पातयति भीमके ॥३१।। तावत्क्षमामृतेनैव परां शान्ति लभामहे । विवेकबोधवाौँ किं करिष्यति क्रुधानलः ॥३२॥ अनादिकालतोऽनेन क्रोधेन धर्मवैरिणा । पातयिरवा भवागर्ने पीडितोई पुनः पुनः ॥३३|| अधुना पुण्यवोगेन लब्धो धर्मो जिनोदितः। तत्रापीयं सुदीक्षा वा लब्धा दैगम्बरो मया ॥३४॥ तमामृतं शुभ पीतं क्रोधो मे किं करिष्यति । इति भावनया धीरः क्रोधं मुञ्चेत् सुबोधतः ॥३॥ अनन्तानन्तसंसारे
भ्राम्यमाणो जनोऽनिशम् । को वा कस्य न बंधुश्च न भूनोऽनेकशः सदा ॥३६|| साम्यबुद्धिगतानां च सुरशा तत्त्व. | स्वयं शांत हो जाती है, तथा सम्यग्ज्ञानकी धाराके पड़नेसे भी क्षणभरमें शांत हो जाती है ॥२८|| शांत | | हृदयको धारण करनेवाले योगी लोग अपने थमारूप परिणामोंसे दोनों लोकोंके हितको नाश करनेवाले | इस क्रोधको शीघ्र ही शांत कर देते हैं ।।२९।। यह रत्नत्रयरूप न्यायमार्ग अत्यन्त शुद्ध है और 2 | प्रशांत है, संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करता हुआ मैं किसी पुण्य कर्मके उदयसे ही प्राप्त हुआ हूँ ॥३०॥ इसलिये यह दुराचारी क्रोध जबतक बहुमूल्य रत्नत्रयको नाशकर आत्माको संसाररूपी भयंकर गढमें नहीं पटक देता है, तबतक मुझे क्षमारूपी अमृतके द्वास श्रेष्ठ शांति प्राप्त कर लेनी चाहिये। क्योंकि यह क्रोध- | रूपी अग्नि विवेक और ज्ञानरूपी समुद्र में क्या कर सकती है ? ॥३१-३२॥ धर्मको नाश करनेवाला यह क्रोध | अनादिकालसे मुझे संसाररूपी पड़े गठेमें डाल रखा है और बार बार मुझे दुःख दे रहा है ॥३३॥ अब पुण्यकर्म के उदयसे मैंने भगवान जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ धर्म धारण किया है और फिर दिगम्बरी दीक्षा धारणकी है। अब मैंने क्षमारूप अमृतका पान किया है, अब क्रोध मेरा क्या कर सकता है। इस प्रकारकी भावना धारण कर धीर वीर पुरुषको अपने सम्यग्ज्ञानके द्वारा क्रोधका त्याग कर देना चाहिये ॥३४-३५॥ इस अनन्तानन्त संसारमें सदासे परिभ्रमण करता हुआ यह जीव अनेक बार कौन किसका भाई नहीं हुआ है ? ॥३६॥ नो तत्वोंको जाननेवाले और समता वृद्धिको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव हैं, उनके लिये इस संसारमें समस्त
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। १०३।।
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वेदिनाम् । सर्वे जीवा हि सन्तीह पात्मतुल्याश्य बान्धवाः ॥३॥ न कोपि कस्यचिन्मित्रं न वैरी न च दुस्खदः । बांधवाः बारया सर्वे भवन्त्येते स्वकर्मणा ॥३॥ योऽधुना हन्ति मां कोपास मया प्राग्भवे हतः । तस्मादस्यापराधो न चैषं को वशं नयेत् ॥३॥ तथापि कुरुते मो हि स्वस्थं कृतापराधकम् । भवान्तरमबद्धन दुष्टारमना कुकर्मणा ॥४०॥ प्राग्भवे यत्कृतं कर्म तन्मया भुज्यतेऽधुना 1 कोपस्य सत्र का वार्ता कोपेन किं प्रयोजनम् ॥४१॥ कदाचित्कोपि कोपेन मा इन्ति कर्मपाकतः। धर्मों में न हतोऽनेन रक्षामि क्षमया हि सम् ॥४२॥ पण्डकोपानलाकछीनं मां क्षमा रचति स्वयम् । बोधाम्बुदस्य धाराभिः परां शांति प्रदास्यति ।।४॥ संसारे दुर्लभो बोधः शमता दुर्लभा ततः । ज्ञमातिदुर्लमा तत्र यया क्रोधोपि शाम्यति ॥४॥ हन्तुकामैर्य दुष्टेर्विकारं नाप्यते मनः। योगिनां सा क्षमा श्लाच्या इन्द्रनागेन्द्र वंदिता | उपसर्गशतैस्तेषां परीषहभटैः शतैः । क्षमाभृतस्य पानेन विकार याति नो मनः ॥४६॥ एका जीव उनके आत्माके ही समान भाई है ॥३७॥ इस संसारमें न तो कोई किसीका मित्र है, न कोई किसीका दुःख देनेवाला शत्रु है, शत्रु और मित्र सब अपने अपने कर्मके अनुसार होते हैं ॥३८॥ इस समय जो हो । कोषपूर्वक मारता है, उसे मैंने पहले किसी भवमें अवश्य मारा होगा। इसलिये इस समय इसका कोई अपराध नहीं है । इस प्रकार विधारकर अपने क्रोधको शांत करना चाहिये ।।३९॥ मैंने परभवमें दुष्ट अशुभ कर्मोको | बांधकर जो अपराध किया था, उसके उदयसे मुझे मारकर यह मेरे अपराधको दूर कर रहा है । क्योंकि | पहले भवमें जो मैंने किया है, उसीको मैं भोग रहा हूँ। फिर उसमें कोध करनेकी क्या बात है और कोषसे । लाभ ही क्या है ? ॥४०-४१॥ कदाचित् कर्मके उदयसे कोई कोधकर मुझे मारता है, तो भी मेरे धर्मका | | पात तो नहीं करता । अब मैं क्षमा धारणकर अपने धर्मकी अवश्य रक्षा करूँगा ॥४२॥ यह क्षमा प्रचंड है कोधरूपी अम्निसे शीघ्र ही मेरी रक्षा करेगी और सम्यग्ज्ञानरूपी मेषधारासे उस कोधरूपी अग्निको परम # शांत कर देगी ॥४३॥ इस संसारमें सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है, उससे भी दुर्लभ शमता वा शांत परिणाम है और | उससे भी दुर्लभ क्षमा है । क्योंकि इस क्षमासे कोध भी शांत हो जाता है ॥४४॥ जब मारने की इच्छा | करनेवाले दृष्टोंसे मनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं हो सकता, वह इन्द्र नागेन्द्रके द्वारा चन्दनाय || | योगियोंकी क्षमा कहलाती है ॥४५॥ क्षमारूपी अमृतको पीकर उन योगियोंका मन सैकड़ों उपसोंसे तथा
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मु. १०
॥१०४॥
क्षमैव धन्या सा योगिर्ना ध्यानवेदिनाम । यया प्रशाम्यते शीघ्र क्रोधाग्निः धर्मदाइकः ॥४७॥ क्रोधिनो हि मुनेभक्ति धर्म-झोपि करोति न । समणेर्दन्दशकस्य प्रतीति कोपि याति न ||४|| कंधश्चेतिक सुयोगेन ध्यानेन, किं प्रयोजनम् । उपवासेन किं साध्यं वा दीक्षा ग्रहणेन किम् ॥४1 क्रोधिनो न विचारोस्ति हिताहितप्रदर्शकः । यस्मरक्रोधी नरस्तीन शीघ्र पापं करोति हि ॥५॥ कोधिनी न विजानन्ति देवं स्वगुरुमागमम् । क्रोधी किं न हि मालयं करोति नान्प्रति स्वयम ।।५१॥ ब्रूते किन्न नरः क्रोधी निन्दितं कटुकं वचः । गुरूणामपि निर्लजः क्रोधः किं करोति न ॥॥ वधबन्धादयः सर्वे सहसा यान्ति दुगुणाः । क्रोधाकिन्न प्रजायेत ताडन मारणादिकम् ॥५३।। धर्मस्थितस्य कोपोह क्रोधेन यदि निन्दनम् । करोति घोरपापं सः बुद्धिहीनोऽविचारका ॥५४॥ तस्मात्कोधः सदा त्याज्यो भव्येन धर्मदिना । क्रोधाद्भवेच्च संसारः क्षमया लभ्यते शिवम् ।।५३|| क्षमा दानं क्षमा धर्मः क्षमा वृत्तं क्षमा तपः। क्षमा है सैकड़ों परिपहरूपी योद्धाओंसे कभी विकारको प्राप्त नहीं होता है ॥४६॥ ध्यानको जाननेवाले योगियोंकी | एक क्षमा ही धन्य है, जिससे कि धर्मको जला देने वाली कोधरूपी अग्नि शी ही शांत हो जाती है ।.४७॥ धर्मात्मा पुरुष मी क्रोधी भुनिकी भक्ति कभी नहीं करता है, सो ठीक ही है, क्योंकि यदि सर्प मणिमाहित हो तो मी मला उसका कौन विश्वास करता है ? ॥४८॥ यदि लोध है तो फिर योग धारण करनेसे वा ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन है ? अथवा उपवास करने और दीक्षा ग्रहण करने से ही क्या प्रयोजन है ? ॥४९॥ क्रोध करनेवालेको हित अहित दिखलानेवाला कोई विचार नहीं रहता, क्योंकि कोधी मनुष्य बड़ी शीघतासे तीव पाप किया करता है ।॥५०॥ क्रोधी मनुष्य देव, शास्त्र और गुरुको भी नहीं मानता और उनके साथ सदा ईया | किया करता है ॥५१।। कोधी मनुष्य गुरुओंके लिये भी निर्लज्ज होकर निन्दनीय और कड़वे वचन कहा करता है, सो ठीक ही है; क्रोधी मनुष्य क्या क्या नहीं करता है ? ॥५२॥ इस क्रोधसे बध बंधन, ताडन-माग्न आदि सब दुर्गुण बहुत शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं सो भी ठीक ही है क्रोधसे क्या क्या नहीं होता है ? ॥५३॥ जो पुरुष क्रोध करके धर्मात्मा पुरुषोंकी निंदा करता है, वह बुद्धिहीन है, विचार रहित है और सदा घोर | पाप करता रहता है ॥५४॥ इसलिये धर्मको जाननेवाले भव्य जीवोंको क्रोधका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि क्रोधसे संसार होता है और क्षमासे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥५५॥ इस संसारमें क्षमा
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।। १०५ ।।
मोहमार्गोत्र क्षमा शान्तिः क्षमा सुखम् ||५६ || संसारे नाट्यरूपेऽस्मिशानायोनिसमाकुले। नृपो भूत्वा च विष्ठायां कृमि: स्यात्तत्व मानता ||२७|| दर्शनं स्वात्मलैजुष्षं धर्मः स्याथ तिरोहितः । अविनयो हि पूज्यानां मानेन सुबने ध्रुवम् ॥ १५८ ॥ मानिनो त्रिमुखाः सर्वे भवन्ति मित्रबांधवाः । मानिनं गुणयुक्त वा सन्मानयति कोपिन ४६॥ गुणागारे गुरौ पूज्ये व स्वमानवः । स दीनतामवाप्नोति भवगर्ते पुनः पुनः || ६ || धर्मस्थितस्य मानेन याज्ञां करोति यः । स्वधर्मस्यैव सोऽवशां हा करोति हि मूढधीः ||६१ || प्राणकण्ठगतेनापि मानेन त्वं कदापि वा । धार्मिकाणामवज्ञां हि मा कार्षीः धर्मप्रातिकाम् ||६२ || धार्मिकारणां च यो मानी हीनं मत्वा करोति वा । श्रवज्ञामपमानं स धर्म वेत्ति न स्वतः || ६३ || जैनधर्मानभिज्ञोऽसौ वाऽविवेकेन वंचितः । संमज्जति भवान्धौ स चिरं पापी कुकर्मणा ॥ ६४ ॥
ही धर्म है, क्षमा ही धर्म है, क्षमा ही चारित्र हैं, क्षमा ही तप है, क्षमा ही मोक्षमार्ग है, क्षमा ही शांति है और सुख है ||५६ | | अनेक योनियोंसे भरे हुए इस नाटकशाला रूप संसारमें यह जीत्र राजा होता है और फिर विष्ठामें जाकर कीड़ा होता है । फिर भला इस जीवका अभिमान कैसे रह सकता है १ ||५७|| इस संसार में मान करने से सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है, धर्म छिप जाता है और पूज्य पुरुषोंका अविनय होता है ||५८|| अभिमानी पुरुषसे मित्र बांधव आदि सब लोग विमुख हो जाते हैं, यदि अभिमानी गुणी हो तो भी उसका कोई संमान नहीं करता || ५९ || अभिमानी पुरुष गुणोंके निधि अपने पूज्य गुरुकी मी अवज्ञा करता है। तथा इस संसाररूपी गढ़में चार बार नीचताको प्राप्त होता है ||६०|| जो अभिमानी पुरुष अपने अभिमान के कारण किसी धर्मात्माकी अवज्ञा करता है, दुःख है कि वह मूर्ख अपने धर्मकी ही निन्दा करता है || ६१|| इसलिये है आत्मन् ! तू कंठगत प्राथ होनेपर भी धर्मात्मा पुरुषों की अवज्ञा कभी मत कर । क्योंकि धर्मात्माओंकी निंदा करना धर्मको घात करनेवाला है || ६२|| जो अभिमानी पुरुष धर्मात्माओं को हीन समझकर उनकी अवज्ञा वा अपमान करता है, वह वास्तव में धर्मको नहीं समझता || ६३॥ | वह पापी पुरुष या तो जैनधर्मसे अनभिज्ञ है, या अविवेक पूर्ण है। अभिमानी पुरुष अपने कुकर्मोंके द्वारा इस संसार रूपी समुद्र में अवश्य चता है || ६४ || इस अभिमानसे पितासे द्वेष करता है, अभिमानसे धर्मकी निंदा करता
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भा
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Nमानात पितरं द्वेटि मानाद्धर्म निन्दति । मानात्करोति या स दुःखद न्यायवर्जितम् ॥६५॥ मानेन नरकं याति
रावण इव मानवः । मानं हिचापदां स्थान भएडकलहकर्मणाम् ॥६६॥ मानं दुर्गतिदातारं धर्मविध्वंसकं तथा । मूदो जनो विधत्तेऽत्र विवेकविकलोऽथवा ॥६७। तंगं मानाद्रिमारण विवेकविकलो नरः । करोति धर्मनाशाय पूज्यापूज्यव्यतिक्रमम् ॥६८। मानेन नश्यते शीघ्र विवेको हितरूपकः । विवेके च गते किं स्यादुध्यानं शर्मविधायकम् ॥६॥ बोधनेत्रमपाकृत्य
पुरस्कृत्याविवेककम् । धर्मध्वंसं करोत्यात्मा मानेन मष्ट चेतनः ॥७॥ यः स्वमानं पुरस्कृत्य विधत्ते कर्म निन्दितम् । Ji स्वयं पतति भूगर्भ पातयति परानपि ॥७॥ तस्मान्मानं त्यजेद्धीमान मार्दवं धारयेसुधीः । वात्सल्यभावनांपेतो धर्म
कुर्याश्च तत्ववित् ||२|| मार्दवेन गुणा: सर्व मानेन सन्ति दुर्गणाः | मार्दवेन शिवप्राप्तिः मानेन स्याच दुर्गतिः ।।७३ । मार्दवं सुखमूलं हि वात्सल्यगुणकारकम् । ध्यानं जपस्तपस्तेन शीघ्र सिद्धपत्ति मोक्षदम् ।।७४|| मोनो हि लभ्यते येन
है। है और अमिमानसे ही न्यायरहित दुःख देनेवाले पापोंको करता है ॥६५॥ यह मनुष्य अभिमानके कारण RS| रावणके समान नरकमें जाता है, तथा यह अमिमान अनेक आपत्तियों का स्थान है और भंड वचन तथा कलह | आदि कार्योंका स्थान है ॥६६॥ दुर्गतिको देनेवाले और धर्मको नाश करनेवाले इस अभिमानको विवेकरहित मूर्ख लोग ही धारण करते हैं ॥६७|| विवेकरहित यह मनुष्य मानरूपी ऊँचे पर्वतपर चढ़कर धर्मका नाश करने के लिये पूज्य और अपूज्य पुरुषोंका व्यतिक्रम करता है ॥६८। इस अमिमानसे हित करनेवाला विवेक शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, तथा विवेकके नष्ट हो जानेपर कल्याण उत्पम करनेवाला ध्यान भला कैसे हो सकता | है ? ॥६९।। जिसकी ज्ञानरूप चेतना नष्ट हो गई है, ऐसा आत्मा अपने अभिमानके कारण ज्ञानरूपी नेत्रको | हटाकर और अविवेकको सामने रखकर धर्मका नाश कर डालता है ॥७०॥ जो पुरुष अपने अमिमानको सामने रखकर निंदनीय कर्म करता है, वह नरकरूप पृथ्वीके गढ़में स्वयं गिरता है और दूसरोंको मी डालता है ॥७१।। इसलिये तच्चोंको जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको वात्सल्य-भाव धारणकर अभिमानका सर्वथा त्याग कर
देना चाहिये और मार्दवधर्म धारण करना चाहिये ॥७२॥ इस मार्दव धर्मसे समस्त गुण प्राप्त होते हैं, और अभिमानसे | | सब दुर्गुण प्राप्त होते हैं । मार्दवधर्मसे मोक्षकी प्राप्ति होती है और अभिमानसे दुर्गति प्राप्त होती है ॥७३॥ यह मादेवधर्म | सुख देनेवाला है और वात्सल्य गुणको प्रगट करनेराला है । इस मार्दव धर्मसे ही मोक्ष देनेवाला ध्यान, जप और
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॥१०॥
का भवाब्धिा मनीयते ! झोयन्ते येन कर्माणि मार्दव तत्समाश्रय |1७५॥
निकृतिः सर्वभूतानां निंया चारित्रधातिका ! दीपिका सर्वपानानां धर्मरत्नविलुठिका ॥७६।। मायासमः न शल्योस्ति परस्परविभेदकः । येन पिता स्वपुत्रं हि हन्ति निकृतिवञ्चितः ॥७७|| निकृत्या जायतेऽकीर्तिविश्वासोऽपि पलायते । धर्मोऽपि नश्यते शीनं परत्र दुर्गतिर्भवेत् ।।! मायया छायमानं हि पापं ते भवति स्फुटम् । आत्मन्नास्त्यत्र सदेहो। मायिभ्योऽलमले पुनः | निराकरोति या शीनं ज्ञानिनि प्रत्ययं नरे। बकवेष समादाय हा हा बंचयते परान् ।। निर्माल्यकूटकस्येव वृत्तिर्मायाविनाशाहो । गृहात्येप हि निस्सारं कमिय किल्विषम || लोकद्वयहिते युक्तां दीक्षां धृत्वा जिनेशिनाम् । मायया वंचितास्त नु सन्ति चारित्रघातकाः ॥२॥ मायाविनां न विश्वास धर्मज्ञोऽपि करोति हि ।
| तप शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं।७४॥ जिम मादेवधर्मसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, जिस मार्दवधर्मसे यह मनुष्य संसाररूपी समुद्रसे पार हो जाता है और जिस मार्दवधर्मसे समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, ऐसे मादेवधर्मको धारण कर ॥७५:
समस्त जीवोंको ठगनेवाली माया अत्यन्त निध है, चारित्रको नाश करनेवाली है, समस्त पापोंको प्रकाशित करने के लिये दीपकके ममान है और धर्मरत्नको चुरानेवाली है ॥७६॥ इस संसारमें मायाके समान परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाला अन्य कोई शल्य नहीं है । इस मायासे ठगा हुआ पिता अपने पुत्रको भी मार डालता है |७७|| इस ठगीके कारण अपकीर्ति होती है, विश्वास नष्ट हो जाता है, धर्म | नष्ट हो जाता है और परलोकमें दुर्गति होती है ।।७८॥ हे आत्मन् ! यद्यपि तू अपने पापोंको मायासे ढकना || चाहता है, तथापि वे पाप बिना किसी संदेहके प्रगट हो जाते हैं । इसलिये इस मायाको त कमी मत कर |
॥७९॥ यह माया ज्ञानी मनुष्य में भी विश्वास हटा देती है। दुःख है कि मायाचारी मनुष्य बगलाके मेषको धारणकर दूसरोंको ठगता है ॥८॥ आश्चर्य है कि मायाचारी पुरुषोंकी वृत्ति निमाल्य कटके समान निःसार और पापरूप पदार्थों को ग्रहण करनेवाली होती है ॥८१॥ जो दोनों लोकोंका हित चाहते हुए और जनेश्वरी दीक्षा धारण करते हुए भी मायाचारी करते हैं, उनको अवश्य ही चारित्रको पात करनेवाला समझना चाहिये ||८२|| धर्मात्मा पुरुष भी मायाचारियोंका कभी विश्वास नहीं करते और माता पिता आदि भी कमी
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मातृपित्रादयस्तेऽपि विश्वसन्ति कदापि न मा मायाविना न वा क्वापि ध्यान वृत्तं च भावतः । जनानां वंचनायैवं धृतं वेषं हि मायया ॥४॥ तावदेव हि साम्राज्यं नायिनां हि घरातले । यावन्न प्रकटीभूता माया तेषां हि देवतः ॥६॥ मायाशल्यं धुनोत्येव सम्यग्दर्शनमुत्तमम्। मोक्षमार्ग निहत्येव चार्गलेव निकेतनम् ।।६।। मायाविनामिव चित्तं काठिन्य लभते परम् । यत्र धमाकुरो नैव प्ररोइति कदापि वा ।। तस्मान्मायां परित्यज्य भज चार्जवमुत्तमम् । येन दर्शनशुद्धि स्याद्भावशुद्धिश्च जायते ॥८॥निःशल्यं च करोत्येवावं हृदयमन्दिरम् । शुद्धिस्तेनैव वृत्तानां स्यात्कर्मासवरोधिका ।।।
आजेवेन हि शोभन्ते वपोजपत्रतादयः । अतिक्रराणि पापानि नश्यन्ति चार्जवेन वा ॥१०॥ श्रार्जवेन शिवप्राप्तिः आर्जवेन मतपः शोरगर श्यामार्जन सुख मिजमा
सर्वेषामेव पापानां लोभोऽस्ति नु पितामहः । लोभेनन वीरेण पापानि विजितानि च ॥२॥ लोभानलेन
उसका विश्वास नहीं करते ।।८।। मायाचारी पुरुषोंको भावपूर्वक न तो ध्यान हो सकता है और न चारित्र
धारण हो सकता है । ऐसे लोग सब लोगोंको ठगनेके लिये ही मायापूर्वक मेष धारण करते हैं ॥८४। इस | पृथ्वीमण्डलपर मायाचारियोका साम्राज्य तभी तक रह सकता है, जबतक कि दैवयोगसे उनकी मायाचारिता
प्रगट नहीं हो जाती ८५॥ यह मायाशल्य उत्तम सम्यग्दर्शनको नष्ट कर देता है और घरको बेड़के समान | मोक्षमार्गको बंद कर देता है ॥८६॥ मायाचारियोंका हृदय अत्यन्त कठिन हो जाता है और इसीलिये फिर । उसमें धर्मरूपी अंकुर कमी उत्पन्न नहीं होने पाता ||८७। इसलिये हे आत्मन ! तू इस मायाचारिताको छोड़कर | उत्तम आर्जव धर्म धारण कर, जिससे कि तेरा सम्पन्दर्शन शुद्ध हो जाय और तेरे भाव शुद्ध हो जावें ॥८८||
यह आर्जवधर्म हृदयरूपी मंदिरको शल्यरहित कर देता है और इसी आर्जवधर्मसे कर्मों के आस्रवको रोकनेवाली | चारित्रकी शुद्धि होती है।८९॥ तप, जप और व्रतादिक सब आर्जवधर्मसे ही शोभायमान होते हैं और इसी संसारका
आर्जवधर्मसे क्रूरसे क्रूर पाप नष्ट हो जाते हैं ।।९०॥ इन आर्जव धर्मसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसी आर्जव धर्मसे भवका नाश होता है, इसी आर्जवधर्मसे उत्कृष्ट ध्यान होता है और इसी आर्जवधर्मसे आत्माका सुख प्राप्त होता है ।।९१॥ | यह लोभ समस्त पापोंका बाया है । इस लोमरूप एक योद्धासे ही सब पाप हार गये है ६॥९२॥ जो लोमरूपी अग्निसे जल गया है, उसे विपयादिकोंमें भी जला हुआ समझो। ऐसा पुरुष सैकड़ों
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दग्धी यः स दग्धो विषयादिषु । नोपायशतकैः सोऽपि न कापि शान्तिमश्नुते ॥६३|| कषाये दुर्धरी लोभः परेऽकिचित्करा मताः । यदि लोभी जितः शौचादन्ये सर्वे जिताः स्वयम् ॥४|| लोभात्पुत्रं पिता हन्ति नारी हन्ति । पतीश्वरम् । भ्राता सहोदरं हन्ति शिष्यो हंति गुरु तथा ॥३७॥ लोभाच कलहो नित्यं जायते हि दिन दिनम् । लोभान्मित्रमरित्वं हि जायते च स्वभावतः ।६। लोमाश्च प्रविशत्यग्नौ लोभान्मनति सागरे । लोभाच दुर्गतिं याति पापं कृत्वा पुनः पुनः १९७) पुत्रमित्रकलत्राण गृहद्रव्यादिसम्पदाम् । येन मोहो जितस्तेन कर्माणि विजितानि च 181 | सुस्थक्तसर्वसंगस्य साधोर्दैगम्थरस्य च । अत्यन्तं निस्पृहस्यापि लोभश्चद्दीक्षया पलम् III देहादपि विरक्तानां जातरूप, सुधारिणाम् । अपि लोभो धनादीनां पुनः पके द्विपातनम् ॥१०॥परमं निस्पृहा शान्तानिरीहा गतवाच्छकाः । त्यक्ताशाः स्वात्मलीनास्त यतीशा युक्तिगामिनः ॥१.१॥ तस्मालोभं परित्यज्य विषयाणामशेषतः । श्रात्मन त्वं स्वात्मलीनः स्याः
उपार्योंसे भी कहीं शांत नहीं हो सकता ।।९३॥ समस्त कषायोंमें यह लोम ही दुर्धर है । पाकी मर कपाय
अकिंचित्कर हैं। यदि शोचसे लोभको जीत लिया नो समस्त कषायोंको जीता हुआ ही समझो ॥९४|| है इस लोभके कारण पिता पुत्रको मार डालता है, स्त्री पतिदेवको मार डालती है भाई भाईको मार डालता | 1 है और शिष्य गुरुको मार डालता है ।।९५:। इस लोभके कारण प्रतिदिन सदा कलह बनी रहती है |
और इस लोभसे मित्र भी स्वभावसे ही शत्रु हो जाता है ॥९६।। लोभसे ही यह जीव अग्निमें जल जाता है, 19 लोभसे ही समुद्र में डूब जाता है और लोमसे ही बार पार पापोंको करता हुआ दुर्गतिको प्राप्त होता है। ॥९७॥ जिस पुरुषने पुत्र, मित्र, स्त्री, घर और धन आदि संपदाओंके मोहको जीत लिया है। उसने | समरत कौंको जीत लिया ऐसा समझो ॥९८॥ जिमने समस्त परिग्रहोंका त्याग कर दिया है, दिगम्बर *
अवस्था धारण कर ली है और जो परम निस्पृह है; यदि ऐसे साधुको लोम विद्यमान हो तो फिर उसको दीक्षा | | लेनेसे क्या लाम है ? ॥९९॥ जो साधु शरीरसे भी विरक्त है और दिगम्बर अवस्था धारण करते हैं; यदि वे
धनादिकका लोभ करें तो फिर उनका कीचड़में ही पड़ना समझो ॥१०॥ जो साधु परम निःस्पृह हैं, शांत हैं | | इच्छारहित हैं, आशारहित हैं और आत्मामें लीन हैं; ऐसे लाधु ही मोक्षमार्गमें गमन करनेवाले समझे जाते | जाते हैं ॥१०१।। इसलिये हे आत्मन् ! तू विषयोंके समस्त लोभोंका त्यागकर, शांत और परम निस्पृह होकर
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शान्तः परमनिस्ग्रहः ॥ १०२ ॥ सम्वाद्य शौचधमं हि कृत्वा भावं सुनिर्मलम् । धृत्वा हि स्वात्मनो ध्यानं लोभं तु सहसा जय ||१०३|| शौचान्मोक्षो भवा लोभात् शौचासुरयं परादधम् । शौवात्कर्मजयेो नित्यं लोभात्कर्मास्रवो महान् ||१०४|| पावेगेन क्रोधमानादिना तथा जीवः करोति संसारे जन्म मृत्यु पुनः पुनः ॥१०५॥ रागद्वेष कषायं च कुम्मायाकम् । शिवम यानि सुबोधतः ||१०६ ॥ इति विषयकषायं मोहभाचं विजित्य त्यजतु कटुककोपं मानमायां च लोभम् । धरतु परमशुद्धिं शुद्धभावं च कृत्वा चरतु च निजचित्ते वीतरागं सुधर्मम् ॥ २०७॥ इति सुधर्म ध्यान प्रदीपालंकारे कपायविजयप्ररूपणो नाम द्वादशोधिकारः ।
अपने आत्मामें लीन हो ॥ १०२ ॥ हे आत्मन् ! तू निर्मल भावको धारण करता हुआ शौच धर्मको धारण कर तथा अपने आत्माका ध्यानकर सरल रीतिसे लोभको जीत || १०३ ॥ शौचधर्मसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, लोभसे संसार बढ़ता है, शौचधर्म से पुण्य बढ़ता है, लोभसे पाप बढ़ता है, शौचसे कर्मों की निर्जरा होती है और लोभसे फर्मोंका प्रवल आस्रव होता है || १०४|| इस प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कपायोंके वेगसे यह जीव इस संसार में बार बार जन्म-मरण करता रहता है || १०५ ॥ हे आत्मन् ! तू क्रोध, मान, माया और लोभरूप कपार्यो को तथा रागद्वेषको जीतकर अपने शुद्ध सम्यग्ज्ञानके द्वारा सर्वोत्कृष्ट शांतिको प्राप्त हो । १०६ ।। इम प्रकार विषय hernist तथा मोहभावको जीतकर क्रोध, मान, माया और लोभरूप चारों कड़वे कषायों का त्यागकर देना चाहिये । तथा अपने निर्मल भावको धारणकर परम शुद्धि धारण करनी चाहिये और अपने हृदयमें वीतरागखर श्रेष्ठ धर्मको पालन करना चाहिये ॥ १०७ ॥
इस प्रकार मुनिराज श्री सुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें कषायों के जीतने को वर्णन करनेवाला यह बारह अधिकार समाप्त हुआ ।
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१११ ॥
त्रयोदशोऽधिकारः ।
रागद्वेषविजेतारं साम्यामृतनिधीश्वरम् । वासुपूज्यं जिनं वन्दे सुरैः पूज्यं महेश्वरम् ॥ १॥ रागद्वेषो महानियो संसा रस्य निबन्धनौ । सर्वासां च विपत्तीनां मतौ तौ मूलकारणे ॥१२॥ रागद्वे पौ महाक्रूरो मही च दुःखदौ मतौ । याभ्यां जोवाः अपीयरेन यंत्रे संसारचकके ॥३॥ मोहवशादयं जीत्रो रज्यति परिकुप्यति । रागद्वेषौ समासाद्य नानानर्थं करोत्यलम् । ॥४॥ रागद्वेषौ हि संसारे मोह बीजो मती जिनैः । याम्यां नमखनासाथ पान त्वं महावते ||५|| मोहनिन्द्रां गतोऽसि मात्मन् गाढतभामिमाम् । रागद्वेषविलुण्ठाभ्यां पीड्यमान श्चिरं भृशम् ||६|| जन्ममृत्युलताचक्रं रागद्वेषेन कर्मणा । स्वमूर्धनि समुद्धृत्य भवे भ्राम्यसि तत्र || पातयित्वा महामोहज्वालायां त्वां निरन्तरम् भस्मीभूतं प्रकुर्वन्ति
जो राग-द्वेषको जीतनेवाले हैं, समतारूपी अमृतके निधीश्वर हैं, जो देवोंके द्वारा पूज्य हैं और सर्वोत्कृष्ट ईश्वर हैं; ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेव वासुपूज्यको मैं नमस्कार करता हूँ ||१|| ये राम और द्वेष महानिय हैं, संसार के कारण हैं और समस्त विपत्तियों के मूल कारण हैं ||२|| ये राग और द्वेष महाःदुख देनेवाले क्रूर ग्रह हैं और इन्हीं के कारण ये जीव संसारचक्ररूपीमें यंत्रमें सदा पेले जाते हैं || ३ || मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव राग और द्वे करता है तथा राग-द्वेष के कारण यह जीव अनेक अनर्थ उत्पन्न करता रहता है || ४ || भगवान् जिनेन्द्रदेवने राग-द्वेष दोनों को संसारका मुख्य वीज बतलाया है । इन्हीं राग-द्वेषके कारण ममत्व करता हुआ यह जीव पागलसा हो जाता है ||५|| हे आत्मन् ! राग-द्वेषरूपी चोरों द्वारा चिरकालसे महादुःखी हुआ तू मोहरूपी गाढ निद्राको प्राप्त हो रहा है ॥ ६॥ हे आत्मन् ! तू रागद्वेषरूपी कार्यों के कारण जन्ममरणरूपी लताचक्र को मस्तकपर धारणकर मचके समान इस संसारमें परि
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रागद्वपादिशत्रवः ||| रागः स्यायत्र तत्रैव द्वषोऽपि सुतरां भवेत् । यस्मादेको हिरागोऽस्ति शत्रुर्धर्मविलुंठकः हा हा चात्मत्रवस्था ते चेदृशी भविता कथम् । यया रार्ग समुत्पाद्य त्वं परान हंसि मुह्यसि ॥१०॥ वध्यते कर्मरागेा रागेशैव च संसृतिः । जन्ममृत्यु भयक्लेशानां रागो मूलकारणम् ।।११।। हा हा रागेण जीवोऽयं श्वभ्र गच्छति दुःखदे। पर्यटति च संसारे जन्ममृत्युभयात्मके ।१२। इन्ति प्राणिगणं शश्वदन्यायं विद्धाति च 1 घोरं पापं करोत्यात्मा रागेणैवातिविह्वलः ॥१शा संसारकारणं रागो विरागो मोक्षकारणम् रागेण कर्मबन्धः स्याद्विरागेय विमोक्षणम् ॥१४॥ दयासत्यक्षमाब्रह्मसंयमादिकसद्गुणाः। रागेणैव पलायन्ते दुर्गणा यान्ति सत्वरम् ॥१५॥ मोहचूर्ण करे धृत्वा रागो जोवान प्रमूर्छयन । वेगात पातयति श्वभ्रे ऽनन्तदुःखनिदानके ॥१६॥ जीवः कर्माणि बध्नाति रागद्वषेण सन्ततम् । रागढ पौ प्रकुर्वाते चित्तभ्रान्तिननात्मक ॥१७।। चावतोऽशाश्च रागस्य वर्तन्ते ते हृदि स्फुटम् । तावन्तः कर्मबन्धानां संबन्धास्ते | भ्रमण कर रहा है । ये राग-परूपा शत्रु से महामोहरूपी अग्निमें डालकर सदा भस्म करते रहते हैं ।।८।। जहांपर राग होता है, वापर उप अपने ही आप हो जाता है। इसलिये कहना चाहिये कि धर्मको नाश करनेवाला यह एक राग ही परम शत्र है ।९:। हा हा, हे आत्मन् ! तेरी यह अवस्था कैसे हो गई है जिससे कि तू 18 राग-द्वेष उत्पन्नकर अन्य जीवों की हिंसा करता है और उसमें मोहित होता है ॥१०॥ इस रागसे ही कर्मों का बन्ध होता है सगसे ही संसारकी वृद्धि होती है और जन्म, मरण, भय आदि केशोंका मूल कारण यह राग ही है ॥११॥ हा! हा !! रागकेही कारण यह जीव महादःख देनेवाले नरक में जाता है और रागके ही कारण जन्म, मरण और भयसे भरे हुए इस संसारमें परिभ्रमण करता रहता है ॥१२॥ रागके ही कारण विहल हुआ | यह जीव अनेक प्राणियोंका घात करता है, सदा अन्याय करता रहता है और सदा घोर पाप करता रहता है
॥१३॥ यह राग संसारका कारण है और वैराग्य मोक्षका कारण है । रागसे कोका बंध होता है और वैराग्यसे ! काँका नाश होता है ।।१४ा दया, सत्य, क्षमा, ब्रह्मवर्य और संयम आदि जितने श्रेष्ठ गुण हैं; वे सब रागसे
ही भग जाते हैं और इनके विपरीत सब दुर्गुण शीघ्र ही आ जाते हैं ॥१५|| यह राग मोहरूपी चूर्णको हाथपर रखकर अनेक जीवोंको मूर्षित करता हुआ अनन्त दुःख देनेवाले नरकमें बहुत शीघ्र पटक देता है ॥१६॥ यह जीव राग-द्वेषसे ही सदा काँका बंध करता रहता है । ये राग-द्वेष दोनों ही आत्मासे मिम
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निरन्तरम् ॥१८॥ रागद्व ेषौ च यावत्ते मनाकू चित्ते सुतिष्ठतः । तावदात्मन्न शान्ति त्वं लभते गतकल्मषाम् ॥१६॥ श्रीरागं गतद्वेषमात्मन् स्यात्ते सो को परे ज्योदिर्निमाला ॥२०॥ यत्र रागो न तत्रैव रत्नत्रय मर्कटकम् | निर्विकल्पं महाध्यानं स्यादनन्तसुखात्मकम् ||२१|| रागादिपंकनिर्लेपं चित्तं स्यात्ते विशुद्धकम् । तदा sagसम्पत्तिः सुतरां स्यान्न चान्यथा ॥२२॥ आनन्दं परमानन्दं दुःखातीतं च शाश्वतम्। रामदीनेन चित्तेन स्वयं त्वं समवाप्स्यसि ||२३|| साम्यं त्वं भज रे आत्मन् ! सर्वभूतकदम्बके । आत्मनः सदृशं पश्य जीवमात्रं सुभावतः ||२४|| द्वषं कत्तु मा कुर्याः कचिद्रागञ्च मा भज । मा गा द्वे पिषु खेदं त्वं दर्ष मा भज वन्धुषु ||२५|| मित्रे शत्रौ सुसे परपदार्थों में अपने हृदयको परिभ्रमण कराते रहते हैं ||१७|| हे आत्मन् ! तेरे हृदयमें रागके जितने अंश हैं. उतने ही कर्मबन्धा संबन्ध तुझे निरंतर होता रहेगा || १८ || जबतक तेरे हृदय में थोडेसे मी रागद्वेष रहेंगे, तबतक हे आत्मन्! समस्त दोषोंसे रहित शांति तुझे कभी प्राप्त नहीं हो सकती ||१९|| हे आत्मन् ! यदि तेरा मन सर्वथा राग-द्वेष से रहित हो जाय तो तुझे अपने आत्माकी उत्कृष्ट ज्योति शीघ्र ही दिखाई देने लगे ||२०|| जहां पर रागका अभाव होता है, वहींपर बिना किसी विन्न-बाधा के रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाती है और वहीं पर अनन्त सुखको देनेवाला निर्विकल्पक महाध्यान प्राप्त हो जाता है ||२१|| हे आत्मन् ! यदि तेरा हृदय राग-द्वेषरूपी कीचड़से रहित होकर अत्यन्त विशुद्ध हो जाय तो तुझे तेरी अनंत चतुष्टयरूपी अमीष्ट संपत्ति अपने ही आप प्राप्त हो जाय । वह अनन्त चतुष्ट्यरूपी संपत्ति बिना राग-द्वेष के अभाव के अन्य उपायोंसे कभी प्राप्त नहीं हो सकती ॥२२॥ हे आत्मन् ! यदि तेरा हृदय रामरहित हो जाय तो समस्त दुःखोंसे रहित, सदा रहनेवाले परमानन्दरूप आनंदको तू स्वयं प्राप्त हो जायगा ||२३|| हे आत्मन् ! तु समस्त जीवोंमें समता भाव धारण कर और अपने निर्मल परिणामोंसे समस्त जीवोंको अपने आत्माके समान देख ||२४|| हे आत्मन् ! तू किसीसे मी द्वेष मत कर या किसीसे भी राग मत कर, तथा द्वेष करनेवालेसे कभी खेद मत कर और राग करनेवाले बंधुओं में कभी राग मत कर वा प्रसन्न मत हो ||२५|| हे आत्मन् ! तू शत्रुमें, मित्रमें, सुखमें, दुःखमें, लाभ में, हानिमें, हित तथा अहित में अर्थात् सबमें समता भाव धारण कर और मोहसे
सु० प० १५
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भाव
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HIST
भाग
सु०प्र० १४
दुःखे लामालामे हिताहिते। साम्यं त्वं भज रे आत्मन् मोहान्मा कुरु विक्रियाम् ||२६|| पूजां कुर्वति मक्तेऽस्मिन् । कुर्वत्यरावपि । मुनेः यस्य समं चित्तं लभते स परं पदम् ||२७|| रम्यारम्यपदार्थेषु भोग्याभोग्येषु वस्तुषु । समभावो हि येकी ते योगिनो मोक्षगामिनः ॥२८॥ कश्चिद्धन्धुन ते श्रात्मन् शत्रु स्तीह तेऽथवा । रागद्वेषौ परित्यज्य भज साम्य. सुधारसम् ॥२॥ पवनाच्चंचल चित्तं स्वस्थ याति दिवानिशम् । साम्यशृङ्खलया बद्धं तस्मात्साम्यमुपास्यताम् ||३|| मनो विकारतां कापि तेषां न याति संततम् । रम्यारन्यपदार्थेषु येषां साम्यं समस्ति बा ॥३१|| साम्यमेव हि सत्यं स्यादात्मधर्मः सुखावहः । येन क्लोशभय द्वन्द्वादयो नश्यन्सि ते ध्र वम् ॥३२॥ साम्यपीयूषधाराभिर्बद्धवैराः परस्परम् ! | शाम्यन्ति पापिनी द्वेषतापाजीवाः खतः स्वयम् ॥३३॥ द्वेषतापाच दग्धं ते क्लेशितं मत्सरेण यत् । व्यथितं हीर्षया चित्तं
शाम्यति साम्यधारया ।।३।। साम्यसुधारसं चन्द्र' तं लब्ध्वातीवदुर्लभम् । प्राइादयन्ति हर्षन्ति मैत्री यान्ति च || अपने आत्मामें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न मत कर ॥२६॥ जो मुनि अपनी पूजा करनेवाले भक्त पुरुषमें
और अपनेसे द्वेष करनेवाले वा अपना वध करनेवाले शत्रुमें अपने हृदयको समान रखता है, दोनोंको समान 3 समझता है, वह मुनि परम मोक्ष पदको अवश्य प्राप्त होता है ॥२७|| जिन मुनियोंके परिणाम इष्ट और अनिष्ट पदार्थो में वा भोग्य और अमोग्य पदार्थों में समताको धारण करते हैं, सबको समान समझते हैं; वे मुनि मोक्षको |
अवश्य प्राप्त करते हैं ॥२८|| हे आस्मन् ! इस संसारमें न तो कोई तेरा बन्धु है और न कोई तेरा शत्रु है। | इसलिये तू राग-द्वेषको छोड़कर समतारूपी अमृतरसका पान कर ॥२९।। यह मन वायुसे मी अधिक चंचल || है, यदि इसको समतारूपी सांकलसे बांध दिया जायगा तो यह रात-दिन एक आत्मामें ही नियल हो
जायगा, इसलिये हे आत्मन् ! तू समता भागेकी ही उपासना कर, उन्हींको धारण कर ||३०|| जो मुनि ममता | भाव धारण करते हैं, उनका मन इष्ट वा अनिष्ट पदार्थोंमें कभी भी विकार अवस्थाको नहीं धारण कर सकता | ॥३१।। हे आत्मन् ! यह समता परिणाम ही सुख देनेवाला यथार्थ आत्म धर्म है, इसीसे क्लेश भय आदि समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते हैं ॥३२॥ जो पापी जीव द्वेषरूपी संतापके कारण परस्पर वैर धारण करते हैं, वे मी | समतारूपी अमृतकी धारासे अपने आप शांत हो जाते हैं।॥३३॥ जो तेरा यह हृदय द्वेष और संतापसे दग्ध हो रहा है, मत्सरतासे दुःखी हो रहा है और ईपीसे व्यथित हो रहा है; वह तेरा हृदय समतारूपी अमृतकी धारासे ही
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जन्तवः ||३५|| साम्येनैकेन ते सर्वे प्रेमकोपादयोऽखिलाः। पलायन्तेऽविवेगेन दोपा दुष्टा हि योगिनाम् ॥३६॥ ताक्देव हि वैरै ते चिन्ते क्रीडति लीलया। यावन्न साम्यभूपोऽसौ चित्ते तेऽत्र विराजते ॥३७॥ तावद्विकल्पसंकल्पश्चित्ते ते जापति स्वयम् । यावत्साम्यमहानादः कर्मभेत्ता न गर्जति ॥३८॥ तावदेव भयं चिनेऽनिष्टवस्तुसमागमात् । यावद् द्व पहरः साम्यः सुखदाता न राजते ||२६|| तावदेव प्रियं वस्तु चित्ते चेष्टसमागमात् । यावदागहरः साम्यो मोहइन्ता न राजते ॥४०॥ तावच कर्मसंबंधो भवबंधनकारकः । बोधासिना द्विधा भावं साम्यधासा करोति न ॥४१|| दुष्टका वालिदुखदोन पावद्धि समता चित्ते न जागर्ति सुखप्रदान।। समताधिष्ठितं चित्तं शौचं धत्तेऽदिपावनम् । पापर्पक हि धौतं स्यात्स्वयनेव सुखी ततः॥४३॥ मोहपंक नितांतं ते ग्लप यति शिवाध्वनि । सद्यः प्रक्षालयात्मन वं | शांत होगा ॥३४॥ यह समतारूपी अमृतका चन्द्रमा अत्यन्त दुर्लभ है, इसको पाकर ये प्राणी प्रसन्न होते हैं, Kा हर्ष मनाते हैं और परस्पर मित्रता धारण करते हैं ॥३५॥ इस एक समता रससे ही योगियों के प्रेम और
क्रोधादिक समस्त दुष्ट दोष बहुत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥३६|| जबतक तेरे हृदयमें यह समतारूप राजा * विराजमान नहीं होता, तभी तक यह चेर तेरे हृदयम लीलापूर्वक
कीड़ा कर रहा है ॥३७|| ये संकल्प विकल्प | तेरे हृदयमें तभी तक जाग रहे हैं, जबतक कि कर्मोंका नाश करनेवाला समतारूप मदानाद गर्जना नहीं।
करता ॥३८॥ अनिष्ट वस्तुओंसे प्राप्त हुआ भय तेरे हृदय में तभीतक रह सकता है, जबतक कि द्वेषको दूर करनेवाली और सुखको देनेवाली यह समता तेरे हृदयमें नहीं आती ॥३९|| इष्ट पदार्थोसे उत्पन्न हुआ प्रेम तेरे हृदयमें तभीतक रह सकता है, जबतक कि रागको हरण करनेवाली और मोहको नाश करनेवाली समता तेरे | हृदयमें शोभायमान नहीं होती। ४०॥ संसार में बंधन करनेवाला काँका सम्बन्ध तमीतक रहता है, जबतक कि ! | समतारूपी विधाता अपने सम्यम्ज्ञानरूपी तलबारसे उसको टुकड़े टुकड़े नहीं कर डालता ॥४१।। दुःख देनेवाला अनिष्ट कर्मोका आस्रव तभी तक रहता है जब तक कि तेरे हृदयमें सुख देनेवाली समता फुरायमान नहीं | होती ॥४२॥ समतासे भरा हुआ हृदय अत्यन्त पवित्र शौच धर्मको धारण करता है और उसका पापरूपी कीचड़ सब धुल जाता है तथा वह सदाके लिये सुखी हो जाता है ।।४३।। यह मोहरूपी कीचड़ इस मोक्ष| मार्गमे तुझे अत्यन्त दुःख दे रही है। इसलिये हे आत्मन् ! समतारूपी मेघधारासे तू इस कीचड़को शीत्र
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तत्साम्याग्लुगन्तव ॥४॥ सम्मृदिनाची वयेनाभिवर्तते । सदामरपदं लब्ध्वा शियो भवति चेतनः ॥ ४५ ॥ संसारदुःखतो मोसुमात्मानं त्वं यदीच्छसि । साम्यबोधं गृहाण त्वं स्वात्मनि शुद्ध भाषतः ॥ ४६ ॥ विरन्यात्मम् विरण्य त्वं हृषीक विषयादिषु । मुच मुच स्पृहां देहे भज साम्यामृतं सुधीः ॥४७॥ उन्मत्तमिव वा भाति चराचरमिदं जगत् । योगिनः पिबतः साम्यं सर्वाह्रादकरं परम् ||४|| स मे प्रियः स मे वैरी तावदेदेति कल्पना । यावन साम्यराजासौ निर्विकल्पो विराजते ॥४६॥ असिप्रहारतोषाद्धा पूजया मुनेः । यस्य विक्रियते नैव चित्त साभ्यं तदुच्यते ||२०|| साम्यतीर्थं समाराध्य योगी शीघ्रं भवाब्धितः सहसा तीर्थ स्वस्थचित्तेन भयवर्जितः || ५१|| साम्यं देवोऽस्ति साम्यं हि तीर्थं परमपावनम् । साम्यमेव परो धर्मः संसाराब्धौ सुतारकः ॥४२॥ ध्यानं तत्किं जपः कोऽसौ योगः कोऽस्ति तपोऽत्र किम् ।
ही धो डाल ||४४ || यह सम्यग्ज्ञानी आत्मा समतारूपी अमृतको पीकर संसाररूपी रोगसे निवृत्त हो जाता है और स्वर्ग सुखको भोगकर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है || ४५|| हे आत्मन् । यदि तू अपने आत्माको संसारके दुःखोंसे छुड़ाना चाहता है तो अपने ही आत्मामें शुद्ध परिणामोंसे समतारूपी ज्ञानको धारण कर || ४६ ॥ हे आत्मन् ! तू इन इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कर त्याग कर । हे बुद्धिमन् ! तू शरीरसे भी स्पृहाका त्याग कर त्याग कर और समतारूपी अमृतको पी ||४७॥ परम आनन्दको प्रगट करनेवाले इस उत्कृष्ट समतारूपी रसको पीनेवाले योगियों को चर अचर यह समस्त संसार उन्मत्तके समान दिखाई पड़ता
|| ४८ ॥ वह मेरा प्रिय है और वह मेरा शत्रु है, यह कल्पना तभीतक रहती है जबतक कि निर्विकल्प - रूप समतारूपी राजा हृदयमें विराजमान नहीं होता ||४९ ॥ द्वेपके कारण तलधारका घात करनेपर तथा हर्षसे पूजा करनेपर जिन मुनिके हृदयमें कभी विकार उत्पन्न नहीं होता, उसीको समता कहते हैं ॥ ५० ॥ भयरहित जो योगी स्वस्थ चित्त होकर इस समतारूपी तीर्थकी आराधना करता है, वह शीघ्र ही इस संसाररूपी समुद्र से तर जाता है ॥५१॥ यह समता ही परम देव है, समता ही परम पवित्र तीर्थ है, समता ही परम धर्म है और समता ही संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाली है || ५२ ॥ वह ध्यान ही क्या है ? वह जपही क्या है? वह योग ही क्या है ? और वह तप ही क्या है ? कि जिससे मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको
SHARESA
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सु०० ११७॥
ARIRAHASHIRBERKAHANISE
येन शान्तिकरं साम्यं न लब्धं हि मुमुक्षुणा ॥५|| गृहं त्यक्त्वा प्रतं वृत्वा लात्वा दहा जिनेशिनाम् । यदि साम्य न लरुधं चेत्सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥५४॥ पूजया निन्दया वापि यस्यारित समता हदि। स योगी सोऽस्ति सध्यानी हाता तत्त्वस्य सोऽत्र वा ॥५शा साम्यसोपानपंकिंवामारुह्य शुद्धभावतः । पुरा मोक्षगृह प्राप्तारतीर्थपाः विश्वभूतिशः ४६|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्थिरचित्तेन चात्मनि । साम्यामृतं परानन्दं गृहाण तोषकं शुभम् ॥१७॥ साम्यामृतसुपानेन यानन्दो जायते महान् । भवक्लेशगतस्तापो नश्यते प्राप्यते शिवः ||८| विषयजनितरागद्वेषभावं विमुच्य परमसुखनिधानं साम्बपीयूषपानम् । कुरु कुरु अतिशीघ्र दुर्लभं शुद्धभावात् भवति सहजसिद्धानन्दकन्दः सुधर्मः ॥ ५॥ ॥ इति सुधर्मध्यानपड़ीपालंकारे साम्यप्ररूपणो नाम त्रयोदशोऽधिकारः ॥
