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झु० प्र० ४ ॥
सा जिनाशा मया लुप्ता निन्दिता: परमेष्ठिनः ||१७|| विषयासक्तचित्तेन विषयभोगसिद्धये । विपरीतं कृतं दाहा जैनागमं कुपापिना || १८ || संसारभ्रमणश्रान्तिं मोहादद्यापि वो न भुजाम्यहं हि तेनैव भयक्लेशशतानि च ॥ १६ ॥ अस्मिन पारसंसारे मोहनिद्रस्य चेतने । स्वपन्ति सर्वजीचा हि न जानन्ति हिताहितम् ||२०|| हा हा मोहादहं सुप्री मूर्च्छितो यास्तचेतनः । तेनाद्यापि न जानामि जिनमार्ग सुखप्रदम् ॥२१॥ अपास्यविषयासक्ति मलिनां पापवासनाम् | जिनागमविरुद्ध वा रे श्रात्मन् त्यज सन्मते ||२२|| जिनमार्गरतो योगो व्यक्तमोहो दयानिधिः । पंचागाज्जगति ध्यानाध्यायनतत्परः ||२३|| जागरामि कदा हा हा मोहं त्यक्त्वा शिवप्रदे। जिनमार्गे सुचरित्रं गृहीत्वा यामि भोक्षकम् ||२४|| मिथ्याज्ञानेन न ज्ञातो जिनधर्मः सुखप्रदः । तेनैव कारणनैव संसारे बम्प्रसीमि च ||२५|| ! कदा केन प्रकारेण जिनधर्म दधाम्यहम् | जिनधर्मप्रभावेन भवान्मुखाम्यहं म्बकम् ||२६|| पंचाक्षविपजा मूर्च्छा जीवान् तुदति दारुणम। जिनमार्ग
टियोंकी निंदा की || १७॥ मुझ पापीने अपने हृदय में विषयोंकी आसक्तता धारणकर केवल विषयभोगोंकी सिद्धि के लिये जैनशास्त्रका अर्थ भी विपरीत ही बतलाया || १८ || मैं अपने मोहनीय कर्मके उदयसे आजतक मी संसारके परिभ्रमणकी आंतिको नहीं समझ सका हूँ, और इसीलिये में संसार के सैकड़ों क्लेशों को भोग रहा हूँ ||१९|| मोहरूपी नींदके कारण जिसमें सबकी चेतना नष्ट हो जाती है; ऐसे इस अपार संसार में सब जीव सो रहे हैं और इसीलिये वे अपने हित अहितको नहीं जान सकते ||२०|| हा हा इस मोहनीय कर्मके उदयसे मैं भी सो गया, मूच्छित हो गया और मेरी चेतना मी नष्ट हो गई । इसीलिये मैं सुख देनेवाले इस जिनमार्गको आज तक नहीं जान सका हूँ ॥२१॥ बुद्धको धारण करनेवाले आत्मन् ! अब विषयोंकी आसक्तिका त्याग कर और जिनागमके विरुद्ध जो मलिन पापवासना है उसका त्याग कर ||२२|| दयाके निधि ध्यान और अध्ययनमें तत्पर तथा मोइरहिन ऐसे जो योगी जिनमार्ग में लीन रहते हैं वे पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे सदा जाग्रत रहते हैं ||२३|| हा हा में मी मोहको छोड़कर कब जगूंगा और मोक्ष देनेवाले जिनमार्ग में सम्यक् चारित्रको धारणकर कब मोक्ष प्राप्त करूँगा ||२४|| मैंने अपने मिथ्या ज्ञानसे सुख देनेवाले जिनधर्मको नहीं जाना और इसीलिये में इस संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ || २५ || अब मैं कब और किस प्रकार जिनधर्मको धारण करूँगा और उम्र जिनधर्मके प्रभावसे में व इस संसार से छूहूँगा ||२६|| पांचों इन्द्रिय रूपी विषसे उत्पन्न होने वाली मूर्च्छा जीवोंको बहुत
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