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भान
1॥३५॥
| मिथ्यामतसुचित्तेन विषयसुखलिप्तया il हा हा दुष्टेन भावेन जिनवाक्यं तिरस्कृतम् । तस्मादेव पर प्राप्ता आधि व्याधिकुतर्जना था जिनाज्ञाविपरीतहि कृतं कर्मतिदारुणम् । हाऽज्ञानतो मया मायाचारेण ननु पापिन। ॥१०॥ तेनैव हेतुना चास्मिन्संसारे पतितोम्यहम् । घोरातिघोरदुःखं हि मेहे वाचामगोचरम् ॥११॥ परवाधाकरं पापं परजीचविराधनम् । परपीडाकर निन्धं दुष्टं कार्य हि चिन्तितम् ॥१२॥ मद्यमांसमधूच्छिष्टं सेवितं पापलिप्सया। मिथ्यामतकुवासेन विषयाभोगकांक्षिणा ॥१३॥ मिथ्यामतोपदेशेन हिंसायां धर्मधीः कृता । हिंसिता बहुधा जीकाः सुषटकायनिकायिकाः ।।१४।। मियामत्तोपदेशेन न ज्ञानं हि हिताहितम् । अनाचारं कृतं नानासुदुष्कर्मप्रदायकम् ॥१५॥ अक्षाद्र काप्रमादाद्वा चित्तचंचलवृत्तितः। मोहभ्रात्यैव न झतं तत्त्वं सत्यंजिनोदितम् ॥१६॥ कुशिक्षया कुसंगत्या मिथ्याशास्रोपदेशतः । मतको धारण करनेके कारण और विषयसुखोंकी इच्छा होनेके कारण मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञापूर्वक तत्त्वोंका चितवन नहीं किया ॥८॥ मुझे दुःख है कि मैंने अपने दुष्ट भावोंसे जिन-वचनोंका अनादर
किया और इसीलिये आधि, व्याधि, ताडन, मारण आदि अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त किये ॥९॥ हा! 2] महामायाचारी और पापी मैंने अपने अज्ञानसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आबाके विपरीत बहुत ही घोर कुकर्म | किये ॥१०॥ इन्हीं सब कारणोंसे मैं इस संसारमें आ पड़ा हूँ और वाणीके अगोचर ऐसे घोरसे घोर दुःख सहन कर रहा हूँ ॥११॥ मैंने दमरोंको दुःख देनेवाले पापोंका चितवन किया, दूसरे जीवोंकी विराधना की, 3 और दूसरोंको पीडा उत्पन्न करनेवाले निंद्य दुष्ट कार्योंका चितवन किया ॥१२॥ मिथ्यामतकी पुरी वासनासे अथवा विषयमोगोंकी आकांक्षासे पापोंकी इच्छा करके ही क्या मानों मैंने मद्य-मासका सेवन किया और उच्छिष्ट मधु वा शहदका सेवन किया ॥१३॥ मैंने मिथ्या मतका उपदेश देकर हिंसामें ही लोगोंकी धर्मरूप बुद्धिकी और छहों कायके अनेक जीवोंकी हिंसा की ॥१४॥ मिथ्यामतके उपदेशसे | मैंने अपना हिताहित नहीं समझा और अनेक प्रकारके दुष्कर्म उत्पम करनेवाले बहुतसे अनाचार किये ॥१५|| इन्द्रियोंके उद्रेकसे अथवा प्रमादसे अथवा चित्तकी चञ्चल वृत्तिसे अथवा मोहसे उत्पन्न होनेवाली प्रतिसे मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए यथार्थ तत्वोंका स्वरूप नहीं समझा ॥१६॥ खोटी शिक्षासे अथवा नीच संगतिसे और मिथ्या शास्त्रोंके उपदेशसे मैंने भगवान् जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका लोप किया और पत्र परमे
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