- .- .- - | शांति उत्पन्न करनेवाली समता प्राप्त न हो ॥५३॥ निम्ने धाका यागकातो धारण और जैनेश्वरी | दीक्षा धारणकर यदि समता प्राप्त नहीं की तो फिर समझना चाहिये कि उसके त्याग, व्रत और दीक्षा सब व्यर्थ हैं ॥५४॥ जिस मुनिके हृदय में पूजा वा निंदा-दोनोंसे समता पनी रहे, जो दोनोंमें समान | परिणाम रक्खे, उसीको योगी, श्रेष्ठ ध्यानी और तत्त्वोंको जाननेवाला समझना चाहिये ॥५५॥ पहले | समयमें समस्त विभूतियों को देनेवाले तीर्थकर लोग जो मोक्षमहलमें जाकर विराजमान हुए हैं, वे अपने शुद्ध परिणामोंसे समतारूपी सीड़ियों की पंक्तिपर चढ़कर ही प्राप्त हुए हैं ।।५६॥ इसलिये अपने चित्तको स्थिर करके सब तरहके प्रयत्नकर परम आनन्दमय शुभ और परम वृप्ति करनेवाले समतारूपी अमृतको ग्रहण कर ॥५७|| इस समतारूपी अमृतके पीनेसे महान् आनन्द उत्पन होता है, तथा संमारके क्लेशोंसे उत्पन्न हुआ संताप शीघ्र नष्ट हो जाता है और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥५८॥ हे आत्मन् ! तू विषयोंसे उत्पन्न | हुए राग-द्वेषको छोड़कर शुद्ध परिणामोंसे अत्यन्त दुर्लभ और परम सुखका निधान, ऐसे समतारूपी अमृतके पानको अत्यन्त शीघ्र कर । इसी समताके पानसे स्वाभाविक सिद्धस्वरूप आनन्दको देनेवाला श्रेष्ठ धर्म तुझे प्रास होगा ।।५९॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालकारमें समताको वर्णन
करनेवाला यह तेरहवां अधिकार समाप्त हुआ।
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पु०प्र०
॥११
॥
चतुर्दशोधिकारः।
ध्यानेन दुर कर्म हत्वाऽऽन्तं येन केवशम् । विमलं तमहमीशानं नमामि भावभक्तितः॥१॥ तत्पशम्ताप्रशस्तन्तु ध्यानं हि द्विविधं मतम् । धर्मशुकले प्रशस्ते द्वे' प्रातरौद्रेऽप्रशस्तके ||२|| धर्मशुक्ले हि मोक्षाय प्रातरौद्रे भवाय च। प्रातरौद्र महानिंद्यमतिसन्तापदायकम् ॥३॥ विश्वक्लेशकरं नित्यं भयदं दुर्गतिप्रदम् । विश्वसौख्यकरं शान्तं निर्भयं शर्मकारकम् ॥४॥ संसारतारकं भेष्ठं धर्म शुक्लं च ज्ञायताम् । आरौद्र' परित्यक्त्वा धर्म शुक्लं च चिन्तय ||५|| तत्रातध्यानमाख्यातं चित्तव्याकुलकारकम् । नानोद्रेककरं नित्यं चाक्षविषयवद्धकम् ॥६॥ इष्टानिष्ट पदार्थानां संयोगज
जिन्होंने अपने दुर्धर कर्मोंको नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त किया है और सबके स्वामी हैं। ऐसे भगवान् | विमलनाथको मैं भावभक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं ॥१॥ वह ध्यान दो प्रकार है-एक प्रशस्त और दूसरा | अप्रशस्त । उनमें भी धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त ध्यानके भेद हैं तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान | ये दो अप्रशस्त ध्यानके भेद हैं ॥२॥ धर्मध्यान और शुक्लथ्यान मोक्षके कारण हैं तथा आध्यान और
रौद्रध्यान संसारके कारण हैं । आर्तध्यान और रौद्रध्यान अत्यन्त निंय है, अत्यन्त संताप उत्पन्न करनेाले | | हैं, संसारभरको क्लेश उत्पन्न करनेवाले हैं, सदा भय उत्पन्न करनेवाले हैं और दुर्गतियों को देनेवाले हैं। इसीप्रकार धर्मध्यान और शुक्लध्यान संसारभरको सुख देनेवाले हैं, शांत हैं, भयरहित हैं, कल्याण करनेवाले हैं, संसारसे पार कर देनेवाले हैं और सर्व श्रेष्ठ हैं । इसलिये आर्तध्यान और रौद्रध्यानका त्यागकर धर्मध्यान और
शुक्लभ्यानका चिंतन करना चाहिये ॥३-५॥ उनमें भी आर्तध्यान चित्तको व्याकुल करनेवाला, अनेक | प्रकारके उपद्रवोंको उत्पन्न करनेवाला है और इन्द्रियों के विषययों को बढ़ानेवाला है ।।६॥ यह आतंभ्यान चार
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4॥११॥
वियोगजम् । दुःखोदवं निदानं पवाथ्यानं चतुर्विधम् || रत्यरतिकुभावेन मायाचारेण दुःखतः।मनोऽतविषयार्थ हि प्राणिना क्रियदे मुदा विषयाऽऽभोगकांचभिः परवस्तु च चिन्त्यते । आध्यानं भवेदत्र संसारचक्रवर्द्धनम || पुत्रमित्रकलत्रादिधनधान्येष्टसम्पदाम् । रम्यानां परवस्तूनां मनोज्ञसुखदायिनाम् ॥१०॥ वियोगे हि कथं तेषां शोधं स्याष समागमः। इति चिन्तापरत्वेन चैकाप्रेन च चिन्तनम् ॥११॥ इष्टवियोगजं चातध्यान दुःखकरं मतम् । तस्मादात परित्याज्यं मुक्तीच्छेन हितैषिण ॥१२॥ सर्पशत्रुविषादीनां दुःखपीडाकरात्मनाम् । अवृष्टिराजचौराणां दारिद्रभूतशाकिनाम् ॥१२॥ संयोगे खलु मे तेषां कथं स्याश्च निवर्तनम् । इति चिन्तापरत्वेन अनिष्टयोगहानये ॥१॥ चिन्तन हि काममनसा हि पुनः पुनः । अनिष्टयोगजं पातं दुर्गतेदायर्क परम् ॥११॥ रोगाच्छोकाद्भयात्क्लेशाद्धननाशाच्च
हा प्रकारका है-इष्ट पदार्थोके वियोगसे उत्पन्न हुआ आतध्यान, अनिष्ट पदार्थोके संयोगसे उत्तम हुआ आर्तध्यान,
दुःखोंसे उत्पन्न हुआ आर्तध्यान और निदानसे उत्पन्न हुआ आतध्यान ॥७॥ यह आर्तध्यान रति और अरति| रूप अशुभ परिणामोंसे तथा मायाचारसे मन और इन्द्रियों के विषयों की सिद्धि के लिये दुःखपूर्वक प्राणियोंके है
द्वारा किया जाता है |८|| इस आध्यानमें विषय और भोगोंकी इच्छासे पर वस्तु का चितवन किया जाता है, | इसे ही संसाररूपी चक्रको बढ़ानेवाला आर्तध्यान कहते हैं ॥९॥ पुत्र, मित्र, स्त्री और धन-धान्य आदि जो जो
इष्ट संपदाएं हैं, जो जो मन और इंद्रियों को सुख देनेवाली मनोहर वस्तु हैं। उनका वियोग होनेपर शीघ्र ही | उनका समागम कैसे हो ? इस प्रकारकी चिन्तासे जो एकाग्रचित्त होकर चिंतन करना है, उसको इष्ट-वियोगज | आर्तध्यान कहते हैं, यह आतंभ्यान महादुःख देनेवाला है । इसलिये मोक्ष की इच्छा करनेवाले और आत्माका | हित चाहनेवाले भव्य जीवोंको इस आध्यानका अवश्य त्याग कर देना चाहिये ॥१०-१२॥ दुःख |
और पीड़ा उत्पन्न करने वाले सर्प, शत्रु, विप, अनावृष्टि, राजा, चोर, दरिद्रता, भूत, पिशाच और शाकिनी आदि अनिष्ट पदार्थोंका संयोग होनपर उनका नाश कम होगा ? इस प्रकारकी चिन्तामें तत्पर होकर उस अनिष्टको दर | करनेके लिये एकाग्र मनसे बार बार चितवन करना अनिष्टसंयोगज नामका झरा आर्तध्यान कहलाता है।
यह आतध्यान मी महाअनिष्ट दुर्गतियों को देनेवाला है ॥१३-१५॥ किसी रोगसे, शोकसे, भयसे, | क्लेशसे, धनके नाशसे, शत्रुसे, राज्यसे, भाई वा स्त्रीसे, अनिमें पढ़नेसे अथवा और किसी तरहसे अनेक Ho
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१२० ॥
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शत्रुतः । राज्यादुभ्राष्टकलत्रादेः वह पातात्तथान्यथा ॥ १६ ॥ जायते च महापीडा नानादुःखप्रात्र सा 1 निरासार्थ हि तत्पीडां चैकाप्रेन च चिन्तनम् ॥ १७ ॥ तत्पीडाजनकं ध्यानमार्तं दुःखकरं मतम् । तस्मादार्तं सदा त्याज्यं मुक्तीच्छेन हि ||१८|| देवदेवेन्द्रनागेन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्तिनाम् । ऐहिकं ह्यक्षजं सौख्यं पदं वा लोकपूजितम् ॥१६॥ लोकेऽत्र परलोके व भिकांम्। तपःप्टेन तस्य फलेन स्वच्च मे यदि ॥ २०॥ तदा मेऽभिमतं सिद्धमित्यादि चाभिकांक्षणम् । तदेकाग्रेण योगेन चिन्तनं सुख लिप्सया ||२१|| ध्यानं तच्च निदानाख्यमतं स्याज्जिननापितम् । अतिदुःखकरं निंद्यमार्त्तध्यानं जिनैर्मतम् ||२२|| एवं चतुविधं पातं दुद्धर्थानं बंधकारकम् । जन्ममृत्युजराकीर्णसंसारस्य च कारणम् ||२३|| आर्तध्यानेन जीवोऽयं संसाराब्धी प्रमज्जति । करोति चास्रवं तीव्र भवबन्धनकारकम् ||२४|| अनादिकालतो जीव भार्तध्यानं तनोति सः । भवो न मुच्यते तेन कर्मबन्धो न हीयते ||२५|| संक्लेशेन च चित्तेन महामोहोदयेन
प्रकारके दुःख देनेवाली महापीडा उत्पन्न हो, उस पीडाको दूर करनेके लिये एकाग्र मनसे बार बार चितवन करना पीडाजनक नामका तीसरा आर्तध्यान कहलाता है, यह आर्तध्यान भी महादुःख देनेवाला है, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले आत्महितैषी पुरुषों को इस आवेध्यानका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।।१६ - १८ ॥ इम तपश्चरण के फलसे अथवा चारित्र धारण करने के फलसे मुझे देव, इंद्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र और चक्रवर्तीकेपद प्राप्त हों; इस लोकसंबंधी इंद्रियोंके सुख प्राप्त हों अथवा लोकपूजित पद प्राप्त हों; तभी मेरी इच्छा पूरी हो सकती है । अथवा संसार में जो जो सुंदर पदार्थ हैं, उन सबकी मुझे प्राप्ति हो; इस प्रकारकी इच्छा करना और सुख की इच्छासे एकाग्र चित्तसे बार बार चितवन करना निदान नामका चौथा आध्यान कहलाता है, ऐमा भगवान् जिनेन्द्र देवने कहा है । यह आर्तध्यान अत्यन्त दुःख देनेवाला है और निंद्य है, ऐसा भगवान् जिनेन्द्र देवने बतलाया है ।।१९ २२|| इस प्रकार चारों प्रकारका आर्तध्यान अशुभ ध्यान है, कर्मबंधको करनेवाला है और जन्म, मरण तथा बुढ़ापा आदिसे भरे हुए इस संसारका कारण है ||२३|| इस आर्तध्यान के कारण यह जीव इस संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है और संसारका बंधन करनेवाले तीव्र आम्रत्रको करता रहता है ||२४|| यह जीव अनादि कालसे आर्तध्यान करता आया है और इसीलिये इसका संसार नहीं छूटता तथा कर्मबंध कम नहीं होता ||२५|| संक्लेश परिणामोंसे अथवा तीव्र मोहकर्मके उदयसे इस संसार में आर्तध्यान उत्पन्न
I
驻北铁东铁等地发矿
भाटी
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॥१२१॥
वा । आध्यानं भवेदन तिर्यक कुगतिकारणम् ॥२६॥ आध्यानेन जीवस्य जागतिः कामगर्दभादिपर्यायस्तेनैव जायते ननु रजा अार्तध्यानेन संतप्तश्चिन्ताकुलितमानसः । जीवो हि लियते तेन सहमानोपि चेदनाम् ॥२१ आधिव्याधिसहस्राणामार्तध्यानं हि कारणम् । चित्तक्लेशकरं विद्धि तद्धि परमदुःखदम् ॥२॥
नकुलसर्पमेषादीनां परस्परयोधनम् । कलहो भ्रातृबन्धूनां ताडनं मारणं तथा ||३०|| यज्ञेहि हिंसनं जीवानां वा हिंसादिकारण । एवं हिंसाप्रयोगेषु हानन्दो यस्य जायते ॥३शारौद्रध्यानं भवेत्तस्य रौद्रभावन कर्मणा। हिंसादिकरकर्माश्रित ध्यानं च मवेदिदम्॥३२। जीवहिंसा हि लोकस्मिन् निंद्या गर्या च पापदा । कूरभावकरा सात्र मानन्दाय च किं भवेत्॥३॥ धर्महेतुकृता हिंसा वानन्दाय कथं भवेत् । रौद्रव्यानी तथाप्यव हिंसायां सुखमश्नुते ॥३४॥ हिंसायास्तदुपायम्य कारणस्य च चिन्तनम् । एकाप्रमनसा तद्धि रौद्रध्यानं भवेदिह ।।३।।
होता है । यह आर्तध्यान तिर्यच् नामकी कुगतिका कारण है ॥२६॥ इस आर्तभ्यानसे जीवकी दुर्गति होती | है; और कुत्ता, गधा आदि नीच पशुओंकी पर्याय इसी आर्तध्यान से मिलती हैं ।।२७॥ इस आर्तध्यानसे संतप्त होकर जिसका मन चिंतासे व्याकुल हो रहा है, ऐसा जीव तीव्र वेदनाको सहता हुआ महादुःखी होता है ॥२८॥ यह आर्तध्यान हजारों आधि-व्याधियोंका कारण है, चित्तको क्लेश उत्पन्न करनेवाला है और | महादुःख उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा तू समझ ॥२९॥
न्योला-सर्पका वा भेड़ोंका परस्पर युद्ध देखना, भाई भाइयोंका युद्ध कराना वा ताडन-मारण करना | हिंसादिक कार्योंमें वा यज्ञ आदिमें होनेवाली हिंसामें आनन्द मानना वा और मी हिंसाके प्रयोगोंमें आनंद | मानना रौद्रध्यान कहलाता है, यह रौद्रध्यान रौद्रभावोंसे वा रौद्रकर्मोंसे होता है । तथा यह ध्यान हिंसादिक क्रूर कर्मों के आश्रयसे ही होता है ॥३०-३२।। इस संसारमें यह जीवोंकी हिंमा निन्ध है, गर्म है, पाप उत्पन्न करनेवाली है और क्रूर भावोंको उत्पन्न करनेवाली है । ऐसी हिंसासे मला आनन्द कैसे हो। सकता है ? ।।३३।। फिर भला जो हिंसा धर्मके लिये की गई है, उसमें आनन्द कैसे हो सकता है ? तथापि रौद्रध्यान करनेवाला हिंसामें ही सुख मानता है ॥३४॥ एकाग्रमनसे हिंसा वा हिंसाके उपायोंके कारणोंका चिन्तवन करना इस संसारमें रौद्रध्यान कहलाता है ॥३५॥
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॥ १२२ ॥
सत्यं दुःखदं साक्षाद्वाऽविश्वासविधायकम् । परन दुःखदं चास्ति प्राणी तदपि मोहतः ||३६|| असरये मनुते हर्षमात्मसन्तोषकारकम् । इनि सस्याप्यसत्यस्सः ॥३॥ ध्यानं भवेतद्धि चित्तव्याकुलताकरम् । 'असत्यकार णानां वाऽसत्यस्याश्र विचितनम् ॥ १८ ॥ रौद्र ं तदपि वा ध्यानं दुर्गतेयक मतम् । तस्माद्रौद्रं सदा त्याज्य हितेच्छुकमुमुक्षुणा ||२६|
रतेयकर्म द्दि लोकेरिमन् प्रत्यक्षं दुःखदं मतम् । परलोके हि दुर्गत्यां दुःखं भवति दारुणम् ||४०|| स्वेयकृत्येन चानन्दः कथं खलु भवेदिह । तथापि तत्र चानन्दं मन्यते पापधीः कुधीः ॥४१॥ इति संधार्य चित्तस्मिन् स्वेयकर्म विचिन्तनम् । करोति रुद्रभाषेन चैकाग्रमनसा पुनः ॥४२॥ रौद्रध्यानं भवेतद्धि चातिसंतापदायकम् । तस्माद्रौद्रं सदा त्याज्यं भव्य जीवेन सर्वथा ||४३|| अत्यन्तमूर्द्धया दुष्टचेष्टया हीन कर्मणा । दासीदासादिभृत्यानां मोहतः खलु संग्रहः ॥ ४४ ॥ गृहादिपरवस्तूनां कांक्ष
असत्य वचन मी प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, अविश्वासके कारण हैं और परलोकमें भी दुःख देनेवाले हैं, तथापि ये प्राणी मोहके कारण असत्य में आनन्द मानते हैं और असत्य से बहुत संतुष्ट होते हैं, इस प्रकारके असत्यके आनंद और संतोषको बार बार चिन्तवन करना दूसरा रौद्रध्यान कहलाता है । यह रौद्रध्यान भी चित्तको व्याकुल करनेवाला है । इसीप्रकार असत्यके कारणोंका वा असत्यका बार बार चिन्तन करना भी दुर्गति देनेवाला रौद्रध्यान कहलाता है । इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले आत्महितैषी पुरुषोंको इस रौद्रध्यानका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये || ३६- ३९ ॥ चोरी करना भी इस संसार में प्रत्यक्ष दुःख देनेवाला है और परलोकमें भी इससे दुर्गतियोंमें दारुण दुःख प्राप्त होता है। ऐसी चोरी करना भला आनन्द कैसे उत्पन्न कर सकता है ? तथापि पापरूप दृष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला उस धोरीमें भी आनंद मानता है। इसप्रकार आनंदपूर्वक एकाग्र मनसे और रौद्र परि धामोंसे जो इस चोरीका बार बार चितवन करना है, उसको रौद्रध्यान कहते हैं। यह तीसरा रौद्रध्यान मी अत्यन्त संताप उत्पन्न करनेवाला है । इसलिये भव्य जीवों को इस रौद्रध्यानका मी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥४०-४२ ॥ अत्यन्त सेवा दुष्टचेष्टा से अथवा अशुभ कर्मके उदयसे और मोइसे दास दासी आदि सेवा संग्रह करना अथवा रागभावसे घर आदि परवस्तुओं की इच्छा करना, अथवा रागभावसे पुत्र, मित्र, स्त्री आदि
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मु.प्र.
॥१२३॥
रागभालत पुटनिकमा समान रक्षणम्॥४ा कामादिसेवनं गृद्धया प्रीत्यान्यनीनिगृहनम् । इत्यादिरागचेष्टानि जायन्ते क्रूरकर्मणा ॥४क्षा परवस्तु निजं मत्वा मोहव्याकुलचेतसा चिन्तनं हि तदर्थ तद्रौद्रध्यानं भवेदिहापंचाज्ञविषयाणां हि सेवनं रौद्रकर्मणा । चिन्तनं च तदर्थ हि पाप भीम कुकर्म वा ॥४८॥ विषयानन्दनामेदं रौद्रध्यानं भवेदिह । | एवं रौद्र चतुर्भेदं पंचमान्तं हि तद्भवेत् ॥४|| रौद्रध्यानेन जीवोयं नरकादिकदुर्गतौ । चिरं च सइते दुःख ताडनादि वधादिकम् ५०॥ रौद्रध्यानं सदा त्याज्यं भव्येन सुखलिप्सया । रौद्र नियं त्रिलोकेषु दुर्गतेर्दायकं परम् ||१|| त्यजतु अपि सुधीमन्नातरौद्र च नियं नरकसदनमार्ग दुःखद क्रूरकर्म । परमसुखनिधान सर्वकल्याणवीजं धरतु इह सुधर्मध्यानमानन्दकन्दम् ।।५२।। - [इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे प्रातरौद्रध्यानप्ररूपणो नाम धसुर्दशोधिकारः । की रक्षा करना, गृद्धतापूर्वक कामसेवन करना, रागपूर्वक अन्य स्त्रियोंकी लालसा करना, इसप्रकार रागभावके उदयसे रागकी चेष्टाएं करना वा ऋर कोंक द्वारा रागरूप चेष्टाएं करना, अथवा मोहसे व्याकुल चित्त होकर परवस्तुओंको अपनी मानना और बार बार उनका चितवन करना विषयसंरक्षणानंद नामका चौथा
रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्र कर्मोंका तथा पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करना, तथा उसके लिये भयानक | | पापों वा कुकर्मोका चितवन करना विषयानन्द नामका चौथा गैद्रध्यान कहलाता है। इसप्रकार रौद्रध्यानके R/चार मेद हैं और यह रौद्रध्यान पांचवे गुणस्थान तक होता है ॥४४-४९|| रौद्रध्यानके कारण यह जीव | 5. नरकादिक दुर्गतिमें जाता है और वहांपर ताडन वध आदि अनेक दुःख चिरकालतक सहन करता रहता K| है ॥५०॥ इसलिये भव्य जीवोंको सुख चाहनेकी इच्छासे इस रौंद्रध्यानका सदाके लिये त्याग कर देना
चाहिये । क्योंकि यह रौद्रध्यान तीनों लोकोंमें निंद्य है और बुरीसे बुरी दुर्गतियोंको देनेवाला है ।।५१॥ हे बुद्धिमन् भव्य जीवो ! यह रौद्रध्यान अत्यन्त निंद्य है, नरकरूपी घरका मार्ग है, दुःख देनेवाला है और क्रूर कर्म है; इसलिये इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और परम सुखका निधान, समस्त काल्याणोंका कारण और आनन्दवरूप-ऐसे सुधर्मध्यानको सदा धारण करना चाहिये ॥५२॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें प्रार्थध्यान और रौद्रध्यानको
· वर्णन करनेवाला यह चौदहवां अधिकार समाप्त हुआ।
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॥१४॥
पञ्चदशोधिकारः।
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ध्यानेन कर्मपंक हि हत्वा यः प्राप केवलम् । सम्यकत्रियोपदेष्टारं वन्देऽनन्तजिनश्वरम् ॥१॥ क्रियया जायते सम्यग्भ्यानसिद्धिः सुखावहा । अनायासेन जीवानां ततः ध्यानक्रियोच्यते ॥२|श्रादौ स्थानं विधिः पश्चाक्षक्षणं तदनंतरम् । एवंक्रमविधानेन धर्मध्यानं तनोम्यहम् |शा शुद्धभूमौ शिलापट्टे दारूपट्टच वाद्रिके । फलके या तृणादौ च शासनानि प्रकल्पयेत् ॥ा निःशंकिते वसत्यादौ निर्वाधे च निराकुले । सुरक्षिते मनोरम्ये निर्भये सुखशान्तिदे | प्रामेऽरण्ये च चैत्यादौ विजने जन्तुवजिते । स्त्री उपशुपाखण्डिचौरादिरहिते शुभे ॥६॥ दद्वयादित्रसंगीतकोलाहल.
जिन्होंने अपने ध्यानके द्वारा कर्मरूपी कीचड़को नानकर केवल ज्ञान प्राप्त किया है और जो श्रेष्ठ | क्रियाओंके उपदेशको देनेवाले हैं, ऐसे भगवान् अनन्तनाथको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ जीवोंको इस ध्यानकी क्रियासे ही सुख देनेवाली ध्यानकी सिद्धि बिना किसी विशेष परिश्रमके अच्छी तरह हो जाती है, इसीलिये मैं ध्यानकी क्रियाका वर्णन करता हूँ ॥२॥ पहले ध्यानका स्थान, फिर उसकी विधि और सदनंतर ध्यानका लक्षण-इस प्रकारके अनुक्रमसे मैं धर्मध्यानका स्वरूप कहूँगा ॥३!! किसी शुद्ध भूमिमें, शिलापट्टपर, लकड़ीके टुकड़ेपर वा पर्वतपर, तस्वतेपर, वा तृणोंपर बैठकर या खड़े होकर ध्यान करनेवालेको अपने आसनकी कल्पना
करनी चाहिये ॥४॥ जो वसत्तिका आदि स्थान शंकारहित है, बाधारहित है, आकुलतारहित है, सुरक्षित का है, मनोहर है, निर्भय है, सुख और शांतिको देनेवाला है, मनुष्यों के उपद्रवोंसे रहित है, जंतुओंके उपद्रवोंसे
रहित है। स्त्री, नपुंसक, पश, पाखण्डी और चोरोंके उपद्रवोंसे रहित है, शुभ है और उपद्रव बाजे संगीत, all आदिके कोलाहलोंसे रहित है। ऐसे किसी गांवमें, इनमें, घरमें वा चैत्यालय आदिमें चतुर पुरुषों को ध्यान
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भा.
११२५॥
विवर्जिते । इत्थंभूते गृहादौ वा ध्यानं कुर्याद्विचक्षणः ॥७॥म्जेक्षाधमनरैर्जुष्टं दुष्टभूपालसेवितम् । महामिथ्यात्वसंयुक्तजनैः | RI संसेवितं तथा || यहूपद्रवसंन्याप्तै: क्रूरैः शौच सेवितम् । भूतप्रेतपिशाचादिस्थानं वाधाकरं परम् ।।६॥ दुर्गादिदेवतास्थानं
युद्धस्थानं भयानकम् । पलमूत्रादिसंव्याप्तं दुर्गध मलिन तथाना मनःक्षोभकरं स्थानं चाक्षव्यामोहकारकम् । बाधिव्याधिकरं ती दुष्टवायुप्रसारितम् ||११॥ दुर्भिक्षण महारूदं हिंसास्थानं विनिंदितम् । एवं हि कुत्सितस्थानं ध्यानकाले त्यजेत्सुधीः ॥१सा दुःस्थानं वात्र मोक्तव्यं साधुना ध्यानमिच्छना । यतो हि कुत्सितस्थाने ध्यान न स्यात्कदापि वा ॥१३॥
निकृष्टे पंचमे काले भरतेऽध्यार्यदशके । जातितंशविशुद्धेऽपि नापमहाननं भवेत् me आयसंहननामावे शुक्लध्यानमपीह न । परीषदोपसर्गादिजयोऽपि न भषेकदा ॥१॥ तीन तपोऽपि नैवात्र मनःशुद्धिन
करना चाहिये ॥५-७|| जो स्थान म्लेच्छ और अधर्मी पुरुषोंसे भरा हुआ है, दुष्ट राजा जिसपर राज्य कर रहार है, तीव्र निध्यात्वसे भरे हुए लोग जहां निवास कर रहे हैं, जो स्थान अनेक उपद्रवोंसे भरा हुआ है, | जहांपर क्रूर और मदोन्मत्त लोग निवास करते हैं, जो स्थान भूत प्रेत वा पिशाचोंका स्थान है, जो
अनेक वाधाओंको उत्पम करनेवाला है, जो दुर्गा आदि देवियों का स्थान है, जो युद्धका भयानक | स्थान है, जो स्थान मलमूत्रसे भरा हुआ है, दुर्गधसहित और मलिन है, जो स्थान मनको घोभित | करनेवाला है, इन्द्रियोंको मोहित करनेवाला है, अनेक मानसिक वा शारीरिक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला है, जहां की वायु दुष्ट है, जो स्थान तीव्र है, जो दुर्मिक्षिताके कारण महारूया है, जो हिंसाका स्थान है, वा जो निंदनीय स्थान है; ऐसे ऐसे जितने कुन्सित स्थान हैं, वे सत्र ध्यानके समय बुद्धिमानोंको छोड़ देने चाहिये | 11८-१२॥ अथवा ध्यानकी इच्छा करनेवाले साधुओंको नीच और अशुभ स्थानोंका अवश्य त्याग कर | देना चाहिये। क्योंकि कुलित वा निधनीय स्थानमें कभी ध्यान नहीं हो सकता ॥१३॥
हम निकृष्ट पश्चम कालमें तथा भारतक्षेत्रके आर्य देशमें जाति और कुलसे विशुद्ध मनुष्योंके भी पहलेके | उत्तम संहनन नहीं होते । तथा पहलेके उत्तम संहननोंके न होनेसे शुक्लध्यान भी नहीं होता तथा परिपहोंका
जीतना और उपसर्गोका जीतना मी कमी नहीं होता ॥१४-१५|| हीन संहनों के कारण तीव्र तपश्चरण मी | Hel नहीं होता और मनकी शुद्धि भी अच्छीतरह नहीं होती, तथा हीन संहनन धारण करनेवालोंका मन मी |
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:२६ ॥
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सुन्दरम् । हीनसंहननादत्र मनः स्खलाते संततम् ॥१६।। तश्चित्तं न समायाति स्थैयरूपं हि कष्टतः ।।
भा नाद्धर्मध्यानमात्रं भवेदिह ॥१०॥ एष कालप्रभावोऽयं दुर्निवारो मतो जिगैः । अत एवाधुना लोके नोक्षसिद्धिर्न जायते ॥१॥ ऐदंयुगीनसाधूनां सम्यग्दर्शनशोभिनाम् । अत्यल्पवीर्ययुक्तानां ध्यानं स्यानिरुपद्रवे ॥१॥ प्रामादौ पत्तने वापि चैत्यालयमनोहरे । सुरक्षिते भवेद्ध्याने सर्वशंकाविवर्जित ।।२०|| सर्वासनं तथा सर्वस्थानं ध्यानस्य सिद्धये । भवति पत्रकायानां नाल्पवीर्यात्मनो मतम् ॥२१॥ बत्रकाया महाधीराः सर्वतो भन्यजिताः 1 जिनकल्पसमापन्ना नरमांगाः सुरातनः ॥२२॥ सर्वस्थानं मतं तेपामासनं विविध तथा । सर्वत्र सर्वभावेन स्वतंत्राः सिंहवृत्तयः १२३॥ तेशं जिनागमे नैव स्थानस्य वा नियंत्रणम् । उपसगैमहाघोरवदानवकल्पिः ॥२४॥ स्खलति न मनाक चित्तमुपद्रवशतैरपि। येषां तेषां न वा स्थान नियतं हि जिनागमे ॥२१॥ इन्द्रोऽपि च न शक्तोऽस्ति विभेत्तु निश्चलं सदा स्खलित होता रहता है ।१६॥ हीन संहनन होने के कारण यह चित्त बड़े कष्टसे भी स्थिर नहीं होता।
इसलिये इन कालमें केवल धर्मध्यान ही हो सकता है॥१७॥ रह कालका ही प्रभाव है । और भगवान जिनेन्द्र | त देवने इस कालको दुर्निवार यतलाया है, इसीलिये इस कालमें मोक्षकी सिद्धि नहीं होती है ॥१८॥ सम्यग्दर्शनसे || N) सुशोभित होनेवाले इस युगके साधु बहुत ही अल्प शक्तिको धारण करनेवाले होते हैं, इसलिये इस कालमें | | उपद्रवरहित स्थानमें ही ध्यान हो सकता है ॥१९॥ जो गांव, नगर वा चैत्यालय मनोहर है, सुरक्षित है,
और समस्त शंकाओंसे रहित है; से ही स्थानोंमें इस कालमें ध्यान हो सकता है ।।२०॥ जिनका शरीर वन| वृषभ नाराचमय है, उनको सब आसनोंसे और समस्त स्थानों में ध्यानकी सिद्धि हो सकती है। परंतु अल्प JA
शक्ति धारण करनेवालोंको नहीं ॥२१॥ वनमय शरीरको धारण करवाले महाधीर और वीर होते हैं, सब | तरहसे भयरहित होते हैं, जिनकल्प लिंगको धारण करते हैं और श्रेष्ठ कालके अनुसार चरम शरीरको धारग करनेवाले होते हैं । ऐसे मुनियों के लिये सब स्थान और अनेक प्रकारके आसन माने गये हैं । ऐसे मुनि सब स्थानोंमें और सब तरह के परिणामोंसे स्वतन्त्र होते हैं और सिंहवृत्तिको धारण करनेवाले निर्भय होते हैं ॥२२-२३।। जैनशास्त्रोंमें ऐसे मुनियों के लिये स्थानका नियन्त्रण कुछ नहीं है । जिनका हृदय देव-दानवों के
॥१२६॥ | द्वारा किये हुए महाघोर उपसर्गों तथा सैकड़ों उपद्रयोंसे भी कभी स्खलित नहीं होता, उनके ध्यानके लिये
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॥१२॥
मनः । येषां तु योगिनां तेषां स्थानस्य का विचारणा ॥२६॥ तद्वैयं तम्मदीयं तस्थानं हि तदासनम् । पुरातन मुनीनां च वोपसर्गसहिष्णुता रजा स्वप्नेऽपि तादृशं कतुं नो क्षमाः कलकालजाः । मुनयो हीनवीयत्वाद्धीनसंहननात्तथा ॥२८॥ संवत्सरकपर्यन्तं कायोत्सर्ग स्थिरासनम् । महामहोपवासेन साम्प्रतं कर्तुमक्षमाः ॥॥ उपसर्ग महापोरं भयानकपबहाम् । स एव सहन साम्प्रतं मुनयो घराः ॥३॥ ऐदंयुगीनसाधूनां साम्प्रतं न समर्द्धयः । मनःपर्ययविज्ञानमत एव भवन्वि न ॥३१॥ चतो नैव महाविद्यास्तयां सिद्धधन्ति साम्प्रतम् । स्वर्गद्व जगद्वन्धं धर्मध्यानं भवेदिह ।।३२|| अधुना हीनकालेऽस्मिन् पुरातनसुकालबत् । मूलान् गुणांश्च ये सम्यक चाप्टाविंशतिकान शुभान् ॥३३॥ धारयन्ति सुभावेन धन्यास्ते पृथिवीतले । तेषां हि साहसं धन्यं धन्यस्तेषां पराक्रमः॥३४॥ हीनसंहननत्वेऽपि तपः कुर्वन्ति दुर्द्धरम् । दीक्षामिमा सुकठिनां दुर्द्धरा जातरूपिकाम् ॥३५॥ धारयन्तो यनीशास्ते पुरातन इवाघुना । अशक्यं हि
जैनशास्त्रोंमें कोई स्थान नियत नहीं है । ऐसे मुनि चाहे जहां ध्यान कर सकते हैं ।।२४-२५।। जिनके निश्चल मनको | भेदन करने के लिये इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता, ऐसे योगियों के लिये भला स्थानका क्या विचार करना चाहिये
॥२६॥ पहले मुनियोंका जो धैर्य है, जो महावीर्य है, जो स्थान है,जो आसन है और जो उपसर्ग महन करने की शक्ति | है; इस कलिकाल के मुनियों को स्वप्न में भी कमी नहीं हो सकती; क्योंकि कलिकालके मुनि हीन संहननवाले 15
और अल्प शक्तिको धारण करनेवाले होते हैं ।।२७-२८॥ अबके मुनि एक वर्ष पर्यन्त महामहोपवास धारणकर १ स्थिर आसनसे कायोत्सर्ग धारण करने के लिये सर्वथा असमर्थ हैं ॥२९|| इसीलिये इस कालके श्रेष्ठ मुनि मी | महाघोर उपसर्गोको तथा भयानक परिपहोंको कमी सहन नहीं कर सकते हैं ॥३०॥ इस युगके साधुओंको इस समय न तो बड़ी बड़ी ऋद्धियां होती हैं, न मनापर्ययज्ञान होता है और न उनको इस समय महाविद्यायें सिद्ध होती हैं । इस कालमें स्वर्ग देनेवाला और जगन्ध ऐसा धर्मध्यान ही हो सकता है ॥३१-३२॥ इस हीन काल में भी पहले कालके समान जो शुभ अहाईस मूलगुणोंको श्रेष्ठ परिणामोंसे धारण करते हैं, | वे ही मुनि इस पृथ्वीतल पर धन्य है। ऐसे मुनियोंका साहस भी धन्य है और उनका पराक्रम मी धन्य है ॥३३-३४॥ क्योंकि वे हीन संहनन होनेपर भी दुर्धर तपश्चरण करते हैं और वे मुनि पहले चौथे कालके नियों के समान इस समयमें भी अत्यन्त कठिन नग्नरूप इस जैनेश्वरी दीक्षाको धारण करते हैं। वे सनि न
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सुशक्यं वा कुर्वन्तस्ते यतीश्वराः ||३६|| जगत्पूज्या जगद्वन्या धन्यास्ते नग्नरूपकाः । होतसंहननस्त्राच स्थानं तेषां सुरक्षितम् ||३७|| आसनं स्वानुकूलं हि प्रामादौ च भवत्यम् । शुद्धभूमौ शिलापट्टे दारुपट्टे च चाट्टिके | तृणान्वये हि काष्ठे वा आसनानि प्रकल्पयेत् । समाधौ प्रासुके शुद्ध े दरो तृणमयेऽथवा ॥ ३६ ॥ श्रसनं शयनं तत्र कल्पयेत्साधुसत्तमः । पल्यङ्कम पल्यङ्कपद्मवीरसुखासनम् ॥ ४० ॥ कायोत्सर्ग तथा वद्धपद्मासनं तथा । एवंविधान्यनेकानि ह्यासनानि जिनामे ||४|| येन येनासनेनैव स्थिरचित्तं प्रजायत । तत्तदेवासनं श्रेष्ठं विधेयं योगिभिः सदा ||४२|| सर्वानेषु पर्यकं कायोत्सर्ग विशेषतः । प्रशस्तमासनं ज्ञेयं चेदयुगीन योगिनाम् ॥४३॥ श्रासनस्य सदाभ्यासं कुर्यात्साधुर्निरन्तरम् । समाधौ चोपसर्गे च येन चित्तं स्थिरी भवेत् ||४४ ॥ यदासनस्य नी स्थैर्ये किं ध्यानं तस्य वै भवेत्। स्थैर्यासनेन स योगी प्रयाति स्थिरचित्तताम् ||४५|| पुनः पुनः सदाभ्यासमासनस्य करोति यः । सर्वक्षेत्रे प्रसंगे सः धैयं धरति तत्त्वतः ॥ ४६ ॥ स्थानासनविधानानि सर्वाणि संचरेत्सुधीः । ध्यानसिद्ध निबंधानि शुद्धिश्च
होने योग्य अशक्य कार्य को भी सरलता के साथ धारण कर रहे हैं ।। ३५ -- ३६ ॥ इसीलिये वे मुनि जगत्पूज्य जगद्वन्द्य हैं, नग्न अवस्थाको धारण करनेवाले हैं और इसीलिये धन्य हैं। परंतु हीन संहनन होनेके कारण उनका स्थान सुरक्षित ही होना चाहिये ||३७|| ऐसे मुनियोंका आसन किसी भी गांव आदि में उनकी अनुकूलता के अनुसार होना चाहिये । शुद्ध भूमिमें, शिलापर, लकड़ी के तख़्तेपर, तृण वा काठसे बने हुए आसनपर आसनकी कल्पना करनी चाहिये। समाधिमें शुद्ध तृों वा तृणोंके बने आसनोंमें उत्तम माधुओं को आसन लगाना चाहिये, अथवा शयन करना चाहिये । पर्यकासन, अर्धपर्यकामन, पद्मासन, वीरासन, सुखानन कायोत्सर्ग, वज्रासन, बद्धासन, पद्मासन आदि अनेक प्रकारके आसन जिनागममें बतलाये गये हैं ।। ३८-४११ जिस जिस आसन से अपने चित्त की स्थिरता हो वही वही श्रेष्ठ आसन योगियों को धारण करना चाहिये ॥ ४२ ॥ इम युग सुनियोंके लिये समस्त आसनोंमें विशेषकर पर्यासन अथवा कायोत्सर्ग आसन श्रेष्ठ आसन माना जाता है ||४३|| साधुओं को लदा आसनोंका अभ्यास करते रहना चाहिये। जिससे कि समाधि और उपसर्गके समय भी चित्त स्थिर बना रहे ||४४ || जिस मुनिका आसन ही स्थिर नहीं हैं, उसे भला ध्यान कैसे हो सकता है ? क्योंकि योगीका चित्त स्थिर आसन से ही स्थिरताको प्राप्त हो सकता है || ४५|| जो योगी आसनोंका बार बार अभ्यास करता है, वह समस्त क्षेत्रों में और समस्त प्रसंगों में वास्तविक धैर्य धारण कर सकता है ॥४६॥ अनेक
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विविधा शुभा ।।४७|| शुद्धि विना क्रियाः सर्वा विफलाः श्रममात्रकाः। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शुद्धिः कार्या निरन्तरम् ॥४|| द्रव्यक्षेत्रादिकानां च शुद्धिं कुस्वा प्रयत्नतः। तया भाव विशुद्धिः स्याजिनाज्ञापालनं भवेत् || बाह्याभ्यन्तरशुद्धिं च कृत्वा मंत्रजलादिना । सर्वसँग च भावना त्यक्त्वा ध्यान समाचरेत् ॥५०॥ अन्तःशुद्धिस्तु भव्यानां ध्याने किल्बिषनराशिका। भावशुद्धिकरी चास्ति वात्मवीर्यप्रवद्धिका ॥५१॥ बाशुद्धिस्तु सर्वत्र सर्वसिद्धिप्रदायिका । मूला हि सर्वसिद्धीना चागमाज्ञा प्रमाणतः ॥५२॥ यदा यदा ह्यविक्षिप्त मुश्चित्तं भवेत्तराम् । तदा तदा हि शुद्धि तां प्रकुर्यात शुद्धभावतः ॥शा | ततो मनोविशुद्धयर्थं कुर्वन्तु साधयोऽमलाम् । बाह्याभ्यन्तरशुद्धिं सां भावशुद्धिविधायिकाम ||५|| विजने वा जनाकी सुस्थिते दुःस्थितेऽथवा। समाधौ स्थिरचित्तेन ध्यानं कुर्वन्तु साधवः ॥५५| निद्रां तन्द्रां तथालस्यं प्रमादानादरं
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| प्रकारके स्थान और आसन तथा अनेक प्रकारकी शुभ शुद्धि, ये सब ध्यानकी सिद्धि के कारण हैं। बुद्धिमानोंको
इन सबका अभ्यास करना चाहिये ॥४७॥ बिना शुद्धिके समस्त क्रियायें निष्फल तथा केवल परिश्रमरूप है, | इसलिये साधुओंको अपने समस्त प्रयत्नोंसे निरंतर शुद्धि करते रहना चाहिये ॥४८॥ मुनियोंको प्रयत्नपूर्वक द्रव्य, 1K
क्षेत्र और काल आदिकी शुद्धि रखनी चाहिये, क्योंकि इनकी शुद्धिसे ही भावोंकी शुद्धि होती है और भगवान् जिनेंद्र | देवकी आज्ञाका पालन होता है ॥४९॥ जलशुद्धि वा मंत्रशुद्धिसे बाय-आभ्यंतरकी शुद्धि करके तथा | भावपूर्वक समस्त परिग्रहोंका त्याग करके ध्यान धारण करना चाहिये ॥५०॥ भव्य जीवोंके द्वारा ध्यानके समय की हुई अंतरंग शुद्धि पापोंका नाश करनेवाली है, मानोंको शुद्ध करनेवाली है और आत्माकी शक्तिको बढ़ानेवाली है ॥५१॥ तथा बाह्यशुद्धि सब जगह समस्त सिद्धियोंको करनेवाली है और आगमकी आज्ञाके अनुसार समस्त सिद्धियोंका मूल कारण हैं ॥५२।। मुनियोंका हृदय जब जब निश्चल हो तब तब शुद्ध भावोसे शुद्धि कर लेनी चाहिये ॥५३॥ इसलिये साधुओंको अपना मन शुद्ध करनेके लिये भावशुद्धिको उत्पन्न | करनेवाली निर्मल बास-आभ्यंतर शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये ॥५४॥ साधुलोगोंको निर्जन स्थानमें वा मनुष्योंसे भरे हुए स्थानमें, सुलभ वा कठिन आसनमें, समाधिके समय स्थिर चित्त होकर ध्यान करना चाहिये १॥५५॥ ध्यानके समय निद्रा, तन्द्रा, आलस्य, प्रमाद, अनादर, विस्मरण, भय, क्रोध और मान आदि सबका
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तथा । भयविस्मरणक्रोधमानादीनि च संत्यजेत् ॥ ५६ ॥ शरीरकंपनं नेत्रपरिस्पदं च जृम्भणम्। वेपथु' डोलनं द्दिकां प्रमादं छर्दनं तथा ॥ ५७॥ प्रलापर्क च खापं च हास्य नृत्यं च मत्तताम् । परिवादो वित्रादोऽय मंडनं वर्जनं तथा ॥२८॥ अङ्गोपाङ्गासिंकोचद्धनं कामचिन्तनम् । सम्मोहनं च लिङ्गादिस्थूलीकरणकं तथा ॥५६॥ श्रार्तरौद्रकरी चिन्तां रोषं शीलप्रभञ्जनम् । इत्यादिकक्रियां सर्वा ध्यानकाले विसर्जयेत् ||६० || मनः संरुध्य संकल्पविकल्पादीनि संत्यजेत् । कौतुकादिकुचेष्टां च सर्वाशां वा त्यजेत्सुधीः ||६१ || निश्चलत्वं स्थिराभ्यासं शांति चित्तप्रसन्नता । परीपहसहिष्णुत्वं स्थिरचित्तं निराकुलम् ||६२ || वैराग्यभावसम्पत्तिः विषयत्याग एव च । कषायानामभावो हि धैर्य हान्त्यज्ञम्बनम् ||३३|| इत्यादिकशुभा चेप्टा क्रिया कार्या मुमुक्षुभिः । ध्यानकाले हि सर्वेषां कर्मणां जयसिद्धये ॥ ६४॥ पूर्वाशाभिमुखस्तत्र चोत्तराभिमुखस्तथा । ध्यानकाले तदा ध्याता सिष्ठेत् सुस्थिरभावः ||१५|| ईर्यापथं समुचार्य प्रति
त्याग कर देना चाहिये ॥ ५६ ॥ शरीरको कम्पायमान करना, नेत्रोंको बार बार स्पंदन करना, जंभाई लेना, काँपना, हिलना, छींकना, प्रमाद वमन, प्रलाप, निद्रा, हँसी, नृत्य, उन्मत्तता, वाद-विवाद, मंडन, वर्जन, अंग-उपांगोंका संकोच वा विस्तार करना, कामका चिन्तवन करना, मोहित होना, लिंगादिकका स्थूल करना, आर्तरौद्रको उत्पन्न करनेवाले चितवन, क्रोध और दुःशीलका चितवन आदि समस्त क्रियाएँ ध्यानके समय छोड़ देनी चाहिये ॥ ५७-६० ।। बुद्धिमान् मुनियोंको अपना मन रोककर सब तरह के संकल्प-विकल्पों का त्यागकर देना चाहिये । तथा कौतुक, कुचेष्टा और सब प्रकारकी आशाओंका त्याग कर देना चाहिये ॥ ६१ ॥ मोक्ष की इच्छा करनेवाले साधुओंको समस्त कर्मोंको जीतने के लिये ध्यानके समय निश्चल रहना चाहिये स्थिरताका अभ्यास करना चाहिये, चित्तको शांत और प्रसन्न रखना चाहिये, परिषदोंको सहन करना चाहिये, feast feeकुल और स्थिर रखना चाहिये, वैराग्यभावनाकी संपत्ति धारण करनी चाहिये, विषयवासनाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये, कषायोंका त्याग कर देना चाहिये तथा धैर्य और क्षमाको धारण करना चाहिये | ध्यान करते समय साधुओं को इन सब शुभ क्रियाओंको करना चाहिये ॥ ६२-६४ || ध्यान करनेवाले साधुको ध्यानके समय स्थिर चित्त होकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर सुखकर बैठना चाहिये ॥६५॥ सबसे पहले ईर्यापथ-शुद्धिका पाठ पढ़ना चाहिये, प्रतिक्रमण पाठ पढ़ना चाहिये, दंडक पाठकी
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क्रमाकं पठेत् । दण्डकपाठगाथां हि पठित्वा ध्यानमाचरेत् ||६६|| अपराजितमंत्रस्य गाथां ध्यानस्य सिद्धये । स कायोत्सर्गपूर्व हि पठेत्स्वात्मविशुद्धये ॥६७॥ इत्यादिकशुभं कृत्यं कृत्वा च शुभभावतः । श्रीजिनामाप्रमाणेन पश्चादुध्यानं समाचरेत् ||६८|| इति विविधविधि यः सत्क्रियासंश्रितं वा निजनिजशुभभावात् सर्वशुद्धिं विधाय । कुरु कुरु अतिशीघ्रं ध्यानकाले चिदात्मन् भवति तब सुधर्म ध्यानयोग्यं मनोशम् || ६६||
इति सुधर्मध्यानप्रवालङ्कारे ध्यानक्रियाप्ररूपणो नाम पंचदशोधिकारः ।
गाथाएं पढ़नी चाहिये और फिर ध्यानका प्रारंभ करना चाहिये || ६६|| ध्यान करनेवाले साधुको अपने आत्मा को विशुद्ध करनेके लिये और ध्यानकी सिद्धिके लिवे अपराजित मंत्रकी गाथाको ( णमोकार मंत्र को ) कायोत्सर्गपूर्व पड़ना चाहिये ॥६७॥ इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके अनुसार शुभ परिणामोंसे पहले ऊपर लिखी सब कियाएं करनी चाहिये और फिर ध्यानका प्रारंभ करना चाहिये ॥ ६८ ॥ हे चिदात्मन् ! इसप्रकार अपने अपने शुभ भावोंसे तब प्रकार की शुद्धि करके श्रेष्ठ क्रियाओंसे शोभायमान - ऐसी ऊपर लिखी अनेक प्रकारकी विधिको ध्यान के समय तू शीघ्र ही कर । इसीसे अत्यन्त मनोहर और ध्यानके योग्य श्रेष्ठ धर्म तुझे प्राप्त होगा ||६९ ||
इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में ध्यानकी क्रियाओं का वर्णन करनेवाला पंद्रहव अधिकार समाप्त हुआ ।
भा०
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म १३२॥
षोडशोऽधिकारः।
कर्मचक्राणि यो ध्यानयोग प्रविभिद्य च । परमात्मपदे पाप वंदे धर्म जिनेश्वरम् ॥।॥ सम्यम्रष्टिः प्रसन्नात्मा सज्जासिः शुद्धवंशजः । कुलाचारयुतः शान्तो जिताक्षो वीतमस्सरः RI: संसारदेहनिविष्णः श्रात्मनो हितचिन्तकः । भवभीरुर्महाधीरो जिनाज्ञाप्रतिपालक: ॥३तत्वश्रद्धानसंपन्नश्चरणाशक्तमानसः । निर्ममो निरहंकारी निर्व्यसनश्च साहसी | दयालुः शुद्धचेतकः कपायविषयाविगः । दुष्टचिन्तनहीनः स आर्तरौद्रपरामुखः ॥शा व्यवहारजनीतिज्ञोऽभिज्ञश्च देशकालयोः । जातिमान्यः क्रियाभिज्ञा लोकाचारप्रवर्तकः ॥६॥ इत्यादिगुणसम्पन्नो ध्याता स्यार
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जिन्होंने अपने ध्यानरूपी वज्रसे कर्मोंके समूहको भेदनकर परमात्मपद प्राप्त कर लिया है, ऐसे | जिनेन्द्रदेव भगवान धर्मनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ आगे ध्याताका लक्षण कहते हैं-जो सम्यग्दृष्टि Rell है, जिसका आत्मा निर्मल है, जो राजाति और शुद्ध वंशमें उत्पन्न हुआ है, जो कुलाचारको पालन करता है, *
अत्यंत शांत है, इंद्रियों को जीतनेवाला है, ईर्ष्या-द्वेषसे रहित है, संसारशरीरसे विरक्त है, अपने आत्माके 5 हितको चितवन करनेवाला है, संसारसे भयभीत है, महाधीरवीर है, भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन करता है, जो तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करता है, जिसका मन चारित्रके पालन करने में लगा हुआ है, जो ममत्वरहित है, अहंकाररहित है, व्यसनरहित है, साहसी है, दयालु है, जिसका हृदय शुद्ध है, जो कपाय और विषयोंसे रहित है, जो दुष्ट चिंतकनसे रहित है, आध्यान तथा रौद्रध्यानसे पराङ्मुख है, जो व्यवहारसे उत्पन्न हुई नीतिको जाननेवाला है, जो देश और कालको जानता है, जो जानिमें मान्य है, | क्रियाओंका जानकार है और लोकाचारकी प्रवृत्ति करनेवाला है। इसप्रकार जो अनेक गुणोंसे सुशोभित है
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|| मुमुक्षुकः । श्राद्धोऽथवा मुनिया॑ता भ्यानी भवति तत्त्वतः ला पतितो जातिहीनो वा शंकरो गोलकस्तया ।।
यो राज्यदंडितः क्रोधी मलिनाचारधारकः | रादिपीडितः सुद्रः नीचः मयादिसेवकः । अलोपाल में हीनः सः ध्याता नैष प्रशस्यते || किं ध्यान केन रूपेण कथं वा क्रियते हिवत् । श्रमातलक्षणं पस्तु कर्तुं कि युज्यते. ऽथवा ॥१॥ ध्यानस्य लक्षणं ध्यानभेदो ध्यानफलं तथा । तत्सर्व क्रमशो वक्ष्ये तस्मादात्महितेच्छया ॥१॥ ध्यानमेकाप्र. चिन्ताया रोधनं सर्वयोगतः । समासेन हि सजाय कर्मचक्रनिवारणम् ॥१२॥ एक ध्येय समालम्ब्य कायवागमनसापि वा । तत्रैकाप्रेन संलीनं ध्यान नदिह कथ्यते ॥१२॥ एकार्थ हि समालख्य मनसा मनुते हि तत् । अन्यत्सर्व परावृत्य ध्यान तदपि कथ्यते ॥१४॥ परालम्बननिमतमात्मैवात्मनि चात्मना । घात्मानं निर्विकल्पं हि चैकाप्रेण
अ
