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-मु० प्र०
॥। ६६ ॥
おおおおおおお学学
तीर्थयात्रा विहारेण चात्यन्तखेदितात्मनाम् ॥४६॥ तेषामाहारसुक्षुषोपधित्रासादितः खलु । वैयावृत्यं सुभक्त्यैव विधातव्यं मुनीश्वरैः ॥५०॥ धर्मवत्सज्जनानां तु धर्मप्रीत्या सुभावतः । परस्परं विधातव्यं वैयावृत्त्यं मनोहरम् ||५१|| सन्मानाहारदानाय पत्रहादिविधानकैः । रथोत्सव प्रतिष्ठायां वैयावृत्यं विशेषतः ||५२ ॥ धर्मप्रभावनार्थं हि धवृद्ध गुरणाप्तये । वैयावृत्यं सदा कार्य सुनीयां तु विशेषतः ॥१५३॥ | वैयावृत्त्यस्य माहात्म्यं सम्यग्जानन्ति सार्थपाः । वैयावृत्येन चैकैन सानन्तश्रीः जायते ॥५५|| स्वाध्याय पंचधा ज्ञेयः वाचनादिप्रभेदतः । मनोतरोधतः हेताः स्वाध्यायां हि परं तपः ||२५|| स्वाध्यायाद्धि मनः साक्षात्सम्यग्ज्ञाने प्रवर्तते । स्वाध्यायाश्च भवेत्तस्मान्मनोज्ञनिप्रहे । महान् ||५६ || स्वाध्यायान्न परं श्रेष्ठमात्मबोधकरं परम् । मोहान्धचक्षुषं नृणां स्वाध्यायों दिव्यमौषधम् ||२७|| आत्मगुणोंका उत्कर्ष होता है और गुणोंकी प्राप्ति होती है ||४८|| जो मुनि बालक हैं, वा वृद्ध हैं, रोगसे पीड़ित हैं, तीर्थयात्रा विहारसे अत्यन्त खेदखिन्न हैं, ऐसे मुनियोंको आहार, औषधि, वसति आदिका दान देकर तथा उनकी सेवा-सुपाकर भक्तिपूर्वक मुनियों को वैयावृत्य करना चाहिये ||४९-५० ॥ मुनियों को धर्म धारणकर श्रेष्ठ भावसे धार्मिक सज्जनोंका वैयावृत्य करना चाहिये, तथा परस्पर भी वैयावृत्य करना चाहिये ॥ ५१ ॥ रथोत्सव के समय अथवा प्रतिष्ठा आदि कर्मोंके समय आदर सत्कारकर, आहारदान देकर, तथा और भी उपकारकर विशेष वैयावृत्य करना चाहिये ॥ ५२ ॥ धर्मकी प्रभावना करनेके लिये धर्मकी वृद्धि के लिये और गुणोंको प्राप्त करनेके लिये मुनियोंका विशेष रीति से सदा वैयावृत्य करते रहना चाहिये ||३|| इस वेावृत्य के माहात्म्यको तीर्थंकर ही अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि इस एक ही वैयावृत्य से अनंत चतुष्ट्यरूप लक्ष्मी उत्पन्न होती है ॥५४॥ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेदसे स्वाध्याय के पांच भेद हैं, इस स्वाध्यायमें भी मन और इंद्रियोंका निरोध होता है, इसलिये यह भी श्रेष्ठ तप कहलाता है ||२५|| स्वाध्याय से यह मन साक्षात् सम्पम्ज्ञानमें प्रवृत्त होता है। इसीलिये स्वाध्यायसे इंद्रिय और मनका निरोध माना जाता है ||५६|| स्वाध्यायसे बढ़कर आत्मज्ञान उत्पन्न करनेवाला अन्य कोई श्रेष्ठ नहीं है। जिनके ज्ञाननेत्र मोहरूपी अन्धकारसे मलिन हो रहे हैं, उनके लिये यह स्वाध्याय दिव्य औषध है
॥५७॥ यह स्वाध्याय मोहरूपी अन्धकारको नाश करनेके लिये श्रेष्ठ सूर्य है। इस स्वाध्यायसे ही लोक
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