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सु०प्र०
द्वादशोऽधिकारः।
जितमोह जितकाम कषायचक्रभेदकम् । वीतरागं च सर्वशं भीश्रेयांसं नमाम्यहम् ॥शा अनादितो हि जीवोयं कषायवशतो ननु । संसाराब्धौ त्रुडत्रास्ते नामाक्लेशं सहापि ॥२॥ कषायैरजिनोप्यात्मा कर्नास्रवति वारुणम् । तेन पंचपरावर्ते संसारे भ्रमति ध्रुवम् ॥३॥ कषायेन च यो दग्धः स दग्धः कर्मभिः सदा । स दग्धो नारकैर्दवै दारुणैरति| दुस्सहै: n४) कषायेनैव जम्भेते रागद्वेषौ भयानको। सुदृग्यातकरौ दीर्घसंसारस्य निबंधनौ ॥।॥ कषायेन करोत्यात्मा
घोरं घोरम नवम् । ताहुन मारणं चैव संयमस्वात्र का कथा ॥शा कषायो कमापनो हत्यात्मा चात्मना स्वयम् । | तेनैव बध्यते नित्यं कर्मणा धर्मवैरिणा || मनागपि कपायारणामुदयः स्यात्मघातकः । हालाहलं विषं किंचिद्धनि।
| जिन्होंने मोहको जीत लिया है, काम को जीत लिया है और कपार्योंके समूहको जीत लिया है। ऐसे 18 ] वीतराग सर्वज्ञ भगवान् भेयांसनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ यह जीव कषायोंके वश होकर अनादि
कालसे संसाररूपी समुद्र में या हुआ अनेक प्रकारके कलेश सहन कर रहा है ।।२॥ जो आत्मा कषायोंसे | रंजित रहता है, वह अशुभ कर्मोंका आस्रव करता रहता है और उन अशुभ कर्मोंके उदयसे पंचपरावर्वनरूप संमारमें परिभ्रमण किया करता है ॥३॥ जो जीव कषायोंसे दग्ध रहता है, वह सदा कोंसे भी दग्ध रहता है
और अत्यन्त असह्य नरकों के दारुण दुःखोंसे भी सदा दग्य रहता है ॥४॥ इन कपार्योसे ही दीर्घ संसारको | बढ़ानेवाले और सम्यग्दर्शनका घात करनेवाले भयानक राग-द्वेप बढ़ते हैं ॥५॥ इन कषायोंके निमित्तसे यह HE आत्मा नये नये घोर पापोंको करता है, तथा ताडन मारण करता है । ऐसी हालत मला संयम धारण कैसे हो
| सकता है ? ॥६॥ इन कषायोंके उद्रेकको प्राप्त हुआ आत्मा अपने द्वारा अपने ही आत्माका घात करता है और