| और मोक्षकी इच्छा करनेवाला है, उसको ध्यान करनेवाला कहते हैं। वह ध्यान करनेवाला ध्यानी श्रापक |
भी हो सकता है और मुनि भी हो सकता है ॥२-७॥ जो पतित है, जो जातिहीन है, जो जातिभेकर है, वा
गोलक (विधवापुत्र) है, जो राजदंडित है, जो क्रोधी है, जो मलिन आचरणोंको धारण करनेवाला है, जो kill ज्वरादिक रोगोंसे पीडित है. जो क्षद्र है. जो नीच है, जो मद्य, मांस वा शहदको सेवन करनेवाला है और जो | अंगोपांगसे हीन है, ऐसा पुरुष ध्यान करनेका पात्र कमी नहीं हो सकता ।।८-९॥ ध्यान क्या है, वह किस प्रकार किया जाता है, अथवा कैसे किया जाता है, अथवा जिसका लक्षण ही मालूम नहीं है, वह ध्यान कैसे किया जा सकता है ? इसलिये ध्यानका लक्षण, ध्यानके मेद और ध्यानका फल आदि सब
अपने आत्माके हितकी इच्छासे अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१०-११॥ अन्य समस्त चितवनोंको रोककर एका | मनसे किसी एक पदार्थका चितवन करना स्थान है। यह संक्षेपसे ध्यानका लक्षण है, यही ध्यान कर्मोक । समूहको नाश करनेवाला है ॥१२।। किसी एक पदार्थका अवलंबन लेकर मन, वचन, काय और एकाप मनसे | all लीन हो जाना ध्यान कहलाता है ॥१३॥ अथवा अन्य समस्त पदार्थोंका चितवन छोड़कर और 5
किसी एक पदार्थका अवलंबन लेकर एकाग्र मनसे उसका चिंतन करना ध्यान कहलाता है 15॥ १४ ॥ अथवा किसी दूसरे पदार्थका अवलंबन सर्वथा छोड़कर, यह आत्मा मन, वचन, काय,
और श्रेष्ठ परिणामोंसे एकाग्र चित्त होकर बिना किसी संकल्प-विकल्पके अपने ही आत्माके द्वारा
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त्रियोगतः ॥१५॥ वाक्येन यषिन्तयति निष्पकप सुभावतः । ध्यान सरकथ्यसे देवरईसियानपारगैः ॥१५॥ सर्वार्थभ्यः समाकृष्यार्थ चिन्तां च चपला पराम् । ध्येयवस्तुनि चैकापनियविनिलज्ञणाम् ॥१७|भावतं समाशम्स्य बहिःसन्यो निजात्मनि । स्वास्मनश्चिन्तनं मुख्य ध्यानं तदपि कथ्यते ||१८|| यश्चिन्तयति मुख्येन चैकमर्थ निजेच्छया। अशुभं वा शुभं शानातदेव हि पुनः पुनः ॥१६॥ तद्विचारात्मक ध्यानं योगिभिः कथितं परम् । शुभाशुभात्मक तह ध्येयभेदाद् द्विधा मतम् ||२०|| अन्तस्तत्वं समालम्च्य चान्तरानन्ददायकम् । अन्यत्सर्व निराकृत्य चैकाप्रेन तदेव हि ॥२॥ चिन्तन मननं सम्यक तन्मयत्वेन भावतः | आध्यात्मिकं भवेद्धपान स्वात्मानन्दप्रदायकम् ॥२२॥ जिनविम्ब स्वचिचे. ऽस्मिन् संस्थाप्य च स्ववेदनात् । एकागवान नचाइगुणमितिमाशा शौः शश्च तद्रपं स्वात्मन्येव सुचिन्त
येत् । बहि-शून्यं च कृत्वा हि स्वात्मना तन्मयं भवेत् ॥२४॥ एवं हि निश्शनत्वं च कृत्वा तत्र सुचेतसा । ध्यानं तत्स्वा. | अपने ही आत्मामें अपने ही आत्माको दृढ़ताके साथ चिंतवन किया जाता है, उसको भी ध्यानके पारगामी भगवान || अरईतदेव ध्यान कहते हैं ॥१५-१६।। म चंचल चिंताको समस्त पदार्थोंसे हटाकर ध्येय वस्तुमें एकाग्रता. पूर्वक लीन कर देना भी ध्यान कहलाता है । ॥१७|| अथवा भाव ध्रुतका अबलम्बन लेकर और वाद्य पदार्थोंमें शुन्यसा होकर अपने आन्मामें अपने आत्माका चितवन करना भी मुख्य ध्यान कहलाता है ||१८| जो अपनी
इच्छासे अपने ज्ञानपूर्वक शुभ वा अशुभरूप किसी एक पदार्थको मुख्यतासे बार बार चितवन करता है, Sil उसका वह चितवन मी ध्यान कहलाता है। शम पदार्थकाचितवन करना शुम ध्यान है और असम पदार्थका चितवन
अशुभ ध्यान है। इसप्रकार ध्येयके भेदसे मी ध्यानके दो मेद होते हैं, ऐसा योगियोंने कहा है ॥१९-२०॥
| अथवा अन्तरात्माका अवलम्बन लेकर तथा अन्य सयका त्यागकर एकाग्रतासे उसका चितवन करना, अच्छीIR तरह मनन करना, तन्मय होकर उसका ध्यान करना, आध्यात्मिक ध्यान कहलाता है, यह ध्यान मी मावपूर्वक
l किया जाता है, तथा अपने मन और आत्मा दोनोंको आनन्द देनेवाला है ॥२१-२२॥ अथवा अपने | हृदयमें अपने ज्ञानके द्वारा जिनविम्बको विराजमानकर एकाग्र मनसे भगवान् अरहंतदेवके गुणोंका चितवन | करना भी ध्यान है । अथवा धीरे धीरे अपने आत्मा भगवान् अरहंतदेवके रूपका चितवन करना, बाहरके | समस्त विकल्पोंको छोड़कर अपने आत्माके द्वारा अपने बात्मामें तन्मय हो जाना, अपने मनके द्वारा अपने
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स्मरूपं हि वस्तुतरामाराकर रवा व बाशा पाया पर्णवाभ्य चिन्तनम् । एकाग्रेन नियंत्रा वा ध्यानं तदाप कथ्यते ॥२६॥ ध्यानं चतुर्विध ज्ञेयमातरौद्रादिभेदतः । धर्म्य शुक्ले शुभे ध्याने चारौद्रशुमे मते ||२७|| आर्सरौद्र परित्यक्त्वा सम्यक्त्वेन मुमुक्षुकः । धर्मध्यानं समाराम स्वात्मानमपि साधयेत् ॥२॥ चेन ध्यानेन जीर्यन्ते कर्माणि च निरन्तरम् । सम्यक्त्वं वद्धते नित्यं शुद्धं भवति मानसम् ||२६|| येन ध्यानबलेनैव भत्रकोटिपरंपरा । शीघ्र प्रक्षीय नित्या यथा वअंग सानुमान् ॥३०॥ धर्मध्यानबलेनैव भव्याः दुःस्वपरंपराम् । प्रयासेन विना शीघ्रं नाशयन्ति न संशयः ॥३॥ कामादिकविकाराणि करायव्यसनानि च । धर्मध्यानबलेनैव शाम्यन्त्यत्र स्वभावतः ॥३२॥ वर्मध्यान. बलेनैव परा शुद्धिः प्रजायते । भज्या यां प्राप्य शीघ्र हि मोक्षमार्ग भजन्ति ते ३शा धर्मध्यानबलेनैव निर्वाखस्य समोपता । अनायासेन त शीघ्र लमन्से भव्यकाः स्वयम् ॥३४॥ धर्मध्यानबनावावधिज्ञान प्रपद्यते । भावमु समा
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| आत्मामें निश्चल हो जाना, आत्मरूप ध्यान कहलाता है; यह ध्यान भी पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेबाला है ॥२३-२५।। अथवा ध्यान करनेवालेके द्वारा मन, वचन और कायसे किसी वर्णका अलंबन कर एकाग्रतापूर्वक उसका चितवन करना भी ध्यान कहलाता है ।।२६॥ वह ध्यान आत रौद्र आदिके मेदसे चार प्रकारका है । धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभ घ्यान हैं तथा आध्यान और रौद्रध्यान ये अशुभ ध्यान हैं ।।२७॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका त्याग कर देना चाहिये और सम्यग्दर्शनपूर्वक धर्मध्यानको धारणकर अपने आस्माको सिद्ध कर लेना चाहिवे ॥२८॥ इस ध्यानसे ही निरंतर कर्मोंकी निर्जरा होती रहती है. सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और मन सदा शुद्ध बना रहता है ॥२९॥ जिसप्रकार वजसे पर्वत चूर चूर हो जाता है, उसी प्रकार इस ध्यानके बलसे सदासे चली आई जन्म-मरणरूप संपारकी करोड़ों परंपराएं बहुत शीघ नष्ट हो जाती हैं ।॥३०॥ इस धर्मध्यानके बलसे भव्य जीव बिना किसी प्रयत्नके अनेक दुःखों की परंपराको बहुत शीघ्र नष्ट कर देते हैं॥३१।। कामादिक विकार, कपाय और व्यसन आदि सब धर्मध्यानके पलसे अपने आप शांत हो जाते हैं ।।३२।। इस धर्मध्यानके ही बलसे आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धि होती है, जिप शुद्धिको पाकर | यह आस्मा शीघ्र ही मोक्षमार्गको प्राप्त कर लेता है ॥३३॥ इस धर्मध्यानके बलसे ही मोक्षलक्ष्मी ममीप आ जाती है
और भव्य जीव उसको बिना किसी परिश्रमके शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं ॥३४॥ इस धर्मध्यानके ही पलसे
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प्नोति भन्योऽत्र सहजं शुभम् ||३५|| मनःपर्ययविज्ञानं समाप्नोति प्रसन्नधीः । धर्मध्यानबलेनैव केवलज्ञानसाधकम् ||३६|| | शुक्रध्यानस्य सम्पतिर्जायते वा शुभा । धर्मस्यानवलेनैव तद्धधानं परिगृह्यताम् ॥३७॥ शुद्धोपयोगभावस्य विभूति: सुखदा शुभा । धर्मध्यानबलेनैव वर्द्धते हि निरन्तरम् ||३८|| इन्द्रनागेन्द्रदेवानान दमिन्द्रपदेशिनाम् । धर्मध्यानबलेनैव विभूतिः प्राप्यतेऽनिशम् ||२६|| चक्रवर्तिपदादीन प्राप्तिः स्याद्धि सुखावहा । धर्मध्यानबलेनैव भव्यानां पुण्यसाधिका ||४८ ॥ तद्वयानं द्विविधं प्रोर्क बायाभ्यन्तरभेदतः । तुर्यात्सनमपर्यन्तं प्रो श्रीमज्जिनेश्वरैः ||४१॥ श्रभ्यन्तरं हि भव्यानां ध्यानं किल्बिषदायकम् भावशुद्धकरं चास्ति वात्मवीर्यसुबद्ध कम् ||४२|| देवपूजा गुरोः सेवा जपो धर्मोपत्तेव नम् । संयमधारणं चैत्र सर्वे वे साधका मताः ||४३|| वीतरागेण भावेन यदा किंचिद्विचिन्तनम् । धर्मध्यानं तदाख्यातं
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भव्य जीवको अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है और शुरूप भावश्रुत ज्ञान मी सहज रीति से प्राप्त हो जाता है। ||३५|| इस धर्मध्यानके ही बलसे प्रसन्न बुद्धिको धारण करनेवाला भव्य जीव केवलज्ञानका साधक ऐसे मन:पर्यय ज्ञानको बहुत शीघ्र प्राप्त कर लेता है || ३६ || तथा इसी धर्मध्यानके बलसे परम शुभ ऐसी केवलज्ञानकी संपत्ति प्राप्त हो जाती है । इसलिये भव्यजीवों को यह धर्मध्यान अवश्य धारण कर लेना चाहिये ॥ ३७ ॥ सुख देनेवाली और शुभरूप जो शुद्धोपयोगरूप भावकी विभूति है, वह इस धर्मध्यानके ही बलसे निरंतर बढ़ती रहती है ||३८| इस धर्मध्यानके ही से इन्द्र-नागेन्द्र आदि देवों की विभूति प्राप्त होती है और अहमिन्द्र पदके स्वामी अहमिन्द्रोंकी विभूति भी इसी धर्मध्यानसे प्राप्त होती है ॥ ३९॥ महानुष्यको सिद्ध करनेवाली और अत्यन्त सुख देनेवाली चक्रवर्ती आदि पदोंकी प्राप्ति भी मध्य जीवों को इस धर्मध्यानके ही बलसे होती है ॥४०॥ बाह्याभ्यन्तर के भेदसे उस धर्मध्यानके दो भेद हैं- तथा चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक यह धर्मध्यान होता है ||४१ ॥ उसमें भी अभ्यन्तर धर्मध्यान मध्य जीवोंके समस्त पापको नाश करनेवाला है तथा भावोंको शुद्ध करनेवाला है ओर आत्माकी शक्तिको बढ़ानेवाला है ||४२ || देवपूजा करना, गुरुकी सेवा करना, जप करना, धर्मसेवन करना और संयम धारण करना आदि सब उम्र धर्मध्यानके साधक हैं ||४३|| समस्त पापोंको जीतनेवाले मुनिलोग अपने वीतराग भावोंसे जो कुछ चिन्तवन करते हैं.
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मुनीनां च जितेनसाम् ॥४॥ यथा यथा कषाया हिशीयन्ते क्रियया यया । तथा तथा भवेथानमात्मरूपप्रकाशकम् ॥४॥ यदा चिन्तापरत्वेन मोहभावो विलीयते । येन येन विषारेण तवधानं वात्र कथ्यते ॥४६॥ यथा यथा यतीशेडस्मिन् वद्ध ते वीतरागता । स्वात्मनि स्थिरता पूर्व रमते चिप्समात्मनः ॥४७॥ येन येन विचारेण क्रियया वात्र कर्मणि । तदेव ध्यानमाख्यातं वीतरागजिनेशिना ॥४८॥ जिनागमे हि चैवं तद्धर्मध्यानं निरूपितम् । सुखशान्तिसुसिद्धयर्थ भव्या ध्यायन्तु निर्मलम् E|| चमत्कारकरं धर्मध्यानं ध्यायन्तु सर्वदा । भन्याः सर्षे प्रयत्नेन संसारदुःखभीरुकाः 1.0 11०11 जगति तिमिरहंता सर्वकल्याणकर्ता सकलसुखविधाता सबंदुःखग्रहता। परमविभवदाता स्वगेमोक्षप्रणेता इह जयतु सुधर्मध्यानभानुखिलोके ।।
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे धर्मध्यानग्ररूपणो नाम षोडशोधिकारः । उसीको धर्मध्यान कहते हैं ॥४४|| इस क्रियासे जैसे जैसे कषायोंका नाश होता जाता है; वैसे ही वैसे आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला ध्यान प्रगट होता जाता है ॥४५॥ यह जीव जिन जिन विचारोंसे जब चिन्तवनमें लीन हो जाता है और उस समय इसका जो ममत्व और मोह नष्ट हो जाता है, उसको धर्मध्यान कहते हैं ॥४६॥ इस ध्यानरूप कार्यमें इन मुनियों के हृदयमें जैसे जैसे वीतरागता बढ़ती जाती है और स्थिरतापूर्वक आत्माका चिच जैसे जैसे आत्मामें लीन होता जाता है, जिस जिस क्रियासे वा जिस जिस चिन्तवनसे | आत्मलीनता और वीतरागता बढ़ती है, पीतराग भगवान जिनेन्द्रदेव उसी को धर्मध्यान कहते हैं ।।४७-४८|| इस *
जिनागममें ऊपर लिखे अनुसार धर्मध्यानका स्वरूप कहा है, इसलिये भव्य जीवोंको सुख और शांति की सिद्धि || के लिये यह निर्मल ध्यान अवश्य धारण करना चाहिये ॥४९।। संसारके दुःखोंसे भयमीत हुए भव्य जीवोंको | अपने समस्त प्रयत्न करके चमत्कार करनेवाले इस धर्मध्यानका सदा चिन्तवन करते रहना चाहिये ॥५०॥ | यह धर्मध्यानरूपी सूर्य संसारभरमें मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाला है, समस्त कल्याणोंको करनेवाला है, | समस्त सुखोंको देनेवाला है, समस्त दुःखोंको नाश करनेवाला है, परम विभूतिको देनेवाला है और स्वर्ग-मोक्षको | प्राप्त करानेवाला है। ऐसा यह सुधर्मध्यानरूपी सूर्य तीनों लोकोंमें सदा जयवंत हो । ५१॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें धर्मध्यानके लक्षणको
निरूपण करनेवाला यह सोलहवां अधिकार समाप्त हुआ। सु.२०१८
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॥१३॥
सप्तदशोऽधिकारः।
ध्यानेशं ध्यानदेष्टारं योगिनायं निरंजनम् । परात्मपदमारूढं शान्तिनाथं नमाम्यहम् ॥शा रत्नत्रयात्मको धर्मो भाषितो हि जिनेश्वर. । जरास्मादनमेत हि वयं आयह कथ्यते सा सक्षमादिकभेदेन धर्मो हि दशधा मनः। तत्तस्मादनपेतं हि धर्मध्यानं प्रचत्तते ॥शा व्यवहारसुचारित्रदीमांगो धर्म उच्यते । ततस्मादनपेत हि धर्मध्यानं मवं जिने
|| मोहक्षोभेन संत्यतो भावो यो हि निजात्मनः । सचारित्रेण शुद्धः स धर्मो धम्यं तदात्मकम् ॥५॥ धर्मध्यानस्य भेदा हि चत्वारः सन्ति चागमे । क्रमशो लक्षणं तेषां अवीमि तजिनागमात ||६|| जिनाझाविचयाभिख्यमपायविषयाभिधम् । विपाकविचयाख्यं हि संस्थानविषयास्यकम् णा सर्वेभ्यो मुख्य चास्ति तत्राज्ञाविचयाभिधम् । धर्म
जो ध्यान में ईश्वर हैं, ध्यानका उपदेश देनेवाले हैं, योगियों के स्वामी हैं, निरंजन हैं और परमात्मपदपर Ki प्राप्त है; ऐसे भगवान शांतिनाथको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने धर्मका स्वरूप रलत्रयात्मक
बतलाया है, जो रत्नत्रयरूप धर्मका ध्यान किया जाता है; उसको धर्मध्वान कहते हैं ।।२।। अथवा उत्तम क्षमादिकके भेदसे धर्मके दश भेद हैं, जो यह दशधर्मरूप थ्यान किया जाता है, उसको धर्मध्यान कहते हैं॥३।। अथरा देदी- | प्यमान व्यवहार चारित्रको धारण करना मी धर्म है, उस व्यवहार चारित्ररूप धर्मका ध्यान करना धर्मध्यान है | ॥४॥ अथवा मोह-क्षोभसे रहित और श्रेष्ठ चारित्रसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जो अपने आत्माका भाव है, उसको मी
धर्म कहते हैं और उसका ध्यान करना धर्मध्यान कहलाता है ॥५|| आगममें उस धर्मध्यानके चार भेद | बतलाये हैं, अब आगे आगमके अनुसार अनुक्रमसे उनके लक्षण कहते हैं ||६|| आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार धर्मध्यानके भेद कहलाते हैं ॥७॥ इन चारों ध्यानोंमें आज्ञाविचय
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॥१६॥
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ध्यानस्य मूलं च सर्वस्य साधकं हि तत् ॥॥ सूक्ष्म तत्वं जिनेन्द्रस्य केवलज्ञानगोचरम । मनोक्षगोचरं नैव इष्ट तत्सर्व|दर्शिभिः ॥६॥ सर्वशेन प्रणीतेऽस्मिन् तत्त्वे सूक्ष्मे जिनशिना । प्रत्यक्षेण परोक्षेण बाधा काचिन्न विद्यते ॥१०॥ कुवादिभिरनुल्लंघ्यं न्यूनाधिकविवर्जितम् । संशयविपरीता ददविरोहतं परम् ॥११॥ सत्यं प्रमाणभूतं तम् तत्त्वं विद्धि सुनिश्चितम् । जिनाझापूर्वक तस्य तत्त्वस्य मननं शुभम् ॥१२॥ एकाप्रमनसा तव श्रद्धापूर्वकचिन्तनम् । तदाझाविचर्य ध्यान सर्वकर्मक्षयंकरम् ।।१३॥ धर्माज्ञा विविधा ग्रोक्ता लौकिका पारमार्थिका । जिनेन वीतरागेण सर्व लोकहिताय वै ॥१४॥ लौकिकाचरणे वाज्ञा यारशी प्रतिपादिता । सा तथैवेति नान्या वा चिन्तयेच्छुद्धयाम्वितः ॥१५|| श्रीमत्सर्वशदेवस्य सुभावतोऽहतो ननु । सर्वथा हि निसवा निर्दोषं विगतभ्रमम् ॥१६|| शासन त्रिजगत्पूज्यं सत्यरूपं नामका ध्यान मुख्य है। यह समस्त धर्मध्यानोंका मूल है और सबका साधक है ॥८॥ भगवान जिनेन्द्रदेवक
कहे हुए तत्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे केवल ज्ञानगोचर हैं, इन्द्रिय और मनके गोचर नहीं हैं। परंतु भगवान या सर्वज्ञदेवने उन सबको देखा है। भगवान जिनेन्द्रदेव सर्वज्ञने जिस सूक्ष्म तत्वका निरूपण किया है, उनमें प्रत्यक्ष | | वा परोक्ष प्रमाणसे कभी बाधा नहीं आ सकती है, वादी प्रतिवादी कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर
सकता, उन तत्त्वोंका जो स्वरूप है, वह न तो कम है और न अधिक है, तथा संशय, विपरीत आदि सब | दोषोंसे रहित हैं । वह तत्वोंका स्वरूप यथार्थ है, प्रमाण है और सुनिश्चित है, ऐसा तुम समझो। उन सब तत्वोंका भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञानुसार मनन करना, एकाग्र मनसे चितवन करना वा श्रद्धापूर्वक उनका चितवन करना आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । यह धर्मध्यान समम्त कमाका नाश करनेवाला है ॥९-१३॥ भगवान वीतराग सर्वज्ञ देवने समस्तलोगोंका हित करने के लिये वह धर्मकी आज्ञा भी लौकिक और पारमार्थिकके मेदसे अनेक प्रकारकी बतलाई है ।।१४।। भगवान जिनेन्द्रदेवने लौकिक आचरण पालन करनेके लिये जैसी आज्ञा प्रतिपादन की है, वह उसी तरह से है। अन्य प्रकारसे नहीं है, इसप्रकार | भव्य जीवों को श्रद्धापूर्वक चितवन करते रहना चाहिये ॥१५॥ अंतरंग-हिरंग लक्ष्मीसे सुशोभित अरहंतदेव भगवान सर्वज्ञदेवका शासन बाधाओंसे सर्वथा रहित है, निर्दोष है, भ्रमरहित है, तीनों लोकोंमें पूज्य है, | यथार्थ है और पापरहित है। ऐसे जिनशासनको जो सुनता है, विश्वास करता है, रुचि करता है,
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॥ १४० ॥
चिकल्मषम् । तत्प्रत्येति शृणोत्यत्र रोचते श्रद्दधाति च ॥१७॥ ध्यायति चिन्तयत्येवं विचारयति मन्यते । तदाज्ञाविवयं ध्यानं कथितं हि जिनागमे ||१८|| अविरुद्ध जिनाशायाश्चिन्तनं मननं तथा । रोचनं स्पर्शनं चैव ह्याज्ञादिचयमुच्यते १६ ॥ द्रव्यपर्याय संयुक्तं तत्रं श्रीजिनभाषितम् । श्रीजिनाज्ञाप्रमाणेन तदुद्ध्यायेश्चिन्तयेत्सुधीः ||२०|| या या शुद्धिव पिण्डादेवता श्रीजिनागमे । श्रीजिनामाप्रमाणेन तत्तथेति हि चिन्तयेत् ॥ २२॥ प्रवर्तयेव तां भावाद् भूयो भूयो विचारये तू सदाज्ञाविचयं ध्यानं जिनाज्ञाद्योतनं परम् ||२२|| अनादिकालतोऽत्राई बम्भ्रमीति भवाये । न चिन्तिता मया क्यापि जिनाशा परदेवता ||२३|| इति चिन्तां समालम्ब्य चैकामेन त्रियोगतः । जिनाझाचिन्तनं श्रद्धाभरेण शुद्धभावतः ||२४|| तदाज्ञाविचर्य ध्यानं सर्वसिद्धिकरं मतम् । आज्ञाया विचयं ध्यानं तदाज्ञाविवयं मतम् ||२५|| जिनशासनमाहात्म्यं कथं
श्रद्धान करता है, ध्यान करता है, चितवन करता है, विचार करता है, और मानता है उसको जैन शास्त्रोंमें आशा विषय नामका धर्मध्यान कहते हैं ।।१६ - १८ । । भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अविरुद्ध चितवन करना, मनन करना, रुचि करना और स्पर्श करना आज्ञाविषय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥ १९ ॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने द्रव्यपर्याय सहित जो तवोंका स्वरूप बतलाया है, उसको भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञानुमार बुद्धिमान पुरुषोंको चितवन करना चाहिये और ध्यान करना चाहिये। जैनशास्त्रों में पिंडादिककी जो जो शुद्धियां त लाई हैं । उनको भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार उसीप्रकार चितवन करना चाहिये, भावपूर्वक उसीप्रकार उनकी प्रवृत्ति करनी चाहिये और बार बार उनका चितवन करना चाहिये । इसीको आज्ञा विचय नामका धर्मध्यान कहते हैं । यह आज्ञाविचय ध्यान भगवानकी आज्ञाका उद्योत करनेवाला है और सर्वोत्कृष्ट है ॥२०-२२ || इस संसाररूपी समुद्र में अनादि कालसे परिभ्रमण कर रहा हूँ, मैंने आजतक भगवान जिनेन्द्र देव की आज्ञारूपी उत्कृष्ट देवताका कभी चिन्तन नहीं किया। इसप्रकारके चिन्तवनका अवलंबन लेकर मन वचन काकी एकाग्रता से श्रद्धापूर्वक शुद्धभावोंसे भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका चिन्तन करना आज्ञावित्रय नामका धर्मध्यान कहलाता है । यह धर्मध्यान समस्त अथोंकी सिद्धि करनेवाला है, भगवानकी आज्ञाका विषय अर्थात् ध्यान करना आज्ञाविचय कहलाता है ॥२३ - २५॥ इस समस्त पृथ्वीपर जिनशासनका माहात्म्य किसप्रकार वृद्धिको प्राप्त हो, इसप्रकारके चितवनपूर्वक जिनशासनके माहात्म्यका चिन्तवन
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स्याद्विश्वभूतले । इति चिन्तापरस्येन तन्माहात्म्यविचिन्तनम् ।।२६।। जिनशासनस्य संवृद्ध श्चिचन्तन शुभभावतः ।। तदाज्ञाविचयं प्राहुरागमे धर्मधोश्यराः ॥२७॥ श्रीस्याद्वादसुसिद्धांतचएणोऽजेयः कथं भवेत् । स्वचित्ते चिन्तनं चैतन पौनः पुन्यं दिवानिशम् ||२८|| मिथ्याकान्तमतैः सार्द्धमिध्यादुर्वादिभिः समम् । कृत्वा वाचशास्त्रार्थ जिनशासनदीपनम् ॥२६॥ स्थापनं शासनस्यात्र भुवि कृत्वा प्रभावना । वर्द्धनं शासनस्यापि शक्त्या भक्त्या सुभावतः ॥३०॥ श्रीशासनप्रभावाय चिन्तनं च विचारणम् । तदर्थ मनसा चाचा कायेन तत्सुधारणम् ॥३१।। स्याद्वादशासनस्यात्र वृद्धिर्या चिन्यते बुधः । तदाज्ञाविचयं ध्यानं प्रोक्तं धर्मप्रभावकम् ॥३२॥ जिनेश्वररथस्यात्र भ्रामणं नसकेन यत् । श्रीशासनस्य माहात्म्य. गोतकं हि कथं भवेम्॥३तदर्थं च महाभक्त्याभूयो भूयो विचारणम् । तदानाविषयं नामध्यानमाहात्म्यवर्द्धकम् ॥३४॥
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करना अथवा शुभ परिणामोंसे जिनशासनकी वृद्धिका चितवन करना आज्ञा चिचय नामका धर्मभ्यान || कहलाता है, ऐसा धर्मके ईश्वर भगवान अम्हंतदेवने कहा है ॥२६-२७॥ यह स्याद्धवादरूप सिद्धान्त अक्षुण्ण और अजेय किस प्रकार हो । इस प्रकार रात-दिन बार बार अपने हृदयमें उस सिद्धांतका चिन्तवन | करना, आज्ञाविच्य नामका धर्मध्यान है, अथवा मिथ्या एकांत मतको माननेवालोंके साथ वा मिथ्यादृष्टिवादी प्रतिरादियों के साथ वाद-विवादकर वा शास्त्रार्थकर जिनशासनका माहात्म्य प्रगट करनाआज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । अथवा जिनशासनकी स्थापना करना, उसकी प्रभावना करना, अथवा शक्तिभक्तिपूर्वक श्रेष्ठ परिणामोंसे जिनशासनकी वृद्धि करना आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । अथवा जिनशासनका प्रभाव प्रगट | करनेके लिये विचार करना, चिन्तन करना अथवा मन, वचन और कायसे उस जिनशासनको शुद्ध रखना भी | आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । बुद्धिमान लोग जो स्याद्वादमय इस जिनशासनकी वृद्धिका चिन्तवन करते हैं, उसको भी भगवान जिनेन्द्रदेव धर्म की प्रभावना करनेवाला आज्ञाविचय नामका धर्मभ्यान कहते हैं ॥२८-३२।। भगवान जिनेन्द्रदेवके शासन के माहात्म्यको प्रगट करनेवाला, भगवान जिनेन्द्रदेवका रथ बड़े उत्सबके साथ किसप्रकार निकले इसप्रकार भक्तिपूर्वक चार बार चिन्तन करना आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । यह ध्यानको बढ़ानेवाला है ॥३३-३४॥ भगवान जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिम्बका महाभिषेक अथवा पूजनके द्वारा आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला जिनशासनका माहात्म्य किस प्रकार प्रगट हो? इस प्रकारके
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श्रीमजिनेन्द्रबिम्बस्य महास्नपनपूजनैः । श्रीशासनस्य माहात्म्यं कथं स्याद्विरमयावहम् ॥३१॥ तदर्थ हि महामक्त्यै काग्रेनात्र सुचिन्तनम् । एवमेव जिनाज्ञायाः प्रभावस्यविचिन्तनम् ॥३६॥ तदाझाविचयं ध्यान जिनाज्ञावर्द्ध परम् । भूतज्ञानं महादिव्यं त्रैलोक्यज्ञापकं शुभम् ॥३७बणैः पदावभिन्न हि जिनन्द्र: कथितं परम् । श्रवधानस्य माहात्म्य चिन्तन मनन तथा ||२८|| रोचनं स्पर्शनं चैव धर्म्यध्यानं तदुच्यते । श्रीमन्जिनेन्द्र देवेन शासनं प्रतिपादितम् ॥३॥ रत्नत्रयात्मक शुद्ध महद्भिरवधारितम् । तद्धि प्रतिष्ठितं स्वेषु चात्मकल्याणहेतवे ||४|| शिवप्रानिश्चतेनैव तस्माच्य स्करं मतम् । या चाज्ञा शासनस्यात्र जिनाज्ञा सेय कथ्यते ॥४१॥ मत्वेति शासनाज्ञायाश्चिन्तन मननं तथा । एकाप्रेन सुदृकशुद्धया तदानाविचयं विदुः ||४२।। कथं पात्र मुगृह्णीयुरिमे जीवाः सुदर्शनम् । प्राजाश्रद्धानपूर्वं हि भवाब्धे. स्तारकं परम् ॥४शा एकाग्रेन तदर्थ हि चान्यचिन्तां विहाय च । चिन्तन मननं भक्त्या तदाज्ञाविचयं विदुः
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कार्य करनेके लिये महाभक्तिपूर्वक एकाग्र मनसे बार बार चिन्तवन करना अथवा इसीतरहसे भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञाका प्रभावचिन्तवन करना आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है। यह धर्मध्यान भी भगवान की आज्ञाको बढ़ानेवाला है और सर्वोत्कृष्ट है। इस संसारमें भ्रतज्ञान भी महादिव्य ई, तीनों लोकों का ज्ञान उत्पन्न करानेवाला है, शुभ है. वर्ण वा पदोंसे अनेक प्रकारका है और भगवान जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ है। ऐसे इस श्रुतज्ञानका माहात्म्य प्रकट करना, चिन्तवन करना, मनन करना, श्रद्धा करना
आदि सब धर्मध्यान कहलाता है। भगवान जिनेन्द्रदेवने अपना शासन स्त्रयात्मक बतलाया है। वह | शासन शुद्ध है, महापुरुष उसे धारण करते हैं ऐसे इस रत्नत्रयात्मक शासनको अपने आत्माका कल्याण करनेके लिये अपने आत्मामें धारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है ।।३५-४०॥ इस खत्रयरूप जिनशासनसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, इसलिये यह शासन कल्याण करनेवाला है। इस शासनकी जो आज्ञा है, वही आज्ञा भगवान जिनेन्द्रदेवकी समझनी चाहिये । यही समझकर जिनशासनकी आशाका चिन्तन करना, मनन करना, सम्यग्दर्शनकी शुद्धतापूर्वक एकाग्र मनसे उसका ध्यान करना आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥४१-४२॥ ये संसारी जीव संसारसे पार करनेवाले और सर्वोत्कृष्ट सम्यग्दर्शनको भगवानकी | आज्ञाको श्रद्धानपूर्वक कर और किस प्रकार धारण करेंगे ? इसप्रकार अन्य सब चिन्तनोंको रोककर एकाप्रमनसे
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||६४४|| यदुव्यवहारचारित्रक्रिया का प्रभासकम् | श्री मज्जिनागमश्वास्ति तत्सत्यं च प्रमाणकम् ॥ ४५ ॥ उत्तादृशं हि नान्यनान्यथा जातुचित् । जिनागमस्य या चाज्ञा जिनाज्ञा मैत्र कथ्यते ॥ ४६ ॥ मत्वेति श्रद्धया भाया जिनाशाप्रति पालनम् । अन्यचिन्तां निदध्यैकामेनाज्ञाचिन्तनं परम् ||४७|| मननं स्पर्शनं चैत्र रोवनं न विचारणम् । प्रसारणं | स्वचित्तेऽस्मिन् तदाशाविचयं विदुः ||४८ || श्राज्ञाविचयसद्धपानात्तीर्यते स भवाः । लभ्यते शिवसौख्यं हि कर्मच चभिद्यते ||४६|| जायते दर्शनं शुद्ध भवबन्धनभेदकम् । देवेन्द्राणां परा सम्पज्जायते सुतरां हि सः ||५० || अशाविचयसद्धयःनं ध्यातं तीर्थंकरैरपि । गणधरैश्च वद्धय तं ध्यातं च योगिभिः सदा ||११|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ध्यावत्र्यं कर्महानये । आशा विचयसद्धानं भव्येन शुद्धचेतसा ॥५२शा जगति जिनवराशां चिन्तनं यः करोति । परम विमलभावात् रोचत
भक्तिपूर्वक चिन्तनकर मनन करना आज्ञा विचय धर्मध्यान कहलाता हैं ||२३ - ४४ ॥ व्यवहार, चारित्र और क्रियाकांडको प्रकाशित करनेवाला जो भगवान जिनेन्द्रदेवका आगम है, वही सत्य हैं और प्रमाण है । इस जिनेन्द्रदेव के आगमके समान अन्य कोई आगम नहीं है और न अन्यप्रकारसे कभी आगम हो सकता है, आगमकी जो आज्ञा है, वही भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा है, ऐसा मानकर श्रद्धा और भक्तिपूर्वक भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन करना, अन्य समस्त चितवनको रोककर एकाग्र मनसे चितवन करना, मनन करना, विचार करना, उसमें प्रेम करना, उसको फैलाना ओर चित्तमें धारण करना आदि सत्र आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।४५-४८|| इस आज्ञाविचय नामके श्रेष्ठ ध्यानसे संसाररूपी समुद्र पार कर लिया जाता है, मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है, कर्मों के सब समूह नष्ट हो जाते हैं, संसारके बधधनको नाश करनेवाला सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और देवों के इंद्रों की सर्वोत्कृष्ट संपत्ति अपने आप आ जाती है ||४९-५०॥ इस आज्ञाविचय धर्मध्यानको भगवान तीर्थङ्कर परमदेव भी धारण करते हैं, गणधर भी धारण करते हैं और योगीलोग भी सदा धारण करते हैं ॥ ५१ ॥ इसलिये भव्य जीवोंको अपने शुद्ध हृदयसे सब तरह के प्रयत्नकर अपने कर्म को नाश करनेके लिये इस आज्ञाविवय नाम के धर्मध्यानको अवश्य धारण करना चाहिये ॥५२॥ इम संसारमें भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा को जो चितवन करता है, परम
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श्रद्दधाति । स हि तरति भवान्धौ कर्मचक्रं चत्वा म च धरति सुधर्मं सर्वसौख्यप्रदं वा ॥५३॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे आज्ञ विययध्यानरूपणो नाम सप्तदशोधिकारः ।।
निर्मलभावों से जो उसपर रुचि वा श्रद्धान करता है वह अपने समस्त कर्मोंको नाशकर इस संसार समुद्र से अवश्य पार हो जाता है तथा समस्त सुखों को देनेवाले इस श्रेष्ठ धर्मको प्राप्त हो जाता है ॥५३॥
प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में आज्ञाविचयधर्मध्यानको निरूपण करनेवाला यह सत्रहवां अधिकार समाप्त हुआ |
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अष्टादशोऽधिकारः ।
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भवचक्रस्य भेत्तारं धर्मचक्रस्य धारकम् । दुःखचक्रस्य इंतारं वन्दे कुछ जिनेश्वरम् ||१|| भवारण्यं महाभीमे दारुणे दुःखपूरिते । श्रनादिकालतस्तत्र जीवा भ्राम्यन्ति संततम् ||२|| कर्मणा मोहनीयेन मिध्यामतवशं गताः । धर्म मत्वा हि कुर्वन्ति हिंसापापं महाधमाः ॥ ॥ तेन पापेन घोरेण जन्ममृत्युकदर्शिताः । हा हा दीना वराकास्ते विना धर्मेण पीडिताः । ||४|| इमे कथं हि गृहीयुः सद्धर्म जिनभाषितम् । मिथ्यात्वं वा कथं तेषां नश्येत्खलु कुकर्मकृत् ||५|| अन्यचिन्तां निरुध्यैकामेपापस्य चिन्तनम् | अपायविचयं ध्यानं सर्वजीवसुखावहम् ||३|| सर्व ध्यानेषु मुख्यं हि ध्यानमपायसंज्ञकम् । अपाय
जो संसारकै समूहको नाश करनेवाले हैं, धर्मके समूहको धारण करनेवाले हैं और दुःख के समूहको नाश करनेवाले हैं ऐसे भगवान कुंथुनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ महादारुण दुःखोंसे भरे हुए और महाभयानक संसाररूपी नमें ये जीव अनादिकालसे निरंतर परिभ्रमण कर रहे हैं ||२|| ये जीव मोहनीय कर्मके उदयसे मिधात्वके वशीभूत हो रहे हैं और इसीलिये वे नीच धर्म समझकर हिंसारूप महापाप उत्पन्न करते रहते हैं ॥३॥ उसी घोर पापके कारण अनेक जन्म-मृत्युओंसे दुःखी हुए वे दीन और महादुखी जीव बिना धर्मके पीड़ित हो रहे हैं ||४|| ऐसे ये जीव भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए श्रेष्ठ धर्मको कैसे धारण करेंगे ? अथवा अशुभ कर्म उत्पन्न करनेवाला मिथ्यात्व कर्म उनका कब नष्ट होगा ? इसप्रकार अन्य चिन्तवनको रोककर एकाग्र मनसे कम के नाश होनेका चिन्तन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । यह अपायविचय नामका धर्मध्यान सब जीवोंको सुख देनेवाला है और सब ध्यानोंमें मुख्य है। इसी अपायविचय धर्मध्यान से योगी पुरुष सब
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विचयायोगी प्रददात्यभयं महत् ॥७|| अपायविचयेनैव दीर्थकरा भवन्ति ते सबसस्वानुकम्पांगा जीवमात्रामय पदा:
II सिध्यामतवशेनात्मा करोति धर्मघातनम् । सत्यं हितकर धर्मष्टि निन्दति वा प.म् ॥ मध्यामतप्रभाव करोति स्वात्महिंसनम् । बम्भ्रमीति च संसारे नानदुःखनिदानके ॥१०|| केनोपायेन सद्बुद्धिह्मस्य स्यादिमतभ्रमा । कदास्य जैनधर्मस्य प्राप्तिः स्याद्धि सुखावहा॥१शातदर्थ शुद्धभावेन भूयो भूयो विचारणम् । अन्याचन्तां निराकत्य तस्यै काग्रेणचिन्तनम् ॥१शा अपायविचयं ध्यानं तत्स्यात्सद्धर्मदायकम् । सर्वसौख्यकरं शीघ्र जीवानां भवमोचकम् ॥१शा तीत्र मेध्यात्व. भावेन विवेकविकला जनाः । सद्धर्मध्वंसक पापं कुर्वन्ति स्वार्थचेष्टया॥१४॥ स्त्रीणां पुनर्विवाह त कुर्वन्ति पापजिप्सया। तत्प्रचारोपदेशं या मिथ्यात्वेन च कुर्वते ॥१५॥ तेन पापेन ते जीवा दीना श्वध्र पतन्ति च । महाक्लेश महापीडा सहन्स तेच दुर्द्धियः ॥१६॥ केनोपायेन सद्बुद्धिरेषां स्याद्विगतभ्रमा । इत्यपापस्य वेषां हि चिन्तनं यत्पुनःपुनः ।।१७।। सचिन्तां
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पुरुषों को महाअभयदान देते हैं ॥५-७। इसी अपायचिचय धर्म-यानसे समस्त जीवोंको अनुकंपित करनेवाले
और जीवमात्रको अभयदान देनेवाले तीर्थकर होते हैं ॥८॥ मिथ्यात्र कर्म के उदयसे यह प्रात्मा धर्म का घात करता है, आत्माका हित करनेवाले यथार्थ धर्मसे द्वेष करता है वा उसकी खूब निन्दा करता है । | मिथ्यात्व मनके प्रभावसे यह जीव अपने आमाका घात करता है और अनेक दुःखोंसे भरे हुए संसारमें परिभ्रमण करता रहता है । ऐसा यह जीव किस उपायसे श्रेष्ठ बुद्धि को धारण करेगा ? कब अपन भ्रमको दर | करेगा ? तथा सुख देनेवाली जैनधर्मकी प्राप्ति इसे कब होगी ? इसके लिये शुद्ध भावोंसे बार बार विचार करना, अन्य सब चिन्तवनोंको रोककर एकाग्र, मनसे बार बार चिन्तवन करना अपाय विचय नामका धर्मध्यान है। यह ध्यान सद्धर्मको देनेवाला है और संसारसे छुड़ानेवाला है ॥९-१३।। तीन मिथ्यात्वके उदयसे ये जीव विवेकरहित हो जाते हैं और अपने स्वार्थके वश होकर धर्मको नाश करनेवाले महापाप उत्पन्न करते रहते हैं। वे जीव पापोंकी प्रवृत्ति करनेकी इच्छासे स्त्रियों का पुनर्विवाह करते हैं और तीव मिथ्यात्वके | उदयसे उसका प्रचार करते हैं वा उपदेश देते हैं, उसी पापके उदय से वे दीन जीव नरकमें पड़ते हैं और | दुर्बुद्धिको धारण करनेवाले वे जीव महापीडा और महाक्लेशों को सहते हैं। ऐसे जीवोंका भ्रम कब दूर होगा? और उनको कर सधुद्धि होगी? इसप्रकार उनके पापोंको दूर करनेके लिये मन, वचन और कायकी
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निराकृत्यैकाप्रेण च त्रियोगतः । श्रपायविचयं ध्यानं दुर्बुद्ध नाशकं परम || १८ || महामिध्यात्वसंयुक्ता जीवाः कुर्वन्त्यचं महत् । अन्तर्जातिविवाहेन विजातिग्रहणेन वा ||१६|| नानादुःखकरं नियं मोक्षमार्गविघातकम् । तेन पापेन से जीत्राः संसारे पर्यठन्ति च ||२०|| जन्ममृत्युभयक्लेशं वराकाः प्राप्नुवन्ति ते । केनोपायेन चैतेषां निवृत्तिः स्यात्कुपापतः ॥२१॥ अन्य चन्यां निराकृत्य तस्यैकाप्रेण चिन्तनम् । श्रपापविचयं ध्यानं तत्स्यात्पापविलोपक्रम २२|| ती मिथ्यात्व मासाथ जीव । चाक्षसुखेप्सया । घोरपापकरं भ्रष्ट नियं शास्त्रं निखन्ति च ||२३|| सत्यधर्माद्विरुद्धं हि मोक्षमार्गविनाशकम् । | से लिखन्ति कुशास्त्रेषु मिथ्यामतपोषकम् ||२४|| व्यभिचारे न दोपोऽस्ति न दोषः पलभक्षणे । अभक्ष्यभक्षणे नैव मधुमयादिसेवने ॥२५॥ न कश्चिदस्ति सर्वज्ञो न वीरोऽस्ति जिनोऽथव । न पुण्यं नैव पापं वा न मोक्षं च लिखन्ति ते ||२६| दयाष्टिं समादाय तेषामुद्धरणाय वै। घोरापायाद्धि चैकायैस्तदपा यस्य चिन्तनम् ||२७|| अपायविषयं ध्यानं विदुः पापएकाग्रता से अन्य समस्त चिन्ताओं को रोककर बार वार चितवन करना दुर्बुद्धिको नाश करनेवाला सर्वोत्कृष्ट अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।१४ - १८ || तीव्र मिध्यात्वसे घिरे हुए जीव अंतर्जातीय वा विजातीय विवाहकर अनेक प्रकारके दुःख उत्पन्न करनेवाले, मोक्षमार्गको नाश करने वाले और महानिन्य ऐसे महापापको उत्पन्न करते हैं। जिन पापों के उदयसे वे जीव इस संसार में परिभ्रमण करते हैं और उसमें वे दुःखी जीव जन्म, मरण और भय आदिक अनेक क्लेशोंको महन करते हैं। ऐसे ये जीव किस उपाय से इन महापापोंसे छूट सकते हैं ! इसप्रकार अन्य सत्र चिन्ताओंसे हटकर एका मनसे चिन्तन करना समस्त पापको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।१९ - २२ ।। तीत्र मिध्यात्व के उदय से ये जीव केवल इंद्रियों के विषयों की इच्छासे घोर पाप उत्पन्न करनेवाले निन्ध और भ्रष्ट शास्त्रों को लिखते हैं । यथार्थ धर्म के विरुद्ध और मोक्षमार्गको नाश करनेवाले शास्त्र लिखते हैं। वे लोग उन शास्त्रोंमें मिथ्यामत की पुष्टि लिखते हैं, व्यभिचारमें कोई दोष नहीं हैं, मांसभक्षण में कोई दोष नहीं है, अभक्ष्यभक्षण में कोई दोप नहीं है, मध और मधु आदिके सेवनमें कोई दोष नहीं है, इस संसार में कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । न महावीर आदि तीर्थंकर ही हुए हैं, संसारमें न कोई मोक्ष है, न पुण्य है और न कोई पाप है। इसप्रकार वे सब झूठी बातें लिखते हैं, ऐसे जीवोंपर दयादृष्टि रखकर उनका उद्धार करनेके लिये एकाग्रमनसे उनके
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विनाशक , सिध्याभक्सिताना क च स्यात्समुद्धरः ॥२८॥ मिथ्यामताच ते हि समुद्धारो हि चिन्त्यते 1 अपायविचयं ध्यान तम्मतं हि जिनेश्वरैः ॥२६॥ जीचा गृहीतमिथ्यावभावेन प्रेरिता भृशम् । संसाराब्धौ प्रकुर्वन्ति मजनोन्मजन चिरम् ॥३०॥ हिताहितं न जानन्ति मिथ्याधर्म चरन्ति च । तेनैव हेतुना दुःखं सहन्त वे हि दारुणम् ॥३॥ अद्यापिन गृहीतस्तैः सद्धर्मो जिनभाषितः । केनोपायन नयां हि धर्मप्रामिता भवेत् ॥३२।। तदर्थ चिन्तनं नूनमेकाममनसा हि यत् । अपायविचयं ध्यानं तदिह स्यात्सुखावहम् ॥३शा अनादिकालसंभूतं भ्रममोइसमुद्भवम् । कथं निवार्यते तद्धि दीर्घसंसारकारकम् ॥३४॥ तद्भूमस्य विनाशाय शुद्धबुभ्या विचिन्तनम् । अपायविचयाभिख्यं ध्यान तदिह कथ्यते ॥३५।। अयापि मे न संजातं सम्यनत्वं कर्महारकम् । तेन भ्रमामि संसारे तन्मे स्यादिह, वा कथम् ॥३६॥ तत्प्राप्त्यर्थ निजे चित्ते
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पापोंके नाशका चिन्तवन करना, घोर पापोंसे छुड़ाने के लिये चिन्तवन करना पापोंका नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । तीन मिथ्यात्वमें लगे हुए जीवोंका उद्धार कैसे होगा ? इसप्रकार मिथ्याष्टि जीवोंके उद्धारका बार बार चिन्तवन करना अपायत्रिचय नाका धर्मध्यान कहलाता है, ऐमा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥२३-२९॥ गृहीतमिथ्यात्वसे प्रेरित हुए ये जीव इस संसाररूपी समुद्र में चिरकालसे डूबते उछलते रहते हैं, वे जीव अपने हित वा अहितको नहीं जानते और मिथ्याधर्मको पालन करते है, इसीलिये वे जीव सदा दारुण दास सहन किया करते है। इन जीवोंने आजतक भगवान जिनेन्द्रदेवका कहा हआर थेषु धर्म धारण नहीं किया है । उस धर्मकी प्राप्ति इन जीवोंको किस उपायसे होगी? इसप्रकार एकान मनसे बार बार चिन्तवन करना, सुख देनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥३०-३३॥ दीर्घ संसारको उत्पन्न करनेवाला तथा महामोहसे उत्पन्न हुआ अनादिकालसे चला आया यह भ्रम किस प्रकार दूर हो सकता है। उस भ्रमको दूर करने के लिये शुद्ध बुद्धिसे बार बार चिन्तवन करना अपायविचय नामका ध्यान कहलाता है ॥३४-३५॥ इस संसारमें मुझे कर्माका नाश करनेवाला सम्पग्दर्शन आजतक प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये में इस संसारमें परिभ्रमण कर रहा हूँ, वह सम्यग्दर्शन मुझे कब प्राप्त होगा ? उसकी प्राप्तिके लिये अपने हृदयमें बार बार चिन्तवन करना जिनमार्गको प्रकाशित करनेवाला उपाय
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भूयो भूयो विचार्यते । सदुपायाभिधं ध्यानं तत्स्यान्मार्गप्रकाशकम ॥३७॥ कदाई कर्मसंघातं मिथ्याज्ञानेन संचितम् ।। जिनधर्मकुठारेण छिनधि तृणवभृशम् ॥३८॥ तदर्थ चिन्तनं चैकाप्रेमा योगत्रयेण वा । तदपयाभिधं ध्यान मिध्यातिमिरनाशकम ॥३।। कथं स्यामत्र निन्द्वी भावलिंगी यति हो । कारयो विपक्षास्ते कथं नश्यन्ति मेऽधुना।
