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पञ्चमोऽधिकारः ॥
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भवापायो राजितो भवनाशकः । स्वात्मोत्थसुखसंलीनो जीयाच्छ्रीअभिनन्दनः ॥१॥ बहिरन्तः - परात्मानमिति ज्ञात्वा स्वरूपतः । स्वात्मानमुद्धरेद्रव्यः संसारदुःस्वपतः ॥ २॥ अनादिकालतः प्राणी अजानन् तत्वसंस्थितिम् । मोहात् हा हा परं दुःखं भुब्जानः स्त्रियते परम् ||३|| अनादिकालतो नूनं भवक्लेशभृता मया । मोहमहात्म्यतः प्राप्तः संतापो हि भवे भवे ||४ || मयायावधिपर्यन्तं न ज्ञातो दुःखमोचकः । सर्वसुखप्रदाता हि जिनमार्गः शिवप्रः ||५|| अनेन कारणेनैव भ्रमान्यत्र भवार्णवे । पापिष्ठेन ततो घोरं कृतं पापमहो गया || ६ || दुरात्मना मया हा हा रम्यं नैव विचारितम् । हितं नाचरितं तेन यभ्रमोमि भवार्णवे ॥७॥ हा हा न विचारितं तवं जिनाशापूर्वकं मया ।
जो संसारके नाशसे उत्पन्न हुए भावोंसे शोभायमान हैं, जो संसारके नाश करनेवाले हैं और आत्मासे उत्पन्न हुए सुखमें लीन हैं ऐसे श्रीअभिनन्दन स्वामी सदा जयशील हों ॥ १ ॥ भव्य जीवोंको इस प्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका स्वरूप उनके स्वरूप के अनुसार समझकर इस संसारके दुःखरूपी कँसे अपने आत्माका उद्धार करना चाहिये ||२|| दुःख है कि यह प्राणी अनादिकालसे वस्तुस्थितिको वा redोंके स्वरूपको नहीं जानता हुआ मोहसे अनेक दुःख भोग रहा है और खेदखिन्न हो रहा है ||३|| संसारके केशों को धारण करते हुए मैंने इस मोहकी महिमा से भत्र भवमें अनादिकालसे अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त किये हैं ||४|| मैंने सब दुःखों को दूर करनेवाले, मोक्षको देनेवाले और सब प्रकार के सुख देनेवाले जिनमार्गका स्वरूप आजतक नहीं जाना ||५|| इसी कारणसे मैं इस संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण कर रहा हूँ और इसीलिये महापापी मैंने अत्यन्त घोरपाप उपार्जन किये हैं || ६ || दुःख है कि मुझ दुष्टने आत्माका हित करनेवाले मनोहर विचार कभी नहीं किये और इसीलिये में भवसागरमें परिभ्रमण कर रहा हूँ ||७|| दुःख है कि अपने हृदयमें मिध्या