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स्वध्यायो हि परं भानुमहान्तविनाशकः । जायते स्वात्मविज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् ॥५८॥ स्वाध्यायतपसा नूनं कर्मप्रथिः प्रभिद्यते । आत्मा शीघ्रं शिवं याति कर्मकाष्ठविभेदनात् ॥५६॥ अन्यचिन्तां निराकृत्यैकामयोगेन चिन्तनम् । ध्येयस्य स ध्यानं चतुर्धा वर्णित जिनैः ॥ ६०॥ सर्वसंगपरित्यागान्नित्सङ्गत्वं प्रपगते । ममत्वमोहभावस्य यत्र त्यागां विधीयते ||६१|| तद्व्युत्सर्गतपो ज्ञेयमाकिंचन्यप्रदर्शकम् । शरीरे नित्यं वा परवस्तुसुदूरम् ॥६॥ नी द्वादशभेदं तत्संक्षेपेणैव वखितम्। तपो वर्णयितुं नेत्र राकोहमल्पबोधतः ॥ ६३॥ तपः शक्तिप्रमाणेन कर्तव्यं मोक्षकां क्षिभिः । तपःरुमं त्रिलोकेऽस्मिशान्यत्कर्मक्षयंकरम् ॥ ६४ ॥ तपसा भिद्यते कर्म यथा षत्र पर्वताः । तीर्थंकरैधृतं कर्माद्रि चूय स्वयं हि तत् ॥ ६५|| त्रिकाले च त्रिलोकेऽस्मिन न स्यान्मोक्षस्तयां विना | संसाराब्धेस्तुत नौका पारं संकुरुते
लोकको प्रकाशित करनेवाला आत्मज्ञान प्रगट होता है ।। ५८ ।। इस स्वाध्यायरूपी तपश्वरणसे कर्मोंकी गांठ शीघ्र ही खुल जाती है, तथा कर्मोंकी गांठ खुल जानेसे अर्थात् कर्मरूपी कलङ्कके नाश हो जानेसे यह आत्मा शीघ्र ही मोक्षमें जा पहुँचता है ||५९ || अन्य समस्त चितवनको हटाकर किसी ध्येय पदार्थको एकाग्र चित्तसे चितवन करना ध्यान कहलाता है । यह ध्यान भगवान जिनेन्द्रदेवने चार प्रकारका बतलाया है ॥ ६० ॥ जब यह जीव समस्त परिग्रहोंको त्यागकर परिग्रहरहित अवस्थाको प्राप्त होता है तथा मोह और ममत्व भावोंका सर्वथा त्याग कर देता है, उसको व्युत्सर्ग नामका तप कहते हैं, यह व्युत्सर्ग तप आकिंचन्यको प्रकाशित करनेवाला है, शरीर से निस्पृहता दिखलानेवाला है और परवस्तुओंसे सर्वथा अलग है ।।६१-६२ ।। इस प्रकार इस बारह Area artist संक्षेपसे वर्णन किया है। में अल्पज्ञानी हूँ, इसलिये मैं तपश्वरक्षका वर्णन भी नहीं कर सकता ||६३|| मोक्षकी इच्छा करनेवालोंको अपनी शक्तिके अनुसार तपश्चरण करना चाहिये । क्योंकि इस तपश्चरण के समान तीनों लोकोंमें कर्मोका नाश करनेवाला अन्य कोई नहीं है ||६४ || जिस प्रकार वज्रसे पर्वत चूर चूर हो जाते हैं, उसी प्रकार इस वपथरणसे कर्म भी चूर चूर हो जाते हैं । इन कर्मरूपी पर्वतों को चूर चूर करने के लिये तीर्थंकर भी स्वयं इस तपश्चरणको धारण करते हैं ॥ ६५ ॥ तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें इस तपके बिना कभी मोक्ष नहीं हो सकता । यह तप इस संसाररूपी समुद्रसे नाव के समान अवश्य
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