1०11 इति चिन्तापरत्वेन भूयो भूयो विचारणम् । एकाग्रमनसातद्धिध्यानमपायनामभाक् ॥४१॥ कर्थ जाज्वल्यमानो हि कषायाग्निः ! प्रशाम्यति । विषयाशासमीयो भस्मयन् विश्वभूतलम् ॥४२॥ तेन दंदृश्यमानोऽहं तापान्मामुपागतः । श्राज्ञाना
सेवितो मिध्याधर्माग्निः शान्तये मुदा ।।४३शाहा हा मोहान हि जातं जिनधर्मसुधारसम् । तत्प्राप्निश्च कर्थ स्यान्म तदुपायस्य । चिन्तनम् ॥४४॥ एकाप्रमनसा तद्धि भ्यानमपायसंज्ञकम् । कपायाग्निश्च मिथ्याग्निस्तन शाम्यति निश्चयम् ।।४५।। कर्मेन्धनं ! कदाभस्मीकरोमि ध्यान हिना । जन्ममृत्युविनाशार्थ जिनदीक्षा कदा दधे ।।४६॥ कथं स्यात्मनि चात्मानं स्थापयामि तथाविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।३६-३७|| जिसप्रकार कल्हाडेसे लकड़ी काटी जाती है, उसीप्रकार मिध्यासानसे इकट्ठे हुए कमांक समूहको मैं जिमधर्मरूपी कुठारसे का नाश करूँगा? उन कर्मोंका नाश करनेके लिये मन, वचन और कायकी एकाग्रतासे बार बार चिन्तवन करना मिथ्यात्वरूपी अंधकारको नाश करनेवाला अपायविषय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥३८-३९। मैं भावालिंगी शनि का होऊँगा ? और ये मेरे विपक्षी कर्मरूप शत्रु किसप्रकार नष्ट होंगे? इसप्रकार चिन्तन कर एकाग्र मनसे बार बार विचार करना अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥४०-४१॥ यह देदीप्यमान कषायरूपी अग्नि विषयोंकी आशाख्यी वायुके लगनेसे समस्त संसारको भस्म कर रही है, उसी अग्निसे जला हुआ मैं उसके संतापसे | मच्छीको प्राप्त हो रहा है, वह कषायरूपी अग्नि कर शांत होगी? इसीप्रकार मैं अपने अझानसे मिध्यात्व रूपी अग्निको सेवन कर रहा हूँ, उस कपाय और मिथ्यात्वरूपी अग्निका शांत करनेके लिये मैंने मोहनीय कर्मके उदयसे जिनधर्मरूपी अमृतको नहीं जाना | उस जैनधमकी प्राप्ति मुझे किस प्रकार होगी? उसकी प्राप्तिके लिये उसके उपायका चिन्तवन करना उपायविचय वा अपायचिचय नामका धर्मध्यान कहलाता है। इस धर्मध्यानसे कषायरूपी अग्नि और मिथ्यात्वरूपी अग्नि अवश्य ही शांत हो जाती है ||४२-४५।। में ध्यानरूपी अग्निसे कर्मरूपी ईधनको कब भस्म करूंगा। तथा जन्म मरणको नाश करने के लिये जिनदीक्षा
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त्मना । निर्विकल्पसमाधौ वा धारियामि कथं मुदा ||४७|| || इति चिन्तापरत्वेन चैकाप्रमनसा हि यत् । चिंतनं तदपायास्यं ध्यानं कर्मविनाशकम् ||४८|| सम्यत्रत्नत्रयं कर्मनाशायात्र कथं दधे । उपायविचर्यं ध्यानं तदुपायस्य चिन्तनम् ॥४६॥ कथं स्यात्सर्वजीवस्य रक्षा मे जिनधर्मतः । तदर्थं चिम्सनं ध्यानमुपायविचयाभिधम् ||१०|| व्यतीतोऽनन्तकाली में भ्रमतो हा tara | अद्यापि न मया प्राप्तं तस्यास्तीरं विमोहिना ॥५१॥ श्रीजिनधर्मपांथस्य साहाय्येन च प्राप्यते । साहाय्यं हि कथं मे स्वात्स पोिऽत्र च सङ्कटे ॥१५२॥ तत्तीरप्राप्तये शुद्धभावेन चिन्तयाम्यहम् । येन भवाटवोतीरं सुखी प्राप्य भवान यहम् ||५३॥ इति चिन्तापरत्वेन चैकाग्रमनसा पुनः । चिन्तनं तदपायाख्यं ध्यानं दुर्गतिदायकम् ||२४|| मिध्यात्वेन चन्धोऽहं तवं पश्यामि नैव वा । तस्मादेव भवागर्ते पतितो जनुषधिवत् ॥५५|| चिरकालं हि तत्रैव सहे दुःखं मुदा
ha धारण करूंगा ? और अपने आत्माको अपने आत्माके द्वारा अपने ही आत्मामें कब स्थापन करूंगा अथवा इस अपने आत्माको प्रसन्न होकर निर्विकल्पक समाधिमें कब स्थापन करूंगा १ इसप्रकारके चितवनपूर्वक एकाग्रमनसे चितवन करना कमको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।४६-४८ ॥ कर्मों को नाश करनेके लिये मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति कम होगी ? इसप्रकार रत्नत्रय की प्राशि के लिये उपायों का चिन्तवन करना उपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥ ४९ ॥ मेरे इस जैनधर्मसे सब जीवों की रक्षा किमप्रकार होगी। इसप्रकार चिन्तन करना उपायषिचय नामका धर्मध्यान है ॥ ५० ॥ हाय ! दाय! इस संसाररूपी वनमें परिभ्रमण करते हुए मुझे अनंत काल व्यतीत हो गया तो भी विमोहित होनेवाले मुझे आजतक उसका किनारा प्राप्त नहीं हुआ, उस संसाररूपी नका किनारा इस जैनधर्मरूपी पांथ की सहायता से ही प्राप्त हो सकता है, परंतु इस संकट में उस जैनधर्मरूपी पका सहारा कब मिल सकता है ? इसप्रकार उसे संसारका किनारा प्राप्त करनेके लिये मैं शुद्ध भावोंसे चितवन करूंगा, जिससे कि संसाररूपी वनका किनारा पाकर में अत्यन्त सुखी हूँगा । इसप्रकार चितवन करते हुए एकाग्रमनसे चितवन करना दुर्गतिको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है ||५१ - ५४ ॥ मिध्यात्व कर्मके उदयसे मैं जन्मान्ध पुरुषके समान अंधा हो रहा हूं, इसीलिये मैं तखों को देख नहीं सकता और इसीलिये मैं इस संसाररूपी गढ़में पड़ा हुआ हूं। उसी संसाररूपी गढ़में पड़ा हुआ में दारुण दुःखको सहन कर रहा हूं, उस संसाररूपी गढ़ेसे शीघ्र ही सुख देनेवाला मेरा उद्धार कब होगा ? अथवा उस गसे उठाकर
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रुणम् । तस्मात्स्यान्मे कथं शीघ्रमुद्धारः खलु सौख्यदः ||१६|| मामुद्धृत्य हि तस्माद्वा कोऽसौ निष्कासयत्यपि । लोके हि श्रूयते यत्र तस्मानिष्कासने पटुः ॥४७॥ एको हि जिनधर्मोऽस्ति स माह्मो हि मयाऽधुना । इति चिन्तापरत्वेन चैकाग्रेण च चिन्तनम् ||१८|| भवदुःखाद्भवापायस्य चिन्तनविचारणे । तदपायाभिर्थं ध्यानं भवदुःखविनाशकम् ||१६|| व्यसनानि कदा रुन्धे नानादुःखकरारि च । कथं केन प्रकारेण तदपायस्य चिन्तनम् || ६ || त्रिलोकजयिनां कामं कथं जेष्यामि साम्प्रतम् । कथं वा मोहराजं तं जेष्यामि भवदायकम् ||६|| तदर्थंमत्र चैका प्रचिन्तासंरोधपूर्वकम् । चिन्तनं मननं ध्यानं तदुपायाभिधं मतम् ||६२|| कर्मास्रव निरोधो मे कथं स्यात्सौख्यदायकः । स्वचित्तेऽत्र तदर्थं हि स्थापयामि कथं पुनः ॥ ६३॥ गुप्तिसमितिचारित्रधर्मादीन् वा शिवात्मकान् । इति चिन्तापरत्वेन चैकाग्रमनसा स्वयम् ॥६४॥ चिन्तनं मननं चित्ते भूयो भूयो विचारणम् । अपायविचयं ध्यानं कर्मास्त्रत्रनिरोधकम् || ६५|| देहात्मको हि दृश्येऽहं यद्यपि कर्मतः । तथाtयहूं जो नैव नैत्रयास्मि विचेतनः ||६६ || मयि वा मत्स्वरूपोऽहं मद्गुणेन हगादिना । नान्पोई
मुझे कौन बाहर निकालेगा १ लोक में सुना जाता है कि उस संसाररूपी गढ़ेसे निकालने में एक जैनधर्म ही चतुर है। इसलिये अब मुझे उसी जैनधर्मको धारण करना चाहिये। इस प्रकारके चितवन पूर्वक एकाग्र मनसे संमारके दुःखोंसे उत्पन्न होनेवाले अपाय वा नाशका चितवन करना, उसका मनन करना संसारके समस्त दुःखों को नाश करनेवाला अपायविar नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥५५-५९|| अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले इन व्यसनों को मैं कब और किसप्रकार रोकूंगा ? इसप्रकार व्यसनों के नाशका चिन्तत्रत्र करना अथवा तीनों लोकों को जीतनेवाले इस काम को अब मैं कैसे जीतूंगा ? अथवा संसारको बढ़ानेवाले इस मोहराजको मैं कैसे जीतूंगा ? इसप्रकार अन्य सब चिंताओंको रोककर एकाग्रमनसे चितवन वा मनन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ||६० - ६२|| समस्त सुखोंको देनेवाला, कर्मों के आस्रव निरोधकरूप संवर किस प्रकार होगा ? और उस संपरके लिये मैं अपने हृदयमें गुप्ति, समिति, चारित्र और धर्म आदि कल्याण करने वालोंको किमप्रकार धारण करूंगा ? इसप्रकारके चितवन पूर्वक एकाग्र मनसे अपने मनमें विचार करना, मनन करना और बार बार चितवन करना कम के आसवको रोकनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।६३-६५ ।। यद्यपि मैं कर्मकारण शरीररूप दिखाई देता हूं, दथापि न तो मैं जड़ हूं और न अचेतन हूं। मैं सम्यग्द
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नान्यथाभूती नान्यरूपो भवाम्यहम् || ६७॥ यदा में कर्मबन्धः स्याद्भिन्नः स्वात्मप्रदेशतः । भविष्यामि तदाहं वै शुद्धः स्वर्ण इवाद्भुतः ||६|| कदा मे कर्मबन्धोऽसौ नाशं यायात्तपोऽग्निभिः । इति कर्मविनाशाय चिन्तनं यत्पुनः पुनः ॥६६ चित्तैकाप्रनिरोधेन चानन्यमनसा स्वयम् । अपायविचर्यं व्यानं तत्स्यात्कर्मरजालकम् ||७० || ज्ञानादिकमदाष्टाभ्यो न स्यादोपो हगादिषु । तदपायनिरासार्थं चिन्तनं यत्पुनः पुनः ॥७१॥ अपायविचयं ध्यानं मदाष्टकनिवारणम् । शल्यत्रये मेघातितं शुद्धदर्शनम् ॥ ७२ ॥ शल्यत्रयनिरासार्थं चिन्तनं यत्पुनः पुनः । अपायविचयं ध्यानं शल्य त्रयनिवारणम् ॥७३॥ अयं मूढजनश्चात्र तत्वं वेत्ति न तत्त्वतः । अन्यथा मनुते देवमन्यथा मनुते गुरुम् ॥७४॥ अन्यथा हि विजानाति धर्मं हि पापकर्मसु । हा मोहकर्मणा सोऽयं वचितो अमितश्च वा ॥ ७५॥ केनोपायेन मोहोऽसौ जेतव्यो दुर्जयो हि सः । इति मोहनिरासार्थं चिन्तनं यत्पुनः पुनः ॥७६॥ निकामनिरोधेन चानन्यमनसा हि वा । अपायविवयध्यानं तत्स्या र्शनादिक गुणोंके द्वारा अपने आत्मा में आत्मस्वरूप हूं; मैं आत्मा से न तो अन्य हूं, न अन्यथा हूं आर न अन्यरूप हूँ | मेरे आत्मा के प्रदेशोंसे जब यह कर्मों का बंध मिश्र हो जायगा तब मैं शुद्ध सुवर्ण के समान अद्भुत चमत्कारको धारण करनेवाला हो जाऊंगा। वह मेरा कर्म तप अशिसे कम नाथ को प्राप्त होगा ? इसप्रकार कर्मो का नाश करनेके लिये अन्य सब चितवनको रोककर एकाग्रमनसे बार बार चिंतन करना कम को नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है ॥१६६ - ७० ॥ ज्ञानादिकसे होनेवाले आठ मदोंके द्वारा मेरे सम्यग्दर्शनादिकमें दोष न आवे, इस प्रकार उन दोषोंका नाश करनेके लिये बार बार चिंतन करना आठों
को निवारण करनेवाला अपायवित्रय नामका धर्मध्यान है। अबतक माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीनों शल्योंने मेरे सम्यग्दर्शनका घात कर रक्खा है, यही समझकर तीनों शल्पों को दूर करनेके लिये बार बार चितवन करना तीनों शल्योंको निवारण करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है । ७१-७२ ।। ये अज्ञानी जीव वास्तव में यथार्थ चोंका स्वरूप नहीं जानते हैं, देव गुरु और धर्मके स्वरूपको भी अन्यथा समझते हैं ऐसे अज्ञानी लोग पाप कार्यों में ही धर्म मान लेते हैं । दुःख हैं कि ऐसे अज्ञानी मोह कर्मके उदयसे ठगे गये हैं और इसीलिये वे परिभ्रमण कर रहे हैं। ऐसा वह दुर्जय मोह किस प्रकार जीवा जा सकता है ? किस उपायसे जीता जा सकता है ? इसप्रकार मोहका नाश करनेके लिये अन्य समस्त
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मोहनिवारकम् ॥७७॥ कालव्याप्रमुखान्मां हि रक्षकों जिन एव सः । अन्यः कोऽपि समर्थो न दीनं वालं हि संसृतः ॥७८॥ कालव्याघ्रात्कथं रक्षा केनोपायेन मे भवेत् । इतीह स्वात्मरक्षार्थं तदपायस्य चिन्तनम् ॥ ७६ ॥ श्रन्यचिन्तानिरोधने चैकाग्रेण विचारणम् । अपायविचयं ध्यानं कालविभ्वंसकं मतम् ||८०|| सर्व जीवाः कथं शीघ्रं भवेयुः सुखिनो भृशम् । संसारोद्भवं दुःखं तेषां शाम्यति वा कथम् ॥८१॥ निध्याय चैवं मनसि उपायस्य चिन्तनम् । सर्वजीत्रसुखार्थं हि विन्तैका प्रनिरोधः ||२|| तदपायाभिधं ध्यानं भव दुःख विनाशकम् । स्वर्गमोक्षप्रदं चैतद्धस्वात्मविचिन्तनम् ||८|| भव्यानां हि परा शुद्धिः क्षोभक्षादविवर्जिता । भविष्यति कदा केनोपायेन शिवसाधिका ||४|| चिन्तयेतदुपायं हि योगी ध्याने निरन्तरम् । तदुपायाभिधं ध्यानं सदुपाये नियोजकम् ||८|| चिन्तनोंका निरोधकर एकाग्र मनसे बार बार चितवन करना मोहको निवारण करनेवाला अपायवित्रय नामका धर्मध्यान है ||७४-७७ || इस कालरूपी बाघके मुखसे रक्षा करनेवाले भगवान जिनेन्द्रदेव ही हैं। इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस दीन बालकको कालसे रक्षा करनेवाला अन्य कोई नहीं हैं । इस कालरूपी बाघसे मेरी रक्षा किन किन उपायोंसे हो सकती हैं ? इसप्रकार अपनी आत्मरक्षा के लिये काल (जन्म-मरण ) के नाशका एकाग्र मनसे अन्य सब चिन्तत्रनोंको रोककर बार बार चिन्तवन करना जन्म-मरणरूप कालको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है || ७८-८० ।। ये समस्त संसारी जीव कब सुखी होंगे ? संसारसे उत्पन्न हुए इनके दुःख किसप्रकार शांत होंगे ? इसप्रकार मनमें धारणकर समस्त जीवोंका सुख चाहने के लिये एकाग्रमनसे संसार के दुःखोंके नाशका बार बार चिन्तवन करना संसारके दुखोंको नाश करनेवाला, स्वर्गमोक्ष देनेवाला और आत्मा शुद्ध स्वरूपको चिन्तवन करानेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है |८१-८३॥ समस्त दुःख और क्षोभसे रहित तथा मोक्षको देनेवाली इन भव्य जीवोंके आत्माकी शुद्धि किम उपासे होगी ? इसप्रकार जो योगी अपने ध्यानमें आत्माकी शुद्धिके उपायको निरंतर चिन्तवन करता रहता है, उसको श्रेष्ठ उपायमें नियुक्त करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं ||८४-८५ ॥ मोक्षमार्गका उपाय एक यह जैनधर्म ही है, पहले जो तीर्थकर आदि मोक्षमें गये हैं, वे इसी जैनधर्मले गये हैं तथा आगे
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उपायो मोक्षमार्गस्य जिनधर्मः स एव हि । पुरा तेनैव मोक्षं च गतास्तीर्थकरादयः ।।६।। गमिष्यन्तीह तेनैव जिनधर्मेण धार्मिकाः । जिनधर्मस्य जीवानां प्राप्तिः म्याच कथं मनु ८७|| केनोपायम वा तेषां तदुपायस्य चिन्तनम् । तदुपायाभिधं ध्यानं मोक्षमार्गस्य दीपकम् ।।८।। कीदशैः सदुपाया सडूम मे मतिमंवत । तेषां हि सदुपायानां चिन्तनं वा विचारणम ॥८६॥ येन येन विचारेण याभिर्याभिः क्रियादिभिः । सुदृग्योधनतादीनां हानः स्यादात्मनो यदि 10! तेषां तत्र निरासाथ चित्तैकाप्रनिरोधतः । चिन्तन शुद्धभावन तदपायस्य यत्पुनः ६१|| अपार्यावचयं ध्यान सर्वपापनिवारकम् । कथित श्रीजिनेन्द्रेण शिवाय दुःखहानये ॥१२॥ अतिविषयकुमार्गे भ्राम्यमाणे वराकः सहजकुमतिशिक्षाप्रेर्यमाणोऽन्धजीवः । जननमरणदुःखं दारुणं संचिनोति इह तदपि सुधर्म नैव प्राप्नोति भत्त्या ||३||
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार अपायविषयध्यानप्ररूपणो नाम अष्टादशोऽधिकारः ।
गीमार्मिक पुरुष इसी जैनर्णसे मोक्ष जायेंगे. उस जैनधर्मकी प्राप्ति इन जीवोंको किस उपायसे और किस प्रकार होगी? इसप्रकार जैनधर्मकी प्राप्तिके उपायोंका चिन्तवन करना मोक्षमार्गको दिखलाने के लिये दीपकके - समान उपाय विचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥८६-८८।। अथवा ऐसे कौनसे उपाय हैं ? जिनसे मेरी बुद्धि श्रेष्ठ धर्ममें लीन हो जाय, इसप्रकार उन उपार्योका चिन्तवन वा विचार करना भी उपायविचय नामका धर्मध्यान है ।।८९il जिन जिन विचारोंसे वा जिन जिन क्रियाओंसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान वा सम्यक्चारित्र वा आत्माके गुणोंकी हानि होती हो, उन विचारों वा क्रियाओंका दूर करनेके लिये अन्य सब चिन्ताओंको रोककर शुद्ध भावोंसे बार बार चितवन करना समस्त पापोंको रोकनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है, इसीसे समस्त दुःख दूर होते हैं और इसीसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, ऐसा | | भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥९०-९२॥ अज्ञानजनित स्वभाक्से उत्पन्न होनेवाली कुदुद्धि और कुशिक्षासे प्रेरित हुआ यह दीन और अन्धा जीव विषय-कुमागमे अत्यन्त परिभ्रमण करता हुआ जन्म-मरणके दारुण दुःखोंको इकट्टा करता रहता है तो भी भक्तिपूर्वक इस श्रेष्ठ धर्मको कमी धारण नहीं करता ॥९३॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारमें अपायविघयनामक
धर्मध्यानको निरूपण करनेवाला यह अट्ठारहवां अधिकार समाप्त हुआ।
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एकोनविंशोऽधिकारः।
कर्मणामुदयो यस्य चित्ते नैष विकारकः। तं बीतरागं योगीशमरनाथं नमाम्यहम ॥११॥ अनादिकालती जीवः पूर्वसंचितकर्मणाम् | भुज्यते चोदयेनैव भवावलि सुदुद्धराम ॥२॥ कर्मणां हि विपाको यः सुखदुःखादिकारकः । श्वभ्रः तिर्यम्तृदेवादेविचित्रगविदायकः ॥३॥ कर्मणामुदयस्तत्र चिन्त्यते हि मुमुक्षुणा । अन्यचिन्तानिरोधेन चैकाप्रमनसा हि सः ॥४॥ विपाकविचयं ध्या कर्मफलप्रदर्शकम् । श्रीमजिनेन्द्रदेवेन कथित तजिनागमे ॥शा कर्मणामुदयो योऽत्र संसा. रोऽस्ति स एव वा । कर्मणामुदयो यावत्संसारस्तावदेव हि ॥६॥ इति मत्वा सुभव्येन कर्मोदयविचारणा।क्रियतेऽत्र सदैकाम | चिन्ता संरोधपूर्वकम् ॥ विपाकविषयं तद्धि ध्यानं निर्वेदवद्धकम् । निरंतर सुभन्येन ध्यातव्यं कर्महानय
जिनके हृदयमें कर्मोंका उदय कुछ विकार उत्पन्न नहीं करता, ऐसे योगिराज वीतराग भगवान् । । अरनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ यह जीव पहले संचित हुए. कोंके उदयसे प्राप्त होनेवाली अत्यंत | दुर्धर ऐसी जन्म-मरणरूपी संसारकी परंपराको अनादि कालसे भोगता चला आया है ।।२। इन कर्मोंका विपाक | सुख दुःखादिकको देनेवाला है और नरक, तियंच, मनुष्य, देवादिककी विचित्र गतियोंको देनेवाला है | ॥३॥ इसप्रकार मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीव अन्य सब चितवनोंको रोककर एकाग्र मनसे कमौके उदयका जो चितवन करते हैं, उसको कोक फलको दिखलानेघाला विपाकविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं, ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने जिनागममें बतलाया है ॥४-५|| जो कर्मोंका उदय है, वही संसार है । क्योंकि जबतक कर्मोंका उदय रहता है तभीतक संसार रहता है ॥६॥ यही समझकर भव्य जीवोंको काँके | | उदयका विचार करना चाहिये तथा अन्य समस्त चिंताओंको रोककर एकाग्र मनसे चितवन करना चाहिये।
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सासर्वे संसारिणो जीवा मुमते हि चतुर्गती । कर्मोदयेन पीडां तो जन्ममृत्युभयात्मिकागंक्षणमुदेत्यत्र नानादुःखप्रवर्तकः । सर्वसंसारिणां सोऽयं जन्नमृत्योश्च कारकः ॥१०॥ नहि वारियितु शक्यः केनापीह कथंचन । कर्मणामुदयः | स्तीब्रो महान् हालाहलोपम: १श, कर्मोदयाच रक्कोऽपि क्षणाद्राजा प्रजायते । राजा रङ्कायते सद्यो विचित्रा कर्मणां गतिः ।।१२।। न मंत्रं न तपो देवपूजा वा नैव बांधवः । त्रातु कोऽपि समर्थो न जन्तुं कमोदयात्किल ||१|| सुखासुखं न शक्नोति दातुहर्तुमिहात्र कः । एक पुराकृतं कर्म लीलया कुरुतेऽखिलम् । १४ा शक्रोऽपि न समर्थो वा पलान् कतु तम. न्यथा । कर्मणामुदया जोक भोक्तव्यो नियमेन सः |१२शुभाशुभक्रियां जीवनियोगेन करोति याम् । सैवात्र कर्म ह्याख्यातं विपाकोऽस्ति च तत्फलम् ॥१६॥ कर्म बध्नाति जीवोऽयं सततं हि त्रियोगतः । उद्योपि भवस्येष सततं तस्य कर्मणः ॥१७॥ | इसीको वैराग्यको बढ़ानेवाला विपाकविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं | अपने कर्मोको नाश करनेके लिये
भव्य जीवोंको निरंतर ही इसको धारण करना चाहिये ७-८। इसी कर्मके उदयसे ये संसारी जीर
चारों गतियोंमें जन्म-मरण-भयरूप अनेक दुःखोंको सहन करते हैं ॥९॥ जन्म-मरणको उत्पन्न करनेवाला | और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाला यह कर्मोका उदय समस्त संसारी जीवोंके क्षण क्षणमें उदय होता रहता
है ॥१०॥ यह कर्मोंका उदय अत्यंत तीब है और हलाहल विषके समान है, इसको कोई किसीप्रकार | रोक नहीं सकता ॥११॥ इस कर्मके उदबसे क्षणभरमें ही रंकसे राजा हो जाता है और राजासे रंक हो | जाता है। इन कोंकी गति बड़ी ही विचित्र है ॥१२॥ इन कर्मों के उदयसे इन जीवोंकी रक्षा करने में न
तो कोई मंत्र समर्थ है, न कोई तप समर्थ है, न कोई देवपूजा समर्थ है और न कोई भाई-बंधु नमर्थ है ॥१३॥ इस संसारमें सुख वा दुःख देने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है। केवल पहले किया हुआ एक कर्म ही लीलापूर्वक सब कुछ किया करता है ॥१४॥ उस कर्मके उदयको इंद्र मी अपने बलसे नहीं बदल सकते। इस संसारमें ऐसा यह कोका उदय नियमसे भोगना पड़ता है ॥१५॥ यह जीव मन, वचन और कायके योगसे जो शुभ अथरा अशुभ क्रियाओंको करता है, उसीको कर्म कहते हैं और उसके फलको कोका विपाक कहते हैं ॥१६॥ यह जीव मन, वचन और कायके द्वारा निरंतर कर्मोका बंध करता रहता है और | निरंतर ही कर्मोंका उदय होता रहता है ॥१७॥ यह जीव अनंतकालसे अनेक योनियोंमें परिभ्रमण करता आ रहा है,
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अनन्तकालतो जीवो नानायोनौ हि पर्यटन् । नान किंचित्सुख लेभे कर्मणां दुर्विपाकतः॥१८|| खिद्यते ताम्यति ध्येति जायते परिनृत्यति । रौति मृच्छति जीवोऽयं कर्मणामुदये सति ।।१६।। काम्यति युध्यते शेने हिनस्ति क्रुध्यति स्वयम् । रज्यति मुखवि द्वेष्टि कर्मोदयादयं जनः ॥२०॥ धावति बल्गति स्तौति निन्दति पापतः फ्रान् । हर्षति रोचते पुण्याज्जीव कर्मोदयादिह ॥२१॥ चतुर्गतौ च संसारे नानावेषं च धारयन् । कर्मणामुदयाजीवो नाट्य इत्र नटायते ॥२२।। पिता भवति पुत्रोऽसौ पुत्रः पित्रायतेतराम् । राजा भवति मार्जारः श्वा देवोऽपि च जायते ॥२३।। अतिभीमेऽत्र संसारे कर्मणामु. दयादिह । सर्वत्र सर्वभावेन जीवो नृत्यति लीलया ॥२४॥ सुखं न जायते जीवस्याल्पकर्मोत्यादिह । दुःखरूपे च संसारे दुःखमेव हि जायते ।।२५।। जलबुद्बुदसादृश्यं सुखं किंचिच्च दृश्यते । कृतकर्मविपाकाय दुःखस्य कारणं हि तत् ।।२६।। दुःखमयेऽत्र संसारे कर्मोदयात्सुतंत्रिते । जन्ममृत्युभवं दुःखं जीवः प्राप्नोति दारुणम् ।।२७॥ कर्मोदयः म | | परंतु कर्मोंके अशुभोदयसे इसको रंचमात्र भी सुख प्राप्त नहीं हुआ है ॥१८॥ कर्मोके उदय होनेपर यह
जीव खेदखिन होता है, दुःखी होता है, नष्ट होता है, उत्पन्न होता है, नृत्य करता है, रोता है और मृच्छोको | प्राप्त होता है ।।१९।। इसी कर्मस उदयसे यह जीव इच्छा करता है, लड़ता है, सोता है, हिंसा करता है, क्रोध
करता है, राम करता है, मोह करता है और द्वेष करता है ॥२०॥ यइ जीव पाप कर्मोके उदयसे दौड़ता है, | चकता है, दूसरेकी निन्दा करता है वा स्तुति करता है, अथवा पुण्यकर्मके उदयसे प्रसन्न होता है वा रुचि हा करने लगता है ॥२१॥ कर्मों के उदयसे यह जीव चतुर्गतिरूप संसारमें अनेक मेषोंको धारण करता हुआ
नाट्यशालामें नटके समान नाचता रहता है ॥२२॥ कर्मोंके उदयसे अत्यन्त भयानक इस संसारमें यह जीव पितासे पुत्र हो जाता है, पुत्रसे पिता हो जाता है, राजासे बिल्ली हो जाता है और कुत्तासे देव हो जाता है। इसप्रकार यह जीव सब जगह और सब मासे लीलापूर्वक नृत्य किया करता है ।।२३-२४।। | इन कर्मोके उदयसे इस जीवको थोडासा भी सुख प्राप्त नहीं होता । यह संसार दुःखरूप है, इसलिये इसमें सदा all दुःख ही दुःख प्राप्त होता रहता है ॥२५॥ किये हुए कर्मोके उदयसे यदि पानीके बुद्दाके समान
थोड़ी देर तक टिकनेवाला थोडासा सुख दिखाई देता है, तथापि वह आगामी दुःखोंका ही कारण होता है | ॥२६॥ कर्मोके उदयके वशीभूत होनेवाले और दुःखमय इस संसारमें यह जीव जन्म-मरणसे उत्पन
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संसारो न चान्योऽस्तीह वा क्वचित् । कृत्स्नकर्मोदयाभावो मोझोऽस्ति नियमेन सः ॥२८ कर्मोदयानन्तास्ते जीवा नित्यनिगोतके। अनन्तकालतोऽयाप सहन्त वदना परान् ॥२६॥ तत्रकोच्छासमाने हि चाष्टादशप्रमाणकम् । कुजन्ममरणं नित्यं कुर्वन्ति कर्मयोगः॥३०॥
श्व कर्मादयाजीवो वधधादिकं भृशम् । ताउन मारणं चैव दुःखं वासहते परम् ॥३॥ छेदन भेदनं तो भर्सनं दहन तथा। कर्मोदयास्त जोवोऽयं लभते वेदनां पराम् ।।३।। बहुसागरपर्यतं दुःखं प्राप्नोति भीमकम् । न कोऽपि रक्षकतत्र प्रतीकारोऽपि नास्ति वै ॥३॥ हिंसस्तेयानृताब्रह्मसंगादिपापतो ननु । कर्मोदयादर्य तत्र सहते वेदनां पराम् ॥३४|| जीवानां वधबंधेन मायाचारण कर्मणा। दुर्नीतिनाऽसदाचारेणान्येन पापकर्मणा ||३|| | दुर्गतौ जायते जीवो तिर्यग्योनौ च संततम् । कर्मोदयाच तत्रापि परतन्त्रः सदा दुःखः ॥३६॥ अतिभोमेऽत्र संसारे कर्मणा
| होनेवाले अनेक दारुण दुःखों को प्राप्त हुआ करता है ॥२७॥ इस संसारमें जो कर्मों का उदय है, वही संसार Pा है, कोके उदयके सिवाय अन्य कोई संतार नहीं है। तथा समस्त कर्मोंके उदयका अभाव होना ही नियमसे | | मोक्ष है ॥२८। इन्हीं कमौके उदयसे अनंतानंत जीव अनंतानंत कालसे नित्य निगोदमें पड़े हुए हैं और | आजतक सबसे अधिक वेदनाको मह रहे हैं ॥२९॥ वे जीव कर्मों के उदयसे जितनी देरमें एक श्वास लिया | आता है, उतनी देरमें अहारह बार कुजन्म-मरण धारण करते रहते हैं, इसीप्रकार सदासे जन्म-मरण करते
आ रहे हैं ।।३०॥ कर्मोके उदयसे ही यह जीव नरकमें उत्पन्न होता है, वहां पर वध-बंधनके अनेक दुःख | सहन करता है तथा ताडनमारण आदिके महादुःखोंको सहन करता है। उसी नरकमें कर्मोंके उदयसे यह Dil जीव छेदन, मेदन. तीव्र भर्त्सन तथा दहन आदिकी तीव्र वेदनाओंको सहन करता रहता है। उन नरकोंमें | | यह जीव अनेक सागर पर्यंत भयानक दुःख सहन करता रहता है । उन दुःखोंसे बचानेवाला वहांपर कोई नहीं है और न उन दुःखोंका कोई प्रतीकार का उपाय है ॥३१-३३।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहरूप पापकर्मोंके उदयसे यह जीव उन नरकोंमें तीव्र वेदनाओंको सहन करता रहता है ॥३४॥ जीवोंका वध, बंधन करनेसे, मायाचार करनेसे, कुटिल नीतिसे, असदाचारसे वा अन्य पाप कर्मोंसे यह जीव तिर्यच योनिकी अनेक दुर्गतियोंमें निरंतर उत्पन होता रहता है और उन कर्मोंके उदयसे वहां मी परतंत्र होता हुआ | सदा दुःखी रहता है ॥३५-३६|| कर्मोके उदयसे यह जीव अत्यंत भयानक इस संसारमें किन किन
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II मुदयादिह । कानि कानि व दुःखानि जीवो न सहते चिरम् ।।३७॥ कर्मतंत्रात्पराधीनः बंदीव किं करोति न । सर्वत्र च |
त्रिलोकेषु कर्मोदयोऽतिदुर्द्धरः ॥३८॥ ते निरोद्धन कोऽपीह समर्थो बलवान् शमः । ध्यानतपोऽग्निना कर्मोदयः स हि ०प्र०
यिनश्यते ॥३॥ कर्माधीनतया जीवो दुःखं सहेत यानशा । तारशं कर्मनाशार्थ स्वतंत्रेण महेत वा ॥४०॥ तपोध्याना१५|| दिभिश्चात्र स्वल्पं कालं सुभावतः। स निर्जरामरो भूत्वा स्वतंत्रो जायते स्वयम् ।।११।। यदि कर्म निरोद्धतच्नेच्छा
ते वरिवर्ति षा । आत्मन् त्वं कुरु सयानं कर्मविपाकजं शुभम् ।।४२|| कर्मणामुदयस्ता योगीगत्यादिभेदतः । चिन्तयेत्कर्म नोकर्म भावकर्म पुनः पुनः ॥४॥ विपाकचिन्तनेनात्र योगी जानाति कर्मणाम् । संसृती द्रव्यपर्यायभेदं गवागत तथा ।। ।। तनात्र चिन्तनेनैव निर्वेदो जायते परम् । भवभोगावदेहेभ्यो विरतिजायते परा ॥४५॥ ततो हि कर्मनाशार्थ यत्न करोति भावतः । थ्यानं विपाक कृत्वा शिवं याति सुनिश्चितम् ।।४।। यद्यपि शुद्धरूपोऽहं. तथापि कर्नपाकतः । अनादितो दुःखोंको चिरकाल तक सहन नहीं करता अर्थात् समस्त दुःखोंको सहन करता रहता है ॥३७॥ कर्मोके । उदयसे पराधीन हुआ यह जीव तीनों लोकोमें सब जगह कैदीके समान क्या क्या कार्य नहीं करता है अर्थात । सब कुछ करता है। यह कोंका उदय अत्यन्त दर्धर है ॥३८॥ उम कर्म के उदयको रोकनेके लिये कोई भी बलवान् समर्थ नहीं है। यह काँका उदय ध्यान और तपश्चरणरूपी अग्निसे ही नष्ट किया जा सकता है।
॥३९॥ यह जीव कर्मों के आधीन होकर जैसे दुःखोंको सहन करता है, वैसे दुःख कर्मोंके नाश करनेके लिये | स्वतन्त्र होकर तप वा ध्यान आदिके द्वारा निर्मल परिणामोंसे थोड़े काल तक भी सहन कर ले तो अजर अमर होकर यह जीव सदाके लिये स्वतन्त्र हो जाय । हे आत्मन् ! यदि उन कर्मोंके उदयको रोकनेकी तेरी इच्छा है तो तू कर्मोंके विपाकको चितवन करनेवाला विपाकविषय नामके धर्मध्यानको धारण कर ॥४०-४१॥ योगियोंको गति आदिके भेदसे कर्मों के उदयका चिंतन करना चाहिये। और कर्म नोकर्म और भावकर्मीका चितवन करना चाहिये, कर्मोके उदयका चिंतन करनेसे योगियों को संसारमें होनेवाले द्रव्यपर्यायके भेद तथा कर्मों का आत्रक, संवर, निर्जरा
आदि सबका ज्ञान हो जाता है । इन सपका चिंतन करनेसे उत्कृष्ट वैगम्य उत्पन्न होता है और संसार, शरीर, | मोग तथा इन्द्रिोंके विषयोंसे उत्कृष्ट वैराग्य उत्पन्न होता है । इसलिये जो जीव कर्मोका नाश करने के लिये निर्मल | परिणामोंसे प्रयत्न करता है । इस विपाकविचय नामके धर्मभ्यानको धारणकर कोंके नाश करने का प्रयत्न करता
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जडो मूर्तो जातोऽहं पररूपकः॥४७|| त्रिलोकदर्शिका शक्तिनष्टानेकर्मयोगतः नष्ट मेऽनन्तविज्ञानं चराचरप्रकाशकम् ।।८।। सु०प्र०
नष्ठी मेऽनन्तवीर्योऽसौ जगदाश्चर्यकारकः । पूर्णस्वाधीनमात्मोत्थमनन्नमविनश्वरम् ||४| नष्टं मे तलमुखं हा हा कवि॥१६॥
पाकतोऽधुना । अव्यावाधत्वशक्तिर्म नष्टा हा चित्स्वरूपिका ॥४०॥ कर्मणामुदयं तस्माद्धे ध्यानाग्निनाऽधुना । कर्मोदयं हि रुध्वा वा स्वतन्त्रो हि भवाम्यहम् ॥५१|| तदर्थं चिन्तनं चैकाप्रचिन्तारोधपूर्वकम् । कर्मविपाकजं तद्धि ध्यान कर्म | विनाशनम् ॥५२|| यथा यथा हि योगी स ध्यायति कर्मणां फलम् । तथा तथा स संसाराद्विभेति लभते शिवम् ॥४३॥ | कर्मणां हि विपाक वा चिन्तयन् स पुनः पुनः । यतते चात्मशुद्धार्थ ध्यानाध्ययनकर्मसु ॥५४॥ कर्मविपाकजं ध्यान ध्यातं तीर्थकरैरपि । गणधरैरपि ध्यातं कर्मनि शहेतवे ॥५५|| कर्मविपाकजाद्ध्यानानश्यन्त कर्मशत्रवः । लभ्यते
है, वह अवश्य ही मोक्षको प्राप्त होता है ।।४३-४६।। यद्यपि मैं शुद्धस्वरूप हूं तथापि कर्मके उदयद्वारा अनादि || कालसे जड़, मूर्त और पररूप हो रहा हूं। इसी कर्मके निमित्तसे तीनों लोकोंको दिखलानेवाली मेरी शक्ति R| नष्ट हो गई है और चर-अचरको प्रकाशित करनेवाला मेरा अनन्त ज्ञान नष्ट हो गया है । इस कर्मके उदयसे | | जगत्को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला मेरा अनंत वीर्य नष्ट हो गया है तथा आत्मासे उत्पन्न हुआ पूर्ण स्वाधीन |
और कभी न नाश होनेवाला अनंत सुख मी इसी कर्मके उदयसे नष्ट हो गया है । इसी कर्मके उदयसे मेरी
चैतन्यस्वरूप अन्यावाध शक्ति नष्ट हो गई है। इसलिये अब मैं ध्यानरूपी अग्निसे कर्मों के उदवको रोदूंगा 15 और कौके उदयको रोककर स्वतंत्र हो जाऊंगा । इसप्रकार अन्य समस्त चिन्तनों को रोककर एकाग्र मनसे
कर्मोके उदयके रोकनेका चिन्तवन करना कोको नाश करनेवाला विषाकविषय नामका धर्मध्यान कहलाता |
है ॥४७-५२॥ यह योगी जैसे जैसे कोंके उदयका चिन्तवन करता रहता है, वैसे ही वैसे संसारसे भयभीत का होता है और मोक्षको प्राप्त करता है ॥५३॥ काँके उदयको बार बार चितवन करता हुआ वह योगी अपने
आत्माको शुद्ध करनेके लिये ध्यान अध्ययन आदि कार्यों में सदा प्रयत्न करता रहता है ॥५४॥ कर्मों के विषाकसे उत्पन्न हुआ यह विपाकविचय ध्यान पहले तीर्थंकरोंने भी धारण किया है और कर्मोंका नाश करनेके लिये
गणधर देवोंने इसे भी धारण किया है ॥५५॥ कमांक उदयसे उत्पन्न हुए इस विपाकविचय धर्मध्यानसे - कर्मरूप सप शत्रु नष्ट हो जाते हैं, मोक्षका सुख प्राप्त हो जाता है और महान् आनन्द प्रगट होता है
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॥ १६१ ।।
PRESERIESER
शिवसौख्यं हि महानन्दश्च जायते ॥ १५६ ॥ इह जगति च जीवः कर्मणां पाकतोऽत्र भ्रमवि विविधयोनौ जन्म मृत्युं करोति । अतिशयपरतन्त्रो दुःखमन्वेति नित्यं धरतु सुखनिवासं कर्मद्दान्यै सुधर्मम् ||१७||
इति सुधर्म ध्यानप्रदीपालंकारे विपाकविचयनिरूपणो नाम एकोनविंशोऽधिकारः ।
॥५६॥ इस संसार में यह जीव कर्मो के उदयसे अनेक योनियों में परिभ्रमण करता रहता है और सदा जन्म-मरण धारण करता रहता है । उन्हीं कर्मोंके उदयसे अत्यन्त परतंत्र हुआ यह जीव सदा दुःखों को मोगा करता है । इसलिये मन्य जीवोंको उन कर्मोंका नाश करनेके लिये समस्त सुखोंका स्थान ऐसा श्रेष्ठधर्म सदा धारण करते रहना चाहिये ॥५७॥
इसप्रकार सुनिराज श्रीसुधर्म सागरविरचित सुधर्म ध्यानप्रवीपालंकार में विपाकविचय नामके धर्मध्यानको निरूपण करनेवाला यह उन्नीसवां अधिकार समाप्त हुआ।
सु० १० ११
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सु० प्र०
॥ १६२ ॥
विंशतितमोऽधिकारः ।
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लोकालोकं विजानाति पश्यथिनपत्सदा । न्यये हाममानुस श्रीमल्लिवीर्थ नायकः ॥१॥ अनादिनिधनं नित्यमनन्तं व्यापकं विभु आकाशं सर्वतो ज्येष्ठमनन्तानन्वशक्तिमत् ॥२॥ अकृत्रिमं स्वयम्भूतमवगाहनशक्तिभृत् । लोकालोकप्रभेदेन द्विधा प्रोकं जिनेशिना ||३|| यत्र जीवादयश्चार्थाः सन्ति स लोक उच्यते । केवलं व्यवहारत्वादाकाशं केवलं च तत् ॥४॥ षद्रव्यखचितो लोकस्त्रिभिवर्तिश्च वेष्ठितः । स्वयं प्रतिष्ठितस्तेन भाति वाश्चर्यकारकः ||५||
जो लोक अलोकको जानते हैं और एक साथ देखते हैं और जो ज्ञानके सूर्य हैं, ऐसे तीर्थकर भगवान् श्रीमल्लिनाथको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १॥ यह आकाश अनादि है, अनिधन है, नित्य है, अनंत है, व्यापक है, वि है, सबसे बड़ा है और अनंत शक्तिको धारण करनेवाला है || २ || वह आकाश अकृत्रिम है, स्वयंभू है और अवगाहन शक्तिको धारण करनेवाला है। भगवान जिनेन्द्रदेवने उसी आकाशके लोक अलोकके भेदसे दो मेद बतलाये हैं ||३|| जिस आकाशमें जीवादिक पदार्थ विद्यमान हैं, उसे व्यवहार नयसे लोकाकाश कहते हैं; वास्तव में वह आकाश ही है ||४ | उस लोकाकाशमें छहों द्रव्य भरे हुए हैं; घन वात, अम्बु वात और बात; इन तीन प्रकारकी वायुओंसे घिरा हुआ है। वह स्वयं प्रतिष्ठित है किसीका बनाया हुआ नहीं है । और इसीलिये आश्रर्य करनेवाला वह बहुत ही शोभायमान होता है ||५|| उस लोकाकाश के तीन विभाग हैं - एक अधोलोक, दूसरा मध्यलोक और तीसरा ऊर्ध्वलोक । अधोलोक मृदा ( वेंतके आसन ) के आकारका है, मध्यलोक थाली के आकारका है और ऊर्ध्वलोक पखावजके आकारका है; इसप्रकार तीन मार्गस
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म.प्र०
११६३॥
अधोवत्रासनाकारो मध्ये झल्लरिको मत। अन्ते हि मुरजाकारनिविभागैर्विभाति यः ॥६॥ अनादिनिधनो होकः स्वयंभूहि सनातनः । स केनापि तो नैव विलीनो न धृतो न वा ॥७॥ पंचद्रव्यविहीनं चाफाशमस्ति हि केवलम् । अनादिनिधनं निस्यमवगाहनशक्तिकृत । लोके सर्वत्र जीवोऽयं भ्राम्यति कर्मयोगतः । स जन्ममृत्युभिनित्यं दुःख प्राप्नोति दारुणम् ।।।। लोकः क्षेत्र च संस्थान सर्वे पर्यायवाचकाः। जन्ममृत्युजरादीनां क्षेत्रं लोकः प्रकीयते ॥२०॥ यत्र सर्वत्र जीवोऽयं करोति जननादिकम्। सोऽपि पंचपरावर्तंभ्रमतीद निरन्तरम् ॥११॥ लोकस्य चिन्तनं काग्रचिन्ता रोधपूर्वकम् । संस्थानविचयं ध्यानं तदस्ति क्षेत्रवाचकम् ॥१२॥ तत्र लोके अधोभागे नारकाः सन्ति शाश्वतम् । क्षेत्रज दारुणं तत्र दुःखमस्ति निरन्तरम् ।।१।। तेषां हि नारकाणां तु देहो लेश्या च विक्रिया। भावो निरन्तरं क्रूरतमोऽशुभश्न जायते ॥१४॥ ताउने मारणं बन्धं भर्त्सनं छेदन तथा। अङ्गानां भेदनं चैव प्राणानां परिपीडनम् ।।१५।। भर्जन वालुकायंत्रे दहन तप्ततैलक। पावन चाग्निकुण्डे वा वैतरण्यां प्रपातनम् ॥१क्षा एवं हि नारकास्तत्र कुर्वन्ति च परस्परम् । अति| वह सुशोमित होता है ॥६॥ यह लोकाकाश अनादिनिधन है, स्वयंभू है, सनातन है, न किसी ने किया है,
न किसीने धारण किया है और न कोई इसे नष्ट करता है ॥७॥ जिसमें जीवादिक द्रव्य नहीं है, उसे र अलोकाकाश कहते हैं। वह अलोकाकाश भी अनादिअनिधन है और अवगाहन शक्तिको धारण करता है
॥८॥ कर्मोके निमित्तसे यह जीव समस्त लोकाकाशमें परिभ्रमण करता है, तथा जन्म-मृत्यु के द्वारा सदा दारुण दुःख भोगता रहता है ॥९॥ लोक, क्षेत्र वा संस्थान सब पयोयवाचक शब्द , जन्म-मरण आदिका जो क्षेत्र है उसीको लोक कहते हैं ॥१०॥ इसी लोकमें यह जीव पाँच परिवर्तनोंके द्वारा जन्म-मरण करता | हुआ निरंतर परिभ्रमण किया करता है ॥११॥ अन्य सब चिन्ताओंको रोककर एकाग्र मनसे इसी लोकका | चिन्तवन करना क्षेत्रको सूचित करनेवाला संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥१२॥ उस | लोकाकाशके अधोभागमें सदा नारकी रहा करते हैं और उस क्षेत्रसे उत्पन्न हुए दारुण दुःखोंको निरंतर सहन | किया करते हैं ।।१३।। उन नारकियोंका शरीर, लेश्या, विक्रिया और भाव निरंतर अत्यंत क्रूर और अत्यन्त अशुभ होते हैं ॥१४|| वहांपर नारकी जीवापरस्पर एक दूसरेको ताडन, मारण, बंधन, भर्सन, अंग तथा उपांगोंका छेदन-मेदन और प्राणोंका पीडन आदि करके अनेक प्रकारके दुःख दिया करते हैं, बालुके यंत्रमें भूनते हैं, गर्म
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सु० प्र० ॥ १६४ ।।
शीतं च वात्युष्णं क्षेत्र दुःखमस्ति वा ॥ १७॥ यो मांसभक्षणासको लोलुपी विषयादिषु । स जीवो नरके दुःखं लभते नात्र संशयः || १८ || मधुसेवनतो जीवः श्वभ्रं गच्छति भीमके। मद्यपायी मतिभ्रष्ट चिरं गच्छति दुर्गती ||१६|| सप्तव्यसन युक्त इन्द्रियास मानसः । मिध्याधर्मे हि संतीनः श्वभ्रं दुःखं विभर्ति सः ||२०|| हिंसा स्तेयानृतामझ संगादिपापतो ननु । अन्यायामक्ष्यतो जीवः श्वभ्रं गच्छति भीमके ||२१|| सत्यदेषं परित्यज्य मिथ्यादेवं भजन्ति ये । भ्रमात्र जडा दीर्घसंसारे पर्यटन्ति वा ||२२|| गुरुद्रोहं प्रकुर्वन्ति सन्मार्गं लोपयन्ति ये । मोहात्सर्वं हि वैयात्यं कुर्वन्वि सुखलिप्सया ||२३|| जिनागमविरुद्ध यल्लेखनं प्रतिभाषणम् । नूनं ते नरके घोरे प्रयान्ति मलिनात्मकाः ||२४|| सज्जादिलोपनाल्लोके महापापं प्रजायते । तेन पापेन जीवोऽयं चिरं भ्रमति दुर्गती ||२|| सज्जासिलोपनं येन कृतं तेन च पापिना |
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तेल में जलाते हैं. अग्निकट पटक देते हैं, वैतरणी नदीमें पटक देते हैं। इस प्रकार वे नारकी परस्पर एक दूसरेको दुःख दिया करते हैं। इसके सिवाय महांकी भूमि या तो अत्यन्त उष्ण है या अत्यन्त शीत है, उसके दुःख भी उनको सहने पड़ते हैं ॥१५- १७॥ जो जीव मांसमक्षण में आसक्त हैं, अथवा जो विषयसेवन के लोलुप हैं ऐसे जीव नरक में पड़कर दुःख भोगते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ||१८|| जो जीव शहद खाते हैं, वे भी भयानक नरक में पढ़ते हैं तथा मद्य पीकर अपनी बुद्धिको भ्रष्ट करनेवाले मी चिरकालतक नरकरूप दुर्गतिमें पड़े रहते हैं ||१९|| जो जीव सातों व्यसनों का वा किसी एक दो मी व्यसनोंका सेवन करते हैं, जिनका मन इन्द्रियोंके विषयोंमें तल्लीन है और जो मिथ्या धर्मों में लीन रहते हैं, ऐसे जीव नरकमें पढ़कर महादुःखोंको योगा करते हैं ||२०|| हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि पार्पोसे तथा अन्याय और अभक्ष्य भक्षण से यह जीव अवश्य ही भयानक नरक में जा पड़ता है ||२१|| जो जीव भ्रमसे यथार्थ देवको छोड़कर मिथ्या देवोंका सेवन करते हैं, वे मूर्ख सदा दीर्घ संसारमें परिभ्रमण किया करते हैं ||२२|| जो जीव गुरुद्रोह करते हैं, श्रेष्ठ मार्गका लोप करते हैं, मोहनीय कर्मके उदयसे सुखकी इच्छा करते हुए
समस्त कार्य विपरीत
ही करते हैं, जिनागमके विरुद्ध लिखते हैं वा भाषण देते हैं ऐसे मलिन आत्माको धारण करनेवाले वे लोग घोर नरक में अवश्य पढ़ते हैं ||२३-२४ ॥ इस संसार में सज्जातिका लोप करनेसे महापाप उत्पन्न होता है। और उस पाप से यह जीव चिरकालतक दुर्गतियों में परिभ्रमण किया करता है। जिस मोही जीवने सज्जातिका
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मुनिवंशस्य विध्वंस मोहात् किंकिं करोति न ॥२६॥ विषयकामचेष्टार्थ सद्धमलोपयन्ति ये। स्वोस्यान्यथा प्रकुर्वन्ति मोहासु. प्र.
