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निरर्थकम् ॥१७॥ देवयोगात्कथंचिस्यात्सलभ व्रतधारणम् । कषायादिनृशंसेभ्यो रक्षणं दुलभं मतम् ॥१८॥ कपायसु०प्र०
बैरिसंपाते सर्वकषेतिदुःखदे । यध्यानं जपस्तपांवृत्तं सर्वचस्यानिरर्थकम् ॥१धाअत एव हि योगीन्द्राः सुखाध्यायामृतेन वा।
कषायस्योदयं हत्वा ध्यायन्ति स्वं च सुस्थिरम् ॥२०॥ अक्षीद्रको मनस्वापः कपायस्योदयस्तथा । स्वाध्यायेनैव चैकन ॥१०१॥
शाम्यन्त्येते यतः स्वयम् ॥शा कषायशमनार्थ हि स्वाध्यायः परमौषधम् । स्वाध्यायस्य प्रभावेण सर्व शाम्यति निश्चितम् ॥२२॥ कषायविपशान्त्यर्थं स्वाध्यायो दिव्यमन्त्रकम् । तत्क्षणं येन शीघ्र हि शान्तिः स्यात्सर्वहर्षदा ॥२३|| कषायाग्निप्रभावेण दह्यमानं व्रता दकम् । स्वाध्यायमैत्रधाराभिस्तत्क्षणेऽङ्करितं भवेत् ॥२४॥ यदा यदा कायाग्नि दहति स्त्रात्ममन्दिरे । तपोध्यानं तदारमन त्वं स्वाध्यायात शामय परम् ॥२४॥ रत्नत्रयतपोभ्यानसंचमादीनि रत्क्षणान् । निर्दयों दहति क्रोधः स्वपरं च ततस्ततः ।।२६।। क्रोधस्य न विवेकोस्ति विचारापि न वा क्वचिन् । यस्मात्त्वस्वामिनं
निरर्थक ही समझना चाहिये ।।१७॥ श्यपोकसेवामा पार करना सरल है, परंतु मनुष्योंकी हत्या करनेवाले । | रूपायोंसे आत्माकी रक्षा करना अत्यन्त कठिन है।॥१८॥ इन कषाघरबप शत्रुओंका उदय सबको दुःख देनेवाला | है और सबको पीडा पहुँचानेवाला है, इन कपायोंके होनेसे ध्यान जप तप चारित्र आदि सब निरर्थक हो जाते | हैं ॥१९॥ इसलिये मुनिराज अपने स्वाध्यायरूपी अमृतले कपायोंका नाश कर देते हैं और अपने आत्माका | ध्यान करते हैं ॥२०॥ इंद्रियोंका उद्रेक, मनका संताप और कषायोंका उदप एक स्वाध्यायसे ही अपने आप शांत हो जाते हैं ॥२१।। कषायों को शांत करनेके लिये स्वाध्याय परम औषधि है, इस स्वाध्यायके प्रभाव से सब शांत हो जाते हैं ॥२२।। कषायरूपी विपको शांत करने के लिये स्वाध्याय परम दिव्य मन्त्र है। इस स्वाध्यायसे उसी क्षणमें लवको प्रसन्न करनेवाली शांति शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ॥२३॥ कषायरूपी अनिके प्रभावसे जले हुए व्रतादिक स्वाध्यायरूपी मेघ की धारासे उसी क्षणमें पुनः अङ्कुरित हो जाते हैं ।।२४॥ हे आत्मन् ! तेरे आत्मरूप महलमें जब २ कपाथरूपी अग्नि जल उठे, तभी तू तप और ध्यानको स्वाध्यायसे शांत कर
२५॥ यह क्रोध-कषाय रत्नत्रय, तप, ध्यान और संयम आदिको निर्दय होकर जला देता है तथा अपने
आत्माको भी जला देता है ॥२६॥ क्रोधमें न विवेक रहता है, न विनार रहता है । यह क्रोध पहले अपने hell स्वामी आत्माको जलाता है, फिर पीछे मरेको मारता है ॥२७॥ यह क्रोधरूपी प्रचण्ड अग्नि क्षमासे