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병점
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गृहीत्वा ततो मुंधाम्यहं स्वकम् ॥२७॥ रेरे अात्मन् हृबोकार्थे दुःखदेऽतिविनश्वरे । रविं कृत्वात्र मूढस्त्वं प्राप्तः दुःख| परंपराम् ||२८| गृहीत्वा जिनधर्मं हि बुध्यात्मनं त्यजाम्यहम् | पंचादविषयं सर्वं ध्यात्वा जैनेन्द्रदीर्थपम् ||२६|| भोगाः पंचेन्द्रियोद्भूता दारुणा दुःखदा हहा | अद्यावधि मया मुक्ता रतिं कृत्वा विमोहवः ||३०|| तेभ्यो सुचामि स्वात्मानमधुना जिनमार्गतः । जिनदोक्षां गृहीत्वा चारित्रं च चराम्यहम् ||३१|| निजात्मानं विमुंचामि दुष्टाष्टकर्मशत्रुतः । तीव्रक्लेशकः शत्रुर्न ज्ञातो मोहभावतः ||३२|| हा हायावधि पर्यन्तमनादिकालतो मया । वृथैव गमितः कालो विपयालुग्धचेतसा ||३३|| सज्जातौ सत्कुले जन्म लकवा जैनागमं तथा । तथापि गमितः कालः वृथैव विषये मया ||२४|| | भवक्लेशोद्भवं दुःखं न ज्ञातं सहता मया । हा हा चात्महितं तत्त्वं नाधीतं स्वर्गमोक्षदम् ||३४|| भवान्मुचाम्यहं सः ही दुःख देती है इसलिये मैं जिनधर्मको धारणकर इस संसारसे कम अपने आत्माको अलग करूंगा ||२७|| हे आत्मन् ! तूने अज्ञानता धारणकर दुःख देनेवाले और नष्ट होनेवाले इन इंद्रियों विषयोंमें राग उत्पन्न किया | इसीलिये तूने अनेक दुःखोंकी परंपरा प्राप्त की ||२८|| अब मैं जिनधर्मको धारणकर आत्माका स्वरूप समझकर और भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यानकर पांचों इन्द्रियोंके विषयोंका सर्वथा त्याग करूँगा ||२९|| ये पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए भोग बड़े ही दारुण हैं और बहुत ही दुःख देनेवाले हैं। मोहके कारण मैंने आजतक उनमें प्रेम किया और उनका उपभोग किया ||३०|| अब मैं उन भोगोंसे अपने आत्माको अलग करना चाहता हूँ और जिनमार्गको धारणकर तथा जिनदीक्षाको स्वीकारकर सम्यक् चारित्रका पालन करना चाहता हूँ ||३१|| अब मैं इन आठों कर्मरूपी दृष्ट शत्रुओंसे अपने आत्माको छुड़ाना चाहता हूँ। मैंने अपने तीव्र मोहके कारण तीव दुःख देनेवाले इन कर्मरूप शत्रुओंको आजतक नहीं जाना ॥ ३२॥ हा हा, मैंने अपने चित्तको विषय में आसक्त कराकर अनादि कालसे आजतक व्यर्थ ही कालक्षेप किया ||३३|| मैंने श्रेष्ठ जातिमें तथा सत्कुलमें जन्म लिया और जिनागमका रहस्य जाना, तथापि मैंने विषयोंमें व्यर्थ ही काल गमाथा ॥ ३४ ॥ संसारसे उत्पन्न हुए अनेक दुःख मैंने सहे, तथापि मैंने उनको जाना नहीं । हाय, स्वर्ण मोक्ष देनेवाले और आत्माका हित करनेवाले तत्रोंका अध्ययन भी मैंने नहीं किया ||३५|| अब में इस जिनधर्म के प्रभाव से जिन
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