चित्र जिनागमम् ॥२४ादूषयन्ति सदाचारं मोहाद्विपयलम्पटाः। वयन्ति मनाचारश्वध्रयान्वि हि तेऽधमामारमा अस्पृश्यः शाशूद्रकैः सार्द्धमभक्ष्यं भक्षयन्ति ये । कुर्वन्ति मलिनाचारं विषयः प्रेरिता ननु ॥२|विधवाना विवाई ये जल्पन्ति प्रेरयन्ति
या । हीनाचार' महामोहालप्रकाशयन्ति भतले ॥३०॥ विवेमबिकला होता. कलानेन मदोद्धताः । अन्तर्दुष्टा बहि:शिष्टास्तेऽत्राधोगामिनो मताः ॥३२देवधर्मगुरुशास्त्र संघादीनां कुबुद्धितः। चैपचैत्यालयादीनां निन्दा कुर्वन्ति पापवः ॥३२॥ हिताहितं न जानन्ति बाजाः पापं चरन्ति च । श्वभ्रादिदुर्गतौ नूनं दीर्घकालं भजन्ति ते ॥३॥ अधोलोकस्य संस्थानं
चिन्त्यते च विचार्यते । एकाममनसा तद्धि ध्यान संस्थानसंज्ञकम् ॥३४॥ तच्चिन्तनेन जीवोऽयं क्षेत्राद् दुःखदिभेति सः । का लोप किया है, उसने मुनियों के वंशको ही विध्वंस कर डाला है--ऐसा समझना चाहिये सो ठीक ही है ।
क्योंकि मोहसे यह जीव क्या क्या नहीं करता है अर्थात् सब कुछ करता है ॥२५-२६॥ जो जीव विषय और काम
सेवन करनेके लिये श्रेष्ठ धर्मका लोप करते हैं. जो मोहनीय कर्मके तीत्र उदयसे अपनी युक्तिसे जिनागमको | अन्यथा करते हैं, जो विषय-लम्पटी जीव मोहकर्मके उदयसे सदाचारमें दोष लगाते हैं और अनाचारको
बढ़ाते हैं, वे नीच नरकमें अवश्य पड़ते हैं ॥२७-२८|| जो जीव अस्पृश्य शूद्रोंका साथ या अभक्ष्यभक्षण करते ।। हैं, विषयोंसे प्रेरित होकर जो मलिनाचारको फैलाते हैं, जो विधवाविवाहका निरूपण करते हैं वा विधवा
विवाह करनेकी प्रेरणा करते हैं, जो तीय मोहनीय कर्मके उदयसे इस संसारमें हीनाचारको फैलाते हैं, जो 5-7 अपनी अज्ञानताके कारण विवेकरहित है, सर्वथा हीन हैं, मदोन्मत्त है, अंतरंगमें महादुष्ट हैं, परंतु बाहरसे | शिष्ट दिखाई पड़ते हैं, ऐसे जीव मी नरकमें ही पड़ते हैं ॥२९--२१॥ जो लोग अपनी बुद्धिसे वा पाप कर्मके उदयसे देव, धर्म, गुरु, शास्त्र और संघ आदिकी निंदा करते हैं, चैत्य (प्रतिमा) और चैत्यालय आदिकी निंदा करते हैं, जो हित-अहितको नहीं जानते हैं अथवा जो मुर्ख पाप करते हैं; वे लोग चिरकालतक नरकादिक दुर्गतियों में परिभ्रमण करते हैं ॥३२-३३।। जो लोग एकाग्र मनसे अधोलोकके संस्थानका चिन्तवन करते हैं वा विचार करते हैं, उसको संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं ॥३४॥ इस संस्थानविचयका चितवन करनेसे यह जीव क्षेत्रोंके दुःखसे भयमीत होता है और श्रेष्ठधर्म धारण करता हुआ पापोंको छोड़कर
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१६६ ॥
करोति स्वात्मकल्याणं पापं त्यक्त्वा सुधर्मतः ॥३॥ मध्यलोके हि तिर्यञ्च मानवाः कर्मप्रेरिताः । जन्म मृत्यु प्रकुर्वन्दि नूनं ते पापकर्मणा ॥३६॥ तिर्यग्योनौ च दुर्गत्यां जीवा दुःखं भजन्ति च । अनादिकालतस्तत्र महामोहेन मोहिताः ||३७|| नित्यनिगोतके जीवा जन्म मृत्युं वदन्ति च । तेषां दुःस्वस्य पारं न त्रसत्वं तेऽपि नागताः ||३८|| येऽत्र त्रसाश्च तिर्यस्तेऽपि चात्यन्तदुःखिनः । व्याकुलाश्च पराधीना अशक्ता दुःखपूरिताः ||२३|| वधबंधनजं तीव्र शीतोष्णतुषादिकम् । दुःखं वहन्ति ते जीवाः तिर्यग्योनौ निरन्तरम् ॥ ४ ॥ जीवानां वधवधेन मायाचारेण कर्मणा । अतिविश्वासघातेना. न्यस्य द्रव्याप्रदानतः ॥४१॥ अन्यायेन दुराचारदुर्नीत्यादिकुकर्मणा । तिर्यग्योनौ च दुर्गत्यां जीवा दुःखं भजन्ति वा ॥ ४२ ॥ | मध्यक्षेत्रे च लोकेऽस्मिन् तिर्यग्दुःखस्य चिन्तनम् । अन्यचिन्तानिरोधेन चैकाप्रमनसा हि तत् ||४३|| संस्थान विचर्य ध्यानं भवदुःखनिवर्तकम् । निर्वेदकारण शुद्धघा ध्यातव्यं तद्धि धीमता ॥४४॥ नृगतौ हि महादुःखमाधिव्याधि
अपने आत्माका कल्याण करता है ||३५|| मध्यलोकमें कर्मोंके प्रेरित हुए मनुष्य और विच रहते हैं, जो पापकर्मके उदयसे सदा जन्म-मरण प्राप्त किया करते हैं ॥३६॥ तीत्र मोहनीय कर्मसे मोहित हुए ये जीव अनादिकालसे तियेच योनिकी अनेक दुर्गतियोंमें अनेक प्रकारके दुःख सहन करते रहते हैं ||३७|| नित्य निगोदमें पड़े हुए जीव जन्म-मरणको धारण करते रहते हैं, उनके दुःखका कभी पार ही नहीं आता, क्योंकि उन्होंने आजतक पर्याय नहीं पाई है ॥ ३८ ॥ जो स विच हैं, वे भी बहुत दुःखी हैं; क्योंकि वे सदा व्याकुल रहते हैं, पराधीन रहते हैं, अशक्त होते हैं और महादुःखी होते हैं ||३९|| वे तिच जीव विर्यच योनि में -बन्धन के तीव्र दु:ख सहन करते रहते हैं; शीत, उष्ण, भूख और प्यास आदिकी महावेदनाको सहन करते रहते हैं । इस प्रकार वे महादुःख सहन किया करते हैं ॥ ४० ॥ ये जीव जीवोंका वध-बंधन करनेसे, मायाचारिताके काम करनेसे, अत्यन्त विश्वासघात करनेसे, परद्रव्यका हरण करनेसे, अन्याय, दुराचार और दुनति आदि नीच कार्योंके करने से तिर्येच योनिकी दुर्गतिमें अनेक प्रकारके दुःख मोगा करते हैं ||४१-४२ ॥ अन्य
चितवनको रोककर एकाग्र मनसे इस मध्यलोकके क्षेत्रमें वा समस्त लोकमें रहनेवाले तियंचोंके दुखों का चितवन करना संस्थानविवय नामका धर्मध्यान है । यह ध्यान संसारके दुःखोंको नाश करनेवाला हैं और परम वैराग्यका कारण है । बुद्धिमान् पुरुषों को इसका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४३ - ४४|| मनुष्य
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॥ १६६ ।
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॥ १६७॥
समुद्भवम् । चिन्ताशोकपरीतापाप मानचित्चजं परम् ||२५|| कलइरोगदारिद्र्य पीडाभीत्यादिकं महत् । इष्टवियोगजं चैवानिष्टसंयोगजं परम् ||४३|| एवं हि नृगतौ दुःखं लभन्तेऽत्र निरंतरम् । दुर्लभस्तु नृपर्यायः स्वर्गमोक्षसाधकः ||४०|| वं प्राप्य ये न कुर्वन्ति दितं स्वस्य सुखेप्सया । ते वंचिता हि मोहेन संसाराब्धौ इन्ति च ॥ ४८ ॥ तस्मात्सुखे सया जीवाः कुर्वन्तु विविधं तपः । जिनलिंगं समाधृत्य पाप मुक्त्वा सुभावतः || ४६ ॥ एवं हि मध्यलोकस्य चिन्तन मननं तथा । चैकाग्रमनसा तद्धि ध्यानं संस्थानसंज्ञकम् ||१०|| ऊर्वलोकस्य संस्थाने उत्पादश्चामृताशिवाम् । तत्र हि स्वर्गजा देवा निवसन्ति महाधियः ॥५१॥ यद्यपि स्वल्पपुण्येन स्वर्गे देत्रगतावद्दी । जीवास्वत्र लभन्ते च सुखं पंचाक्षजं परम् ॥५२॥ दिव्यांगरूपसंपन्नाः स्वतंत्रा हि मनोहराः । निर्भयाः सुखसाम्राज्यं भुञ्जते ते दिवानिशम् ||२३|| मुकुटाहा र केयू रशोभिता गतियों भी महादुत होते हैं उत्पन्न होनेवाले महादुःख होते हैं; चिंता, शोक, संताप, अपमान आदिसे उत्पन्न होनेवाले दुःख; मनसे उत्पन्न होनेवाले दुःख; कलह, रोग, दरिद्रता, पीड़ा, भय आदिसे उत्पन्न होनेवाले महादुःख और इष्टवियोग वा अनिष्टसंयोग से उत्पन्न होनेवाले महादुःख इस मनुष्य गति में भोगने पड़ते हैं। इसकार मनुष्यगतिमें निरंतर दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं। यह मनुष्यपर्याय स्वर्ग- मोक्षका साधक है और इसीलिये अत्यन्त दुर्लभ है । इस मनुष्धपर्यापको पाकर सुख प्राप्त करने की इच्छासे जो अपने आत्माका कल्याण नहीं करते हैं. वे मोहनीय कर्मके उदयसे उगे जाते हैं और संसाररूपी मुद्रमें डूबते हैं। इसलिये आत्मा के सुख की इच्छा से भव्य जी को निर्मल परिणाम समस्त पापों को छोड़कर जिनलिंग धारण करना चाहिये और अनेक प्रकारके वपथग्ण करने चाहिये। इस प्रकार एकाग्र मनसे मध्यलोकका चिन्तन करना, मनन करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।। ४५--५०१ ऊर्ध्वलोकके क्षेत्र में देव उत्पन्न होते हैं और स्वर्ग में उत्पन्न हुए महाबुद्धिमान् देव वहां निवास करते हैं ॥ ५१ ॥ यद्यपि देवगतिमें स्वर्ग में थोड़ेसे पुण्यकर्म के उदयसे उत्पन्न होते हैं और हर पंचेन्द्रियों के श्रेष्ठ सुख प्राप्त करते हैं || ५२|| वे देव दिव्य शरीर और दिपाको धारण करते हैं, स्वतन्त्र होते हैं, मनोहर और निर्भय होते हैं और रात-दिन सुखमामग्रीका उपभोग करते रहते हैं ॥ ५३॥ वे देव मुकुट, हार, बाजूबन्द आदि आभरणोंसे सुशोभित रहते हैं, ऋद्धियों को धारण करते हैं और संगीत नृत्य तथा वादित्र आदि के द्वारा सदा दिव्य
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माटी
ऋद्धिधारकाः । संगीतवाद्यनृत्यायैर्दिव्यं शर्म भजन्ति ते ॥५४॥ वैक्रियिकशरीरं वाऽवधिज्ञानं हि चोचमम् । जीवास्तव लभन्ते हि सर्वसौख्यकरं परम् ॥१५॥ न जराव्याधिदारिद्रयमलमूत्रादिजं तथा । गर्मवासोद्भवं दुःखं न तत्र जातुचिन् क्वचित् ॥५६॥ अष्ट मूलगुणाम् येऽत्र धारयन्ति मुभावतः जिनाशां श्रद्धया स्वर्गे दिविजा हि भवन्ति ते ॥५७|| ये पंचागुतं सम्यक् धारयन्तीह भावुकाः । जिनागमप्रमाणेन दिवि देवा भवन्ति ते | ये सप्तव्यसनं त्यक्त्वा कुर्वन्ति संयम परम्। श्रागमश्रद्धचा भक्त्या जायन्ते तेऽमरेश्वराः ॥५|| ये सम्यग्दर्शनं शुद्ध' धारयन्तीह निर्मलम् । ते चाष्टमहिमोपेता देवेन्द्रा हि भवन्ति या ॥६०॥ दर्शनपूर्वक सम्यक कुर्वन्ति विविधं तपः। महामहर्द्धिसम्पन्ना देवदेवा भवन्ति ॥६॥ जिनालय सुनिर्माप्य पूजयन्ति जिनेश्वरम् । ते हि स्वर्गपदं लब्ध्वा जायन्ते पदवीधराः॥२॥ प्रतिष्ठा जिनबिम्बस्य कुर्वन्ति शुद्धभावतः । देवेश्वरपदं धृत्वा शिर्ष वा यान्त्यनुक्रमात ॥६३॥ पंचामृतं जिनेन्द्रस्य बिम्बस्य सुख भोगत रहते हैं ॥५४॥ उनका शरीर क्रियिक होता है और उनको उत्तम अवधिज्ञान होता है । वहाँपर | वे देव समस्त सुख देनेवाली उत्तम सामग्री प्राप्त करते हैं ॥५५॥ वापर न तो कमी वुढ़ापा, व्याधि, दरिद्रता, मल-मूत्र आदिका दुःख होता है और न कमी गर्भसे उत्पन्न होनेका महादुःख भोगना पड़ता है ॥५६॥ वे देव स्वभावसे ही आठ मूल गुणोंको धारण करते हैं और भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको श्रद्धापूर्वक धारण करते हैं । ऐसे वे देव स्वर्गमें होते हैं ।।५७|| जो भव्य जीव इस मध्यलोकमें जिनागमकी आमाके अनुसार | पांचों अणुव्रतोंको अच्छीतरह पालन करते हैं, वे स्वर्गमें जाकर देव होते हैं ॥५८॥ जो आगमकी अटल
श्रद्धाकर और भक्तिपूर्वक सातों व्यसनोंका त्यागकर श्रेष्ठ संयमको धारण करते हैं, वे स्वर्गमें जाकर देवोंके स्वामी होते हैं ॥५९॥ जो जीव इस सम्बग्दर्शनको शुद्ध और निर्मल रीतिसे पालन करते हैं, वे अणिमा-महिमा आदि आठों ऋद्धियोंसे सुशोभित देवोंके मी इन्द्र होते हैं ॥६०॥ जो भव्य जीव सम्यग्दर्शनपूर्वक अनेक प्रकारके तपश्चरण करते हैं, वे महाऋद्धियोंसे सुशोभित देवोंके भी इन्द्र होते हैं ॥६१॥ जो जीव जिनालय अनवाकर भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करते हैं, वे स्वर्गके पदोंको पाकर चक्रवर्ती तीर्थकर आदि पदवीधर
पुरुप होते हैं ॥६२।। जो भव्य जीव शुद्ध मावोंसे जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा कराते हैं, वे इन्द्रोंके पदोंको पाकर । अनुकमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥६३॥ जो पुरुष भगवान् जिनेन्द्र देवके प्रतिबिम्नका अत्यन्त शुभ पंचामृता
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॥१६०
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कुर्व शुभम्। सम्यक्त्वं बदबे धृत्वा ते भवन्त्यमरेश्वराः ॥६४|| क्षिपन्ति जिनबिम्बस्य पोपरि सुपचकम् । स्वर्ग
देवांगनामिस्ते पूज्यन्ते हि निरन्तरम् ॥६५॥ लेपयन्ति सुबिम्बस्य पाघ्रि गंधजै रसैः। ते हि स्वर्ग सुधागंधेः पज्यंत प्र०
दिविजैः सदा ॥६॥ सरागसंयमैर्भावः श्रीशासनप्रकाशनैः। प्रमावनाविशेषैश्च स्वर्गलोके प्रजायते ॥६७।। स्वर्गेऽपि In
तत्त्वतो नास्ति सौख्यं स्वात्मभवं परम् | शाश्वतं निर्विकारं हि सर्वकर्ममलातिगम् ॥६॥ परं तत्रापि चात्यन्तं महादुखं हिमानसम् । संसारवर्द्धक नूनं चिन्तासन्तापकारकम् ॥६॥ त्रिलोकेऽपि नहि क्वापि कदाचिद्विद्यते सुखम् । तत्र सर्वत्र दुःख हि जन्ममृत्युभयादिभिः ||७11 सहन्ते हि परं दुःखं जीवाः कर्मोदयादिह । यावर कर्मसम्बन्धस्तावखं मयेन्ननु ॥७॥ केवलं सुखिनः सिद्धाः कर्मकलादूरगाः । जन्ममृत्युज्यतीतास्ते त्रिलोकशिखरे स्थिताः ॥७२॥ एवं भिषेक करते हैं, वे उसा भवमें सम्यग्दर्शन धारण कर इन्द्रका पद प्राप्त करते हैं ॥६४॥ जो भव्यजीव भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिम्बके चरण कमलोपर सुन्दर कमल चढ़ाते हैं,वे वर्ग में जाकर अनेक देवांगनाओंसे सदा पूजे जाते हैं ॥६५॥ जो भव्यजीव जिनबिम्बके चरण कमलोंपर चन्दनके रसका लेप करते हैं, वे स्वर्गमें जाकर देवोंके द्वारा अमृतरूपी गंधसे सदा पूजे जाते हैं ॥६६॥ जो जीव शुभ भावोंसे सरागसंयम धारण करते हैं, ा भगवान् जिनेन्द्रदेवके शासनको प्रकाशित करते हैं और विशेष रीतिसे प्रभावना करते हैं; वे जीव स्वर्गलोकमें जाकर देव होते हैं ॥६७॥ वास्तपमें देखा जाय तो स्वर्गमें भी सदा रहनेवाला निर्विकार और समस्त कर्मरूपी मलसे रहित ऐसा अपने आत्मासे उत्पम हुआ उत्कृष्ट स्वर्ग नहीं है। किंतु वहाँपर मनसे उत्पम हुआ महादुःख बहुत ही अधिक होता है, जो कि संसारको बढ़ानेवाला होता है और चिंता-संतापको उत्पन्न करनेवाला होता है ॥६८-६९॥ इन तीनों लोकोंमें वास्तवमें कहीं भी सुख नहीं है, किंतु इन तीनों लोकोमें सब जगह जन्म-मरण और भय आदिसे होनेवाला दुःख ही दुःख भरा हुआ है ॥७॥ ये जीव कर्मोंके उदयसे ही परम दुःख सहन करते हैं । इसलिये जब तक काँका संबंध है, तब तक इस जीवको अवश्य ही दुःखोंको सहन
करना पड़ता है ॥७१।। यदि संसारमें कोई सुखी है तो कर्ममलकलंकसे रहित, जन्म-मरणसे सर्वथा रहित Sil और तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान ऐसे सिद्ध परमेष्ठी ही सुखी हैं ॥७२॥ इस प्रकार बुद्धिमानोंको
RWARIKARAHINSERTISRHSAAS
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सु० प्र०
लोकस्वरूपं हि ज्ञात्वा जैनागमासुधीः । ध्यायेच लोकसंस्थानं जन्ममृत्युकदर्धित्तम् ॥७॥ पुनः पुनर्निजे चित्ते चिन्तयेष विचारयेत् । एकाग्रमनसा तद्धि ध्यानं संस्थानसंज्ञकम् ॥४॥ संस्थानविचयं ध्यानं मुख्यध्यानं प्रकीर्तितम् । सर्वध्यानेषु तच्छृठं परं वैराग्यकारणम् ॥ एकेनैव हि संस्थानथ्यानन क्रमशत्रवः । पलायन्ते यतः शीघ्रं तस्माच्छतम मतम् ॥१७६।। संस्थानविचयं ध्यान पुरा ध्यातं मुनीश्वरैः । गणधरैश्च योगीशः कर्मविच्छेदहेतवे ||७|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भव्येन च मुमुक्षुणा । संस्थानविचयं ध्यानं ध्यातव्यमधुनापि च ॥७॥ संघनपवनवारैः सर्वतो वेष्टितोऽसौ स हि | गुरुतरलोकोऽत्रिमोऽनादिसिद्धः । जननमरणदुःखं तत्र जोवः समति यदि धनि सुधर्म कर्मनाशं करोति ||६||
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालकारे संस्थानविचयधर्मध्याननिरूपणो नाम विशतितमोऽधिकार।
| जिनागमके अनुसार लोकका स्वरूप जानकर जन्म-मरणको दूर करनेवाला लोकसंस्थान नामका | धर्मध्यान वा संस्थानविचय नामका धर्मध्यान धारण करना चाहिये ॥७३॥ इमप्रकार एकात्र मनसे तीनों लोकोंके स्वरूपका अपने हृदयमे बार बार चितवन करना और बार बार विचार करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।७४॥ यह संस्थानविषय नामका धर्मध्यान सब ध्यानों में मुख्य है और सबमें श्रेष्ठ है, तथा परम चैराग्यका कारण है ॥७५|| इस एक ही संस्थानविचय ध्यानसे समस्त कर्मरूपी शत्रु शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इसीलिये यह ध्यान सबमें श्रेष्ठ माना जाता है ॥७६॥ यह संस्थानविचय नामका धर्मध्यान अपने अपने काँको नाश करनेके लिये पहले अनेक मुनीश्वरोंने धारण किया है, गणधरोंने धारण किया है और योगिराजोंने धारण किया है ॥७७।। इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवों को अपने समस्त प्रयत्न करके आज भी इसी संस्थानविचय नामके धर्मध्यानको धारण करना चाहिये ॥७८॥ यह बहुत बड़ा लोकाकाश धनवात, अम्बुवात और वात; इन तीन प्रकारकी वायुओंसे चारों ओरसे वेष्ठित है, तथा अकृत्रिम और अनादि सिद्ध है, इसमें यह जीव जन्म-मरणके अनेक दुःखोंको सहन करता रहता है, यदि यह जीव श्रेष्ठ धर्मको धारण कर ले तो कर्मोंका नाशकर सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है ॥७९॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारने संस्थानविचय नामक
धर्मभ्यानका निरूपण करनेवाला यह बीसा अधिकार समाप्त हुश्रा ।
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०प्र०
॥१७१॥
एकविंशतितमोधिकारः।
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दग्धं ध्यानाग्निना कर्मेन्धनराशिं किलात्मनः । येनात्र योगिनाथेन बन्दे तं मुनिसुव्रतम् ॥२॥ संस्थानान्तर्गतं ध्यानं पतुर्धा वर्णितं जिनः । पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।.२५ पभेदात्मक द्रव्यं नानाकारेण संस्थितम् ! वा शरीरगतं द्रव्य पिण्ड इत्यभिधीयते ॥३॥ पिण्डे तिष्ठति यश्वात्मा विकारपरिवर्जितः । तत्तस्यालम्बनत्वेन पिण्डस्थध्यानमुच्यते ॥ पिण्डस्ये धारणाः पञ्च जिनेन्द्रः प्रतिपादिताः । समालम्बेन तासां हि स्यान्स्वात्मानुभवो महान् ॥६॥ पारणाभिर्मनः शीघ्र स्थिरतां याति चात्मनि । शुद्धात्मचिन्सने तामिदृढता स्याच्छुभप्रदा १६॥ सा ध्यानाभ्यास
जिन्होंने ध्यानरूपी अमिसे अपने आत्माके समस्त कर्मोके समूहको नष्ट कर दिया है, ऐसे योगियोंके स्वामी भगवान मुनिसुव्रतनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ संस्थानके अंतर्गत जो ध्यान है, उसे वह भगवान जिनेन्द्रदेवने चारप्रकारका बतलाया है। पिंडस्थ. पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत: ये चार उसके मेद हैं ॥२॥ अनेक प्रकारसे ठहरा हुआ और शरीरमें प्राप्त हुआ ऐसा जो पांच प्रकारका द्रव्य है, उसको पिंड कहते हैं ।।३।। इस पिंडमें जो आत्मा विकाररहित ठहरा हुआ है, उसका अवलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसको | | पिंडस्थ ध्यान कहते हैं | पिंडस्थ ध्यानमें भगवान जिनेन्द्रदेवने पांच प्रकारकी धारणा बतलाई है। इन पांचों धारणाओंके समालम्बनसे अपने आत्माका महान् अनुभव होता है ।।५।। इन धारणाओंसे यह मन | अपने आत्मामें शीघ्र ही स्थिर हो जाता है और इन्हीं धारणाओंसे शुद्ध आत्माके चिन्तवन करनेमें शुभ में भावोंको उत्पम करनेवाली अस्पन्त हड़ता होती है ॥६॥ वह धारणा ध्यानका अभ्यास करनेवालोंके लिये
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॥१९॥
कळणामाचा सोपानिका मता । सया सुलभरूपेण ध्यानं स्याद्विगतभ्रमम् ॥७पार्थिवो प तथाग्नेयी श्वसना पारणी परा । सस्वरूपवतीया धारणा हि यथाक्रमम ॥८मध्यलोकसम योगी धारयेत्तीरसागरम् | शांत रम्यं च निःशब्द कझोलाविविवर्जितम् ||गम्भीरं दुग्धवगौर मधित्साहादनकारकम् । यचिन्तनेन चित्तेऽस्मिन् स्यादयं न मनागपि ॥१०॥ तन्मध्ये चिन्तयेद्धीरोऽब्ज साहसदलान्वितम् । पीतवर्ण सुहेमा जम्बूद्वीपप्रमाणकम् ॥११॥ सन्मध्ये च स्मरयोगो कर्णिकां पीतवर्णिकाम् । मुख्यमेरुप्रमाणाभां रम्यामानन्दकारिकाम् ॥१॥ सिंहासनं च चंद्राभं कर्णिकायां विचिंतयेत् । श्रात्मानं स्थापयेत्तत्र प्रशांतं दिव्यकायकम् ॥१शा कार्ममाशनोक गपादिनाशने पटम । निर्विकारं स्थिरं चितं पश्चाक्षविषयातिगम् ।।१४।। सद्धयाता तादृशं रूपं भूयो भूयः समभ्यसेत् । ध्यायेश चिन्तयेन्नित्यमेकाममनसा सदा ॥१५॥ पहली सीढ़ी है । इस धारणासे भ्रमको दूर करनेवाला उत्तम ध्यान सहज रीतिसे प्राप्त हो जाता है ॥७॥ | पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तस्वरूपवती ये धारणाके यथाक्रमसे पांच मेद हैं ||८॥ किसी मी योगीको मध्यलोकके समान क्षीरसागरकी कल्पना करनी चाहिये । वह क्षीरसागर शांत हो, मनोहर हो,
शन्दरहित हो और कल्लोल वा लहरोंसे रहित हो ॥९॥ वह क्षीरसागर गंभीर हो, दूध के समान गौर वर्ण हो, M और मनको आहादन करनेवाला हो; ऐसे क्षीरसागरके चिन्तवन करनेसे हृदयमें थोड़ासा मी प्रम नहीं रहता
॥१०॥ धीर वीर योगीको उस क्षीरसागरके मध्यभागमें जम्बूद्वीपके समान, सुवर्णके समान देदीप्यमान
पीले रंगका, एक हजार दलवाले कमलका चितवन करना चाहिये ॥११॥ उस कमलके मध्यभागमें मेरुके समान Hil पीले रंगकी एक कर्णिकाका चितवन करना चाहिये, वह कणिका मनोहर, आनंद उत्पन्न करनेवाली होनी
चाहिये ॥१२॥ उस कर्णिकामें चन्द्रमाके समान एक सिंहासनका चितवन करना चाहिये । उस सिंहासनपर दिव्य शरीरको धारण करनेवाले अत्यन्त शांत आत्माको स्थापन करना चाहिये ।।१३॥ वह आत्मा अशुभ कर्मोंके नाश करनेमें तल्लीन है, रागद्वेषको नष्ट करनेमें चतुर है, निर्विकार है, उसका चिच स्थिर है और वह पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे रहित है । ध्यान करनेवालेको इसप्रकारके आत्माके स्वरूपके चितवनका
बार बार अभ्यास करना चाहिये । तथा एकाग्र मनसे नित्य ही ऐसे आस्माका ध्यान और चितवन करना व वाहिये ॥१४-१५॥ इसको पार्थिवी धारणा कहते हैं। तदनंतर उस योगीको नामिमंडलके मध्य में चिसको
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सु० प्र०
।०३।
PRIYANKSER'S' प्रक
शनैर्विचिन्तयेद्योगी चित्ताहादस्य कारकम् 1 नाभिमण्डलमध्यस्थं पद्म' षोडशपत्रकम् ॥१६॥ प्रफुल्लं सर्वतो रम्यमक्षसन्तोषकारकम् । मकजुलं चिन्तयेद्योगी स्वरमालाविराजितम् ॥१५॥ तत्र पद्म महाप्राणं रेफरुद्ध कलान्वितम् । सानुस्वारं महामन्त्रं कणिकायां विचिंतयेत् ॥१८॥ तत्पद्मस्थितभासां तां मन्त्ररूपां स्वरोद्भवाम् पुनः पुनः स्वचित्तेऽस्मिन् ध्यानाभ्यासाय चिन्तयेत् ॥१६॥ निर्गच्छन्ती ततो रेफादग्निज्वाला शुभां स्मरेत् । तेन ज्वालाकलापेन वहेदज हदि स्थितम् ॥२०॥ अष्टपत्रं हि यत्तस्य तत्कर्माष्टकमुच्यते । अधोमुखं हि संस्थाप्य महामन्त्री प्रताननात् ॥२१॥ तद्दजमग्निज्वालाभिव्हेनिर्भयचेतसा । दग्धेऽब्जे हि ततः पश्चाश्चिन्तयेदग्निमण्डलम् ॥१२॥ | देहस्य च बहिर्मागे त्रिकोणं ज्वालयाशिवम् । बहिवीजात्समुद्र तं ज्वलन्तं दिव्यभासुरम् ॥२३।। स्वस्तिकाङ्क च निधूम
आहादित करनेवाले सोलह दलके कमलको धीरे धीरे चितवन करना चाहिये ॥१६॥ वह कमल खिला हुआ
हो, सब ओरसे मनोहर हो, इंद्रियोंको संतोष उत्पन्न करनेवाला हो, अत्यन्त सुन्दर हो और मालारूप लिखे X गये सोलह स्वरोंसे सोमायमान हा त मलकी फारकामें अनुस्वारसहित, कलासहित और || CII रेफसे रुका हुआ महाप्राण रूप " महामंत्रका चितवन करना चाहिये ॥१८॥ उस कमलमें
उत्पन्न हुई मंत्ररूप माला है, उसको अपने हृदयमें ध्यानका अभ्यास करनेके लिये बार बार चितवन करना | | चाहिये ॥१९॥ इसको श्वसना धारणा कहते हैं | तदनंतर उस योगीको उस रेफसे निकलती हुई शुभरूप
अग्निकी ज्वालाका चितवन करना चाहिये तथा उस अग्निकी ज्वालाके समूहसे हृदयमें विराजमान उस कमलको जलाना चाहिये ।२०॥ उस कमलके आठ पत्रोंको आठ कर्म समझना चाहिये। उनको अधोमुख करके स्थापन करना चाहिये और महामंत्रका मुख उपरकी ओर रखना चाहिये ॥२१॥ तदनंतर निर्भय चिन | होकर उस अग्निकी ज्वालासे उस कमलको जलाना चाहिये । जब वह कमल जल जाय, उसके बाद अग्निमंडलका चितवन करना चाहिये ॥२२॥ शरीरके बाहर उस अग्निकी ज्वालासे भरे हुए एक त्रिकोणका चितवन करना चाहिये, वह त्रिकोण बहिरूप वीजसे उत्पन्न हुई ज्वालासे जाज्वल्यमान होना चाहिये, दिव्य तेजसे प्रकाशमान होना चाहिये, उसपर स्वस्तिकका चिह होना चाहिये, वह अग्निकी ज्वाला धुमरहित होनी चाहिये और ऊर्चवायुसे प्रेरित होनी चाहिये अर्थात् ऊपर जानेवाली वायुके झकोरेसे उसकी माला
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म०प्र०
॥१७॥
ARRIERSYKARSESEXKSERIENCE
K मूर्द्ध वायुप्रप्रेरितम् । 'अन्तर्दहति मन्वापिन हिरनमालाः ॥२!! ततश्च स्वशरीरं वाग्नेकलापेन निर्दहेत् ।
भस्मभावं सामासाध्य शरीरमन्नमारहेन ॥२५॥ साह्याभावात्स्वयं बहिः शाम्यत्येव शनैः शनैः। यावन्न याति शान्ति सतावनिर्भयचेतसा IR|संततं चिन्तयेद्वीमान् वह्निमण्डलक परम् । एवं हि चिन्त्यमानेऽस्मिन् स्थिरचित् प्रजायते ॥२७॥ आकाशमार्गमाव्याप्य संचरतं सुवेगतः । दारयन्त धराधोशं शोनयन्तं घनाघनम् ! २८|| चक्रपालं विसर्पन्तं भुवनाभोगपूरितम् । कम्पयन्तं दिशः सर्ग दर्शयन्तं महाबलम् ॥२६॥ एतादृशं महावायु चिन्तयेच्छुद्धचेतसः । तेन वायुबलेनैव तद्रजः क्षिप्यतेऽयरम् ॥३०॥ शुद्धरूपं स संप्राप्य वायुच शान्तिमान येत्। एवं हि चिंत्यमानेन शुद्धरूपे
लयो भवेत् ॥३१॥ ततो हि मेघमाला च धारासंपावसंयुताम् । तदिद्विद्योतिताकाशामिन्द्रचारसमन्विताम् | 7 ऊपरको जानी चाहिये । इसप्रकार मंत्ररूप अग्नि अंतःकरणको जला रही है और बाहरका अग्निमंडल बाहरी EX
भागको जला रहा है, इसतरह चितवन करना चाहिये ॥२३-२४॥ तदनंतर उस अग्निकी बालासे है अपने शरीरको जलाना चाहिये और जब तक मस्म न हो जाय तब तक शरीर और कमलको जलाते रहना
नाहिये । इसप्रकारका चितवन करना चाहिये ॥२५|| जब जलने के लिये कोई पदार्थ न रहेगा तब धीरे धीरे वह अग्नि अपने आप ही शांत हो जायगी । जस्तक वह अग्नि शांत न हो तबतक निर्मय चित्त होकर | | उस बुद्धिमान्को सदा उस उत्कृष्ट अग्निमंडलका चितवन करते रहना चाहिये । इसप्रकार चितवन वा
ध्यान करनेसे यह चित्त अत्यन्त स्थिर हो जाता है ॥२६-२७|| इसको आग्नेयी धारणा कहते हैं। तदनंतर । | वारुणी धारणाका चितवन करना चाहिये। अपने शुद्ध हृदयसे एक महावायुका ध्यान करना चाहिये। वह |* वायु समस्त आकाशमार्गमें व्याप्त हो, बड़े वेगसे संचार कर रहा हो, बड़े बड़े पर्वतों को भी विदीर्ण कर रहा हो, हलके या भारी रूपसे शोभायमान हो, अपने मंडलको फैला रहा हो, समस्त भूमंडलमें मर गया हो. समस्त दिशाओंको कंपायमान कर रहा हो और अपना महाबल दिखला रहा हो; ऐसे महावायुका शुद्ध | हृदयसे चितवन करना चाहिये। उस महावायुसे उस शरीर और कमलकी धूलि शीघ्रताके साय उड़ रही है, का ऐसा चितवन करना चाहिये । इसप्रकार आत्माका स्वरूप शुद्ध बनाकर उस वायुको शांत कर देना चाहिये। | इसप्रकार चितवन करनेसे वह आत्मा अपने शुद्धरूपमें लीन हो जाता है ॥२८-३१॥ इसको वारुणी धारणा
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सु०प्र०
- १० ।।
||३२|| प्रशांतामपि धाराभिः कुर्वती वृष्टिमुल्त्रणाम् । सुवारूपां मनोशां वा चित्ताहादप्रदायिकाम् ||३३|| भस्म प्रचालयेताभिः मन्दं मन्दं शरीरजम् । चिंतयन् वां हि योगी स स्वस्थतां लभते पराम् ||३४|| अद्ध, चंद्रममाकारं शुभं वरुणमण्डलम् । कथितं वीरनाथेन मनोक्षजयकारकम् ||३|| षणमण्डलेनैव शुद्धरूपं च चिंतयेत् । सिंहासनसमारूढं दिव्यातिशयसंयुतम् ||३६|| प्रष्टदुष्टकर्मारणं दिव्यज्ञानेन भासुरम् । श्रर्हद्रूपसमाकारं निर्मलं शुद्धरूपकम् ॥१३७॥ सप्तधातु| विनिर्मुक्त जितेन्द्रसदृशं परम् आत्मानं शुद्धरूपं तत् स्वात्मनि स्वं च चिंतयेत् ||३८|| महाविभवसम्पन्न लोकालोकप्रकाशकम्। अनंतमहिमोपेतं स्वात्मानं चिंतयेत्सुधीः ||३६|| इत्थं हि पंचतत्त्वं यः स्मरेनिर्भयचेतसा । मन्त्रवित्स कहते हैं। आगे रूपवती धारणाको कहते हैं--प्रबसे पहले एक मेघमाला ( बादलों के समूह ) का चितवन करना चाहिये, जो धीरे धीरे बरस रही हो, बिजलीकी चमरुसे समस्त आकाशको प्रकाशमान करती हो, जिसमें इन्द्रधनुष पड़ रहा हो, जो अपनी धाराओंसे अत्यंत शांत और भारी दृष्टि कर रही हो, वह वृष्टि भी अमृतरूप हो, मनोज्ञ हो और मनको आहादन करनेवाली हो। उस मेचकी वर्षा से धीरे धीरे शरीरसे उत्पन्न हुई मम्मका प्रक्षालन करना चाहिये ( अर्थात् शरीर और कमल के जलने से जो भस्म हुई थी, वह उसकी वर्षा घुल रही है; ऐसा चितवन करना चाहिये ) । इनप्रकारकी मेघमालाका चितवन करने से उस योगी की आत्मा अत्यन्त स्वस्थ वा निराकुल हो जाती है ॥३२ – ३४ || भगवान् महावीर स्वामीने मन और इंद्रियों को जीतनेवाले इस शुभरूप वायुमंडलका आकार अर्धचन्द्र के समान बतलाया है ||३५|| योगीको इस वरुणमंडल के द्वारा अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूपका चितवन करना चाहिये । उसे इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि मेरा यह आत्मा सिंहासन पर विराजमान है, दिव्य अतिशयोंसे सुशोभित है, इसने अपने सब पापकर्म नष्ट कर दिये हैं, यह दिव्य ज्ञानसे देदीप्यमान है, भगवान् अरहंतदेवके आकार के समान आकार को धारण करता है, निर्मल हैं, शुद्ध स्वरूप है, सप्त धातुओंसे रहित है, सर्वोत्कृष्ट है और भगवान् जिनेन्द्र देवके समान है; ऐसे अपने आत्मा शुद्ध स्वरूपको अपने ही आत्मामें अपने आप चितवन करना चाहिये ॥ ३६-३८ ।। यह मेरी आत्मा महाविभूतियोंसे शोभायमान है, लोक अलोकको प्रकाशित करनेवाला है और अनन्त महिमासे सुशोभित है, बुद्धिमान योगीको ऐसे अपने शुद्ध आत्माका चिन्तन करना चाहिये | इसको तत्र
॥ १
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मादी
महायोगी जयेत्कर्माष्टकं परम् ॥४०॥ मनोवशं समायाति चल दीयं च वर्द्धते । ध्यानशक्तिदृदा याति ऋद्धयो यांति तं सदा ॥४१॥ भूतप्रेतोद्भयां बाधामुपसन सुदस्तरम् । सहते स्वात्मवीर्येण स योगी तत्वचिन्तकः ॥४२॥ मनोवर्श प्रकस समर्थोऽचलधीरसौ। जिनशासनदेवास्ते तदशं यान्ति निश्चयात् ॥४३॥ अतो हि पंचतत्त्वं तदभ्यस्ये. लुद्धभावतः । निजात्मरूपमुहिश्य ध्यायेत्तत्त्वं जिनागमान् ४४|| इति परमसुतन्वं पंचपृथ्व्यादिरूप ग्मरति जयति भक्त्या चिन्तयेत्स्वात्मचित्ते । इह स हि लमतेऽसौ शुद्धरूपं निजस्य परमविभवबुक्तं शुद्धबुद्ध सुधर्मम् ।।४॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे पिण्डस्यध्यानस्थितपंचतत्ववर्णनो नाम एकविंशतितमोऽधिकारः ।
RAPARYAYERICA
| रूपवती धारणा कहते हैं ॥३९।। मंत्रोंको जाननेवाला जो महायोगी निर्भय चित्त होकर इसप्रकार पांचों | तचोंका स्मरण करता है, वह आठो कोको अवश्य जीतता है ॥४०॥ इन पांचों तच्चोंका चिन्तवन करनेसे
मन वशमें हो जाता है, बल और वाय ( शाक्त ) बढ़ जाता है, ध्यानशक्ति दृढ़ हो जाती है और सब ऋद्धियां । E! उसके समीप आ जाती है ।।४। इन तत्वोंको चिन्तवन करनेवाला महायोगी अपने आत्माकी महा- |
शक्तिसे भूत प्रेतोंसे उत्पन्न हुई समस्त बाधाओंको और कठिनसे कठिन उपसर्गों की सहन कर लेता है ॥४२|| || || अचल बुद्धिको धारण करनेवाला वह महायोगी इन पांचों तत्वोंका चिन्तवन करनेसे अपने मनको वश | | करनेमें समर्थ हो जाता है और जिनशासन देवता सब उसके वश हो जाते है यह निश्चित सिद्धांत है ॥४३॥ इसलिये निर्मल परिणामोंसे पांचों तत्वों के चिन्तवन करनेका अभ्यास करना चाहिये और जिनागमके अनुमार अपने आत्माके स्वरूपको उद्देश्यकर पांचों तस्त्रोका ध्यान करना चाहिये ॥४४॥ पृथ्वी, श्वसना, चारुणी, आग्नेयी, तस्वरूपवती ये पांच तत्व वा पांच धारणाएँ बतलाई गई हैं, वे परमोत्कृष्ट हैं ! जो योगी अपने चित्तमें इन पांचों तच्चोंका स्मरण करता है चा भक्तिपूर्वक जप करता है, और चिन्तक्न करता है वह इस संमार में || अपने शुद्ध स्वरूपको अवश्य ही प्राप्त हो जाता है तथा परम विभूतिसे सुशोभित शुद्ध और बुद्धस्वरूप अपने | आत्मरूप श्रेष्ठधर्मको अवश्य प्राप्त कर लेता है ॥४५॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारमें पिण्डस्थध्यानमें पांचों तत्वोंको
निरूपण करनेवाला यह इक्कीसवां अधिकार समाप्त हुआ।
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द्वाविंशतितमोऽधिकारः ।
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योगतत्त्वस्य बेतारं पदस्थ ध्यानसिद्धये । नमिनाथं सुयेगीशं वंदे योगीश्वरार्चितम् ||१|| शब्दझमयं वंदे परमाश्चर्यकारकम् । स्वात्मतत्त्वस्वरूपं वा वीतरागं विकल्मषम् ||२|| योगतत्त्वस्य सोपानं सर्वसिद्धिकरं परम् । प्रत्यक्षफलदं नौमि शब्दब्रह्म महेश्वरम् ||३|| देवता भूतयेताला राक्षसाः किन्नराः सुराः । सर्वे देवा वशं यांति संततं शब्दब्रह्मणा ||४|| सुधानस्यादिमं बीजमृद्धिसिद्धिप्रदायकम् । मन्त्ररूपमयं शब्दब्रह्माणं च नमाम्यहम् ||५|| अनादिनिधनो वर्णः स्वयं सिद्धो विचित्रकः । अनंतशक्तिसंत्र्यात्रः कथितो हि जिनागमे ||६|| यथा यथा सुभावेन ध्याता निर्मलचेतसा ।
जो नमिनाथ भगवान् योगतत्त्वके जानकार है, योगियोंके स्वामी हैं और योगीश्वरोंके द्वारा पूज्य हैं; ऐसे भगवान् नमिनाथको मैं पदस्य ध्यानकी सिद्धिके लिये नमस्कार करता हूं || १|| जो देव वीतराग हैं, दोषरहित हैं, परम आश्चर्य करनेवाले हैं और समयसारमय हैं; ऐसे शब्दब्रह्ममय परमदेवको मैं नमस्कार करता हूं ||२|| जो योगरूप तस्वकी सीढ़ी हैं, समस्त सिद्धियोंको करनेवाले हैं और प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं, ऐसे शब्दत्रणमय महेश्वरको मैं नमस्कार करता हूं ||३|| इस शब्दब्रह्मके द्वारा देवता, भूत, वेताल, राक्षस, किभर, देव आदि सब देव सदा के लिये वश हो जाते हैं || ४ || यह शब्दमा मंत्ररूप है, ऋद्धि-सिद्धियोंको देनेवाला है और
ध्यानका मूल कारण है; ऐसे शब्दजनको मैं नमस्कार करता हूं ||५|| भगवान् जिनेन्द्रदेवके आगममें अकारादिक वर्ण अनादि-निधन माने हैं, स्वयं सिद्ध माने हैं, विचित्र माने हैं और अनन्त शक्तिको धारण करनेवाले माने हैं || ६ || ध्यान करनेवाले अपने निर्मल हृदयसे श्रेष्ठ परिणामोंसे जैसे जैसे तन्मय होकर शब्द
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उ
गा०
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..१७
सन्मयत्वेन तं शब्दब्रह्माणं ध्यायति स्फुटम् ।।७।। तथा तथा स योगीशः परब्रह्म प्रपद्यते । शब्दब्रह्म ततो देवैः परमात्मा | प्रमीयते ॥ नादिवर्णमाला तामह जोद्भवा शुभाम्। ध्यायेव स्थिरचित्तेन सदाचेतोजयाय वै ॥६॥ कल्पये हदि घादौ वा पर षोडशपत्रकम । वर्णमूला स्वतः सिद्धां स्थापयेच स्वरावलिम् ॥१०॥ चतुर्दशदलाकारं पन्न संस्थाप्य घेतसि । प्रतिपश्च संन्यस्य ब्रह्मस्वरं प्रभान्वितम् ॥१शा विद्यानां मूलबीजं तत प्रधानं सर्ववर्णके। ध्यायेश्च स्थिरचित्तेन प्रशांतमनसाऽथवा ॥१॥ कणिका प्रति प्रत्येक संस्थाप्यानुनमात्स्वरम् । ध्यायेछ क्रमशः सर्वान स्थिरबुद्धया सुभावतः ॥१२॥ यदा हि कणिका मध्ये 'अ' इति स्वरमंत्रकम् । भ्यस्य ध्यायति योगीशस्तदा स स्वस्थतां भजेत् ॥१४॥ एवं रीत्या स्वरान सर्वान शीर्षके दि मस्तके । संस्थाप्य शुद्धचित्तेन ध्यायेव सर्वसिद्धये ।।१।। दिक् पल्लवासना मुद्रा
ब्रह्मका ध्यान करता है, वैसे ही वेसे वह योगिराज परब्रमको प्राप्त होता जाता है । इसीलिये भगवान् सर्वन देव | शब्दब्रह्मको ही परमात्मा कहते हैं ॥५-८॥ यह अनादिकालसे चली आई वर्णमाला भगवान् अरहतदेवके स्वरूपको कहनेवाली बीजाक्षररूप है, शुभ है । अपने मनको जीतनेके लिये स्थिरचित्त होकर इसीका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥९॥ सबसे पहले अपने हृदयमें सोलह दलके कमलका चितवन करना चाहिये | और उसमें वर्णोकी मूलभूत स्वतःसिद्ध स्वरोंकी पंक्तिका स्थापना करनी चाहिये ॥१०॥ अथवा अपने हृदयमें
चौदह दलके कमलकी कल्पना करनी चाहिये और प्रत्येक दलमें प्रभावशाली एक एक ब्रह्मस्वरकी स्थापना
करनी चाहिये ॥११॥ यह स्वरकमल समस्त विद्याओंका मूल बीज है, सब वोंमें प्रधान है, इसलिये स्थिर5. चित्त होकर शांत मनसे इसका ध्यान करना चाहिये ॥१२।। अथवा उस कमलकी कर्णिकापर अनुक्रमसे सब | स्वरोंका स्थापन करना चाहिये और फिर स्थिरचित्त होकर श्रेष्ठ परिणामोंसे अनुक्रमसे उन सबका ध्यान करना चाहिये ।।१३।। जब यह योगी कर्णिकाके मध्यभागमें 'अ' इस मंत्ररूप खरको स्थापनकर ध्यान करता है, तब वह योगी अपने आप स्वस्थ हो जाता है ॥१४॥ इसीप्रकार सब स्वरोंको मस्तकपर, शिरपर अथवा
हृदयपर स्थापनकर समस्त कार्योकी सिद्धि के लिये शुद्ध चित्तसे ध्यान करना चाहिये ॥१५॥ दिक, पल्लच, E आसन और मुद्रा आदिके भेदसे इन मंत्रोंके कितने ही भेद हो जाते हैं । इसलिये इनके भेदसे विशेष रीतिसे
REMIKARANARISHMIRRIANSKRISINS
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मु. प्र० ॥ १४ ॥
दिभेदतो हि मंत्रकम् । ध्यायनिरन्तरं ब्रह्म स्वरमाला विशेषतः ॥१६|| हृदि संस्थाप्य सत्पद्म पनाविंशतिपत्रकम् । प्रतिपत्रं न्यसंपूर्णमावर्गान्तं सकगिकम ॥१७॥ ध्ययेष क्रमशो नित्यं प्रतिवर्ण शनैः शनैः । एकाप्रमनसा योगी वानन्यमनसा स्थिरम् ।।१८।। अन्यत्पझच पत्राष्टं स्थापयेन्मुखपद्मके। अन्तःस्थसान्तवर्णान्तं ध्यायेच शुद्धभावतः ।।१६।। ध्यानसिद्धिर्भवेत्तस्य महाकल्याणकारिका मनो हि शान्तिनां याति धैर्यता च प्रजायते ॥२०॥ 'श्रो'मेतरच महामंत्रं परमेष्ठिप्रवाचकम्। विद्यानामादिमस्थानं ध्यानबीजं मतं जिनः ॥२१॥ भाले नेत्रे ललाटे च शीर्षके नाभिमण्डले । 'ओं' संस्थाप्य महामंत्रं ध्यायेत्कर्मविनाशकम् ||२२॥ सर्वदेवमयं मंत्रं सर्वयोगीश्वराचितम् । सर्वशलिप्रपूर्ण हे सर्वसिद्धिकरं परम् ॥२३॥ एकाग्रमनसा नित्यं स्थिरभावन यो जनः । ध्यायेदेसम्महामंत्र संसारात् संतरीति सः ।।२४।। पाध्यानमाध्यामिदिमा सगुल्हभिः । 'प्रोमिति ध्यायतां तस्मात्कर्मनाशाय धीधनैः ॥२५॥
ANSAMIRRIERRAICHRISRAERSEEN
