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किन मुखे गतम् ।।३। कषायाक्रान्तजीवानां दुष्टक्रोधादिकात्मनाम् । न कापि संयमस्तेषां न ध्यानाध्ययनं तपः ॥६॥ कषायवशगो जीवः संयम इति पापतः । संयमस्य विनाशेन स्यादनर्थपरंपरा ॥१०॥ अनादिकालसंभूनः कपायैस्तय चेतना । दग्धात्मन् किं तदा स्यादा ध्यानं शुद्ध च संयमम् ॥१।। कषाववशतो नूनं पातोऽधोऽधो भवे भवे । जन्ममृत्युभयक्लेशसंतापाश्च निरन्तरम् ॥१२|| वरं हालाहलपानमेकजन्मत्रिधातकम् । नैवोकः कषायाणामनेक जन्मघातकः ।।१३।। कषायस्योदयेनैव मनस्तापः प्रजायते । इन्द्रिया विकारोऽत्र शरीरस्य च कंपनम् ॥१४॥ इति योगत्रयस्यापि चांचल्यं स्याच तीव्रकम् । तेन शीघ्र दयाधर्मो नश्यत्येव न संशयः ॥११॥ कपायेन पिता पुर्व पुत्रश्च पितरं नथा। हन्ति तस्मात्कषायाणामुदये की विचारकः ॥१॥ सर्वसंगं परित्यज्य कृत्वा च परमं तपः । स्यात्कषायोदयस्तत्र सर्वमेत.
| फिर उसी पापसे धर्मको घात करनेवाले कोंक द्वारा बंध करता रहता है ॥७॥ कपायोंका थोडासा भी उदय |
आत्मघात करनेवाला है, सो ठीक ही है क्योंकि मुखमें प्राप्त हुआ हलाहल विष क्या आत्मघात नहीं कर सकता है | | अवश्य करता है ॥८॥ दुष्ट क्रोधादिक कषायोंके वशीभून हुए जीवोंके थ्यान, अध्ययन, तप और संवम आदि | कभी नहीं हो सकते ॥९॥ कषायोंके वशीभूत हुआ यह आत्मा पापके कारण अपने संवमका नाश कर देता है | और संयमका नाश होनेसे अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं ॥१०॥ हे आत्मन् ! अनादि कालसे उत्पन्न हुए | अपने कषायोंसे तूने अपनी शुद्ध वेतनाका नाश कर दिया है। फिर भला तुझे शुद्ध ध्यान और शुद्ध संयम |
कैसे हो सकता है ? ॥११॥ इन कषायोंके निमितसे इस जीवका भव भत्रमें नीचे नीचे पतन होता जाता है तथा ail जन्म-मरण, भय-क्लेश और संताप आदि निरंतर होते रहते हैं ॥१२॥ एक जन्मका घात करनेवाला इलाहल
विषका पी लेना अच्छा है, परंतु अनेक जन्मों तक घात करनेवाले कपार्योंका उद्रेक होना अच्छा नहीं है ।।१३॥ कषायोंके उदयसे ही मनको संताप होता है, इन्द्रियोंमें विकार होता है और शरीर कंपने लगता है ।।१४। इम | प्रकार कषायके निमित्तसे मन वचन काय तीनोंमें तीव्र चञ्चलता हो जाती है तथा योगोंके चञ्चल होनेसे दया धर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है ।।१५।। कषायके उदयने पिता पुत्रको मार डालता है |
और पुत्र पिताको मार डालता है। कषायोंके उदय होनेपर कोई भी श्रेष्ठ विचार नहीं कर सकता ॥१६॥ Fel समस्त परिग्रहोंका त्यागकर श्रेष्ठ तपश्चरण करते हुए यदि कषायोंका उदय हो जाय तो फिर समस्त तपश्चरण