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ध्रुवम् ||६६|| तपसा स्वर्गसम्पत्तिस्तपसा चक्रिणः पदम् । सर्वद्धयः प्रजायन्ते तपसा च शिवो भवेत् ॥ ६७॥ दशधर्मेण सार्द्धं यस्तपश्चरति भावतः । कर्माद्रिभेदनं कृत्वा प्रयाति शिवमन्दिरम् ||६|| जिनवरशुभमार्गदीपिकाः शांतिरूपाः परमसमितयो मान्याः सदा तीर्थनार्थः । सकलभुवनमान्यं सतपो द्वादशात्म अवतु श्रवतुशीघ्र मां भषाद्वा सुधर्मः ॥६६॥ इति सुधर्म ध्यान दीपालंकार समितितपावननामैकादशोऽधिकारः ।
पार कर देने वाला है ॥६६॥ इस तपश्चरणसे स्वर्गकी संपदा प्राप्त होती है, तपसे ही चक्रवर्तीका पद प्राप्त होता है, तपसे ही समस्त ऋद्धियां प्राप्त होती हैं और तपसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ६७ ॥ जो पुरुष भावपूर्वक दश धर्मो के साथ साथ इस तपश्चरणको पालन करता है, वह कर्मरूपी पर्वतको नाशकर मोक्षमहल में अवश्य ही जा पहुँचता है ||६८॥ ये पांचों समतियां भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शुभ मार्गको दिखाने के लिये दीपक के समान हैं, अत्यन्त शांत रूप हैं और तीर्थकरोंके द्वारा सदा मान्य हैं। इसी प्रकार बारह प्रकारका तपश्चरण तीनों लोकोंमें मान्य है । इस प्रकार समिति और तपश्चरणरूप श्रेष्ठ धर्म इस
मासे शीघ्र ही मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो ||६९॥
इस प्रकार श्रीमुनिराज सुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में समिति और तपश्चरणको वर्णन करनेवाला यह ग्यारहवां अधिकार समाप्त हुआ ।
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