| नमस्वरमालाका निरंतर ध्यान करना चाहिये ॥१६॥ अपने हृदयमें पच्चीस दलका कमल स्थापित करना
चाहिये और उन दलोंपर 'क' से लेकर 'म' पर्यंत अक्षर लिखने चाहिये, कर्णिकापर स्वर लिखना चाहिये । फिर उस योगीको एकाग्र मनसे अन्य सब चितवनोंको छोड़कर धीरे धीरे अनुक्रमसे प्रत्येक वर्णका ध्यान करना चाहिये ॥१७-१८॥ अथवा अपने मुखकमलमें आठ दलके कमल की कल्पना करनी चाहिये और उन पर 'य र ल व श प स है' इन आठ अक्षरोंको स्थापनकर शुद्ध भावोंसे उनका ध्यान करना चाहिये ।।१९।। इसप्रकार चितवन करनेसे महाकल्याण करनेवाली ध्यानकी सिद्धि होती है, मन शांत हो जाता है और
धारता उत्पन्न हो जाती है ।।२०। यह भी एक महामंत्र है, परमेष्ठीका वाधक है, समस्त विद्याओंका | | प्रथम स्थान है और ध्यान का बीज है, ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं ॥२शा अपने ललाटपर |
मस्तकपर, नेत्रोंमें, नाभिमण्डल में 'ओम' इस महामंत्रको स्थापनकर कर्मोंका नाश करने के लिये उसका ध्यान है करना चाहिये ॥२२॥ 'ओम्' यह महामंत्र सर्वदेवमय है, समस्त योगीश्वरोंके द्वारा पूज्य है. समस्त शक्तियोंसे | | पूर्ण है और समस्त सिद्धियोंको करनेवाला है । जो मनुष्य एकान मनसे, स्थिर भावोंसे नित्य ही इस महामंत्रका | | ध्यान करता है, वह संसारसे अवस्य पार हो जाता है ॥२३-२४॥ इसीलिये मोक्षकी इक्षा करनेवाले और 15
बुद्धिरूपी धनको धारण करनेवाले तथा यदस्य ध्यानको धारण करने की इच्छा करनेवाले योगियों को 'ओम्' इस महामंत्रका ध्यान अवश्य करना चाहिये । २५||
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॥ १८० ॥
सर्वमंत्रेषु मूलं हि मंत्रराजं सुरार्चितम् । योगिभिश्च सदा वन्य' लोकोत्तरं जगन्नुतम् ॥। २६ ।। सर्वसिद्धिकरं श्रेष्ठं सर्वविघ्नविनाशकम् | महामङ्गलदातारं सर्वपापप्रणाशकम् ॥ २७॥ श्रनादिनिधनं सिद्धमपराजित संज्ञकम्। स्वर्गापवर्गदं कामं सर्वाभीष्टप्रदायकम् ||२८||ध्यातव्यं योगिभिर्नित्यं भवदुःखस्य दानये | शाकिनी भूतवे वाला नश्यन्ति राक्षसाः स्वयम् :: २६|| आकाशगामिनी विद्या अञ्जनवत्प्रसिद्ध्यति । पञ्चत्रिंशत्पदोपेतं परमेष्ठिस्वरूपकम् ॥३०॥ णमोकार महामंत्रं प्रत्यक्षफलदायकम् । अजः सर्पयुगंः श्वा वा नकुली वानरस्तथा ||३१|| णमोकारस्य माहात्म्यात् जाता वृन्दारकाः खलु । सम्यग्दृष्टिस्तु तद्धषानान्मोक्षं च लभते परम् ||३२|| यमोंकारस्य माहात्म्यं गणेशो वक्तुमक्षमः । तीर्थंकरे जिनेन्द्रैश्व ध्यातं तन्मंत्रराजकम् ||३३|| ये ये पुरा गदा मोक्षं गमिष्यति च योगिनः । मंत्रराजणमोकार महात्म्यं तद्धि बुद्धयताम् ||३४|| श्वासोच्चकासप्र
समस्त मंत्रोंका मूल मंत्र णमोकार मंत्र है, यह मंत्र देवों के द्वारा पूज्य है, योगियोंके द्वारा वन्दनीय है, लोकोत्तर है और जगत् के द्वारा नमस्कार करने योग्य है । यह मंत्र समस्त सिद्धियोंको करने वाला है, बेष्ट है, समस्त विघ्नों को नाश करनेवाला है, महामंगल देनेवाला है, सब पापको नाश करनेवाला है, अनादिनिधन है, सिद्ध है और अपराजित इसका नाम है। यह मंत्र स्वर्ग -मोक्षको देनेवाला हैं, इच्छाओं पूर्ण करनेवाला है और समस्त अभीष्टों को पूर्ण करनेवाला है || २६ - २८ ॥ संसारके दुःखोंको नाश करनेके लिये योगियोंको सदा इसका ध्यान करना चाहिये । इसके ध्यान करनेसे शाकिनी, भूत, वेताल और राक्षम आदि सब नष्ट हो जाते हैं, अंजनवोरके समान आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जाती है। यह पैंतीस अक्षरका णमोकार महामंत्र पंच परमेष्टीस्वरूप हैं और प्रत्यक्ष फल देनेवाला है । बकरा, सर्प-सर्पिणी, कुत्ता, न्यौला, बानर आदि बहुतसे जीव इस णमोकार मंत्रके ही माहात्म्य से स्वर्ग में जाकर देव हुए हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष इस महामंत्रके ध्यानसे अवश्य ही मोक्षको प्राप्त होते हैं ।। २९-३२ || इस णमोकार मंत्र के माहात्म्यको गणधरदेव भी कहने में समर्थ नहीं हैं, तीर्थकर जिनेन्द्रदेवने भी इस मंत्रराजका अवश्य ध्यान किया है ॥ ३३॥ जो जो योगी पहले मोक्ष गये हैं, वा आगे जायेंगे, वह उनका मोक्ष जाना णमोकार महामंत्रका ही माहात्म्य समझना चाहिये ॥३४॥ भव्य जीवोंको भक्तिपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, शुद्धतापूर्वक, शुद्धभावोंसे विधिपूर्वक श्वासो
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माग्गेन ध्यायेक्ष विधिपूर्वकम् । सुभ क्या श्रद्धया शुद्धधा शुद्धभावन भावुकः ॥३५॥ नाभिमण्डलके स्थाप्य षोडशदलपद्मकम् । षोडशाक्षरसम्भूता विद्यां ध्यायेच तत्र वै ॥३६॥ परमेष्ठिस्वरूपांत महासिद्धिकरां शुभाम् । योगीश्वरैः सदा ध्येयामगम्यां ब्रह्मां पराम् ॥३७॥ निर्मला शिवदा शुद्धां कर्मपर्वतभेदिकाम् । सर्वसौख्यप्रदा सर्वदुःखसंतापहारि काम् ॥३८॥ एकाप्रमनसा योगी ध्यायेत्तां शुद्धभावतः । संसारचक्रनाशाय शिवसाधनहेतवे ॥६॥ घडवणात्ममहाविद्या परमात्मप्रवाचिका। शुद्धा शिवस्वरूपा वा ध्यातव्या च मुमुक्षुभिः ॥४०॥ तस्या ध्यानन शीघ्र हिचाईदरूपंह स्वात्मनः । अनायासेन शुद्ध तयोगिनां ननु जायते ॥४१॥ अणिमागरिमाद्याश्च दुर्लभास्ताः समद्धयः । जायन्ते योगिनां शीघ्र सुखदा हि विभूतयः ॥४॥ पञ्चवर्णमयीं विद्यां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । ध्यायेत्र स्थिरभावन
सल्वासके प्रमाणसे इस मंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥३५॥ इसीप्रकार नाभिमण्डल पर सोलह दलके कमलकी कल्पना करनी चाहिये और उसपर सोलह अक्षर महामंत्रका ध्यान करना चाहिये । ( सोलह अक्षरका मंत्रयह है-"अहंसिद्धाचार्योपाध्याय सर्वनाधुभ्यो नमः" अथवा "अरहंत सिद्ध आइरिय उवझाया माई") ॥३६॥ यह सोलह अक्षरोंसे उत्पन्न हुई महामंत्ररूप विद्या परमेष्ठिस्वरूप है, महासिद्धियों को करनेवाली है, शुम है, योगीश्वरोंके द्वारा सदा ध्यान करने योग्य है, अगम्य है, परब्रह्मसे प्रगट हुई है, सर्वोत्कृष्ट है, निर्मल है, मोक्ष देनेवाली है, शुद्ध है, कर्मरूप पर्वतको नाश करनेवाली है, समस्त सुखों को देनेवाली है और समस्त दुःख तथा संतापको दूर करनेवाली है। इसलिये योगियोंको जन्म-मरणरूप संसारचक्रको नाश करनेके लिये नथा मोक्षके माधन प्राप्त करनेके लिये एकाग्र मनसे तथा शुद्ध भावोंसे इस सोलह अक्षररूप महाविधात्मक महामंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥३७-३९ । “अरहंत सिद्ध" इन छह वर्णोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप महाविधा परमात्माकी वाचक है, शुद्ध है और मोक्षस्वरूप है, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवालेको इसका भी ध्यान करना चाहिये ॥४०॥ इसके ध्यान करनेसे योगियोंके आत्माका स्वरूप बिना किसी परिश्रमके शीघ्र ही शुद्ध अग्हतस्वरूप हो जाता है ॥४१॥ इम ध्यानके प्रभावसे योगियोंको अणिमा-गरिमा आदि दुर्लम ऋद्धियां | और शीघ्र ही सुख देनेवाली विभूतियां प्राप्त हो जाती हैं ।।४२॥ "असि आ उसा" इन पांच अक्षरोंसे बनी हुई | मंत्ररूप महाविद्या पंच परमेष्ठीकी वाचक है। इसलिये योगियोंको संसारका जाल नाश करने के लिये स्थिर
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० प्र० ॥१२॥
लोकजालम्य हानये ॥४३॥ महाप्रभाच दीरताना परमज्ञानसाधिका । महासौन्यकरा शान्ता ध्यातव्या शान्तिद सदा ॥४४॥ अहंदरूपमयी विद्यां चतुवर्णात्मिकां शुभाम् । अरिहंतत्त्वसिद्धयर्थं ध्यायेच्च शुद्धभावतः 11४५. अल्पाक्षरापि माश्चर्यकारिका चाथ सिद्धिदा । योगिनाथैः सदा ध्येया ध्यातव्या शिवबेतवे ।।४ा प्रत्यक्षफलदा सर्वकल्याणकारिका शुभा। शीनं ददानि भयानां सर्वागीयफल मदा ॥४ी सिद्धरूपी महाविद्या युग्मवर्णात्मिको शुभाम् । स्वस्वरूपोपलम्ध्यर्थं न्यायश मिथरचनमः ॥४८ अनाहन महामंत्रं ध्यानमिद्धिकरं शुभम् । चिन्तयेत् स्थिरभावेन संस्थाप्य नाभिमण्डत
४ा मंत्रेषु मुख्यमंत्रं तददिसम्रद्धिदम् । नानाश्चर्यकरं तद्धि प्रत्यक्षफलदायकम् ॥५०॥ ध्यानेन स्मरणेनाव जपन तदात्यलम । मन रथं च जीवानामभीष्टं दुर्लभं ननु ॥५१|| प्रत्यक्षफलदं शुद्ध जगत्कल्याणकारकम् । भायोंसे इस मंत्रका ध्यान करना चाहिये ।।४३।। यह मंत्ररूप विद्या भी महाप्रभावशाली है, दीप्यमान है, परमज्ञानको सिद्ध करनेवाली है, महासुख उत्पन्न करनेवाली है, शांत है और शांति देनेवाली है। इसलिये | योगियों को इसका भी सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४४॥ "अरहंत" इन चार अक्षरोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप | महाविद्या अरहतस्वरूप है और शुभ है, इसलिये अरहंत पदको सिद्ध करने के लिये शुद्ध भावोंसे इस मंत्रका | ध्यान करना चाहिये ।।४५] यह मंत्ररूप महाविद्या अल्पाक्षररूप होकर भी महाआश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है, सिद्धियों को देनेवाली है और महायोगीलोग सदा इसका ध्यान करते रहते हैं, इसलिये मोक्षकी प्राप्तिके लिये | इसका ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ यह विद्या प्रत्यक्ष फल देनेवाली है, समस्त कल्याणों को करनेवाली है, शुभ है और भव्य जीवोंको शीघ्र ही समस्त अभीष्ट फलोंको देनेवाली है ॥४७॥ इसी प्रकार "सिद्ध" इन 5 दो अक्षरोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप महाविद्या सिद्धरूप है और शुभ है, इसलिये अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिके लिये स्थिर चित्तसे इसका ध्यान करना चाहिये ॥४८॥ इसी प्रकार अनाहत महामन्त्र भी ध्यानकी | सिद्धि करनेवाला है और शुभ है, इसलिये इसको नाभिमण्डलमें स्थापनकर स्थिर परिणामोंसे चितवन
करना चाहिये ॥४९|| यह अनाहत महामंत्र सब मंत्रोंमें मुख्य है; ऋद्भि, वृद्धि और समृद्धियोंको देनेवाला है, | अनेक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला है और प्रत्यक्ष फल देनेवाला है ॥५०॥ इस अनाहत मंत्रके ध्यान करनेसे | स्मरण करनेसे वा जप करनेसे जीवोंके दुर्लभ अभीष्ट मनोरथ बहुत शीघ्र सिद्ध हो जाते हैं ॥५१॥ ही यह
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'ह्रीं' च बीजाक्षरं ध्यायेश्चतुर्विंशतिरूपकम् ।।५२॥ चतुर्विंशतितीर्थानां महाविभवदायकम् । देवनागेन्द्रभूपानां जिनैवश्यकर मतम् ॥५३॥ भ्रमध्ये शीर्षके भाले संस्थाप्य भावपूर्वकम् । हृत्पद्मकर्णिकामध्ये वान्यन्त्र शुद्धभावतः ॥५४|| एकाप्रमनसा तत्र शुद्धध्यानबलेन च । पुनः पुनश्च संध्यायेत्प्रसम्ममनसाऽथवा ॥४५|अह बीजाचरं सिद्ध ब्रह्मरूपस्य काचकम् । भाले संस्थाप्य तद्भक्त्या ध्यायेंश्च शान्तिहेतवे m६स्वात्मसिद्धि. सतां शीघ्र जपनेनास्य जायते ।
आत्मा स्वात्मनि वा याति स्थिरतां धैर्यपूर्वकम् II पञ्चबीजाक्षरं तत्र पश्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणवेन युतं शुद्ध पश्चवर्णसमन्वितम् ॥५॥ विविधपक्षवोपेतं वश्यादिकरणक्षमम् । श्रद्धया परया भक्त्या शुद्धया प्यायश्च संतनम् ॥५६॥ क्रूरकर्माद्भवं पापं तत्क्षण च्छाम्यति स्वयम् । सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति शुद्धमंत्रप्रभावतः ॥६०॥ श्रद्धान्वितो हि यो वीजाक्षर भी चतुर्विंशति तीर्थंकरस्वरूप है, प्रत्यक्ष फल देनेवाला है, शुद्ध है और जगत्का कल्याण करनेवाला * है; इसलिये इसका भी ध्यान करना चाहिये ।५२|| यह महामंत्र चौबीसों तीर्थंकरों की महाविभूतिको देनेवाला | है और देव, नागेन्द्र तथा नरेन्द्र आदिको वश करनेवाला है । ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है !॥५३॥ इम | | मन्त्रको भौओंके मध्यमें, मस्तकपर और ललाटपर भावपूर्वक स्थापन करना चाहिये, अथवा हृदयरूपी कमलकी |
कामें गा अगल हुन् भालसे स्थान करना चाहिये ॥५४॥ अथवा एकाप्रमनसे देदीप्यमान ध्यानके | बलसे अथवा प्रसन्न मनसे बार बार इस मन्त्रका ध्यान करना चाहिये ।।५५॥ 'अहम्' यह बीजाक्षर भी सिद्धस्वरूप है और ब्रह्मस्वरूपका वाचक है, इसलिये परिणामोंको शान्त करनेके लिये इस मन्त्रको ललाटपर | स्थापनकर भक्तिपूर्वक इसका ध्यान करना चाहिये ।।५६|| इस मन्त्रका जप करनेसे सजन पुरुषों को अपने
आत्माकी सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है, तथा यह आत्मा अपने आत्मामें धैर्यपूर्वक स्थिर हो जाता है । ॥५७॥ Sil 'अहम्' इस बीजाक्षरमें पञ्चपरमेष्ठियोंके वानक पांच अक्षर हैं। यह शुद्ध मन्त्र प्रणवके माथ पञ्चवर्ण सहित
अनेक प्रकारके पल्लवोंसे सुशोभित वसा करनेमें वा अन्य काकि करने में समर्थ होता है; इसलिये श्रेष्ठ श्रद्धा भक्ति और शुद्धतापूर्वक इस मन्त्रका सदा ध्यान करना चाहिये १५८-५९। इस शुद्ध मन्त्रके : क्रूर काँसे उत्पन्न हुए पाप उसी क्षणमें स्वयं शांत हो जाते हैं, तथा समस्त कार्य अपने आप शांत हो जाते हैं ॥६०॥ जो बुद्धिमान् श्रद्धा धारणकर इस मन्त्रका ध्यान करता है, चितवन करता है, वा जप करता है
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ध्यायेश्चिन्तयेच जपेत्सुधीः। शान्तिपुष्ट्यादिकार्याणि सस्य सिद्धयन्ति शीघ्रतः ।।शा 'ओं णमो अरिहंताण मिति सपाक्षरात्मकम् । अईतो वाचक मंचं ध्याय सर्वसिद्धये ॥६२।। णमो सिद्धाण' माध्यायेत्पञ्चाक्षरात्मक परम् । प्रणवेन युतं सिद्धस्वरूपवाचकं शुभम्॥६॥ मंत्रस्यास्य प्रभाव सिध्यन्ति समिद्धयः । नापं हिनापति तत्क्षणात्स्वयम् ॥६४|| 'ओं णमो पायरीयाणमिति सप्ताक्षररात्मकम् । प्राचार्यवाचकं श्रेष्ठं सर्वकल्याणकारकम् ॥शा ध्यायेच्छुद्धसुभावेन स्वात्मचारित्रवृद्धये । दुष्कर्मपापनाशार्थ भक्त्या च विधिपूर्वकम् ॥६६॥ ध्यायेन् 'हमो उवमायाणमिति सप्तवर्णकम् । प्रणवेन युतं शुद्ध परब्रह्मात्मक शुभम् ।।६७॥ सर्वाविद्याविनाशार्थ परमज्ञानमिद्धये । भावभक्त्या निजे चित्ते श्रद्धया च दिवानिशम् ॥६८।। सुव्यायच 'एमो लोए सब्बसाहूण'मक्षरम् । नवावरात्मक शुद्ध मनोवान्छितसिद्धिदम ॥६धा प्रतिदिनं जपेन्नित्यं जिनलिङ्गसुधारकम् । वीतरागं महात्मानं योगिनाथ दिगम्बरम ॥७॥ तस्य च
उसके शांति, पुष्टि आदि समस्त कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं ॥६॥ "ओं षामो अरिहंताण" यह अरहंतका वाचक सात अक्षरोंका मन्त्र है, इसलिये समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये इसका ध्यान करना चाहिये ॥६२॥ "णमो सिद्धाण" यह पांच अक्षरोंका उत्कृष्ट मन्त्र हैं, यह भगवान् सिद्ध परमेष्ठीका वाचक है और शुभ है, इगलिये प्रणवके साथ इसका ध्यान करना चाहिये ॥६३॥ इस भत्रके प्रभावसे समस्त सिद्धियां सिद्ध हो जाती । हैं और कर्म-कलंककी कीचड़ अपने आप उसी क्षणमें नष्ट हो जाती है ॥६४॥ "ओं णमो आहरीयाणे" यह मात अक्षरोंका मन्त्र आचार्यका वाचक है और श्रेष्ठ तथा समस्त कल्याणोंको करनेवाला है ॥६५॥ इस मंत्रको | | भी अपने आत्माके चारित्रकी वृद्धिके लिये और पाप कर्मोंका नाश करने के लिये शुद्धभावोंसे विधिपूर्वक
बड़ी भक्तिसे चिन्तवन करना चाहिये ॥६६॥ “णमो उवज्झायाणं" यह सात अक्षरका मन्त्र है । यह मन्त्र Pil भी शुद्ध है, परमब्रह्मस्वरूप है, और शुभ है; इसलिये ममस्त अविद्याओं को नाश करनेके लिये और परम ब्रान PI की प्राप्तिके लिये, भाव-भक्ति तथा श्रद्धापूर्वक अपने हृदयमें रात-दिन प्रणवके साथ इसका ध्यान करना चाहिये
॥६७-६८|| इसी प्रकार "णमोलोए सब्बसाहणं" यह नौ अक्षरोंका मन्त्र है, यह भी शुद्ध है, मनोवांच्छित | | पदार्थोंको सिद्ध करनेवाला है, जिनलिंगको सुधारनेवाला है, वीतराग है, महात्म्यको धारण करनेशला है, | योगियों का स्वामी है और दिगम्बर अवस्थाका सूचक है। इसका मी प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये और
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जपनेनात्र स्वास्मबोधः प्रजायते । प्रकाश्यते शिवो मार्गः शाश्वतः सौख्यदायकः ॥७|| णमोकारयुत चत्तारि इति दयनक सदा । ध्यायेष चिन्तयेद्योगी जपेद्वा शुद्धभावतः ॥७२।। तस्य नित्यं जपेनात्र महाशान्तिः प्रजायते । नश्यन्ति सर्वविनानि जायन्तेऽत्र सुखानि वा शा चतुर्विशतितीर्थानां नामानि शुभभावतः। चिन्तयेच्च जपेद्धस्या ध्यायेत सर्वसिद्धय १७४|| जपेच ओं नमः सिद्धेभ्यश्च षडक्षरात्मकम् । सर्वत्र सर्वकार्येषु भक्त्या नित्यं दिवानिशम् ।।७५|| नियमन प्रसि. द्धधन्ति जपनेनास्य सत्वरम् । सर्वकार्याणि जीवानां विघ्न नश्यति तत्क्षणात् ॥६॥ एनं मन्त्रं हि प्रत्येककार्येषु सर्वसिद्धये यतिर्वात्र गृहस्थो हि अभ्यसेत्तु निरन्तरम् ॥७७॥ स शुद्धो वान्यशुद्धो वा रोगी रङ्कःशुभाशुभः । दीनो होनाऽत्र गुर्वा ह्मनं सदा जप करना चाहिये ॥६९-७०।। इस मन्त्रका जप करनेसे आत्मज्ञान प्रगट होता है और सुख देनेवाला सदा रहनेवाला मोक्ष-मार्ग प्रगट होता है ॥७१। इसीप्रकार "णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आहरीयाणं । णमो उवज्झायाणं यो लोए सनसाइणं । चत्तारिमडलं अरहंत मङ्गलं सिद्धमङ्गलं साहमङ्गलं केवलि | | पण्णत्तो धम्मोमङ्गलं चत्तारि लोगुत्तमा अरईत लोगुत्तमा सिद्ध लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो |
धम्मो लोगुत्तमा चत्तारि सरणं पब्बजामि अरहत सरण पब्बजामि सिद्ध मरणं पबजामि साहू सरणं पब्दजामि | SI केवलि पण्णत्तो धम्मो सरग पब्बजामि" इसको दण्डक कहते हैं । योगियोंको अपने शुद्धभावोंसे इसका मी | श्री ज्यान करना चाहिये, चितवन करना चाहिये और जप करना चाहिजे ॥७२॥ इस मन्त्रके जप करनेसे महा| शांति प्रगट होती है, सब विघ्न नष्ट हो जाते हैं और सब सुख प्रगट हो जाते हैं ॥७३॥ समस्त कार्योको |
सिद्ध करनेके लिये शुभ मावोंसे चौबीसों तीर्थकरोंके नामोंका चितवन करना चाहिये, मक्तिपूर्वक जप करना | | चाहिये और ध्यान करना चाहिरे ॥७४।। "ॐ नमः सिद्धेभ्या" यह छह अक्षरोंका मन्त्र मी शुभ है, इसको |
सब जगह समस्त कार्यों में भक्तिपूर्वक रात-दिन सदा चिंतन करते रहना चाहिये ॥७५।। इसके जप करनेसे | | जीवोंके समस्त कार्य नियमपूर्वक शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं और सर विघ्न उसी समयमें नष्ट हो जाते हैं | ॥७६|| चाहे कोई मुनि हो और चाहे कोई गृहस्थ हो, समस्त कार्योंकी सिद्धि के लिये प्रत्येक कार्यमें प्रत्येक | जीवको सदा इसके जपनेका अभ्यास करते रहना चाहिये ॥७७॥ वह जीव चाहे शुद्ध हो चाहे अशुद्ध हो, |
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मन्त्र जपेत्सदा ।।७ अंध: कुष्ठी गलद्रको शुचिर्मलमूत्रतः । तथापि च जपेदेनं मंत्रराजं सुखाकरम् । ७६।। महाप्रभावको । सु०प्र०
मंत्रो महाशक्तिप्रदायकः । महामङ्गलभूतोऽसौ महासौख्यकरो मतः ।।८०|सर्वावस्थानु यो भक्तच्या जपेन्नित्यं ज्ञणे क्षणे । ॥ १८ ॥ निर्विघ्नं तस्य कार्याणि नित्यं सिद्धयन्त्यसंशयम् ।।दशा तस्मात्सर्वप्रयत्नन कार्यधारभके शुभा जपच ओं नमः सिद्धेभ्य इति
मंत्रराजकम् ।।जिनमित्यक्षरं युग्म जपेन्नित्यं दिवानिशम् । सर्वत्र सर्वकार्येषु भावभक्तया सुखाकरम् शाचिन्तयति जिनं भक्त्या स्मरति नौति वार्चति । जपनि ध्यायति भव्यो यः सवै पुरुषोत्तमः | त्रिलोकेऽस्मिन स चैको हि ध्येयोऽत्र
जिनः सताम् | अन्यमंत्रं सदा त्यक्वा ब्वायता स निनोऽनिशम् ॥८५ तावदेव कुमंत्रेषु जीवो भ्रमति मोहत्तः । यावन्न जिनदेवांऽसौ द्रष्टो भक्तिभरण वा ।।६।। तावदेव कुयोगेषु नानवः कुरुते स्थितिम् । यावन्न जिनदेवोऽसौ दृष्टः प्रशान्तयोग
चाहे रोगी हो चाहे रंक हो, चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, चाहे दीन हो, चाहे हीन हो और चाहे लँगा Fi हो, सबको इस मन्त्रका जप सदा करते रहना चाहिये ।।७८॥ वाहे अंधा हो, चाहे कोड़ी हो, चाहे उसके शरीरसे
मधिर बह रहा हो, चाहे मल-मूत्रसे अपवित्र हो, तो भी उसको सुख देनेवाले इस मन्त्रराजका जप अवश्य करना चाहिये ।।७९।। यह मंत्र महाप्रभाव उत्पन्न करनेवाला है, महाशक्तिको देनेवाला है, महामङ्गलभूत है
और महासुख उत्पन्न करनेवाला है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक समस्त अवस्थाओंमें प्रतिक्षण सदा इसका जप करता है, उसके समस्त कार्य निर्विघ्नपूर्वक अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं ॥८०-८१।। इसलिये “ॐ नमः सिद्धेभ्यः" इस मंत्रराजको सब तरहके प्रयत्न करके प्रत्येक कार्यके प्रारंभमें वा शुभ कार्योंमें जपना चाहिये ॥२॥ "जिन" यह दो अक्षरों का मंत्र भी सुख देनेवाला है, इसलिये सब जगह सब कार्योंमें भक्तिपूर्वक रात-दिन इसका जप करना चाहिये ॥८३।। मो भव्य पुरुष भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करता है, भक्ति
पूर्वक उनका स्मरण करता है, उनको नमस्कार करता है, उनका चितवन करता है, जप करता है और Hध्यान करता है, उसको इस संमारमें पुरुषोत्तम समझना चाहिये ॥८४|| एक भगवान् जिनेन्द्रदेव ही * तीनों लोकोंमें सज्जनोंके द्वारा ध्यान करने योग्य हैं, इसलिये अन्य सब मंत्रोंको छोड़कर 'जिन जिन' इसी
मंत्रका जप करना चाहिये ||८५|| यह जीव मोहनीय कर्मके उदयसे तभीतक कुमंत्रोंमें परिभ्रमण करता है, जब तक कि भक्तिपूर्वक भगवान् जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं होते ॥८६॥ यह मनुष्य कुयोगोंमें तभीतक ठहर सकता
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अमARCHRISHAIR ANSAR
भाक् || जिन एवं भवाम्भोधौ तारको भवहारकः । तस्मान्जिनं जिनं भक्तधा जपेच शुद्धभावतः || जिनो देवो जिनो देवो देवदेवः जिनो जिनः। जिनो एव सदा ध्येयो बन्यो पूज्यश्च तारकः || जिनं जिनं जिनं चात्मन् स्मर चिन्तय
भावय । प्राणै कण्ठगतैश्चापि जातु विस्मर मा जिनम् ॥१०॥ श्रद्धया परया भक्त्या शुद्धया च शुद्धभावतः । यः स्मरति जिनं देयं म जति समष्टिक .It सापय कु.प में विभुत्ति जनो भुवि : यावन्न हि जिमो दृष्टोऽनन्तशक्तिप्रधारकः ।।। जिन
एव महादेवो जिन ईश्वर उच्यते। जिनो हि परमात्मासौ जिनो ब्रह्मा शिवो मतः ।।३।। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वकार्येषु सर्वदा । ध्यातव्यः श्रीजिनो नित्यं शुद्धभावेन धीमता IEAN कायव्यापारक गध्वा चान्तर्जस्पेन योगिभिः । शनैः शनैः | परो मन्त्रो ध्यातव्यश्च सुखेप्सया ।।६.५! त्यक्त्वान्या सर्वचिन्वा हि चैकाममनसात्र वा। एक मंत्रपदं ध्येयं शुद्धोश्चारण. है, जबतक कि शांतयोगको धारण करनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं होते ॥८७।। इस संसाररूपी
समुद्र में भगवान् जिनेन्द्रदेव ही संसारको नाश करनेवाले हैं और संसारसे पार कर देनेवाले हैं, इमलिये का भक्तिपूर्वक शुद्धभावोंसे जिन चा जिनेन्द्रदेवका जप करना चाहिये ।।८८॥ भगवान् जिनेन्द्रदेव ही देव है | | जिनेन्द्रदेव ही देव हैं, देवोंके देव जिन ही हैं, जिन ही हैं। भगवान् जिनेन्द्रदेव ही ध्यान करने योग्य हैं, बंदना
करने योग्य हैं, पूज्य हैं और संसारसे पार कर देनेवाले हैं ॥८९।। हे आत्मन् ! तू भगवान जिनेन्द्रदेवका | चितवन कर. भगवान जिनेन्द्रदेवका स्मरण कर और भगवान् जिनेन्द्रदेवकी भावना कर । कंठगत प्राण होने पर भी तू भगवान् जिनेन्द्रदेवको मत भूल ॥९०॥ जो पुरुष परम श्रद्धा, परम भक्ति, शुद्धता और शुद्ध
भावपूर्वक भगवान् जिनेन्द्रदेवका स्मरण करता है और उनका जप करता है, उसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि समझना ali चाहिये ॥९॥ यह जीन डन संसारमें तभीतक धर्ममें मोहित होता है. जबतक कि अनंत शक्तिको धारण
करनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं होते ॥९२॥ भगवान् जिनेन्द्रदेव ही महादेव हैं, जिनेन्द्रदेव ही ईश्वर हैं, जिनेन्द्रदेव ही परमात्मा है, जिनेन्द्रदेव ही ब्रह्मा हैं और भगवान् जिनेन्द्रदेव ही शिव हैं ॥९३॥ | इसलिये बुद्धिमान भव्य जीवोंको सब तरह के प्रयत्न करके समस्त कार्योंमें शुद्धभावोंसे सदा भगवान् जिनेन्द्रदेव
का ही ध्यान करना चाहिये ॥९४|| बोगियोंको सुखकी इच्छासे शरीरके व्यापारको रोककर अंतःकरणमें जप करते हुए धीरे धीरे इस सर्वोत्कृष्ट मंत्रका ध्यान करना चाहिये ।।९५॥ अन्य समस्त चिंताओंको छोड़कर
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पूर्वकम् ।।१६॥ अन्यैः स्खेनाऽभूतं वर्ण श्रद्धया शुद्धभावतः। क्षणं क्षणं हिनद्वर्ण ध्यायेद्वा ध्यानसिद्धये ॥ कुम्भक | निश्चलं कृत्वा स्थिरचितेन तब चै । पूरके च स्थिरं कृत्वा ध्यातव्यं मंश्वर्णकम् ।।६८|| मायायोजेन संयुक्त प्रणव मन्त्रशेखरम । अष्टपत्रा:मक पद्म सकगिके जपेद्धवम् IILE सर्वोपद्रवनाशार्थ शान्त्यर्थं विधनहानये । अपेन्मन्धमिमं मक्तया शिवार्थी भावुकः सदा ॥१०॥ स्मरति जपति भक्तया श्रीपदस्थं सुमन्त्रनिह परमविशुद्धया अद्वयासौ शिवार्थी । परमसुखनिधानं सर्वकल्याण बोज नयति स हि सुधर्म स्वात्मरूपं शिवं वा ॥१॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे पदस्थभ्यानवर्णनो नाम द्वाविंशतितमोऽधिकारः ।
| एकाग्र मनसे शुद्ध उच्चारणपूर्वक एक इसी मंत्रका ध्यान करना चाहिये ॥९६॥ अथवा जो जिन शब्द अन्य | | लोगोंने स्वयं कभी नहीं सुना है उसका भी भावोंसे श्रद्धापूर्वक ध्यानकी सिद्धि के लिये क्षण क्षण में ध्यान करते रहना चाहिये ।।९७॥ स्थिर चित्त होकर कुंभक, पूरक और रेचक वायुओंके द्वारा मनको निश्चलकर मंत्रके वर्गों का ध्यान करना चाहिये ॥९८॥ कर्णिकासहित आठ दलका कमल बनाकर उसपर माया-पीजसहित
प्रणवपूर्वक मंत्रोंके मुकुटभूत इस जिन-मंत्रका अवश्य ध्यान करना चाहिये ।।९९॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले | भव्य जीवोंको समस्त उपद्रवोंको नाश करने के लिये, शांतिके लिये और विघ्नोंको दूर करने के लिये भक्तिपूर्वक | इस मंत्रका सदा जप करते रहना चाहिये ॥१०॥ ये पदस्थ ध्यानके मंत्र परम सुखके निधान हैं और | समस्त कल्याणों के कारण हैं, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले जो भव्य जीव परम श्रद्धा, परम भक्ति । | और परम शुद्धिपूर्वक इन मंत्रोंका जप करते हैं वा इनको स्मरण करते हैं; वे शुद्ध आत्मस्वरूप अथवा | मोक्षस्वरूप श्रेष्ठ धर्मको अवश्य प्राप्त होते हैं ॥१०॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारमें पदस्थध्यान को
वर्णन करनेवाला यह बाईसर्वा अधिकार समाप्त हुआ।
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त्रयोविंशतितमोऽधिकारः ।
भवसन्तानहन्तार वरधर्मप्रकाशकम् । योगीश्वरैः सदा चन्दा नेमिनाथं नमामि तम ।।१।। यो मोहादोनरोन हत्वा रजोविघ्नप्रणाशकः । श्रीमन्समरिहन्तं तं नमामि ध्यानसिद्धये ॥२॥ निर्भयं परमानन्दं स्वतन्त्र स्वास्मसंस्थितम्। चतुष्कघातिकारीन जेतारं नौमि तं जिनम् ।।३।। रत्नत्रयमयश्चात्मा रत्नत्रयमयों जिनः । नन्दाते हि मया भल्या कर्मारि. विजयाजिनः ।।४। तं परमेष्ठिनं देवं त्रिजगत्परमेश्वरम् । सर्वन परमात्मानमहन्तं नौमि तीर्थकम्॥ध्यानेन येन कारि
__ जो नेमिनाथ भगवान् जन्म-मरणरूप संसारकी संतानको नाश करनेवाले हैं, भेष्ठ धर्मको प्रकाशित करनेवाले का है और योगीश्वरों के द्वारा सदा बन्दनीय हैं; ऐसे भगवान् नेमिनाथको मैं नमस्कार करता हूं ॥१॥ जो अरहंत |
भगवान् मोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि शत्रुओंको नाश करनेवाले हैं तथा विनरूप अन्तराय कर्मको | नाश करनेवाले हैं; ऐसे भगवान् अरहंत देवको अपने ध्यानकी सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं ॥२जो अरहंत
देव भयरहित हैं, परमानन्दखरूप हैं, स्वतन्त्र हैं, अपने आत्मामें स्थिर हैं और चारों घातक कर्मरूपी शत्रुओं-- E को जीतनेवाले हैं, ऐसे जिनेन्द्रदेव मगवान् अरहंतदेवको मैं नमस्कार करता है ॥३॥ यह मेरा आत्मा मी
रन-त्रयमय है और भगवान् जिनेन्द्रदेव भी रत्न-त्रयमप हैं तथा वे जिनेन्द्र कर्मरूप शत्रुओंको नाश करनेसे हुए हैं; ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेवको में भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ ॥४॥ जो अरईत मगवान् परमेष्ठी हैं। तीनों जगत्के ईश्वर हैं, सर्वज्ञ हैं, परमात्मा हैं और तीर्थंकर हैं; ऐसे भगवान् अरहतदेवको मैं नमस्कार करता : हूं ॥५॥ जिन योगिनाथ भगवान् अरहंतदेवने अपने निर्मल परिणामोंसे ध्यानके द्वारा समस्त कर्मोका समूह |
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चको नष्टो हि मूलतः । अईतायोगिनाथेन बम्मेऽहं तंसुभावतः ।।६।। जीवन्मुक्तोऽपि योगोश। निर्दोष: सर्व विच्छुचिः देवदेवेन वैः पूज्यः सोऽईन च पूज्यते मया ॥७॥ अईन् भगवन्तं तं पृज्येशं परमेश्वरम | ध्यायेञ्च ध्यानरूपरथे ध्याता चेकापचेतसा ॥ घातिकर्मविनिमक्त सकलं परमेष्ठिनम् योगीश्वरं महासाधं सिद्धयोगं निररूजनम् || योगातीतं महर्षि तं कृतकृत्यं महाप्रभुम् । सर्पयोगीश्वरैः पूज्यं ब्रह्मर्षि च यतीश्वरम् ॥१०॥ ध्यानीशं परमर्षितं स्नातकं च विकल्मम् । ऋद्धिवृद्धिसमृद्धयाग' नानद्धिभूषितं जिनम् ।.१|| अनन्तमहिमोपेतं सर्वविद्येश्वरं विभुम् । सर्वनरेन्द्र देवेन्द्रनागेन्द्रायश्च पूजितम् ।।१२।। संसारचक्रनिर्मस्तं जन्मातीतमजं शिवम् । धर्मचक्रप्रणेतारं कर्मचक्रविनाशकम् ॥१३॥ तुधादिदोषनिर्मक्त || मर्वमलनिराकृतम् । सप्तधातुविनिर्मक्त जरामरणदूरगम् ॥१॥ शुद्धस्फटिकसंकाशं दिव्यका मलातीतं पूत परमपावनम् ॥१५॥ दोपानीतं भवानीतं च्छातीत विकायकम् । निमोहं निर्मदं शान्तं निर्विकार निरखमूलसे नष्ट कर दिया है, ऐसे अरहतदेवको मैं नमस्कार करता हूं ॥६॥ जो अरहंतदेव जीवन्मुक्त हैं, योगियोंके | स्वामी हैं, निर्दोष हैं, सर्वज्ञ हैं, पवित्र हैं और देव इन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूज्य हैं, ऐसे भगवान् अरइंत- 15 देवकी मैं पूजा करता हूं ॥७॥ ध्यान करनेवालेको एकास मनसे रूपस्थ ध्यानमें मब पूज्यों के स्वामी परमेश्वर भगवान् अरहंतदेवका ध्यान करना चाहिये ॥८॥ भगवान अहं तदेव घातक कर्मोंसे रहित हैं, शरीरमहिन हैं, परमेष्ठी हैं, योगीम्बर हैं, महासाधु हैं, सिद्धयोग हैं, निरंजन हैं, योगरहित हैं, महर्षि हैं. कृतकृत्य है, महाप्रभु हैं, समस्त योगीश्वरों के द्वारा एज्य हैं, ब्रह्मर्पि है, यतीश्वर है, थ्यानियों के ईश्वर हैं, परम ऋषि है, स्नातक हैं, कर्ममलसे रहित हैं, ऋद्धि, वृद्धि और समृद्धियोंसे सुशोभित हैं, अनेक ऋद्धियोंसे विभूषित हैं, जिन ! हैं, अनंत महिमाको धारण करते हैं, ममस्त विद्याओंके ईश्वर है, विभु हैं, समस्त नरेन्द्र, देवेन्द्र और नागेन्द्र l आदिके द्वारा पूज्य हैं, संसारचक्रसे रहित है, जन्म-मरण रहित हैं, अज है, शिव हैं, धर्म है, धर्मचक्रको
निरूपण करनेवाले हैं, कर्मचक्रको नाश करनेवाले हैं, क्षुधा तृषा आदि दोपोंसे रहित हैं, गगद्वेषादिक समान
कल्मषोंको दूर करनेवाले हैं, सप्त धातुओंसे रहित है, बुढ़ापा-मरण आदिसे दूर हैं, शुद्ध स्फटिकके मनान हैं. | अथवा दिव्य सुवर्णके समान हैं, अंतरङ्ग बहिरङ्ग मलोंसे रहित हैं, पवित्र है, परम पवित्र हैं, दोषरहित हैं, | संसारसे रहित हैं, चेष्टासे रहित हैं, शरीररहित हैं, मोहरहित हैं, मदरहित हैं, शांत हैं. विकाररहित है,
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॥१४॥
नम् ॥१क्षा निष्काम निष्क्रिय दुखतापकवर्जितम् । अतीन्द्रियं मनातीतं रागादिदोश्वजितम् ॥१७॥ क्रोधमानविनिष्कातं मायालोभविवर्जिनम् । निल निर्भयं परं वीर कविनाशने ॥१॥निद्वन्द्व सङ्गसंहोनं गनदीपं विरागकम् । निर्मःसरं निरान्तकं निस्पृहं च पिताम् ।। गायन -लोरदिगम्वरम् । निभू पम् च निर्वस्त्रं निःशस्त्रं जालरूपकम् ॥२०ा निष्कल्मषं महाशान्तं निधिनाथं महेश्वरम् । दिव्यविभूतिसम्पन्न दिव्यसाम्राज्यभूषितम् ।।२३॥ छत्रत्रयसमायुक्त' चामरैयक्षितं सदा। सिंहासनसमामीन प्रातिहार्यविभूषितम् ॥२२॥ अन्तरिक्षस्थितं दिव्यपद्मोपरि विराजि. तम् । महाश्चर्यकरं तन्त्र चिन्त्यं विश्वमोहकम ॥२३|| अनन्तज्ञानसम्पन्नमनन्त दर्शनान्वितम् । अनन्तसौख्यसंयुक्त चामरैयजितं सदा ॥२४।। सवनं सर्वद्रष्टारं सार्व सर्वहितङ्करम् । सर्वकल्याणकर्तारं शङ्करं च शिवेश्वरम् ॥२५॥ | सर्वार्थबोधकावद्ध शंकरत्वाद्धि शक्करम् । ब्रह्माणं ब्रह्मनिरताद्विारा सर्वमयं विभुम् ॥२६॥ देवतानामधीशत्वान्महा. दोपरहित हैं, इच्छारहित हैं, क्रियारहित हैं, दुःख, संताप और शोकसे रहित हैं, अतीन्द्रिय हैं, मनसे रहित | हैं, राग-द्वेषरहित हैं, क्रोध-मानसे रहित है, माया लोभसे रहित हैं, निर्लेप हैं, निर्भय हैं, का नाश करने में धीर-बीर हैं, द्वंद्वरहित हैं, परिग्रहरहित हैं, द्वेपरहित हैं, गगरहित हैं, मत्सरतारहित हैं, आतकरहित हैं, स्पृहारहित हैं, आकुलतारहित है, आशारहित हैं, इच्छारहित हैं, लोकोचर हैं, दिगम्बर हैं, आभूषणरहित हैं, चम्बरहित हैं, शस्त्ररहित हैं, उत्पन्न हुए (बालक)के समान दिनम्बर हैं, कल्मषतारहित हैं, महाशान्त हैं. निधियों के स्वामी हैं, महाईश्वर हैं, दिच्य विभूतियोंसे सुशोभित हैं, दिव्य साम्राज्यसे विभूषित हैं, उनके मस्तकपर तीन छत्र शोभायमान होते हैं, चमर दुलते रहते हैं. वे सिंहासनपर विराजमान रहते हैं, प्रातिदायाँसे सुशोभित रहते हैं, सिंहासनपर भी अंतरीक्ष दिव्य महा कमलपर विराजमान रहते हैं, आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले हैं, अचिंत्य हैं, तीनों लोकोंको आकर्पित करनेवाले हैं, अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, और अनंत सुखसे सुशोभित हैं, उनपर चमर सदा दुलते रहते हैं, वे सर्वज्ञ हैं, सबको देखनेवाले हैं, मयका भला करनेवाले हैं, सबका हित करनेवाले हैं, सबका कल्याण करनेवाले हैं, शङ्कर हैं, शिवके ईश्वर है, समस्त पदार्थोंके जाननेवाले हैं-इमलिये बुद्ध है, सबका कल्याण करनेवाले हैं, इसलिये शंकर है, ब्रह्ममें लीन है-इसलिये बना है। ज्ञानके द्वारा सबको जानते हैं इसलिये विष्णु वा विभु हैं वा सर्वमय हैं, देवोंके स्वामी होनेके कारग महादेव हैं, तीनों लोक उनको नमस्कार करते हैं, वे
॥
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॥ १३२ ॥
कत्वाश्च मीमांसं सर्ववेदिनम् ||२८|| सर्वतो हि विशुद्धत्वाच्छुद्ध नारायणं ननु । सर्वकर्मारिननाद्धरं हरीशनायकम् ॥६॥ मोहान्धकारभेदत्वाज्जगत्सूर्य महाप्रभुम् । जगदाह्लादकत्वाच्च जगचन्द्र सुधाकरम् ||१०|| सर्वभूतैः प्रपूज्यत्वाद्ध ननायं प्रमाणकम् । श्रेष्ठत्वात्परमात्मानं योगिगम्यागतीश्वरम् ||३१|| ज्ञानामृतमहापूरैः सुसाविलजगत्त्रयम् । स्वाद्वादनायक दिव्यं देवदेवं स्वयम्भुवम् ||२३|| हरीशपूज्यवादाच्जमिन्द्रनागेन्द्रवादेतम् । शरण्यं सोफोरानं स्वरिम् ॥३३॥ एतादृशं हि चाहन्तं नमुरासुरपूजितम् । ध्यायेत्कर्म विनाशार्थं स्थिरचित्तेन भक्तितः ॥ ३४॥ त्रात्रारं सर्वलोकानां रचितारं पितामहम् । द्वेत्तारं भवत्रल्लीनां तारकं सुखकारकम् ||३५|| तीर्थनार्थं महातीर्थं सर्वतीर्थनमस्कृतम् । लोकालोकविभायुक्तं पूर्णसामर्थ्यधारकम् ||३६|| श्रादिमध्यान्तहीनं तं वर्द्धमानं सनातनम् । सत्यप्रमाणभूतं च दयालंकृतविग्रहम् ||१७||
ज्योतिरूप हैं सर्वज्येष्ठ हैं, सुगत हैं, पुरुषोत्तम हैं, सबके द्वारा पूजा करने योग्य हैं - इसलिये अर्हत हैं, कर्मों को नाश करने के कारण जिन हैं, तत्रोंका पूर्ण विचार करनेके कारण मीमांसक हैं, समस्त तवोंके ज्ञाता हैं, सर्व ओरसे विशुद्ध होनेके कारण शुद्ध हैं, नारायण हैं, कर्मोंका नाश करनेके कारण इर हैं, इन्द्रोंके भी स्वामी हैं, मोहरूपी अन्धकारको नादा करनेके कारण जगत् के सूर्य हैं, महादेदीप्यमान हैं, जगत्को आबाद करनेके कारण जगत् के चन्द्रमा हैं, उनसे वचनरूपी अमृत सदा झरता है, समस्त जीवोंके द्वारा पुज्य होनेके कारण भूतनाथ कहलाते हैं, वे भगवान् प्रमाणभूत हैं, श्रेष्ठ होनेके कारण परमात्मा हैं, योगियोंके गम्य होनेके कारण यतीश्वर हैं, उन्होंने ज्ञानामृत के महापूरसे तीनों जगत्को भर दिया है, वे भगवान् स्थाद्वादके स्वामी हैं, देवोंके देव हैं, स्वयंभू हैं, उनके चरणकमल इन्द्रोंके द्वारा भी पूज्य हैं, इन्द्र नागेन्द्र सब उनकी वन्दना करते हैं, . वे भगवान् शरणभूत हैं, मङ्गल हैं, लोकोत्तम हैं और समस्त जीवोंका हित करनेवाले हैं, ऐसे भगवान् अरहंत देवको अपने कर्मोंको नाश करनेके लिये स्थिर चित्तसे मक्तिपूर्वक ध्यान करना चाहिये || ९-३४ ॥ वे भग वान् अरहंत देव तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले है, स्वयं सुरक्षित हैं, पितामह हैं, संसाररूपी बेलको नाश करने बाले हैं, संसारको पार कर देनेवाले हैं, सुख देनेवाले हैं, तीर्थनाथ हैं, महातीर्थ हैं, समस्त तीयोंके द्वारा नमस्कार करने योग्य हैं, लोक आलोकके स्वरूपको निरूपण करनेवाले हैं, पूर्ण सामर्थ्यको धारण करनेवाले
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॥१८॥
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S) सत्यसत्यप्रणेतारं मिध्यामतविनाशकम् । भ्रमादिदोषनिर्मुक्त प्रत्यक्षीकृजगत्त्रयम् ॥३८॥ एतादृशं हि चाहन्तं ध्याये.
संचिन्तयेत्सुधीः । पूजयेत्सुजपेद्धत्तया स्मरेद्वा तदरणाप्तये ॥३॥ धर्मध्यानबलेनात्र जिनामति विचितयेत । ध्याता स्वात्म संकल्प्य हहन्तं दिव्यतेजसम् ॥४०॥ ध्यायेत्तद्गुणसंकीर्त्या स्वात्मानं जिनभावतः । जिनश्चात्मा जिनश्चात्मा स्वात्मैष सजिनो जिनः ॥४शा जिन एव भवेदात्मा तस्मादात्मा जिनो मतः सर्वदोषवि मान्मानं मन्यते जिनम् । ४।। भावयेद्भावभत्स्या तं तादात्मा स्याजिना ध्रुवम् । तस्मात्तद्गुणसंकीर्त्या श्रद्धया बा जपेजिनम् ॥४३॥ प्रतिविम्यं जिनेन्द्रम्य पान्तः |
शाणादिनायो । बा ६८.. हितं ध्यायेदेकाममनसाऽनिशम् ॥४४॥ अईतश्च गुणन्धृत्वा तत्रैव चिन्तयेत्पुनः । अर्हता | हैं, आदि, मध्य और अंतसे रहित हैं, वर्द्धमान हैं, सनातन हैं, यथार्थ प्रमाणभूत हैं, उनका शरीर दयासे सुशोभित 3
है, सत्य सत्य भाषाको निरूपण करनेवाले हैं, मिथ्या मतको नाश करनेवाले हैं, भ्रम आदि दोषोंसे | | रहित हैं और तीनों लोकोंको प्रत्यक्ष देखनेवाले हैं, ऐसे भगवान् अरहंतदेवका बुद्धिमान मन्य जीवोंको | उनके गुण प्राप्त करनेके लिये ध्यान करना चाहिये, उनका चितवन करना चाहिये, उनकी पूजा करनी | चाहिये, उनका जप करना चाहिये और उनका स्मरण करना चाहिये ।।३५-३९॥ ____ आगे इस ध्यानके चिंतवन करनेका उपाय बतलाते हैं। सबसे पहले धर्मभ्यानके बलसे भगवान् जिनेन्द्रदेवके | आकारका चितवन करना चाहिये। ध्यान करनेराले ध्याताको अपने आत्मामें दिव्य तेजको धारण करनेवाले भगवान अरहंतदेवका संकल्प करना चाहिये और फिर अपने आत्माको जिनेन्द्ररूप समन कर उनके गणोंका कीर्तन करते हुए उनका ध्यान करना चाहिये। ये जिनेन्द्रदेव ही मेरा आत्मा है, जिनराज ही मेरा आत्मा है, अथवा मेरा आत्मा ही जिन है, जिन है, यह आत्मा ही जिनेन्द्र हो जाता है। इसलिये आत्मा ही जिनेन्द्र माना || जाता है । इसप्रकार जब अपने आत्माको समस्त दोषोंसे रहित जिनेन्द्र ही मानता है, तथा भाव-भक्तिसे उसका
चितवन करता है, तब आत्मा अवश्य ही जिन हो जाता है। इसलिये ध्यान करनेवालेको श्रद्धापूर्वक अरहंत | Ma देवके गुणोंका संकीर्तन करते हुए जिनेन्द्रदेवका जप करना चाहिये ॥४०-४३॥ अथरा ध्यान करनेवालेको | अपने हृदयके मीतर भगवान् जिनेन्द्र देवके प्रतिबिंबका स्थापन करना चाहिये और फिर एकाग्र मनसे हित
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॥१४॥
पञ्चकल्याणं तत्रैव चिन्तयेत्सुधीः ॥४५|| अईतांमुगुणवतघ्यायध्यायन विचिन्तयेन् । कृत्वाचमानसाध्यक्ष जिनबिम्बेऽईतां गुणम ॥४६॥ जिनविम्व समालम्ब्य मनोध्यक्षेण चिन्तयेत् । भावरूपान्वितं देवमहम्तं हि जिनेश्वरम् ।।४७॥ कृत्वा प मानसाध्य जिनविम्ब मनोहरम् । सत्तानिहार्यसंयुक्त यक्षोयज्ञादिवदितम् ।।४। त्यत्तवा विकल्पसंकल्पं भक्त्या तन्मयतां बजेन् । ध्यानं कृत्वा जिनेन्द्रस्य स्वात्मानं भावयेत्सुधीः ॥४६॥ जिनाकृति समालंव्य मनुतेऽईद्गुणार्णवम् । जिनम्पं निजं ध्यायेत्तत्रैव च पुनः पुनः । ५०|| नसामे दृष्टिमारोप्य प्रशान्तबदन: सुधी। जातरूपधरो ध्याता प्रतिपद्य जिनाकृतिम ।।५।। शनैश्शनैर्निजे चित्ते स्वात्मानं भावयेजिनम् । अहं जिनो जिनश्चाई स्वात्मैव मे जिनो मतः ॥५२॥ तस्मा.
शरारAAISE
कारनंत्राले उन भगवान्का ध्यान करना चाहिये ॥४४॥ बुद्धिमान ध्याताको उसी प्रतिबिंधमें अरहन भगवान्के गुणोंको धारणकर चितवन करना चाहिये, अथवा उसी प्रतिबिंब में भगवान् अरहतदेवके पांचों कल्याणकोंका चितवन करना चाहिये ||३५|| अथवा भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिविषमें अरइतके गुणोंको मनसे प्रत्यक्षकर उनके गुणममूहोंका चितवन करते हुए उनका ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ भगवान् अरईतदेवके प्रतियिका आलम्बन लेकर अपने परिणामोंमें आये हुए भगवान् अरहंतदेवको मनसे प्रत्यक्षकर उनका
बन करना चाहिय ॥४७॥ बद्धिमान ध्याताको अपने समस्त संकल्प-विकल्प छोड़कर श्रेष्ठ प्रातिहार्योंसे | सुशोमित यक्ष-यक्षियों के द्वारा सदा बन्दनीय-ऐसे भगवान् अरहंतदेवके मनोहर प्रतिबिंबको मनसे प्रत्यक्ष देखना चाहिये और फिर भक्तिपूर्वक तन्मय होकर भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यानकर अपने आत्माका चितवन करना चाहिये ॥४८-४९॥ भगवान् जिमेन्द्रदेवके प्रतिबिंधका आलम्बन लेकर भगवान् जिनेन्द्रदेवके गुणसमुद्रका ध्यान करना चाहिये और अपने आत्माको भगवान् जिनेन्द्रदेवका रूप समझकर बारबार उनका ध्यान करना चाहिये ॥५०॥ बुद्धिमान ध्याताको अपना मुख शांत रखना चाहिये, अपनी दृष्टि नासिकाके अग्रभागपर रखनी चाहिये और भगवान् जिनेन्द्रदेवके समान दिगम्बर अवस्था धारणकर धीरे धीरे अपने चिसमें जिनेन्द्रमय अपने आत्माका चितवन करना चाहिये। मैं जिन हूँ, जिन ही मैं हूँ, मेरा आत्मा ही जिन है, इसलिये भक्तिपूर्वक 'जिन, जिन, जिन' इस प्रकार भावरूप 'जिन'का स्मरण करना चाहिये। तथा अपने
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| जिनं जिनं भक्त्या भावरूपं स्मरेन्जिनम् । तन्मयतां समासाद्य चाईन्तं तत्र चिन्तयेत् ॥५३॥ अनन्यशरणो भूत्वा भवसन्तानहानये । एकाग्रेण च तद्धिम्यं ध्यायन्सुस्थिरचेतसा || तस्य ध्यानेन शोधं हि जायते भावशुद्धता। नियमेन सुभब्यानामई द्र.पप्रकाशिका ॥५५॥ अभव्यानामपि श्रेष्ठ महापुण्यं यशस्करम् । जायते सर्वजन्तूनां महाश्चर्यकरं परम् ।।५६।। विपत्तिश्च महासाध्या देवी नश्यति निश्चयात् । स्वर्गापवर्गसिद्धस्तु स्वयमायाति भावतः ॥५॥ भाषयेत्सततं योगी जिनरूप निजात्मनि । त्यक्त्वा सर्वविकल्पं वा जिनसिम्बं भजेत्सुधीः ।।१८।। चतुर्विशतितीर्थानां जिनकेलिना तथा । सिद्धानां प्रतिविम्बानि ध्यातव्यानि मुमुक्षुणा ||५|| बिम्बानि भावरूपाणि सूयु पाध्यायलिगिनाम् । तद्गुणान् तत्र संध्यायेत् पश्चानां परमेष्ठिनाम् ॥॥ अकृत्रिमरिण विम्बानि जिनेन्द्र जितात्मनाम् । लोक सन्तोह वा तानि ध्यायेत स्वारम
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आत्माको जिनेन्द्रमय बनाकर अपने ही आत्मामें भगवान् अरहंतदेवका ध्यान करना चाहिये ॥५१-५३|| ध्यान करनेवालेको अपनी संसार परंपराका नाश करनेके लिये भगनान् भारतदेवको दी धारा मानना चाहिये और निश्चल चित्तसे वा एका मनसे भगवान अरहंतदेवके प्रतिबिका ध्यान करना चाहिये ॥५४॥
ध्यानके प्रभावसे भव्य जीवोंको भगवान् अरहंतदेवके रूपको प्रकाशित करनेवाले अत्यन्त निर्मल भाव अवश्य sil हो जाते हैं तथा अभव्य जीवोंको भी सब जीवोंको आश्चर्य प्रगट करनेवाला और यशको बड़ानेवाला महामेष्ठ
पुण्य प्रगट होता है। इस ध्वानसे महाअसाध्य दैवी विपत्तियां भी अवश्य नष्ट हो जाती हैं और भावपूर्वक ध्यान करनेसे स्वर्ग-मोक्षकी सिद्धि अपने आप समीप आ जाती है ॥५५-५७॥ बुद्धिमान योगियोंको अपने आत्मामें भगवान् जिनेन्द्रदेवके रूपका सदा चिन्तवन करते रहना चाहिये और समस्त विकल्पोको छोड़कर जिनपिंबका ध्यान करना चाहिये ॥५८|| मोक्षकी इच्छा करनेवाले योगीको चौबीसों तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंका, | | जिन केवलीकी प्रतिमाओंका तथा सिद्धोंकी प्रतिमाओंका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥५९॥ इसीप्रकार |
आचार्य, उपाध्याय, साधुओंके भावरूप प्रतिदियोंकी कल्पनाकर उनमें उनके गुणोंका चितवन करना चाहिये || तथा इसीप्रकार पांचों परमेष्ठियोंके गुणोंका चिन्तवन करना चाहिये ॥६०॥ अपने आत्माको जीतनेवाले | भगवान् जिनेन्द्रदेवकी अकृत्रिम प्रतिमाएं इस लोकमें जहां जहां विराजमान हैं, उन सबका अपने शुद्ध
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१९६॥
सिद्धये ॥६॥ परं समयसारस्य मूर्ति कृत्वा सुभावतः । संस्थाप्य हृदये तो ये प्रारूप विचिन्तयेत् ॥६२॥ कायोत्सर्गेम संस्थाय कायोत्सर्गमयी कृतिम् । मत्वा नि:संगमरमानमहन्त चिन्तयेजिनम् ॥शा ध्यानकाले सदैवात्र कायोत्सर्ग जिनाकृतिम् । श्रेष्ठा सुध्यानगम्या या चाहंद्र पप्रकाशिका ॥६४।। पूजयेद्राषयेद्भक्त्या स्मरेप चिन्तयेबपेन् । ध्यायेनमे | बा स्तूयात् कायोत्सर्गजिनाकृतिम् ।।६।। अनारतं ततो ध्यायेत संस्थाप्य हदि मन्दिरे । जिनबिम्ब महामन्या श्रद्धाभरे वा ॥६॥ इत्यभ्यासबलेनात्र जिनबिम्बस्य चित्तनम् । स्थिरं कृत्या मनस्तेन शनैरवन्मयतां व्रजेत ॥६॥ अन्तरंटया निजं चित्तं संलीय च निजात्मनि । गूढ़ संस्थाप्य चास्मानं ध्यायेत्तव जिनाऋतिम् ।।६। येन येन सुभायेन चान्त
या निमील्य च । स्त्रात्मानं स्वात्मनि तेन सद्र पस्थं जिनं भजेत् ॥६॥ परमात्मा स एवाई सोऽहंसोऽहं प्रपद्य के
आत्माकी सिद्धि के लिये ध्यान करना चाहिये ।।६१॥ अपने निर्मल परिणामोंसे समयसाररूप शुद्ध आत्माकी | भूर्ति बनाकर और उसको अपने हृदयमें स्थापनकर उस ब्रह्म-स्वरूप मूर्तिका ध्यान करना चाहिये ॥१२॥ | कायोत्सर्गसे खड़े होकर अपने आत्माफी मुर्तिको कायोत्सर्गरूप कल्पना करनी चाहिये और अपने आत्मामें समस्त परिग्रहसे रहित अरहंतकी कल्पनाकर अपने आत्माको अरइतरूप चितवन करना चाहिये ॥६३|| ध्यानके समयमें भगवान् अरहंतदेवके रूपको प्रकाशित करनेवाली कायोत्सर्ग प्रतिमा श्रेष्ठ और ध्यानके योग्य मानी गई है। इसलिये कायोत्सर्ग जिन-प्रतिमाकी भक्तिपूर्वक सदा पूजा करनी चाहिये, भावना करनी चाहिये, उसका स्मरण करना चाहिये, जप करना चाहिये, चितवन करना चाहिये, उसको नमस्कार करना | चाहिये और उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥६४-६५|| मगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाको अपने हृदयमन्दिरमें स्थापनकर अत्यन्त भक्तिसे तथा दृढ़ श्रद्धापूर्वक उसका निरंतर ध्यान करना चाहिये ॥६६॥ इसप्रकार ध्यानका अभ्यासकर और मनको अत्यन्त स्थिरकर जिनप्रतिमाका चिन्तवन करना चाहिये और | फिर चितवन करते हुए तन्मय हो जाना चाहिये ॥६७॥ अपने चित्तको अंतष्टिसे अपने आस्मामें लीन कर | लेना चाहिये और जिनेन्द्रदेवकी आकृतिके समान अपने आत्माको गृह स्थापनकर उसका चिन्तवन करना all
चाहिये ॥६८॥ यह आत्मा जिन २ परिणामों से अपने आत्माको अपने आत्मामें अंतर्दृष्टिसे लीन कर लेता Fel है, उन्हीं परिणामोंसे वह आत्मरूप भगवान जिनेन्द्रदेवका ध्यान करता है ।।६९॥ "जो परमात्मा है वही मैं हूँ,
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सु०प्र०
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माणसाला चिटोनिम् ||| सोऽहमइनसौ सोऽहं न भेदः स्वपरात्मनोः । अाईन्नेव स पात्मायमिति ध्यायेत्स्वके सदा ।।७२देवोऽईन्नेव नान्योऽस्ति परमात्मा स एव च । यः परात्मा स एवाहमिति ध्यायेत्स्व सदा॥७२॥ इत्यभ्यास बलेनात्मा परमात्माभवेदथ । तद्भावनापुटे धृत्वा ततोलायेजिनाकृतिम् ।।४३॥ भगवतोऽह द्विम्यस्य ध्यानेन हि सुयोगिनाम् चूर्णयन्ते पुराकर्मचक्राशिच जणादिह कोटिभवान्तारोपात्तपापानि विगजन्ति चाजोवानामहतो विम्बस्य ध्याना. च जपादिह ७॥ अनादिसंमृतेः सङ्घः जिनबिम्बम्य दर्शनात् । शीनं पलायये तस्माग्जिनबिम्वं स्मरेज्जपेन् । ७६| दुःखोत्करं महाविघ्न प्रलयं यादि शीघ्रतः । सर्वसौख्यं समायाति जिनाकृतिजपेन वा ॥७७ अरयोऽपि भजन्तेऽत्र मित्रता हि स्वतः स्वयम् । सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि मङ्गलानि भवन्ति च ||८|| अगम्यं गम्यतां याति अशक्यं याति शक्यताम् ।
वही मैं हूँ, वही मैं हूँ, इसप्रकार अपने आत्मामें तन्मय होकर परमात्मरूप होकर अपने आत्माका ध्यान शरना चाहिये ॥७॥ जो मैं हूँ वही अरत हैं और जो अरहंत हैं वही में है, मेरे आत्मा और परमात्मा कोई मेद नहीं है, अरहंतदेव ही यह मेरा आत्मा हैं इसपकार अपने अपने आत्मामें भदा ध्यान करना चाहिये। ।।७१॥ 'देव भगवान् अरहतदेव ही हैं अन्य नहीं है तथा वे ही परमात्मा हैं और जो परमात्मा है वही मैं हूँ इसप्रकार अपने आत्माका सदा ध्यान करना चाहिये ।।७२।। इस ध्यानके अभ्याससे यह आत्मा परमात्मा || हो जाता है, उस परमात्माको अपनी भावनाके पुट में रखकर उसमें भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आकृतिका ध्यान करना चाहिये ॥७३॥ भगवान् अरहंतदेवके प्रतिबिंबका ध्यान करनेसे गोगियोंके पहिलेके संचित हुए। समन्त कर्मों के समूह क्षणमरमें चूर्ण हो जाते हैं ||७४।। भगवान् अरहनदेवके प्रतिकिका ध्यान वा जप करनेसे जीवोंके करोड़ों भवोंसे चले आये समस्त पाप क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं ॥७५।। भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिम्बका दर्शन करनेसे अनादिकालसे चली आई जन्म-मरणरूप संसारकी परिपाटी बहुत
शीघ्र नष्ट हो जाती है, इसलिये भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिम्बका सदा स्मरण करना चाहिये और सदा।। | उप करना चाहिये ।।७६॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाका जप करनेसे समस्त दुःखों के समूह और महा
विघ्न शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और समस्त सुख प्राप्त हो जाते हैं ।।७७॥ भगशन जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिंबका न ध्यान करनेसे अनायास ही योगियोंके शत्रु भी अपने आप मित्र बन जाते हैं, समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं, HE१०
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स०प्र०
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MORAGARMATHA
असायं साध्यतां याति फलन्ति च मनोरथाः ! | स्वर्गापवर्गज्ञा लक्ष्मीः पश्यतां याति भावतः । ध्यानेन जिननिम्बस्य बनायासेन योगिनाम् ॥८०॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ध्यायतामहदाकृतिम । त्यस्वा कुदेवसंतानं बुद्ध हरिहरादिकम् ॥८॥ एकमेव हि चाईन्तं भजेद्वा चितज्जपेत् । अतो जिनविम्ब हि ध्यायेव पूजयस्मरेत् ॥शा समवसरणसंस्थं निर्विकारं विशुद्ध स्मरति जपति योगी ध्यायतीत्थं जिनेन्द्रम् । रचयति शुभपूजां भावभक्त्या जिनस्य स हि धरति सुधर्म स्वात्मरूपं जिनस्य ॥३॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे रूपस्थध्यानवर्णनो नाम त्रयोविंशतितमोऽधिकारः ।
RRISHRASESATYAPA
| समस्त मंगल होते रहते हैं, अगम्य स्थान वा पदार्थ गम्य हो जाते हैं, अशक्य पदार्थ शक्य हो जाते हैं, | सब असाध्य कार्य माध्य हो जाते हैं, नव मनोरथ सफल हो जाते हैं और वर्ग-मोक्षकी लक्ष्मी अपने आप क्या
| हो जाती है; इसलिये बुद्ध हरि हर आदि समस्त देवोंकी संतानको छोड़कर सब तरह के प्रयत्नकर भगवान् HELI अरहतदेवकी प्रतिबिका ध्यान करना चाहिये ॥७८-८१॥ एक ही भगवान् अरहंतदेवका भजन करना
चाहिये, चितवन करना चाहिये और जप करना चाहिये तथा एक ही भगवान् अरहतदेवकी प्रतिषियका ध्यान करना चाहिये, पूजन करना चाहिये और स्मरण करना चाहिये ॥८२॥ जो योगी समवसरणमें विराजमान, निर्विकार, परम विशुद्ध भगवान् जिनेन्द्रदेवको इस प्रकार स्मरण करता है, उनका जप करता है, उनका ध्यान करता है, भाव-भक्तिपूर्वक उन्हीं भगवान् जिनेन्द्रदेवकी शुभ पूजा करता है, वह भगवान् जिनेन्द्रदेवके स्वात्मरूप श्रेष्ठधर्मको धारण करता है |८३॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचितसुधर्मध्यानपदीपालारमें रूपस्थध्यानको
वर्णन करनेवाला यह तेईसा अधिकार समान हुआ।
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चतुर्विंशतितमोऽधिकारः
महाध्यानी महाझानो सौम्यमूतिर्महाप्रमुः। वंद्यतेऽसौ गहादेवः पार्श्वनाथो जिनेश्वरः ॥१॥ श्रीसिद्ध परमात्मान निष्कलङ्कममूर्तकम् । ईश्वरं च चिदानन्दं वन्देऽई सद्गुणातय ॥२॥ सर्वथा मूर्तिमास्नकर्माभावे प्रमूर्तता । येषामस्ति | सुसिद्धानां रूपाठीतास्ततो हि ते ॥३॥ येषांहि कर्मश सत्ता स्पयुक्ता च विद्यते । ते हि मूर्ताः सरूपाश्च सशरीरा मरन्ति वा III येषां तु नास्ति सा सत्ता रूपालोताततो हि ते। अतो ध्यानं हि सिद्धानां रूगतीतं मतं जिनैः ॥शा विशुद्धानां सुसद्वाना बुद्धाना इसकर्मणाम् । ध्यानं हि तेषां पृष्यान! रूपातीतं मतं जिनैः ॥६।। सर्वरूपविहीनानां सर्वकर्मक्षयात्मनान् । अदेहानां विशुद्धानामनशाना सुखात्मनाम् ॥ निहारे च सर्वसामाचिस्मना । यत्र सिद्धानां
___ जो महाध्यानी हैं, महाज्ञानी हैं. सौम्य मूर्ति हैं, महाप्रभु है और महादेव हैं (सर्वोत्कृष्ट देव हैं); ऐसे जिनेन्द्रदेव भगवान् पार्श्वनाथको मैं नमस्कार करता हूं ॥१॥ जो निष्कलंक है, अमृत हैं, ईश्वर हैं, चिदानन्दमय हैं और परमात्मा हैं; ऐसे सिद्ध परमेष्ठीको मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ॥२॥ कर्म पब मूर्त हैं, उन सब कर्मोका अभाव होनेसे सिद्धों में अमृतता स्वयं सिद्ध है; इसीलिये सिद्ध भगवान् रूपातीत वा रूपरहित कहलाते हैं ॥३॥ जिन जीवोंके रूपरहित कर्मोंकी सत्ता है, उनको सरूपी और मत कहते हैं। ऐसे जीव शरीर सहित ही होते हैं ॥४॥ जिन जीवोंके वह रूपमती कर्मों की सत्ता नहीं है, ऐसे सिद्धों को रूपातीत कहते हैं |
इसीलिये सिद्धोंके ध्यानको रूपातीत कहते हैं ||५|| जो सिद्ध परमेष्ठी अत्यन्त विशुद्ध हैं, समस्त कासे हा रहित हैं और पूज्य है; ऐसे सिद्धों का ध्यान करना रूपातीत ध्यान कहलाता है ॥६॥ भगवान् सिद्ध परमेष्ठी | सब तरहके रूप रस गन्ध स्पर्शोसे रहित हैं, समस्त कर्मोंसे रहित है, शरीरसे रहित हैं, विशुद्ध हैं. इन्द्रियसे रहित
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॥ २०० ॥
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| रुपातीतं मतं हि तत् ||८|| सर्वध्यानेषु मुख्यं तत् ध्यानमस्ति च सिद्धिदम् । परमात्मा भवेदारमा साक्षानेन यतः क्षणात् सिद्धा हि सर्वतो ज्येष्ठाः सर्वश्रेष्ठात्रिलोकतः । देवैर्योगीश्वरैः पूज्या भावातीता निरञ्जनाः ||१०|| निष्कल!: परमात्मानम्ते सन्ति कृतकृत्यकाः । शाश्वताः सुखम्पन्नाः शुद्धज्ञानधनाः शुभाः ||११|| विद्धानां ध्यानतरचात्मा साक्षात्सिद्धः प्रजायते । कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा लववा च निज सम्पदाम् ||१२|| संसारः क्षीयतेऽनादिः रोगो नश्यति जन्मजः । तेन ध्यानेन जीवानां प्राप्यने निश्चलं सुखम ॥१॥ आगमनस्य योज्ञाता भावश्रुतेन चात्र वा रूपानीतम्य स ध्याता ध्यानस्येति तो जिनैः ॥ १४॥ अमृतं निष्कलं निजनम् । द्रव्यभावनी व सर्वगलापहम् ||१४|| व्याकारं निराकारं साकारं च प्रदेशतः । लोकमवामिनं चान्त्यशरीरात्किञ्चिदूनकम् || १६|| चिन्मयं शुद्धदर्शनात्मकमतम् । शुद्धसम्यक्त्व देदीप्तमन्यावाधमनाकुलम् ॥ १७ ॥ श्रनन्तवीर्य सम्पन्नमनन्तसुखसागरम् । अजरममर जन्मा
हैं, सुखस्वरूप हैं, निद्र हैं और समस्त व्यापारोंसे रहित हैं। ऐसे सिद्ध परमेष्ठीका ध्यान करना रूपाती ध्यान कहलाता है ||७-८। यह रूवातीत ध्यान समस्त ध्यानों में मुख्य है, समस्त सिद्धियों को देनेवाला हैं और इससे यह आत्मा क्षणभर में साक्षात् परमात्मा हो जाता है ||९|| ये सिद्ध भगवान् तीनो लोकों में सबसे बड़े हैं, सबसे श्रेष्ठ हैं, देव और योगीश्वरोंके द्वारा पूज्य हैं, संसाररहित हैं, निरंजन है, शरीर रहित हैं, पर मात्मा हैं, कृतकृत्य है, नित्य हैं, अनन्त सुखी हैं, शुद्ध ज्ञानरूपी धनको धारण करनेवाले हैं और परम शुभ हैं। ऐसे भगवान् सिद्धौका ध्यान करनेसे यह आरा समस्त कमको नाश करके और अपनी आत्मरूप संपत्तिको प्राप्त करके साक्षात् सिद्ध हो जाता है ।। १०-११-१२। इन्हीं सिद्ध परमेष्ठियों के ध्यानसे यह अनादि संसार नष्ट हो जाता है, जन्म-मरणका रोग नष्ट हो जाता है और इसी रूपातीत ध्यानसे जीवों को मोक्षका निश्चल सुख प्राप्त हो जाता है || १३|| जो भावश्रुतज्ञानके द्वारा आगमके बारह अंगों का जानकार है, वही रूपातीत ध्यानको धारण कर सकता है, ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है || १४ || भगवान् सिद्ध परमेष्ठी अमूर्त हैं, शरीररहित हैं, परमदेव हैं, अव्यक्त हैं, निरंजन हैं, द्रव्य कर्म नोकर्म और भात्र कर्मसे रहित हैं, समस्त मलोंसे रहित हैं, अकाशके आकाररूप हैं, निराकार हैं, प्रदेशोंके द्वारा साकार हैं, लोक
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॥ २०
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तीतं विभुसनातनम् ।।१८। शुद्धज्ञानमयं सिद्धं परमात्मानमव्ययम् । अनादिनिधनं नित्यं शाश्वतं निरुपद्रवम् ॥१ut अव्याहतं परं सूक्ष्मं स्वप्रतिष्ठितमक्षयम् । सर्वद्वन्द्वविनिमुक्त सर्वतापविवर्जितम् ॥२०॥ निष्कलंक निरातकं शान्त दान्तमतीन्द्रियम् । संसारमागरोतीण चिदानन्दमयं शिवम् ॥२३॥ परमात्यंतिकावस्था प्राप्वं द्रव्यमयं शुभम् । मचलस्थितिक नित्यं पुनर्जन्मविजितम् ॥२२॥ ब्रह्माशमीशमीशानमीश्वरं परमेष्ठिनम् । एतादृशं भवातीतं सिद्ध ध्यायेच्छिवालये ॥२३॥ व्यक्तीभूता गुणाः सर्वे स्वात्मजा दुलेभा ननु । येषांस्तान खलु सिद्धानां स्मरामि भावभक्तिः |२४|| परद्रव्याच ये मिन्ना अभिन्ना स्वात्मवस्तुतः। शुद्धज्ञानमयाः शुद्धाः सिद्धा नः पान्तु चाक्षयाः ||२५|| कर्माष्टकविनिमु का गुणाष्टक | विभूषिताः । अष्ठमीपृथिवीनाथाः सिद्धा नः पान्तु सौख्यदाः ॥२६॥ सिद्धा याप्यमूर्ता हि निराकारा निररूजनाः । तथापि | शिखरपर विराजमान हैं, अन्तिम शरीरसे कुछ कम अकारमय हैं, चिदानन्दमय हैं, शुद्ध दर्शनखरूप हैं, नाशरहित हैं, शुद्ध सम्यग्दर्शनसे सुशोमित हैं, समस्त बाधाओंसे रहित हैं, समस्त आकुलताओंसे रहित हैं, अनन्त वीर्यसे सुशोमिन हैं, अनन्त मुखके ममुद्र हैं, अजर है, अमर हैं, जन्मसे रहित है, विभु हैं, सनातन हैं. शुद्ध ज्ञानमय हैं, परमात्मा है, व्ययरहित हैं, अनादि हैं, अनिधन हैं, नित्य हैं, शास्त्रत हैं, उपद्रवरहित हैं, अव्याहत हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं, सूक्ष्म है, अपने ही आत्मामें स्थिर है, अक्षय हैं, समस्त उपद्रवोंसे | रहित हैं, समस्त नामोंसे रहित हैं, कलंकरहित हैं, आतंकरहित हैं, शांत हैं. इन्द्रियोंको दमन करनेवाले हैं।
इंद्रियोंसे रहित हैं. संसाररूप महासागरके पारगामी हैं. चिदानन्दमय है. कल्याणस्वरूप है. परम | अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं, आत्म द्रव्यमय हैं, शुभ हैं, अचल स्थितिको धारण करनेवाले हैं, नित्य है, पुनर्जन्मसे
रहित हैं, ब्रह्मा हैं, ईश हैं, ईशान हैं, ईश्वर हैं, परमेष्ठी हैं और संसारसे रहित है। ऐसे सिद्ध परमेशीको | | मोक्ष प्राप्त करनेके लिये ध्यान करना चाहिये ॥१५-२३।। जिन सिद्धोंके आत्मासे उत्पन्न हुए और अत्यन्त
दुर्लभ ऐसे समस्त गुण प्रगट हो रहे है, ऐसे उन सिद्ध भगवानको मैं भाव और भक्तिपूर्वक स्मरण करता हूं। ॥२४॥ जो सिद्ध परमेष्ठी परद्रव्यसे सर्वथा मित्र है, तथा अपने आत्मद्रव्यसे सर्वथा अभिम हैं, शुद्ध ज्ञानमय | है, शुद्ध हैं और अक्षय है; एसे सिद्ध परमेष्ठी हम लोगोंकी रक्षा करें ॥२५॥ जो सिद्ध परमेष्ठी आठों कर्मोंसे सर्वथा रहित है, सम्यक्त्व आदि आठों कोंसे सुशोमित हैं, जो आठवीं पृथ्वीके स्वामी है, अनन्त सुख | देनेवाले हैं; ऐसे भगवान् सिद्ध परमेष्ठी हम लोगों की रक्षा करें ॥२६॥ सिद्ध परमेष्ठी यद्यपि अमूर्त है, निराकार
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। २०२॥
पुरुपाकाराः कथं ननु भवन्ति ते ॥२७|| शुद्धादर्श यथाकारो जिननिम्बस्य यद्भवेत । अथाकारी हि सिद्धानामाकाररहितात्मनाम् ॥२८|| याङनिर्गतबिम्बस्य मूपिकोदरतोऽथवा । ताहक च गगनाकारं सिद्धानां हिमवत्खलु र आकारी द्विविधः | प्राको मूर्तामूर्तप्रभेदतः । रूपचन्मूर्तवस्तृनामाकारः स्यादनेकधा ॥३०॥ द्रव्यागामिह मूर्तानामाकारम्य च कल्पना : द्रव्याणां गतरूपाणाममूर्तानां भवेदिड् !॥३१॥ धर्मादीन च सिद्धानामाकारः स्वप्रदेशतः । स्याद्रव्यात्मप्रदेशानामाकारम्नु स्वभावतः ॥३२॥ प्रदेशसहितं द्रव्यं निराकारं कथं भवन् । श्राकारः स्यात्ततो मूर्तामूर्तदन्यस्य निश्चयान ॥३॥ नाशिताशेपसंसारं जन्ममृत्युविवर्जितम्। निर्विकारं पुनर्जन्म व्यतीतं शाश्वतं शिवम् ॥३४॥ ध्यायेदविचलं श्रेष्ठं परि वर्तनवर्जितम् । नित्यं सनातनं शान्तं निष्क्रिय विमलं शुभम् ।।३५।। चिन्मयं च परं ज्योतिः स्वमयं परमातरम । आत्मस प अनितम् ॥३६॥ स्वगुणात्सर्वथाऽभिन्न लोकालोकप्रकाशकम् । स्वात्मगुणमयं द्रव्यं शुद्धकनक
Ki है, निरञ्जन हैं, तथापि वे पुरुषाकार कैसे कहे जा सकते हैं ? इनका उत्तर इस प्रकार है कि जिस प्रकार शुद्ध व दर्पणमें भगवान्के प्रतिविम्बका आकार होना है, उसीप्रकार आकाररहित सिद्धोंका भी पुरुषाकार समझना
चाहिये । अथवा जिसप्रकार जिम सांचेमेंसे भगवान् जिनन्द्रदेवकी प्रतिविम्ब निकाल ली गई है, उस सांचे 5 का जैमा आकार है, वैसा ही आकाशके अकार सिद्ध परमेष्ठीका आकार ममझना चाहिये ॥२७-२९॥ मूर्त| अमूर्तके भेदसे आकारके दो भेद होते हैं । रूपसहित जो मूने दार्थ हैं, उनका आकार अनेक प्रकारका होता है । जो मूत द्रव्योंमें आकारकी कल्पना होती है, उसी प्रकार आकारकी कल्पना रूपरहित अमूर्त द्रध्यकी भी होती है ।।३०-३१॥ धर्मादिक द्रव्य अथवा सिद्धों का आकार अपने आत्मप्रदेशोंसे होता है । क्योंकि द्रव्योंके अपने प्रदेशोंका आकार स्वभावसे ही होता है ॥३२॥ फिर मला जो द्रव्य प्रदेशमहित हैं के निराकार कैसे हो सकते हैं ? इसलिये यह निश्चय समझना चाहिये कि मूर्त-अमूर्त दोनों द्रव्योंका आकार अश्य होता है ॥३३॥ इसलिये जिन्होंने समस्त संमारका नाश कर दिया है, जो जन्म-मरणसे रहित हैं, विकाररहित हैं, पुनर्जन्मसे रहित हैं, शास्वत है, कल्याणरूप है, स्थिर है, नित्य है, परिवर्तनरहित है. मनातन हैं,
शांत हैं, क्रियारहित हैं, मलरहित हैं, शुभ है, चिन्मय हैं, परम ज्योतिःस्वरूप हैं, आत्ममय हैं, परमाक्षर | अर्थात् सर्वोत्कृष्ट तथा अक्षय हैं, आत्म द्रव्यस्वरूप है, शुद्ध हैं, परपदार्थोके समागमसे सर्वथा रहित हैं, अपने
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॥२३॥
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सन्निभम् ॥३७॥ अमूर्तानां हि सिद्धानासमूतो एव तद्गुणाः । तथापि च गुणास्तेषां चिन्त्यते मनमात्र वा ॥३८॥ गुणावलम्बनं कृत्वा शनैः शनैर्विचिन्तयेत् । कारयच मनस्तत्र तन्मयत्वेन चात्मनि ॥३६|| अनन्यमनसा ध्यायेत्मिद्धशुद्धगुणान् स्वयम् । जायते हि ततो ध्यानात्स्वात्मनि स्त्रात्मसंस्थितिः ॥४01! रूपातीतमुध्यानेन महामोहः प्रणश्यते । श्रात्मा विशुद्धता याति शुद्धस्फटिकवत्सदा ॥४१॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सुध्यायन्नित्यरूपकम् । घानन्य शरणी भूत्वा सिद्ध शुद्ध' विचिन्तये ।।४।। विगतसकलरूपं सर्वकारिनाशास्परमसमयसारं शुद्धबुद्ध विशुद्धम् । परपरणतिहीनं चिन्मयं ज्योतिरूपं स्मति जपति भक्तया रं सुधर्मो मुनीन्द्रः ॥४॥
इति सुधर्मध्यानप्रदोपाल का रूपातीतध्यानवर्षमो नाम चतुर्विशतितमोऽधिकारः । आत्मगुणोंसे सर्वथा अभिन्न है, लोक आलोकको प्रकाशित करनेवाले हैं, आत्मगुणमय है, दिव्य है और | शुद्ध सुवर्णके समान है; ऐसे सिद्ध भगवानको सदा रिंक करते रहना चाहिये ॥३४-३७॥ यद्यपि अमून । सिद्धोंके गुण भी अमृत ही होते हैं, तथापि मनके द्वारा उनका चितवन किया जाता है ॥३८॥ सिद्धोंके उन || गुणोंका अवलम्बन लेकर धीरे धीरे उन सिदोंका ध्यान करना चाहिये और तन्मय होकर आत्मामें अपने मनको निश्चल करना चाहिये । ३९॥ सिद्धोंके शुद्ध गुणोंको एकाग्र मनसे चितवन करना चाहिये । इन गुणों के चितवन करनेसे अपने आत्माकी स्थिति अपने ही आत्मामें स्थिर हो जाती है ॥४०॥ इस रूपातीत | ध्यानसे महामोह नष्ट हो जाता है और शुद्ध स्फटिकके समान यह आत्मा सदाके लिये अत्यंत विशुद्ध हो जाता है । इसलिये सब तरहके प्रयत्न करके और अनन्य शरण होकर अर्थात् अन्य सबका शरण छोड़कर केवल सिद्धोंके ही शरणमें आकर रूपरहित शुद्ध और सदा रहनेवाले सिद्धीका ध्यान करना चाहिये ॥४१४२।। ममस्त कर्मोके नाश होनेसे जो सब तरह के रूप रस गंध स्पशसे रहित है. परम समयमारस्वरूप हैं, शुद्ध हैं, बुद्ध हैं, विशुद्ध हैं, पररूप परिणतिसे सर्वथा रहिन हैं, चेतन्यमय हैं और ज्योतिःस्वरूप हैं; ऐसे भगवान् सिद्ध परमेष्ठीको यह मुनिराज सुधर्मसागर भक्तिपूर्वक सदा स्मरण करता है और सदा जप करता है ११४३||
इस प्रकार मुनिराज श्रीसूधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदोपालद्वारमें रूपातीत
ध्यानको वर्णन करनेवाला यह चौबीसा अधिकार समाप्त हुआ
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पञ्चविंशतितमोऽधिकारः ।
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दयाधर्मप्रणेतारं सर्वसत्त्वहितङ्करम् । दयालु भगवन्तं तं वर्द्धमानं नमाम्यहम् ||१|| शुक्तध्यानमले नात्र कृतं कर्मविदारणम् । परात्मपदनारूढं वन्देऽहं परमेश्वरम् ||२|| धर्मध्यानबलेनात्र स्वात्मशुद्धिं विधाय च । भावभुत धरो धीरः पूर्वज्ञः पूर्णपुण्यवान् ||३|| शान्तः परमवैराग्यमावितात्मा जिनेन्द्रियः । शुक्लध्यानं स वै ध्यातु पात्रं हि शुद्धबोधभाक् ||४|| ध्यानं शुचिगुणाच्छुल्कं कषायपङ्कसंज्ञयात् । शुद्ध तेजोमयं शुभ्र निष्प्रकम्पं च निष्क्रियम् ॥५३॥ अज्ञातीतं मनोतीतं संकल्पादिविवर्जितम् : स्वात्मयोगसमुद्गृद्धं स्वात्मनिष्ठं स्वभावजम् ||६|| मोहाविदोषनिर्मुक्तं
जो दयाधर्मका निरूपण करनेवाले हैं, समस्त जीवोंका हित करनेवाले हैं और दयालु हैं, ऐसे भगवान् वर्द्धमान स्वामीको मैं नमस्कार करता हूँ || १|| जिन्होंने शुलध्यानके बलसे समस्त कर्मों का नाश कर दिया है और जो परमात्म पदपर विराजमान हैं; ऐसे परमेश्वर सिद्ध परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूँ ||२ || जो पुरुष भावश्रुतको धारण करनेवाला है, धीर-वीर है, अंग और पूर्वोका जानकार है, पूर्ण पुण्यवान् है, शांत हैं, जिसके आत्मा परम वैराग्य की भावना जागृत है, जो जितेन्द्रिय है और शुद्ध ज्ञानको धारण करनेवाला है। ऐमा भव्य जीव धर्मध्यानके बलसे अपने आत्माको शुद्धकर शुक्लध्यानके ध्यान करनेका पात्र होता है ॥३-४॥ जो ध्यान अत्यन्त निर्मल गुणोंके कारण शुक्लध्यान कहलाता है, जो कषायरूप कीचड़ के नाश होनेसे अत्यन्त शुद्ध है, तेजोमय है, निर्मल है, निष्प्रकंप है. निष्क्रिय है, इंद्रियोंसे रहित है, मनसे रहित है, संकल्पविकल्पोंसे रहित है, जो केवल आत्मा के निमित्तसे अत्यन्त गूढ़ है, स्वात्मनिष्ठ है, स्वाभाविक है, मोहादिक दोषोंसे रहित है, कषायरूपी मलसे रहित है और शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है; ऐसे ध्यानको शुक्लध्यान
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सुकपायमलातिगम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं शुक्लध्यानं तदुच्यते ||७|| पृथम्बितर्कवीचारं शुक्लभ्यानं तदादिमम् । तदेकत्वं fear हि बीचारपरिवर्जितम् || || शुक्लध्यानं द्वितीयं तु योगिनां शुद्धचेतसाम् । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिष्यानं तृतीयभेदम् ||३|| कियाविरहितं ध्यानं शुल्कं तुयं भवेदिद्द। शुक्लध्यानस्य भेदा हि चत्वारः सन्ति चागमे ॥ १०॥ द्वादशाङ्गधरार्णा स्तः भ्भावश्रुतात्मनां खलु । श्रये शुक्ले च ते ध्याने कषायरहितात्मनाम् ॥ ११॥ अन्त्ये शुक्ले परं श्रेष्ठे केवलज्ञानचषाम् । सर्वथा वीतरागणां स्तो द्व े चात्र विकल्मवाम् ||१२|| श्रुतज्ञानस्य सम्बन्धाद् द्व े स्तः छच्नस्थ योगिनाम् । निःशेषालम्बनाभावाद द्वे स्तः केवलिनोऽत्र का ||१३|| त्रियोगेन च तत्रापि धायं शुक्लं मतं जिनैः । द्वितीयमेकयोगेन तृतीयं ननु योगिनाम् ||१४|| अयोगिनां तु तु स्यादुपचारेण वात्र च । इति क्रमेण शुक्लं द्दि ध्यानं स्थाच्च चतुर्विधम ||१५|| बितर्कस्य पृथक्त्वम्य वीचारसहितेन वा । तद्ध्यानमस्ति चौचारः सपृथक्त्वं वितर्ककम् ||१६|| वितर्कस्य च
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कहते हैं ||५-- उस क्लव्यानके बार मेद हैं--- पहला प्रभाव वितर्क वीचार नामका शुक्लध्यान है। शुद्धचित्तको धारण करनेवाले योगियोंके होनेवाला, वीचाररहित एकत्व वितर्क नामका दूसरा शुक्लाध्यान है । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती नामका तीसरा शुक्लध्यान है और क्रियारहित व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामका चौथा शुक्लध्यान है । इस प्रकार शुक्लध्यानके चार भेद हैं ।।८ - १० ।। जो मुनि मात्र श्रुतको धारण करनेवाले द्वादशांग पाठी हैं और कषायरहित हैं, उनके पहले और दूसरे दोनों शुक्लध्यान होते हैं ||११|| तथा अंतके दोनों ध्यान सर्वोत्कृष्ट हैं और पापरहित परम वीतराग केवल ज्ञानियोंके होते हैं ||१२|| पहले दूसरे दोनों शुक्लध्यान श्रुतज्ञानके आलंबनसे होते हैं, इसलिये ये दोनों ही ध्यान छद्मस्थ योगियों के ही होते हैं तथा अन्तके दोनों शुक्लध्यान समस्त आलंबनोंके अभावसे होते हैं, इसलिये वे केवल ज्ञानियों के ही होते हैं ॥ १३ ॥ पहला पृथक्त्वत्रितर्क नामका शुक्लध्यान तीनों योगोंसे होता है, दूसरा एकत्र-वितर्क नामका शुक्लध्यान किसी एक योगसे होता है, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामका तीसरा शुक्लध्यान काययोगसे होता है, और व्युपरत क्रिया निवृति नामका चौथा शुक्लध्यान अयोगियोंके होता है । इस प्रकार शुक्लध्यानके चार मेद अनुक्रमसे होते हैं। ।।१४-१५।। जिस ध्यानमें पृथक्त्व, वितर्क और वीचार तीनों हो उस ध्यानको सवीचार पृथक्त्व वितर्क कहते हैं । यह पहला अक्लध्यान है ||१६|| जिस ध्यानमें चितर्क हो, परंतु वीचार न हो उसको अवीचार एकत्व-वितर्क
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२०६ ॥
बीमारी नास्ति यन्त्र सुयोगिनाम् । एकत्वेन च तद्ध्यानमगोचारं वितर्क क्रम् ॥१७॥ यतोऽर्थानामने कत्वं तत्पृथक्त्वमिहोच्यते। अतज्ञानं वितः गावापन सत्र
कागानां ध्याने यत्परिवर्तनम् । संक्रमो वास्ति बीचारो झयो विविधरूपकः ॥१६॥ अर्थादर्थान्तरप्रात्रिः ये स्यायत्पुनः पुनः। संक्रमः म हि विज्ञेया ध्येयार्थपरिवर्तनम् ॥२०|| व्यंजनाद् व्यंजने क्रांतिय जनसंक्रमोऽस्ति सः । योगायोगान्तरप्राप्तियोगकातिरुच्यते ॥२॥ अर्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रमः स्वातनः पुनः । संक्रमः स हि विज्ञेयः शुक्लथ्यानेऽत्र योगिनाम् ।।२२।। प्रारम्भ हि वचोयोगः संक्रम्य हि तनुर्भवेत् । परिवर्तनमेवं म्याद् योगाद् योगान्तरोऽव वै ॥२शा प्रारम्भे च गृहोतोऽर्थः स ततोऽर्थान्तरो भन्। एवं स्यादर्थसंक्रानिरर्थस्य परिवर्तनम ||२५|| एकमर्थ ममादाय गृह्णात्यर्थान्तरं पुनः । एवं हि विविधार्थ श्र नेषु क्रमने
ध्यान कहते हैं, यह दृमग शुक्लध्यान है ॥१७॥ जहांपर ध्येयरूप पदार्थ अनेक होते हैं, उसको पृथक्व कहते हैं; तथा भावश्रुतज्ञान पूर्वक जो श्रुतज्ञान है, उमको वितर्क कहते हैं ॥१८॥ ध्यानमें जो अर्थव्यंजन योगोंका परिवर्तन होता है, संक्रमण होता है, उसको वीचार कहते हैं, वह वीवार अनेक रूपसे होता है ||१९|| ध्येय पदार्थ में जो शर-बार अथसे अर्थान्तरकी प्राप्ति होती है, उसको ध्येय अर्थको परिवर्तन करनेवाला अर्थसंक्रमण कहते हैं ॥२०॥ व्यञ्जन शब्दको कहते हैं, व्यञ्जनसे व्यञ्जनका जो संक्रमण हो जाता है, शब्दसे शब्दान्तर रूप हो जाता है, एक शब्दसे ध्यान करता हुआ उसी पदार्थके वाचक परे शब्दसे ध्यान करने लगता है, उसको व्यञ्जनसंक्रान्ति कहते हैं। इसी प्रकार जो योगसे योगांतर की प्राप्ति होती है, उसको योगसंक्राति कहते हैं ॥२१।। पहले पृथक्त्व वितर्क भ्यानमें योगियों के अर्थव्यञ्जन और योगों में बार-बार संक्रमण | होता रहता है । उसीको वीचार वा संक्रमण कहते हैं ॥२२॥ ध्यानमें जो पहले वचनयोग लगा हुआ था, वह बदल कर काययोग हो जाता है। इस प्रकार योगसे योगान्तर होना योगविचार कहलाता है ।२३।।
इसी प्रकार ध्यान करते समय जो पदार्थ ध्येयरूप बनाया था, वह बदलकर दुग्ग पदार्थ ध्येयका हो जाता all है। इस प्रकार ध्यानमें जो ध्येयरूप पदार्थका बदल जाना है; उसको अर्थसंक्राति कहते हैं ॥२४॥ युनत्रान sil के विषयभूत जो अनेक पदार्थ हैं. उनमें से एकको ग्रहण करता है और फिर उसको छोड़कर दूसग ग्रहण कर
लेता है, इस प्रकारका जो बदलना है; उसको अर्थवीचा' कहते हैं ॥२५।। शब्दसे शब्दान्तर, असे अथान्तर
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त्रसः ॥२१॥ शब्दाच्छवान्तरं याति यर्थावान्तरं पुनः । योगाद् योगान्तरं स हि संक्रामनि पुनः पुनः ॥२३|| शुक्लध्यानेन यस्य स्यानिर्मलात्मा विशुद्धिमाक । निष्क्रपायो महाशान्तः सुचारित्रमयात्मकः २७एकवध्यानमाधत्तं स धोरः क्षीणमोहकः । पूर्वझो यंगसम्पन्नस्तत्वज्ञाना प्रसन्नधीः ॥२८॥ एकेनैव सुयोगेन पृथक्त्वरहितेन बा । वितकंपदिन ध्यानं वीचारपरिवर्जितम् । तदेकत्ववितर्क स्याध्यानं चात्यन्तनिर्मलम् । योगिनां क्षीणमोहाना धीराणां निर्मलात्मनाम् ॥३० ।। द्रव्यं वा द्रव्यपर्याम्मेकयोगेन ध्यायति । स सूरूममेकनर्थ वा पायनि शुद्धभावतः ॥ ३१ ॥ तदेकस्ववितक स्याद् ध्यानकर्मविनाशकम् । स्त्रात्मनि स्वात्मनस्तत्र स्थितिः स्यादव जायजा ॥३२॥ स हि निष्कम्पमावेन स्वात्मानं ध्यायति स्कुटम् । तन्नयत्वं ममासाद्य रम स्वात्मनि ध्र वम् ॥३३॥ क्षमाद्विनी यते तेन यानि
और योगसे योगांतर संक्रमण करनेको वीचार कहते हैं ॥२६॥ इस प्रकारके पूधाव-वितर्कची वार नाम के पहले शुक्लध्यानसे जिसका आत्मा अत्यन्त निर्मल और विशुद्ध हो जाता है । कपायरहित, महाशांत और सम्यक् चारित्रमय हो जाता है । तथा जिसका मोहनीय कर्म सब नष्ट हो गया है, जो ग्यारह अंग चौदह पूर्वोका प्राता है, योगको धारण करनेवाला है, तोंका जाता है, और जिसका हृदय प्रसन्न है; ऐसा श्रेष्ठ मुनि एकत्व-वितर्क ध्यानको धारण करता है ॥२७-२८॥ जो ध्यान किसी एक ही योगसे होता है, जिसमें पृथक्त्वपना नहीं होता अर्थात जिसमें अर्थव्यञ्जन योगका परिवर्तन नहीं होता
और इसीलिये जो वीचाररहित कहलाता है और जो वितकं या थुतज्ञान महित हैं, एसे अत्यन्त निर्मल थ्यानको एकत्व-वितर्क ध्यान कहते हैं। यह ध्यान मोहनीय कर्मको सदा नष्ट करनेवाले धीर, वीऔर निर्मल आत्माको धारण करनेवाले योगियों को होता है ।।२९-३०!! इस ध्यानको करनेवाला योगी अपने निर्मल | परिणामोंसे किसी भी एक योगसे द्रव्य वा पर्यायरूप एक ही सक्षम पदार्थको चितवन करता है, उसी एकत्व-वितर्क ध्यान कहते हैं। यह ध्यान कमीको नाश करनेवाला है और अपने ही आत्मामें अपने ही आत्मा की निश्चल स्थिरतारूप है ॥३१-३२॥ वह ध्यान करनेवाला निष्कपरूप परिणामोंसे अपने आरमाका चितवन करता है, तथा आत्ममय होकर अपने ही आत्मामें निश्चलताके साथ लीन हो जाता है ।।३३॥ उसी समय
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कर्मकदम्बकम् । प्राप्नोत्यात्मातिनैर्मल्यं शुद्ध काश्चनसन्निभम् | घातिकर्ममलातीतो भवत्यात्मा सुनिलः । तदाचिन्त्यप्रभावो डि लगती भवति वा साग ।।३॥ एवं वायभायेगा इत्वा घातिचतुष्टयम् । स योगी लभते शीघ्र तदनन्तचतुष्टयम् ॥३६।। स हि चाहत्पदं लब्ध्वा योगी केवलबोधभूत् । जायते त्रिजगत्पूज्यो लोकालोकप्रकाशकः ||३० जीवन्मुक्तः परात्मासौ परमात्मा महेश्वरः । सर्वदोषविनिर्मुक्तः शुद्धः स्फटिकसन्निभः ॥३८॥ निन्द्रः परमज्योतिज्योतीरूपो निरञ्जनः । चिदात्मा च चिदानन्दे वीतरागः शिवेश्वरः ॥३६॥ अनन्तसुखसम्पन्नः शान्तो दान्तो छतीन्द्रियः । देवदेवः स वेवाधिदेवरुण्यलोक्यवन्दितः ॥४०|| सोऽईन स भगवान् देवः सर्वज्ञ ईश्वरी विभुः । ब्रह्मा विष्णगुर्महादेवः शङ्करः सुगतः प्रभुः ॥४१॥ नारायणो महाबुद्धो दिव्यतेजाः प्रभास्वरः । महाविभूतिसम्पन्नछत्रप्रयविराजितः ॥४॥
-- ... . - - - - - - - - वह योगी अपने समस्त घातिया कोंको नष्ट कर देता है और शुद्ध सुवर्णके ममान अपने आस्माको अत्यंत निर्मल बना लेता है ॥३४॥ घातिया कर्मरूपी मलसे रहित हुआ वह आत्मा अन्यन्त निर्मल हो जाता है | और उस समय उस आत्माका अचिंत्य प्रभाव प्रकट हो जाता है ।।३५॥ इस प्रकार एकत्व-वितर्क ध्यानके | | प्रभावसे वह योगी चारों घातिया कोंको नाश कर डालता है और अनंत चतुष्टयरूप महाविभूतिको शीघ्र | ही प्राप्त हो जाता है ॥३६।। उस समय अईन्त पदको पाकर वह योगी केवलज्ञानी हो जाता है तथा लोक- | अलोक प्रकाशित करनेवाला और तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य हो जाता है ॥३७॥ उस समय वह योगी | | परमात्मा कहलाता है, उसकी आत्मा सर्वोत्कृष्ट होती है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है, उसीको महेश्वर | कहते हैं, वह भूख-प्यास आदि समस्त दोषोंसे रहित होता है और स्फटिकके समान अत्यंत शुद्ध होता है ॥३८॥ उस समय उन परमात्माको निर्द्वन्द, परम ज्योतिःस्वरूप, ज्योतिर्मय, निरञ्जन, चिदात्मा, चिदानन्द, वीतराग और शिवेश्वर कहते हैं ॥३९।। वे अनन्त सुखी होते हैं, शांत, दांत, अतीन्द्रिय, देवदेव, देवाधिदेव
और तीनों लोकोंके द्वारा बंदनीय कहे जाते हैं ॥४०॥ वे अहन्त भगवान, देव, सर्वज्ञ ईश्वर, विभू, ब्रह्मा, | विष्णु, महादेव, शङ्कर, सुगत, प्रभु, नारायण और महाबुद्ध कहलाते हैं। उनका तेज दिव्य होता है, उनके | शरीरकी कांति देदीप्यमान होती है, वे महाविभूतिसे सुशोमित होते हैं, तीन छत्रसहित विराजमान होते हैं,
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सुरासुरैः सदा पूज्यो योगीन्द्रश्च सुवन्दितः । तेन ध्यानेन योगी स जायते त्रिजगत्प्रभुः ।।।शा सूचनक्रियाप्रतिपाति ध्यान ध्यायति केषली । उपचारेण वा सूक्ष्ममचलं स्थात्मसंस्थितम् ॥४ा सर्वकर्मविनाशार्थ स्वात्मरूपोपलव्धये । मायुषोऽन्ते च स्थानान्ते भवान्ते तनुनाशकम् ॥४॥ निष्प्रकल्पं क्रियाहीनमयोगी ध्यायति ध्रुवम् । व्युपरतिक्रियाध्यानं तुर्य मोक्ष। प्रदं महत् ॥४६॥ स्वल्पसमयमात्रेण हत्या कर्मकदम्बकम् । तेन ध्यानेन योगीस शिवं प्राप्नोति निर्भयम् ॥णा रुस्नकर्मविहीनः स सिद्धः शुद्धो निरञ्जनः । जन्मातीतोऽप्यजो नित्यः पुनर्जन्मदिवजितः ॥४॥ अनादिनिधनः स्वात्मरूपी विकारवर्जितः। मनोजलरूपी सा पाहापाकोन : र ध्यानप्रभावेण जोवः संसारचक्रकम् । निःशेषकर्मचक्रं वा हत्वा याति शिवं पदम् ॥४०॥ ध्यानस्य महिमा चात्राचिस्या लोकोत्तरा मता। तां वक्तं मादशी बालः
सुर असुर सब उनकी पूजा करते हैं और योगीश्वर सदा उनकी वंदना किया करते हैं। इस प्रकार उस एकत्व वितर्क ध्यानसे वे योगी तीनों लोकोंके स्वामी हो जाते हैं ॥४१-४३॥ तदनंतर वे केवली भगवान अपने |
समस्त कर्मोंको नाश करनेके लिये और अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्तिके लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामके तीसरे । Ki शुक्ल ध्यानको धारण, करते हैं। वह ध्यान अत्यन्त सूक्ष्म है, निथल है और केवल अपने आत्मामें निश्चलरूप है। इसके बाद जब आयुका अन्त होता है, चौदहवें गुण स्थानका अन्त होता है।
और संसारका अन्त होता है; उस समय वे अयोगी भगवान् निष्प्रकप और क्रियारहित व्युपरस क्रिया- 15 निवृत्तिरूप मोक्ष देनेवाले सर्वोत्कृष्ट चौधे शुक्ल ध्यानको धारण करते हैं । वे महायोगी केवली भगवान् उस चौथे शुक्लध्यानके द्वारा थोड़े ही समयमें समस्त कर्माको नष्ट कर देते हैं और समस्त भोंसे रहित मोक्षको | प्राप्त हो जाते हैं ॥४४-४७॥ तदनन्तर वे परमात्मा समस्त कर्मोंसे रहित, सिद्ध, शुद्ध, निरञ्जन, जन्मरहित, अज, नित्य, पुनर्जन्मसे रहित, अनादि, अनिधन, स्वात्मरूप, विकारसे रहित, स्वतंत्र, अत्रल और समस्त जीवोंको आजाद करनेवाले हो जाते हैं ॥४८-४९। इस प्रकार ध्यानके प्रभावसे यह जीव संसारचक्रको और समस्त कर्मोंके समूहको नाशकर मोक्ष-पदको प्राप्त होता है ॥५०॥ इस संसारमें ध्यानकी महिमा सु०प्र०२७
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मु.प्र. ॥२१ ॥
PE समर्थः स्यात्कधं ननु ।।५।। बृहस्पतिगणशा न सम्यग्यक्तु कदापि ते। समर्था ध्यानमाहात्म्यं को वक्ति स्वल्पचेष्टया ॥५२।। ||
येन ध्यानेन चात्मा हि परमात्मा प्रजायते । का कथा यान्यसिद्धीन सतरा सा भवन्ति वा ॥५३॥ ध्यानेन सर्वसम्पत्तिलक्ष्मीनिन जायते । ऋद्धिः सिद्धिः समृद्धिर्वा महद्धिः सुतरी मधेत ५४|| इन्द्रनागेन्द्र वानां चक्रितीर्थकरात्मनाम् । संजायते पदं शीघ्र परमेश्वर्यकाराम ॥५५नश्यन्ते विपदः सर्वाः पलायन्ते हि सङ्कटाः । दुःखं दारिद्रयदुर्भाग्य नश्यन्ते तरक्षणास्वयम ॥५६|| अमाध्यः साध्यता यालि दुरादपि च योगिनाम् । ध्यानस्याचिन्त्यमहिमा सदा वाचामगोचरा ॥७॥ म्यात्महितप्रपिस्सूनां मुमुक्षण सुनिश्चितम् । ध्यानमक परं साध्य कर्म कलङ्कमुक्तये ॥५८|| चिन्तां त्यज भर्य मञ्च खेदं मा गा मनागप। ध्यानेनात्मन् च संसारं कर्मचक्रं हरिष्यसि ॥५६।। प्रास्नस्त्वमेव साक्षात्स परमात्मा निरञ्जनः । आचंत्य ई, लोकोत्तर है, फिर भला उसको कहने के लिये मेरे समान बालक कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥५१|| | इस ध्यानकी महिनाको वृहस्पति भी नहीं कह सकते और गणधरदेव भी अच्छी तरह नहीं कह सकते हैं, फिर | भला बहुत थोड़ी चेष्टासे कौन कह सकता है ॥५२।। जिस ध्यानके प्रभावसे यह आत्मा परमात्मा हो जाता है ! | वहांपर अन्य सिद्धियोंकी तो बात ही क्या है ? अन्य समस्त सिद्धियां अपने आप सिद्ध हो जाती है ॥५३॥ इम || ध्यानसे ही समस्त संपनियां प्राप्त होती हैं, ध्यानसे ही लक्ष्मी प्राप्त होती है, तथा ऋद्धि, सिद्धि, समृद्धि और ||8| महाऋद्धियां इसी ध्यानसे अपने आप आ जाती हैं ||५४|| इसी ध्यानके प्रभावसे इन्द्र, नागेन्द्र, देव, चक्रवर्ती
और तीर्थकरोंके परम ऐश्वर्य उत्पन्न करनेवाले उत्तम पद शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं ॥५५॥ इस ध्यान प्रभावसे मय विपत्तियां नष्ट हो जाती है, सब संकट भाग जाते हैं और दुःख, दारिद्रय, दुभंगता आदि उसी समय अपने आप नष्ट हो जाते हैं ॥५६॥ ईम ध्यानके प्रभावसे योगियों के असाध्य काय मी दसे ही सिद्ध हो जाते हैं । इस ध्यानकी महिमा अचिंत्य है और वाणीके अगोचर है ॥५७॥ जो योगी अपने प्रात्माका हित चाहते हैं और मोक्षकी इच्छा करते हैं, उनके कर्मरूपी कलंकोंको नाश करनेके लिये यह सुनिश्चितरूप
एक ध्यान ही परम साध्य है ।।५८॥ हे आत्मन् ! तू चिंता छोड़, भय छोड़ और थोड़ासा भी खेद मत All कर । तू इस ध्यानसे इस जन्म-मरणरूप संसारको और कमौके समूहको अवश्य नष्ट करेगा ॥५९।। हे आत्मन् !
इस ध्यानसे तू ही साक्षात् निरञ्जन परमात्मा हो जायगा। क्योंकि ध्यानके द्वारा यह आत्मा ही
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सु० प्र०
॥ १११ ॥
आत्मैव परमात्मास्ति सन्देहं चात्र मा भज ॥ ६०॥ यावत्स्वात्मस्वरूपं हि चिन्तितं न त्वयाथवा । वावस्वमसि संसारी दुःखी कर्ममयोऽशुचिः ||६|| यदा त्वं चिन्तयस्यात्मन् शुद्ध स्वात्मनि संस्थितम् । स्वात्मानं परमात्मानं पश्यसि त्वं निरञ्जनम ॥६॥ परमात्मात्मनोदो कचिन्नास्ति कदापि वा । श्रात्मैव परमात्मारित चैको नान्योऽद्वितीयकः ॥ ६३॥ तस्माद्भावय चेत्थं त्वमात्मन् सुशिवसिद्धये । श्रात्मैव मे पारात्मा हि कर्मवातिनिर्मलः ॥ ६४ ॥ आत्मैव मे च सिद्धात्मा परमात्मा महेश्वरः । तस्मात्सोऽहं भजाम्यत्र स्वात्मानं स्वपदातये ||६|| आत्मैव मे परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकः । परं सुखस्य बीजं मे श्रात्मैवास्ति न संशयः ||६६ || आत्मैव मे जगदुद्रष्टा स्रष्टा ब्रह्मा गुणाकरः । शङ्करश्च स्वयं बुद्धः परमेष्ठी सनातनः ||६७ || आत्मैव मे परं मोक्षः कर्म संहारकारकः । श्रात्मैव मे सुहग्बोधचारित्रितयात्मकः ॥६८॥ श्रात्मैव मे परमात्मा हो जाता है, इसमें तू किसी प्रकारका संदेह मत कर ||६० ॥ अथवा यों समझना चाहिये कि जबतक तूने अपने आत्माका चितवन नहीं किया है तबतक तू संसारी है, दुःखी है, कर्ममय है और अपवित्र है || ६१ ॥ हे आत्मन् ! जब तू अपने आत्मामें स्थित अपने शुद्ध आत्माका चितवन करेगा, तब तु अपने आत्माको कर्ममलसे रहित परमात्मरूप देखेगा ||६२|| आत्मा और परमात्मामें कोई किसीप्रकारका भेद नहीं है। यह एक आत्मा ही परमात्मा है । परमात्मा इस आत्मासे मिश्र वा अन्य नहीं है || ६३ || इस लिये हे आत्मन् ! तु मोक्ष प्राप्त करनेके लिये इसप्रकार चितवन कर कि वह मेरा आत्मा ही कमको नाश करनेवाला अत्यन्त निर्मल परमात्मा है ||६४ || मेरा आत्मा ही सिद्धात्मा है, वही परमात्मा है, वही महेश्वर हैं, इसलिये परमात्मस्वरूप मैं अपने आत्मपदकी प्राप्तिके लिये अपने ही आत्माका चितवन करूँगा ||६५ || मेरा आत्मा ही परम ज्योतिःस्वरूप है, लोक- अलोकको प्रकाशित करनेवाला है, तथा मेरा यह आत्मा ही परम सुखका बीज है। इसमें किसीमकारका संदेह नहीं है ॥६६॥ यह मेरा आत्मा ही जगत् को देखनेवाला है, यही जगत्को उत्पन्न करनेवाला है, यही ब्रह्मा है, यही गुणाकर हैं, यही आत्मा शंकर है, स्वयं बुद्ध है, यही परमेष्ठी है और यही सनातन है ॥६७॥ | यह मेरा आत्मा ही कर्मोंका नाश करनेवाला परम मोक्ष है और यह मेरा आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अर्थात् रत्नत्रयरूप है || ६८ || यही मेरा आत्मा क्रोधादिक भावोंसे रहित क्षमाका
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॥१२॥
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क्षमागारः क्रोधादिभाववर्जितः। श्रात्मैव शाश्वतं द्रव्यमन्यत्सर्व विनश्वरम् ॥६॥ प्रात्मैव मेऽचलो नित्यो सादिमध्यान्तवर्जितः । स नित्यस्थितिको स्वामी स्वयम्भूरविनश्वरः ॥७०त्मैव मे परं वन्धुखाता पाता पितामहः । त्रिजगजयिनः कामात्संसारापापकर्मत: शा आत्मैव मे परं पूज्योऽगतो विगतकल्मषः। भास्मैव मे परं देवी जगन्धः सुतारकः ।७२|| आत्मैव मे परं ब्रह्म चतुर्वेदी चतुर्मुखः । श्रात्मैव मे महादेवः शिवाभूः शिवनंदनः ।।७शा भास्मनो शानमाध्यानमात्मनः स्मरणं परम । पात्मनो मे परेज्या स्याहे जिनेश भवे भवे ॥बहवोऽपि मास्मैव सुगतो हता दुर्गतिः। प्रात्मा देवाधिदेवो हि सर्वदेवनमस्कृतः ||७ जिनश्चात्मा जिनश्चारमा सामेव स जिनो जिनः । भात्मैव मे शरण्यं हि जिनरूपो भवाम्बुधौ ||६|| तीर्थश्यात्मास्ति यात्मक तीर्थनाथो जगद्विभुः । आत्मैव मे परं देवो स एव देवघर है और यही मेरा आत्मा नित्य द्रव्य है। इसके सिवाय अन्य मय पदार्थ नाशवान् हैं ॥६९।। यह मेरा आत्मा ही अचल है, नित्य है, आदि-मध्य-अन्तरहित है, यही मेरा आत्मा नित्य स्थितिको धारण | | करता है, यही आत्मा स्वामी है, स्वयंभू है, अविना है। यह गेर बारमाही परम बन्धु है, यही
आत्मा पितामह है, तथा यही आत्मा तीनों जगत्को जीतनेवाले कामसे, संसारसे और पापकर्मोंसे रक्षा करनेवाला वा बचानेवाला है ॥७१॥ यह मेरा आत्मा ही परम पूज्य है, गतिरहित है, पापरहित है, तथा यही मेरा आत्मा परम देव है, जगद्वन्ध है और संसारसे पार कर देनेवाला है ॥७२।। यह मेरा आत्मा ही परमब्रम है, आत्मा ही चारों अनुयोगोंको जाननेवाला चतुर्वेदी है और यही आत्मा चतुर्मुख है, यही मेरा आत्मा महादेव है, शिवाभू (कल्याणमय) है और यही मेरी आत्मा शिवनन्दन है ।,७३|| हे जिनेन्द्रदेव! | मव मवमें मुझे आत्माका ही ज्ञान प्राप्त हो, आत्माका ही न्यान हो, आत्माका ही उत्कृष्ट स्मरण हो और मेरे | आत्माकी ही पूजा हो ॥७४। यही मेरा आत्मा अरहतदेव है. यही मेरा आत्मा सुगत वा बुद्ध है, यही आरमा समस्त दुर्गतियोंको नाश करनेवाला है, यही मेरा आत्मा देवाधिदेव है और यही मेरा आत्मा मर देवोंके द्वारा नमस्कार किया जाता है ।।७५॥ ये जिनेन्द्र ही मेरा आत्मा है, जिनेन्द्र ही मेरा आत्मा है, मेरा आत्मा ही | जिनेन्द्र हैं, जिनेन्द्र हैं। तथा यही मेरा आत्मा संसाररूपी समुद्र में शरणरूप है और भगवान् जिनस्वरूप है ॥७६।। यह मेरा आत्मा ही तीर्थ है, यही मेरा आत्मा तीर्थनाथ है, जगद्विभु है, यही मेरा आत्मा
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मा.
मन्दिरम् ।।७) रत्नत्रयमयश्वात्मा रत्नत्रयमयो जिनः । मोक्षमार्गो दि स्वात्मैव मोक्ष प्रात्मैव निश्चतम् ॥७८|| आत्मैव 'सु०प्र०
| मे सश ध्येयो हारमा ध्याता महाप्रभुः। श्रात्मैव हीश्वरः शुद्धो बुद्धो मीमांसको विभुः III तस्मात्सर्वप्रयत्नेन ध्या.
तव्यः स मुमुतुरणा। सर्वविकल्पसंकल्प त्यक्त्वाऽऽत्मैव सदा च मे ||२०|| यो ध्यायति निजात्मानं शुद्धबुद्धषा हि चात्मना । ॥२१३॥ Dस शीध्र परमात्मानं प्राप्नोत्येव सुनिश्चितम् ।।१॥ येन ध्यानसुधासिन्धुः पीतो भक्तिभरण वा । स बात्मा परमात्मा
स्याद नाश्चर्यसंशयो ।।। इति सहजविशुद्धो जायते ध्यानतोऽसौ विहितपरभावो निष्कजङ्कः परात्मा। विगतभवविभाषो यो हि बास्मैव सिद्धः स्वपरिणतिनिनग्नः स्वात्मरूप: सुधर्मः ॥८॥
इमि सुधर्मध्यानप्रदीपालहरे शुद्धध्यानवर्णनो नाम पञ्चविंशतितमोऽधिकारः । | परम देव है और यही मेरा आत्मा देवालय है ॥७७|| यही मेरा आत्मा रत्नत्रयस्वरूप है, तथा भगवान जिनेन्द्रदेव मी रखत्रयमय हैं। यही मेरा आत्मा मोक्षका मार्ग है और यही मेरा आत्मा निधयरूपसे | मोक्षस्वरूप है ॥७८॥ यही मेरा आत्मा सदा ध्यान करने योग्य है, यही भाना सान करनेवाला है, यही आत्मा महाप्रभु है और यही आत्मा ईश्वर है, शुद्ध है, बुद्ध है, मीमांसक है और विभु है ॥७९॥ इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको अपने 'समस्त संकल्प-विकल्पोंको त्यागकर तथा समस्त प्रयत्न करके इसी अपने आत्माका ध्यान करना चाहिये ।।८० जो आत्मा अपने आत्माके द्वारा शुद्ध बुद्धिसे | अपने आत्माका चितवन करता है, वह शीघ्र ही परमात्मपदको प्राप्त हो जाता है। यह निश्चित सिद्धांत है | ॥८१॥ जिस मन्य जीवने मक्तिपूर्वक इम ध्यानरूपी अमृतके समुद्रका पान किया है, वह आत्मा अवश्य परमात्मा बन जाता है, इसमें न कोई आश्चर्य है और न कोई संदेह है ॥८२। इस ध्यानके प्रभावसे यह । आत्मा ही स्वभावसे विशुद्ध हो जाता है, परभावोंसे रहित हो जाता है, निष्कलंक हो जाता है, सर्वोत्कृष्ट हो र जाता है, संसारके विमावोंसे रहित हो जाता है, अपने ही आत्माकी परिणतिमें लीन हो जाता है, शुद्ध स्वात्मस्वरूप हो जाता है और श्रेष्ठ धर्मम्वरूप हो जाता है । ८३॥
इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानपदीपालकारमें शुक्लध्यानको
निरूपण करनेवाला यह पच्चीस अधिकार समाप्त हुआ।
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।। २१४ ।।
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अन्तिम मंगलं प्रशस्तिश्च
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श्रीशासनं वीरजिनस्य जीयात् लोकत्रये मङ्गलकारि नित्यम् । सत्यं पवित्रं नरदेवपूज्यं प्रमाणभूतं भुवि सर्वमान्यम् ॥१॥ जिनेन्द्रधर्मो वरसौख्यदाता दयामयः सत्यपरः प्रकृष्टः । प्रमाणभूतश्च विरोधदोनो जोयाश्चिरं मङ्गलदाय कोऽसौ ॥२॥ यन्तु ते तूपाः । लोकोत्तमा मङ्गलदाः शरण्यास्त्रैलोक्यनन्याः शिवदा सुधर्माः ||३|| श्री प्रातिहार्यातिशयैः प्रपन्नो नरेन्द्रनागेन्द्र सुरेन्द्रवन्द्यः योगीश्वरैः पूजितपादपद्मः सोऽईश्व देवः शिवदर सुजोयात् ||४|| शुद्ध स्वरूपो निजभावलीनो विनटकर्माकलङ्कपङ्कः । भवाद्वयतीतो जननादिदोनः सिद्धः प्रबुद्धः सुब
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भगवान् महावीर स्वामीका शासन तीनों लोकों में सदा मङ्गल करनेवाला है, सत्य है, पवित्र हैं, मनुष्य और देवोंके द्वारा पूज्य है, प्रमाणभूत है और संसार भरमें सर्वमान्य है ॥१॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवका धर्म दयामय है, उत्तम सुखको देनेवाला है, सत्यार्थ है, उत्कृष्ट है, प्रमाणभूत है, विरोधरहित है और महा मङ्गल करनेवाला है, ऐसा यह जैनधर्म सदा जयशील रहे || २ || इस लोकमें अरहंतादिक पांचों परमेष्ठी शुद्ध आत्माको धारण करनेवाले हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुपम हैं, लोकोत्तम हैं, मङ्गलदायक हैं, शरणभूत हैं, तीनों लोकोंके द्वारा चन्दनीय हैं, मोक्ष देनेवाले हैं और श्रेष्ठ धर्मस्वरूप हैं; ऐसे पांचों परमेष्ठी सदा जयशील हों || ३ || भगवान् अरहंत देव आठों प्रातिहार्योंसे सुशोभित हैं, नरेन्द्र, नागेन्द्र और देवेन्द्रोंके द्वारा वंदनीय हैं, योगीश्वरलोग जिनके चरण कमलों की सहा पूजा करते रहते हैं और जो मोक्ष देनेवाले हैं, ऐसे भगवान् अरहंत देव सदा जयशील हों ||४|| जो सिद्ध भगवान् शुद्ध स्वरूप हैं, अपने भावमें सदा लीन हैं, जिन्होंने आठों कर्मरूपी कलङ्ककी कीचड़ सर्वथा नष्ट कर दी हैं, जो संसारसे रहित हैं, जन्म-मरणसे रहित हैं, मुख
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म. प्र. ॥१५॥
स जोयात् ॥शा हितोपदेशी चरशान्तिदाता भवाब्धितस्तारणतीर्थरूपः । आचारचारित्रघरेण पूज्य, प्राचायचयः सततं स जीयात् ॥६॥ मिथ्यास्त्रमोहाद्वरबुद्धिहीनान कुमार्गगान्नुद्ध तवादित्रीरान् । सम्बका बोधेन युनक्ति सत्ये मार्गे स नान पाठक आशु जीयात् ।।७। मूलोत्तरान दिव्यगुणान् प्रधत्ते संसारभोगादिकतो विरक्तः । स्वात्मस्वरूपे दृढतां दधानः साधुदयालुगणवान स जीयात ।।८।। सूरीश्वरः शान्तिकरः प्रकृष्ट गुण गरिष्ठो मुनिमद्वारेष्ठः । श्रीशान्तिसिन्धुर्वरराज्यमान्या जीयाश्चिरं सोऽपि 'सुधर्म'पाता | सिद्धात्मनो विशुद्धांस्तान जिनाज्ञान जितमासगन् । कर्मकलकनिर्मक्तान केवलज्ञानभास्करान् ॥१०॥ परमेष्ठिपद प्राप्तान देवदेवःसुपूजितान् । श्रीनारङ्गाभिधाद्दुर्गात शिवं प्राप्तान जगन्नुतान् ॥११॥वर दत्तादि. सिद्ध शान् सार्द्ध कोटिवयान मुनीन । भत्त्या पुनः पुननीति नुनिः 'सुधर्मसागरः ॥१२॥ मङ्गलं कामदं ते नोदव्युः परम
देनेवाले हैं और ज्ञानमय है; ऐसे सिद्ध परमेष्टी सदा जयशील हो ॥५॥ जो आचार्य हितोपदेशी है, श्रेष्ठ शांतिको देनेवाले हैं, संसारको पार करनेके लिये जो तीर्थरूप हैं, जो आचार और चारित्र धारण करनेवालोंके द्वारा पूज्य हैं; ऐसे आचार्य सदा जयशील हो ॥६॥ जो जीव मिध्यात्म और मोहनीय कर्म के उदयसे श्रेष्ठ बुद्धिसे रहित हो रहे हैं , जो कुमार्गगामी हो रहे हैं और उद्त हो रहे हैं। ऐसे ||
बड़े-बड़े वादियोंको भी जो अपने सम्यग्ज्ञानसे सत्यमय यथार्थ मार्गमें लगाते है; ऐसे उपाध्याय पामेटी शीघ्र ! || ही जयशील हो ॥७॥ जो साध दिव्य मल गुणोंको तथा उत्तर गुणों को धारण करते हैं, जो संमार और
भोगादिकसे विरक्त हैं, जो अपने आत्मस्वरूपमें अत्यंत दृढ़ता धारण करते हैं; ऐसे दयालु और गुणवान माधु, | परमेष्ठी सदा जयशील हो ॥८॥जो आचार्य 'शान्तिसागर' शान्ति करनेवाले हैं, श्रेष्ठ है, गुणोमें श्रेष्ठ हैं, मुनियोंमें | | श्रेष्ठ हैं, जो राज्यमान्य हैं और मुझ 'सुधर्मसागर'की अथवा श्रेष्ठधर्म की रक्षा करनेवाले हैं, ऐसे अनार्य 'शांति
सागर' चिरकाल तक सदा जयशील रहें ॥९॥ जो वरदत्तादि मुनि सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो गये है, अन्यंत विशुद्ध हैं, जितेन्द्रिय हैं, मत्सर आदि दोपोंसे रहित है, कर्म-कलंकोंसे रहित है, केवल ज्ञानरूपी मूर्यसे । | सुशोभित हैं, परमेष्ठी पढको प्राप्त हो चुके हैं, देवोंके भी देव जिनकी पूजा करते हैं, जो तारंगा नामके सिद्ध
क्षेत्रसे मोक्षको प्राप्त हुए हैं और समस्त संसार जिनको नमस्कार करना है, ऐसे घरदत्त आदि साढ़े तीन करोड़ | लुनिराजोंको ये 'सुधर्मसागर' मुनि भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार करते हैं ।।१०-१२।। परम पवित्र
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OR
सु०प्र०
...१.२१६ ॥
पावनाः । परवृत्तादिसिद्धशाः श्रीकल्याणाय सन्तु ते ॥१३॥ सिद्धक्षेत्रे परं पूज्ये श्रीवारमाभिधे शुमे। 'भोशान्तिसिंधु'ना तेन सन सह सूरिया ॥१४।। यात्राकारि महाभक्त्या श्रीमहोत्सवपूर्वकम् । प्रमावनाऽभवत्र जिनधर्मस्य शर्मदा ॥११॥ श्रीतारजाख्यदुर्गेऽस्मिन् श्रीतारङ्गाभिधे परे। भीमवृषभदेवस्य चैत्यागारे मनोहरे ॥१६॥ युगद्रव्याधियुग्मेऽस्मिन् वीर. निर्वाणवत्सरे। युग्माङ्कमहीमाने विक्रमा शुभोदये ॥१७॥ मार्गशीर्षेऽसिते पक्षे त्रयोदश्यां विथौ शनौ। 'सुधर्मध्यान-13 दीपास्यो प्रन्थः पूर्णमगादिह ।।१८।। 'सुधर्मध्यानदीपो'ऽयं धर्मध्यानस्य साधकः । गुरुप्रसादतोऽकारि 'सुधर्मसागरेण सः ॥१॥ ज्ञक्षयोपशमाभावात् शक्तिहीनोऽपि भावतः । दिगम्बरपथालम्बी मुनिः 'सुधर्मसागर ॥२०॥ व्यरचहुमशुद्धया हि
यानगोग्गनर्मितः । केवल न रपास पाधं ध्यानदीपकम् ॥२॥ ध्यानचार्ता न जानामि शब्दशास्त्रं न शासनम् । । केवलं स्वहितार्थाय शब्दाः संयोजिता मया ॥२२प्रमादादल्पज्ञानत्वाद् विरुद्ध यक्षिनागमात् । ग्रन्थेऽस्मिन् या संजातं
वरदत्तादिक सिद्ध परमेष्ठी हमलोगोंको मङ्गल देवें, हमारी इच्छाएं पूर्ण करें और हमारा सदा कल्याण करते रहें ॥१३॥ इसी परम पूज्य और शुम ऐसे वारंगा सिद्ध क्षेत्रपर आचार्य 'श्रीशांति सागर ने अपने संघके सहित बड़ी भक्तिपूर्वक और बड़े उत्सबके साथ यात्रा की थी। उस समय समस्त जीवोंको कल्याण करने वाली जिनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना हुई थी ॥१४-१५॥ श्रीतारंगा नामके दुर्गमें श्रीतारंगा सिद्धक्षेत्रपर | भगनान् वृषभदेवके मनोहर चैत्यालयोंमें वीर निर्माण संवत् २४६२ तथा विक्रम संवत् १९९२ १
शुभ मार्गशीर्ष महीनेके कृष्णपक्षकी त्रयोदशी तिथिको शनिवारके दिन यह 'सुधर्मध्यानप्रदीप नामका ग्रन्य पूर्ण हुआ |॥१६-१८।। यह 'सुधर्मध्यानप्रदीप' नामका ग्रंथ धर्म-ध्यानका साधक है और गुरुके प्रसादसे मुनि 'सुधर्मसागर ने बनाया है ॥१९॥ यद्यपि मैं दिगम्बर मतका अनुयायी 'सुधर्मसागर' मुनि हूँ, तो मी ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके अभाव होनेसे में शक्तिहीन हूँ, तथापि मैंने अपने भावोंसे, शुद्ध बुद्धिसे, मान और गौरव
को छोड़कर केवल आत्म-कल्याण करनेके लिये यह 'सुधर्मध्यानप्रदीप' नामका प्रन्थ बनाया है ।।२०-२१॥ | मैं गवपि ध्यानकी बात भी नहीं जानता, न शब्दशाखको जानता हूँ, तो भी केवल अपने आत्माका कल्याण | करनेके लिये मैंने इधर-उधरसे लेकर शब्द जोड़ दिये हैं ॥२२॥ मेरे प्रमाद अथवा अल्पज्ञानसे इसमें
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________________ सु०प्र० शोधयन्तु मुनीश्वराः // 2 // प्रसिर मूलसाऽस्मिन् जिनसेनान्वये परे / भीमद्देवेन्द्रकीर्तिश्च यासीन्मनिवरो महान 24|| तस्यैव पट्टशिष्योऽभूत् 'शान्तिसिन्धुर्यतीश्वरः / राजमान्यः सदा पूल्यः सूरिगणसुशोभितः // 24aa तत्पद्दशियो मुषने | प्रसिद्धः सिद्धान्तषेचा वरपाठकोऽत्र / 'सुधर्मसिन्धु'वरधर्मसिन्धुः यसीश्वरोऽसौ जिनलिङ्गधारी // 26 // * इति सुधर्मध्यानप्रवीपालङ्कारस्य अन्तिम मजलं प्रशस्तिश्च समाप्तिमगावाम. कमक // 217 // जो कुछ जिनागमके विरुद्ध लिखा गया हो, उसको सुनिलोग शुद्ध कर लेवें // 23 // इस प्रसिद्ध मूल संघमें | | आचार्य जिनसेनकी परंपरामें महान् मुनिराज श्रीदेवेन्द्रकीर्ति हुए हैं // 24 // उन्होंने पह शिम्य मुनिराज * आचार्य 'श्रीशांतिसागर' हैं, जो कि राज्यमान्य हैं, सदा पूज्य हैं, और अनेक गुणोंसे सुशोमित हैं // 25 // FI उन्हींका पट्ट शिष्य में 'सुधर्मसागर' हूँ. जो कि संसार में प्रसिद्ध है, सिद्धांतका जानकार है, उपाध्यायका काम करता है, श्रेष्ठ धर्मका समुद्र हूँ और जिनलिङ्गको धारण करनेवाला मुनिराज हैं // 26 // इसप्रकार मुनिरोज श्रीसुधर्मसागरविरचित मुधर्मध्यानप्रदीपालाकारका अन्तिम माल और प्रशस्ति समाप्त हुई। 因为光在为名为法名为私为为客 मुद्रक - इमरान ऑफसेट प्रिन्टर्स, इन्दौर